इतिहास / History

उड़ीसा के मन्दिर | उड़ीसा के मन्दिरों की प्रमुख विशेषताएं | उड़ीसा के मन्दिरों पर निबन्ध

उड़ीसा के मन्दिर | उड़ीसा के मन्दिरों की प्रमुख विशेषताएं | उड़ीसा के मन्दिरों पर निबन्ध

उड़ीसा के मन्दिर

उड़ीसा ब्राह्मण सम्प्रदाय की कला का अनूठा और विशुद्ध केन्द्र है, जिस पर विजातीय कलाओं का प्रभाव नहीं पड़ा है। यहां के मन्दिर वास्तु के दो प्रधान भाग हैं- (1) विमान (Towered Sanctuary) और (2) जगमोहन (Audience Chamber) | विमान और जगमोहन दोनों ही वर्गाकार निर्माण किए गए हैं। भुवनेश्वर और जगन्नाथपुरी के मन्दिरों में दो विशेषताएँ और है-(3) नाट्यमन्दिर और रंगमण्डप और (4) भोगमन्दिर जहां दान आदि दिया जाता है। साधारण मन्दिरों का टिकाव सीधा जमीन पर ही है। किन्तु बड़े और महत्वपूर्ण मन्दिर चबूतरों पर अवस्थित हैं। यह कहना भ्रमपूर्ण है कि उड़ीसा के सभी मन्दिर चबूतरों से रहित होने के कारण बूचे लगते हैं। कोणार्क के मन्दिर का भव्य चबूतरा अभी तक अपनी मनोहरता लिए हुए विद्यमान है।

उड़ीसा मन्दिरों को एक दूसरे से पृथक रूप में अध्ययन करने के लिए पार्श्वस्तम्भ या थमलों (Pilasters) की जांच करनी चाहिये। ये एक प्रकार के स्तम्भ हैं, जो चौकोर आकार वाले होते हैं और मन्दिर के बाह्य पार्श्व में होते हैं।

उड़ीसा मन्दिरों को निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-

(1) एकरथ देवल- इसमें पाग-स्तम्भ नहीं होते हैं।

(2) त्रिरथ- जिसमें बीच में एक रथपाग स्तम्भ और दो कोनकपाग स्तम्भ होते हैं।

(3) पञ्चरथ- इसमें एक रथपाग स्तम्भ, दो कोनकपाग स्तम्भ और दो अनर्थपाग स्तम्भ अथवा मध्यस्थ स्तम्भ होते हैं।

(4) सप्तरथ- इसमें केन्द्रीय रथपाग स्तम्भ, दो कोनकपाग स्तम्भ, चार अनर्थपाग स्तम्भ (जिनमें दो परि अनर्थपाग स्तम्भ भी हैं) होते हैं।

(5) नवरथ- इसमें केन्द्रीय रथपाग स्तम्भ, चार कोनकपाग स्तम्भ (जिनमें दो परिकोनक पाग स्तम्भ भी हैं) होते हैं।

इन मंन्दिरों में से नवरय ब्राह्मणों के लिए, सप्तरथ क्षत्रियों के लिए, पञ्चरथ वैश्यों के लिए और त्रिरथ शूद्रों के लिए व्यवहृत होते हैं। नवरथ मन्दिर का कोई उदाहरण अब नहीं मिलता।

उड़ीसा के मन्दिरों के तल से लेकर चोटी तक के बहुत से भाग होते हैं, जिनके अपने- अपने परिभाषिक नाम है, तो भी यहां लिंगराज मन्दिर के विभिन्न अंगों के नाम दिए जा रहे हैं, जिनमें से अधिकांश अन्य मन्दिरों में भी पाये जाते हैं।

भारतीय शिल्पकला की प्रमुख प्रणालियां तीन हैं-द्रविड़ प्रणाली, चालुक्य प्रणाली और आर्य प्रणाली। द्रविड़ प्रणाली में मन्दिर की बनावट खाका चौकोर होता है और शिरो भाग पिरामिड के शिखर की तरह । आर्य प्रणाली में बनावट का खाका वर्गाकार होता है और मन्दिर का शिखर ऊंचे पर्वत के नुकीले शिखर की शक्ल का । चालुक्य प्रणाली में खाका नक्षत्राकार होता है और शिरोभाग पिरामिड के शिखर का सा। दक्षिणापथ में द्रविड़ और चालुक्य प्रणालियों का प्राधान्य है और उत्तरापथ (आर्यावत) में आर्य प्रणाली का।

