धर्म और शिक्षा | धर्म का अर्थ | धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध | शिक्षा में धर्म का स्थान
धर्म और शिक्षा | धर्म का अर्थ | धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध | शिक्षा में धर्म का स्थान
धर्म और शिक्षा
मानव अपने जीवन में यह प्रयत्न करता है कि वह अपने कार्यों, कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों को पूरा कर ले। जहाँ पर इस प्रकार का विश्वास, इस प्रकार की धारणा एवं क्रियाशीलता का विचार होता है वहाँ निश्चय ही “धर्म” होता है। इससे स्पष्ट है कि धर्म मनुष्य के जीवन का एक अंग है और इसके बिना वह आगे नहीं बढ़ पाता है। प्रो० ई० डी० बर्टन ने इसीलिए लिखा है कि “धर्म और शिक्षा स्वाभाविक मित्र हैं। दोनों मनुष्य को मुक्त करते हैं।”
धर्म का अर्थ
ऊपर के कथन से स्पष्ट है कि धर्म मनुष्य के जीवन और उसकी शिक्षा का एक अंग है। अतः हमें अर्थ पर विचार करना जरूरी होता है। हिन्दी भाषा में धर्म ‘ध’ धातु से बना है जिसका अर्थ है “धारण करना”। इस आधार पर धर्म अच्छाई, सद्गुणों, सद्कार्यों, सद्व्यवहारों आदि को धारण करने में पाया जाता है। उदाहरण के लिए सच बोलना, -पाठ करना, नमाज पढ़ना, मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर में जाना, साधु-संगति करना मारपीट न करना, दूसरों की सहायता करना, देश की रक्षा करना, ईश्वर में विश्वास करना आदि धर्म में शामिल किये गये हैं। इसीलिये वेदों में कहा गया है कि-
धृतिः क्षमादमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रि निग्रह।
धीर्विघा सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।
अंग्रेजी भाषा का शब्द Religion लैटिन भाषा के Re और Legere शब्दों से मिलकर बना है। लैटिन शब्दों का अर्थ है “बांध रखना।” सम्भवतः इसी मूल अर्थ को लेकर प्रो० गिस्बर्ट ने कहा है कि, “धर्म दोहरा संबंध स्थापित करता है। पहला, मनुष्य और ईश्वर के बीच, और दूसरा, ईश्वर को सन्तान होने के कारण मनुष्य और मनुष्य के बीच”। यह कथन सही है और हमें इसको व्यापक दृष्टि से ही स्वीकार करना चाहिये। अतः धर्म मनुष्य को जीवन से, जीवन की क्रियाओं से, समाज से, समाज के लोगों से, समाज के आदर्शों से, उत्तरदायित्वों से, अपने से और अन्य लोगों से, इनके गुणों से, इनके व्यवहारों से जोड़ता है, संबन्धित करता है अथवा बाँधता है। इसीलिए तो महात्मा गाँधी ने धर्म को मानव जीवन की आशा का एकमात्र सहारा माना है।
धर्म का अर्थ लोगों ने कई दृष्टियों से बताया है जिन्हें समझ लेने से धर्म का यथार्य रूप हमें ज्ञात हो जावेगा।
(i) आध्यात्मिक अर्थ बताते हुए प्रो० ई० बी० टेलर ने कहा है, “धर्म आध्यात्मिक जीवों में विश्वास है।”
(ii) व्यक्ति की चेतना के अर्थ में- “धर्म वह चेतना है जो उन कर्तव्यपरायणों तथा निष्ठावानों में आती है जो ज्ञान द्वारा उच्चतम मूल्यों को जानकर उनके प्रति सच्चे बने रहते हैं”।
(iii) सामाजिक अर्थ में- “धर्म वह है जिससे इस लोक में उन्नति हो और परलोक की प्राप्ति हो।”
(iv) विश्वास, निर्भरता और आत्म समर्पण के अर्थ में- “धर्म ईश्वर या देवताओं के प्रति जिनके ऊपर मनुष्य निर्भर है विश्वास और आत्मसमर्पण है।” ऐसा कथन प्रो० गिस्बर्ट का है।
(v) मनोविश्लेषणात्मक अर्थ में– धर्म इच्छा-सन्तुष्टि का मन्त्र है संवेग के संचालन और मार्गीकरण का साधन है, मानवता की सार्वभौमिक दबी हुई भावना है।”
(vi) संस्था के अर्थ में- “धर्म मनुष्यों द्वारा बनाई गई वह संस्था है जिसमें मानवीय समाज के सभी सदस्यों में एकता स्थापित होती है और एकता की भावना के कारण वे परस्पर एक दूसरे से बंधे होते हैं। धर्म आदर्श, परंपरा, नियम एवं व्यवहार के तरीकों की स्थापना में पाया जाता है जिसका पालन समाज के सदस्य करते हैं।”
