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राष्ट्रभाषा हिन्दी की समस्याएँ | राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का भविष्य

राष्ट्रभाषा हिन्दी की समस्याएँ | राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का भविष्य

राष्ट्रभाषा हिन्दी की समस्याएँ

हिन्दी भारत की प्रमुख भाषा है जो इस देश के बहुसंख्यक लोगों द्वारा बोली जाती है। मोटे तौर पर इसे बोलने वालों की संख्या 50 करोड़ के आस-पास है। उत्तर भारत के हिन्दी भाषी राज्यों-उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान के अतिरिक्त अन्य अनेक प्रान्तों-महाराष्ट्र, पंजाब, गुजरात, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, जम्मू कश्मीर में भी हिन्दी बोली-समझी जाती है। सम्पूर्ण देश में हिन्दी ही एकमात्र ऐसी भाषा है, जिसका व्यवहार सर्वाधिक जनसंख्या द्वारा सर्वाधिक भू-भाग में होता है। ऐसी स्थिति में वह राष्ट्र भाषा बनने के लिए सबसे अधिक उपयुक्त भाषा है। विस्तृत शब्द-भण्डार, समृद्ध-साहित्य, वैज्ञानिक-लिपि एवं राष्ट्रीय एकता में सहायक होने के कारण ही हिन्दी भारत की राष्ट्र भाषा के ‘पद’ पर प्रतिष्ठित है, किन्तु हिन्दी के कतिपय विरोधी अपने क्षेत्रीय स्वार्थों एवं राजनीतिक हितों को दृष्टिगत रखते हुए हिन्दी के विरोध पर उतारू हैं। सर्वप्रथम हम उन अवरोधों का उल्लेख करेंगे जो हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में स्थापित नहीं होने देना चाहते।

(1) अहिन्दी भाषी प्रान्तों के लोग हिन्दी के वर्चस्व को स्वीकार करने को मनःस्थिति नहीं बना पाते।

(2) अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के लोगों को यह आशंका है कि हिन्दी को महत्व मिल जाने से नौकरियों में हिन्दी क्षेत्रों के निवासियों का बोलबाला हो जायेगा और हम पिछड़ जायेंगे।

(3) राजनीतिक कारणों से भी हिन्दी का विरोध है। ‘हिन्दी लादी नहीं जा सकती’ का तर्क दक्षिण भारत में प्रायः दिया गया है।

(4) अंग्रेजी भाषा के भक्त सरकारी अधिकारी भाषा के आधार पर अपना बर्चस्व बनाये रखना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि जनता की भाषा हिन्दी सरकारी कामकाज की भाषा बनकर उनके वर्चस्व को समाप्त कर दे।

इन अवरोधों के बावजूद हिन्दी अपने विकास पथ पर अग्रसर है और राष्ट्र भाषा के पद पर प्रतिष्ठित है। जब तक हम हिन्दी के प्रश्न को अपने स्वाभिमान और आत्मगौरव से नहीं जोड़ेंगे, तब तक इसका सर्वांगीण विकास नहीं कर सकते और इसे व्यावहारिक रूप में राष्ट भाषा तथा राज भाषा नहीं बना सकते। इस सम्बन्ध में भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा ज्ञान के मिटै न हिय को सूल।।

राष्ट्रभाषा हिन्दी की समस्या

राष्ट्रभाषा हिन्दी की समस्या एवं समाधान राष्ट्रभाषा हिन्दी की समस्या एवं समाधान इस प्रकार है-

(1) क्लिष्टता- हिन्दी के विरोधी हिन्दी पर क्लिष्टता का आरोप लगाते हुए कहते हैं कि हिन्दी कठिन भाषा है, जिसे सीखने में तो परेशानी है ही, साथ ही इसके प्रयोग में भी दिक्कतें हैं। इस प्रकार के विरोध के सूत्रधार अंग्रेजी समर्थक हैं, जो हिन्दी की पारिभाषिक शब्दावली को कठिन बताकर अंग्रेजी के प्रयोग को जारी रखना चाहते हैं। वे अधिशासी अभियंता, कुलसचिव, पदाधिकारी, जिलाधीश शब्दों को कठिन मानते हुए इनके स्थान पर एक्जीक्यूटिव इंजीनियर, रजिस्ट्रार, ऑफीसर, कलेक्टर शब्दों का प्रयोग करने में सुविधा मानते हैं।