(1) विमान- जंघा, बरण्डी, बन्धन, उत्तर बरण्डी, उत्तर जंधा।

(2) जगमोहन- जंधा, बरण्डी, बन्धन, उत्तर वरण्डी, उत्तर जंघा ।

(3) नटमन्दिर- जंघा, बरण्डी, बन्धन, उत्तर बरण्डी, उत्तर जंधा।

मोटे तौर पर ये ही अंगोपांग उड़ीसा के मन्दिरों के हैं, परन्तु कहीं-कहीं भोगमन्दिर भी साथ ही साथ रहते हैं, जैसे अनन्त वास्तुदेव मन्दिर में।

मुक्तेश्वर और परशुरामेश्वर मन्दिरों को छोड़कर प्रायः सभी मन्दिर पूर्वाभिमुख हैं। उपान (चबूतरा) वाले मन्दिरों के उपान का उपरला भाग पुरं पृष्ठ और निचला भाग तल पृष्ठ कहा गया है।

उड़ीसा के मन्दिरों में दक्षिणापथ के से अद्भुत विशाल स्तम्भों के दर्शन नहीं होते हैं। तो भी भोगमण्डप अथवा जगमोहन के आधार स्वरूप स्तम्भ हैं। कोणार्क भोग मण्डप का आधार चार स्तम्भ हैं। जिनके उपपीठ (Pedestal) 2 फुट 10 इंच ऊंचे हैं।

मन्दिरों की दीवारें पत्थरों के बड़े-बड़े शिलाखन्डों से गढ़ी गई हैं। शिलाखण्डों की परस्पर जुड़ाई लोहे के मोटे 2 आंकड़ों से की गई है और चूना, गारा या बजरी का प्रयोग नहीं किया गया है। श्री मोहन गांगुली का कथन है कि यद्यपि लकड़ी का प्रयोग उड़ीसा के मन्दिरों में किया गया जान पड़ता है, तथापि इसका कोई पुष्ट प्रमाण अभी तक नहीं मिला है। कोणार्क में हाल की खुदाई कराते समय ईंटों का भी ध्वस्त मन्दिर मिला है।

(1) भुवनेश्वर मन्दिर- लिंगराज मन्दिर के पूर्व में स्थित सहवलिंग तालाब के चारों ओर लगभग 100 मन्दिर हैं इसमें 77 अब भी अच्छी दशा में हैं। लिंगराज के ही उत्तर में बिन्दुसार नामक विशाल तड़ाग है। जिसका क्षेत्रफल 1300 x 700 वर्गफीट है। इसके बीच में एक टापू है और टापू में एक सुन्दर सा मन्दिर है इसी प्रकार अन्य प्रमुख मन्दिरों के अपने- अपने तालाब हैं-यमेश्वरताल, रामेश्वरताल, गौरीकुण्ड, केदारेश्वरताल, चलधुआकुन्ड, मुक्तेश्वर और ब्रह्मेश्वर, जिसके दक्षिण में मरीचिकुण्ड है। मरीचिकुण्ड का जल चैत्र के महीने में अच्छे दामों में बिकता है, क्योंकि अत्यन्त पवित्र और शुद्ध होने के कारण लोग इसे खूब खरीदते हैं

भुवनेश्वर के ये मन्दिर ब्राह्मण सम्प्रदाय की शिल्पकला के अनूठे उदाहरण हैं। इनका प्रभाव ऐहोली स्थान के दुर्गा और हच्छीमल्लिगुडी के मन्दिरों पर विशेष कर तथा अन्य मन्दिरों पर भी पड़ा है। वैसे तो इन मन्दिरों का काल एकदम ठीक नहीं आंका जा सकता, किन्तु कहा जा सकता है कि यहां के प्रमुख मन्दिर 10वीं शताब्दी ई० से लेकर 12शताब्दी ई. तक के बीच निर्मित हुए हैं।

भुवनेश्वर में और उसके आस-पास) लगभग 500 मन्दिर हैं, जिनमें से निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं-

(1) मुक्तेश्वर, (2) केदारेश्वर, (3) सिद्धेश्वर, (4) परशुरामेश्वर, (5) गौरी, (6) उत्तरेश्वर, (7) भास्करेश्वर, (8) राजा-रानी, (9) नायकेश्वर, (10) ब्रह्मेश्वर, (11) मघेश्वर, (12) वासुदेव, (13) गोपालिना, (14) सावित्री, (15) लिंगरात, (16) सरिदेवल, (17) सोमेश्वर, (18) कोहितीर्थेश्वर, (19) हहकेश्वर, (20) कपालमोचना, (21) रामेश्वर, (22) गोसहस्रेश्वर, (23) शिशिरेश्वर, (24) कपिलेश्वर, (25) वरुणेश्वर तथा (26) चक्रेश्वर आदि ।

