चीन-जापान युद्ध | प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व जापान का एक शक्ति के रूप में उदय
चीन-जापान युद्ध | प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व जापान का एक शक्ति के रूप में उदय
चीन-जापान युद्ध
मेइजी पुनःस्थापना के बाद जापान ने अपनी सुदृढ़ आर्थिक व्यवस्था और सशक्त सेना के द्वारा अपनी राष्ट्रीय सीमाओं का विस्तार किया। जापानी साम्राज्यवाद का शिकार विशालकाय चीन भी हुआ। जापान ने चीन से 1874 में क्षतिपूर्ति के नाम पर धन भी वसूल किया और 1876 ई० में सखालीन पर अधिकार भी कर लिया।
चीन-जापान संघर्ष-
पश्चिम का प्रभाव एशिया में सर्वाधिक जापान पर हुआ। जापान में साम्राज्यवादी भावना का विकास हुआ। जापान ने कोरिया के प्रश्न को लेकर चीन को हरा दिया।
जापान में तोकूगावा के पतन के पश्चात् 1868 ई० में आधुनिक युग का प्रारम्भ हुआ। जापान कोरिया पर अधिकार करना चाहता था, जबकि कोरिया चीन के प्रभाव क्षेत्र में था। जापानी चीन के भू-भाग पर अधिकार करना चाहते थे और सुदूर-पूर्व में रूस के प्रभाव को रोकने के लिए कोरिया पर अधिकार करना आवश्यक था।
1875 में कोरियाई सैनिकों ने जापानी जहाज पर गोली चलाकर अपने लिए संकट बुला लिया। चीन ने कोरिया-जापान की प्रत्यक्ष बातचीत कराकर जापान को कोरिया के साथ व्यवसाय संधि करने का सुअवसर प्रदान किया, जिसका जापान, ने पूरा फायदा उठाया। धीरे-धीरे कोरिया पर जापान का प्रभाव बढ़ता गया। कोरिया ने चीन की सलाह पर अन्य देशों से संधियाँ कीं।
1881 के भयंकर अकाल से कोरिया की जनता ने जापानी दूतावास पर आक्रमण कर दिया। इस पर जापान ने क्षतिपूर्ति की मांग की और क्षतिपूर्ति प्राप्त की। आगे चलकर चीन-जापान दोनों ने कोरिया में हस्तक्षेप न करने और अपनी-अपनी सेनाओं को वहां से हटाने को सन्धि को। अब चीन-जापान दोनों की स्थिति कोरिया में समान हो गई। इस समय जापानी चीन से युद्ध करना चाहते थे, परन्तु उस समय की अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति जापान को युद्ध करने से रोक रही थी।
कोरिया सरकार ने दीवारों पर विदेशियों के विरोध के नारे लिखने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इसके विरोध में हुए विद्रोह को दबाने के लिए चीन से सहायता मांगी गई। चीन ने सन्धि उल्लंघन कर जापान को बिना बताये सेना भेज दी। फलस्वरूप जापान की एक बड़ी सेना कोरिया भेजी गयी। चीन-जापान नौ-सैनिकों की यालू-नदी पर लड़ाई हुई, स्थल सेना की मुठभेड़ मंचूरिया में हुई, दोनों युद्धों में जापान की विजय हुई, अमेरिका की मध्यस्थता के कारण 1895 में शिमोनोस्की में दोनों देशों की सन्धि हुई। इस सन्धि ने जापान को एशिया की निर्विवाद शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया।
ऑग्ल-जापान सन्धि-
चीन पर विजय प्राप्त करने के बाद जापान का उदय एक शक्ति के रूप में हो चुका था। इस शक्ति को उस समय के बेताज बादशाह इंग्लैण्ड ने भी स्वीकार किया और 1902 में इंग्लैण्ड-फ्रांस सन्धि हुई। इस सन्धि ने जापान को विश्व में एक सम्मान दिलाया। अब जापान अपने शत्रु रूस को सबक सिखाने के मौके खोजने लगा।
रूस-जापान युद्ध-
चीन पर विजय से जापान के हौसले बुलन्द थे। इसी समय अंग्रेजों से सन्धि हो जाने के कारण जापान अपने पुराने शत्रु रूस को पराजित करने के लिए अत्यधिक उत्साहित था। जापान को इंग्लैण्ड के अलावा अमेरिका का भी समर्थन प्राप्त था जबकि रूस को फ्रांस व जर्मनी की मदद मिल रही थी।
चीन-जापान युद्ध और आंग्ल-जापान सन्धि के द्वारा जापान ने कोरिया पर अपना पूर्ण अधिकार स्थापित कर लिया था, परन्तु रूस ने मंचूरिया से अपनी सेनायें वापस नहीं बुलायी तथा पोर्ट आर्थर पर अपना नौ-सैनिक अड्डा और स्थापित कर लिया था। जापान इसको सहन नहीं कर पा रहा था।
कोरिया में अपने हितों की रक्षा के लिए जापान ने रूस से युद्ध करने का निश्चय किया। यह युद्ध चीन की भूमि पर लड़ गया। 1905 में हुए इस युद्ध में जापान की विजय हुई। 1905 में रूस में हुई क्रान्ति ने रूस को जापान के साथ सन्धि करने के लिए विवश कर दिया। अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट की मध्यस्थता से रूस व जापान में पोर्टसमाउथ में सन्धि हुई । इस सन्धि के द्वारा कोरिया में जापान के हितों को स्वीकार किया गया, मंचूरिया से रूसी सेनायें हट गई। सखालीन का आधा भाग लाओतुंग जापान को मिल गया।
इस प्रकार चीन-जापान युद्ध से एक कदम आगे बढ़कर जापान ने जापान-रूस युद्ध से अपने को विश्व-शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया। चीन और रूस को हराकर जापान को एक नया सम्मान प्राप्त हुआ। एशिया में नई आशा का संचार हुआ। निःसन्देह दो युद्धों ने जापान का उदय् विश्व में एक शक्ति के रूप में कर दिया और रही-सही कसर को इंग्लैण्ड ने जापान से सन्धि करके पूरा कर दिया। केवल इन तीन घटनाओं ने जापान को विश्वशक्ति के रूप में पहुंचा दिया।
“मैं श्रीमान के साथ नष्ट हो जाउँगा, किन्तु संसद के इस संघर्ष में आपका साथ नहीं छोडूंगा।”
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