वस्तुतः उनकी यह आपत्ति तर्कसंगत नहीं है। कोई भाषा तभी तक कठिन लगती है, जब तक उसका प्रयोग न किया जाये। जब हिन्दी के ये शब्द प्रचलन में आ जायेंगे तो कठिन नहीं लगेंगे। डॉ. रामविलास शर्मा ने अनेक उदाहरण देकर यह सिद्ध किया है कि अंग्रेजी की अपेक्षा हिन्दी कहीं सरल है उनका मत है कि ‘हिन्दी में शरीर सम्बन्धी शब्दावली सरल और सामान्य व्यक्ति के उच्चारण योग्य है, जबकि अंग्रेजी के पारिभाषिक शब्दों का उच्चारण अपेक्षाकृत कठिन है।’

(2) पारिभाषिक शब्दावली का अभाव- हिन्दी विरोधियों का एक तर्क यह भी है कि हिन्दी में पारिभाषिक शब्दावली का अभाव है, जिससे विभिन्न विषयों से सम्बन्धित पुस्तकों का निर्माण हिन्दी में नहीं हो सकता। यह तर्क भी अनुचित है, क्योंकि आज हिन्दी की पारिभाषिक शब्दावली अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में सर्वाधिक सम्पन्न है। केन्द्रीय सरकार के प्रयास से वैज्ञानिक, तकनीकी, प्रशासनिक एवं विधि-शब्दावली कोश तैयार किये गये हैं ।आज हिन्दी में विविध विषयों से सम्बन्धित मौलिक पुस्तकों की रचना हो रही है और वह किसी प्रकार से भी अंग्रेजी से पीछे नहीं है।

(3) शिक्षा स्तर में गिरावट की आशंका- कुछ अंग्रेजी परस्त लोगों की यह भी आशंका है कि यदि हिन्दी के माध्यम से शिक्षा दी जाने लगी तो शिक्षा स्तर में गिरावट आ जायेगी, किन्तु यह आशंका भी पूरी तरह आधार विहीन है। दुनियाँ के बहुत सारे देशों में शिक्षा का माध्यम वहाँ की अपनी भाषा है, किन्तु शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में वे बहुत विकसित हैं। जापान, रूस, जर्मनी एवं चीन में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी न होकर अपने देश की भाषा है, किन्तु वे तकनीकी तथा औद्योगिक क्षेत्र में पर्याप्त विकसित देश माने जाते हैं।

(4) हिन्दी क्षेत्रों में वर्चस्व का भय- अहिन्दी भाषी प्रान्तों को यह भी भय है कि यदि हिन्दी को राष्ट्र भाषा का दर्जा मिल गया तो हिन्दी भाषी प्रदेशों में रहने वाले लोगों को लाभ मिलेगा। सरकार की ऊंची नौकरियों में हिन्दी क्षेत्र के निवासियों का वर्चस्व हो जायेगा। शासन और प्रशासन में हिन्दी छा जाने से अन्य प्रान्तों के लोगों की उपेक्षा होने लगेगी, किन्तु उनके इस भय का भी कोई सुदृढ़ आधार नहीं है। हमारे संविधान ने यह गारण्टी दी हुई है कि भाषा, धर्म, जाति, आदि के आधार पर कोई पक्षपात नहीं होगा।

(5) राष्ट्रीय एकता में बाधक- दक्षिण भारत के कुछ राज्यों, विशेषकर तमिलनाडु में हिन्दी का प्रचण्ड विरोध है। भले ही राजनीतिक कारणों से हिन्दी का विरोध होता हो, किन्तु यह सत्य है कि तमिलनाडु की प्रान्तीय सरकारें हिन्दी को सरकारी कामकाज की भाषा बनाये जाने तथा उसे राष्ट्र भाषा एंव सम्पर्क भाषा बनाये जाने का निरन्तर विरोध करने पर ही टिकी रह सकी है। यदि हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाया जाता है तो तमिलनाडु जैसे कट्टरपंथी राज्य भारत संघ से अलग होने की मांग करने लगेंगे और इस प्रकार भारत की अखण्डता खतरे में पड़ जायेगी।

विरोध के स्तर भी भावात्मक अधिक हैं, उनमें तर्क का पुट नहीं है। हिन्दी विरोधी इन्हीं बातों को हिन्दी की समस्याओं का नाम देते है।

हमारा यह दायित्व है कि हम हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में और अधिक सशक्त बनायें और इसे वह सम्मान दिलाये, जिसकी यह वास्तव में अधिकारणी है। इस हेतु हमें अपने प्रयास निरन्तर जारी रखने हैं। हम अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में हिन्दी का प्रचार करें, हिन्दी को सरल, व्यावहारिक एवं सशक्त बनायें, उसके शब्द-भण्डार में वृद्धि करें, क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ की दृष्टि छोड़कर देशहित पर ध्यान दें तथा अंग्रेजी का प्रयोग बन्द करें। यदि हमने इस दिशा में अपने प्रयास जारी रखे तो हिन्दी निश्चित रूप से भारत की राष्ट्र भाषा बन सकेगी।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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