मुक्तेश्वर मन्दिर को फर्गुसन ने उड़ीसा वास्तुशिल्प की हीरा कहा है। इसकी स्थिति वन उपवन के नीचे ऐसी बन पड़ी है कि देखते ही बनता है। प्रकृति का ऐसा निखरा सौंदर्य काश्मीर को छोड़कर भारत में अन्यत्र शायद ही हो। यह मन्दिर ब्राह्मण स्थापत्य कला का सर्वोत्तम नमूना है।

पांच भूमियों वाला यह पञ्चरथ देवल राजारणियां नामक मोमिया पीतवर्ण पत्थर से बना है। बाहर से इसके विमान और जगमोहन का नाम 26 24 15 वर्ग फुट है, और उपपीठ 1 फुट 1 इंच ऊँचा है। जगमोहन के झरोखे चटाईदार मोहरों के हैं और अलंकृत हैं। गंगा यमुना मन्दिर, नन्दी महाकाल तथा उड़ते हुए गन्धर्वगण इसके विमान और जगमोहन की शोभा बढ़ाते हैं। हाथी को रौंदते हुए शार्दूल देखते ही बनते हैं। विमान की शोभा, नाग पूर्तियां, बन्दरों के फुदकते-उछलते हुए दृश्य मन को मोह लेते हैं। पार्यों में कोनकपागों में तपस्वीगण समाधिरत अथवा उपदेश देते दिखायी देते हैं। दक्षिणी रहपागम में अंकित मृगया का अद्भुत दृश्य बड़ा आकर्षण पूर्ण है। कुछ मृग पीछे घूम-घूम कर देखते जाते हैं कि व्याधि नजदीक आ पहुंचा क्या?

(2) परशुरामेश्वर मन्दिर- यह पांचवीं छठी शताब्दी ई० का है और भुवनेश्वर के सबसे प्राचीन मन्दिरों में से है। सामान्य उड़ीसा मन्दिर पद्धति से यह मन्दिर कुछ भिन्न हैं और पश्चिमाभिमुख है। यह मन्दिर पीठ पर स्थित नहीं है। इसका विमान त्रिरथ देवल कहा जाता है और चौड़ाई अधिक होने और ऊँचाई कम होने के कारण स्थूलाकाय लगता है। इसके जगमोहन का आकार-प्रकार अन्य मन्दिरों से अच्छा है। कला की दृष्टि से यह मन्दिर भी दर्शनीय है। टप्पादार नक्काशी सूर्याकृति के आले और कोनकपागों में आमल की पद्धति अत्यन्त शोभनीय है। बनाव चुनाव यह मन्दिर बहुत कुछ मुक्तेश्वर का सा है।

हरे-हरे लहलहाते हुये खेतों से परिवेष्टित राजा रानी मन्दिर की अपनी एक निजी छटा है। विमान में चारों दिशाओं के दिक्पालों का सुन्दर दिग्दर्शन है। आलों में पार्श्व-देवताओं की प्रसन्न मुख मूर्तियां अवस्थित हैं। इसमें प्रतिमा स्थापना नहीं हुई। इसके विषय में यही कहा जा सकता है कि इसके मनोहर जगमोहन के तोरणद्वार पर लक्ष्मी और नवग्रहों की स्थापना इस बात का प्रमाण है कि यह मन्दिर पूजा अर्चा में भी प्रयुक्त होता रहा होगा। मन्दिर वैष्णव सम्प्रदाय का है और इसका निर्माण राजारणिया पत्थर से हुआ है। विमान और जगमोहन दोनों हो अत्यन्त अलंकृत है। विमान रेखा देवल की पद्धति का है और दो मंजिला है। जगमोहन के स्तम्भों पर नागिनियों की आकृतियां खुदी हैं और इसके तोरणद्वारों की रक्षा द्वारपाल गण करते हैं। इस पर पद्म पंखुड़ी दली, जलवाई आदि अनेक प्रकार की बेलें उत्कीर्ण है। मन्दिर के कोने के खम्भे या पाग अत्यन्त सुन्दर हैं और उनकी बनावट अद्भुत है। इन पागों पर चित्रित मूर्तियां भारतीय कला के इतिहास में बेजोड़ हैं। पड़ा पंखुड़ियों पर बैठे वाहनारूढ़ अग्नि और नन्दीश्वर शिव हाथ में गदा लिए बेड़े शोभायमान है। यहां की युवतियों की मूर्तियां अपनी उपमा नहीं रखती। राष्ट्रीय म्यूजियम, नयी दिल्ली में इस मन्दिर को तीन बी मूर्तियां प्रदर्शनार्थ रखी हैं, उनमें से एक श्री दर्पण में मुख देखती हुई शृंगार कर रही है। उसके पृष्ठ भाग में एक तरू है, जिस पर फल लदे हैं और बन्दर तथा तोता उन्हें आनन्द से परख रहे हैं। दूसरी मूर्ति में माता अपने पुत्र को हलरा रही है और तीसरी मूर्ति की युवती बड़ी भाव भंगी से अपने प्रियतम को पाती लिख रही है। तीनों नारियां साड़ियां पहने हैं। साड़ियों के किनारे चौड़े और बेलदार हैं। उत्तरीय पट को भी तीनों ने बड़े कलात्मक ढंग से ओढ़ रखा है। इन्हें देखने में दर्शक कभी नहीं थकता। उसे आज फिर अपने कुशल शिल्पी पूर्वजों की याद हो आती है।

(3) भास्करेश्वर मन्दिर- यह शैव सम्प्रदाय का है। उसमें शिव लिंग की ऊंचाई 9 फीट है, जिसका आयास 12 फीट 1 इंच है। इसकी बनावट अनलंकृत है और पश्चिमाभिमुख है।

(4) लिंगराज मन्दिर- यह मन्दिर अन्य मन्दिरों से बड़ा है और मुक्तेश्वर मन्दिर की भांति बाह्मण कला पद्धति का सर्वोत्तम प्रमाण है। दीदार में तीन तोरणद्वार हैं, जिनमें से एक का नाम सिंहद्वार है। यह मन्दिर पीड देवल पद्धति का है। इसके चार प्रमुख भाग है…..(1) विमान (2) जगमोहन (3) नटमन्दिर तथा (4) भोगमण्डप । विमान की शुरूआत बिना जगती पीठ के ही होती है। यह दशभूमिका मन्दिर है। इसकी सुन्दरता पार्श्व देवता दिकपति और लक्ष्मी बढ़ाते हैं। विमान में रामायण और महाभारत कालीन दृश्य प्रदर्शित है।

(5) बैताल मन्दिर- यह खडियाकण्डा नामक पत्थर से बना है और एक रथ देवल कहा जाता है। इसके भाग हैं वैताल पाद (रखा, वरण्डी और जंघा) और वैताल मस्तक । वैतालपाद पर गजारोहियों का चित्रांकन है। वैताल पाद और वैताल मस्तक के बीच में अद्भुत जाली पंजर का काम है। वैताल मस्तक पर तीन अमलक है, जिनके नुकीले त्रिशूल शिखर दर्शनीय हैं। मस्तक पर पलस्तर किया हुआ है। मन्दिरों के जगमोहन और विमान के बीच में एक अलंकृत आलामुकुटाकार स्थित है। इसके ऊपर के भाग में नटराज शिव की और निचले भाग में नारायण की मूर्ति है। मन्दिर में कपालिनी की प्रतिमा स्थापित है। परशुरामेश्वर मन्दिर की तरह यह मन्दिर भी 5वीं छठी शताब्दी का है और बौद्धशिल्प कला से प्रभावित है।

(6) जगन्नाथ पुरी का मन्दिर- इस मन्दिर की वास्तुकला पर बौद्ध प्रभाव है। बौद्धों के त्रिरत्न, बुद्ध धर्म और संघ की भांति मन्दिरों में जगन्नाथ, सुभद्रा और बलराम की मूर्तियां हैं। बौद्धों ने धर्म को स्त्री संज्ञक माना है। इस दृष्टि से जगन्नाथ और सुभद्रा का कैसा मेल यहां बिठाया गया है। यह उल्लेखनीय है जब कि शिव पार्वती, विष्णु लक्ष्मी और ब्रह्मा सावित्री आदि का चित्रांकन पुरुष और प्रकृति के रूप में हुआ हैं, तब यह भाई-बहिन का दिग्दर्शन यहां बौद्धों की दृष्टि से ही ठीक बिठा सकता है।

जगन्नाथ मन्दिर का जगमोहन पज्जरथपीड देवल है। 6 फीट 3 इंच ऊंचे पीठ पर यह स्थित है। जगमोहन के उत्तरी पार्श्व में मन्दिरों का कोष सुरक्षित रहता है। जगमोहन से ही लगा हुआ नट मन्दिर है, जो भुवनेश्वर के लिंगराज के नटमन्दिर से साम्य रखता है। नटमन्दिर की छत के आधार 16 स्तम्भ हैं और 67 फीट चौड़ा है। जगन्नाथ का भोग मण्डप भी पञ्चरथ पीड देवली है और पीतवर्ण पत्थर का बना हुआ है। इसका उपपीठ 6 फीट 4 इंच ऊंचा और पाद पीठ एक फुट 5 इंच ऊंचा है।

जगन्नाथ मन्दिर के आस-पास बहुत से मन्दिर हैं, जिनमें मुक्ति मण्डप, विमला देवी का मन्दिर, लक्ष्मी मन्दिर, धर्मराज (सूर्य नारायण) का मन्दिर, पातालेश्वर, लोकनाथ, मार्कण्डेश्वर सत्यवादी मन्दिर आदि अत्यन्त प्रसिद्ध हैं।

(7) कोणार्क मन्दिर- कोणार्क क्षेत्र जगन्नाथपुरी के उत्तर पूर्व में 21 मील की दूरी पर स्थित है। इस क्षेत्र को अर्क क्षेत्र तथा पद्म क्षेत्र भी कहते हैं। कोणार्क मन्दिर के दक्षिण पूर्व में 2 मील पर बंगाल की खाड़ी लहरे मारती दिखायी देती हैं। मन्दिर के उत्तर में लगभग आध मील पर चन्द्रभागा नदी बहती है।

कोणार्क मन्दिर के तीन भाग हैं—विमान, जगमोहन और भोगमण्डप । जगमोहन और भोगमण्डप परस्पर अलग-अलग हैं। गर्भगृह की देव प्रतिमा का सिंहासन यहां सुन्दर बन पड़ा है। इसका निचला भाग छोटे-छोटे मूर्तियों से अलंकृत हैं। मन्दिर का विमान और जगमोहन- दोनों एक-एक फुट ऊंचे पीठों पर स्थित हैं। पीठ छोटे-छोटे हाथियों की कतारदार मूर्तियों से सजा हुआ है। तल पृष्ठ और खुरपृष्ठ मिलाकर उपपीठ की ऊंचाई 16 फीट 6 इंच है। इसके नुहानों पर बड़े सुन्दर तथा अलंकृत पहिये या रथ चक्र गढ़े गये हैं। रथचक्र का व्यास 9 फीट इंच है और मोटाई 8 इंच के लगभग है। मन्दिर में सूर्य देवता की प्रतिमा स्थापित है। यह एक रथवाला मन्दिर देवता की सवारो के लिए है। इसका पहिया एक है। सम्भवतः अपनी पूर्व दशा में इस एक रथमन्दिर को खींचने के लिए सात घोड़े भी थे।

मन्दिर का विमान गिर गया है। बहुत-सी विचित्र गाथाएं इस सम्बन्ध में प्रचलित हैं। मन्दिर का जगमोहन एक पञ्चरथवाला विशाल भवन है जो ऊंचाई में 39 फीट 10 इंच है। मन्दिर का अपना भोगमन्दिर भी है, किन्तु वह बाद का निर्माण किया हुआ है।

समीक्षा

उड़ीसा के प्रमुख मन्दिरों में पुरी का जगन्नाथ मंदिर, कोणार्क का सूर्य मन्दिर और भुवनेश्वर का मंदिर समूह है (फलक-28)। इन मंदिरों की शैली में बहुत कुछ समानता है, जिसे हम दो एक वाक्य में कह सकते हैं-अत्यधिक अलंकृत होते हुए भी इनमें ऐसा भारीपन और थोथापन है एवं इनकी कुर्सी इतनी नीची है कि इनकी भव्यता को बड़ा धक्का पहुँचता है। इनके शिखर ऊपर पहुँचते-पहुँचते कुछ गोलाई लिए हो जाते हैं, जिन पर का निपटा आमलक गला दबाता सा जान पड़ता है। फिर भी ये मंदिर बड़े विशाल और बहुत रच-पच के बने हैं। इनमें नागकन्याओं की, नृत्य के अंगों और नायिकाभेद की बड़ी सुभग मूर्तियाँ बनी हैं, जिनके भोले मुख पर से आँख हटाए नहीं हटती । उड़ीसा की मूर्तियों में कितनी ही मूर्तियाँ ऐसी भी हैं जिनमें सातृममता की बड़ी सुंदर अभिव्यक्ति हुई है। माता अपने शिशु का लाड़ करने में मानो अपने हृदय को निकालकर धर देती हुई अंकित की गई है।

किंतु उड़ीसा के मंदिर भी अपने काल के व्यापक दोष से नहीं बचे हैं-इन पर भी अश्लील मूर्तियों की भरमार है।

कोणार्क का मंदिर रथ के आकार का बना है जिसमें बड़े विराट् पहिए हैं और जिसे बड़े जानदार घोड़े खींच रहे हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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