धर्म
ऊपर धर्म के विभिन्न अर्य दिये गये हैं। इन सबको मिलाकर ही धर्म को शिक्ष उचित और ठीक होगा। इस दृष्टि से हमें प्रो० अण्डमाइसन के शब्दों को ध्यान में रखना चाहिये। इन्होंने धर्म के बारे में व्यापक विचार दिया है जो निम्नलिखित शब्दों में प्रकट किया जा रहा है-
“धर्म व्यक्तिगत और सामाजिक विश्वासों, स्थायी भावों और अभ्यासों का कुल योग है। जिनका अपना एक उद्देश्य होता है, जिनकी एक शक्ति है जो ईश्वर को सबसे बड़ा मानती है, जिस पर वह (मानय) निर्भर करता है और जिसके साथ वह संबंध स्थापित कर सकता है या कर लिये हैं।” इसी अर्थ से मिलता-जुलता एक समन्वयात्मक दृष्टि से प्रो० मलिनोवस्की ने अर्थ दिया है। इन्होने लिखा है कि “धर्म क्रिया का एक ढंग है और साथ ही विश्वासों की एक व्यवस्था है, धर्म एक समाजशास्त्रीय घटना के साथ-साथ व्यक्तिगत अनुभव भी है।”
धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध
शिक्षा का तात्पर्य हमने पिछले अध्यायों में विस्तार के साथ बताया है। यहाँ उसके पुरावर्तन की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है। फिर भी इतना तो संकेत करना जरूरी है कि शिक्षा मनुष्य के द्वारा प्राप्त किया गया जीवन संबन्धी सम्पूर्ण अनुभव एवं ज्ञान है। यदि धर्म एक व्यक्तिगत अनुभव है तो निश्चय ही वह शिक्षा का एक अंग है। प्रो० सुल्तान मुहीउद्दीन ने लिखा है कि ‘धर्म व्यक्ति की सांस्कृतिक दाय का अंग है।’ शिक्षा हमारी संस्कृति को सुरक्षित रखती है और उसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तान्तरित करती है। ऐसी दशा में शिक्षा धर्म को भी सुरक्षित रखती है और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तान्तरित करती है। इसके अलावा यदि धर्म को मनुष्य का कर्तव्य मान लेवें तो वहाँ मनुष्य का धर्म शिक्षा लेना और शिक्षा देना होता है। अब हम निश्चित रूप से कह सकते है कि शिक्षा और धर्म में कितना निकटवर्ती सम्बन्ध होता है। धर्म की पूर्ति शिक्षा के द्वारा होती है और शिक्षा लेना-देना मनुष्य का धर्म होता है।
महायोगी श्री अरविन्द ने शिक्षा और धर्म के संबंध में लिखा है कि ‘चाहे धर्म की किसी रूप में स्पष्ट शिक्षा दी जावे या न दी जावे परन्तु ईश्वर के लिए, मानवता के लिये, देश और अपने के लिये, इन सभी में धर्म के सारतत्व को प्रत्येक विद्यालय में आदर्श बनाना चाहिए।’
शिक्षा और धर्म के संबंध को समझने में हमें शिक्षा के उद्देश्य तथा धर्म के कार्य पर भी थोड़ा सा ध्यान देना जरूरी है। धर्म यदि भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार दस गुणों धारण करना है तो निश्चित ही शिक्षा का लक्ष्य इससे बढ़कर और क्या हो सकता है। धर्म को महात्मा गाँधी ने एक शक्ति माना है जो हमें बड़ी से बड़ी कठिनाई का सामना करने में सहायता देती है। इसी प्रकार प्रो० हुमायूँ कबीर ने भी कहा है कि धर्म शक्ति का संचार करता है जो कठिनाइयों एवं पराजयों को कुछ नहीं मानती है। इसके विपरीत गाँधी जी के विचार से धर्म अन्तिम सहारा है (Sheet anchor)| धर्म जीवन में आशा प्रदान करता है। शिक्षा मनुष्य को जो अनुभव एवं ज्ञान देती है उसी से यह इस तथ्य को समझता है। अतः शिक्षा और धर्म एक दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते।
शिक्षा के पाठ्यक्रम तथा शिक्षक की दृष्टि से भी शिक्षा और धर्म में घनिष्ठ सम्बन्ध मिलता है। डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने लिखा है कि “शिक्षा आध्यास के जीवन प्रवेश में मानवीय आत्माओं के सत्य की खोज के प्रयास और सद्गुण के अभ्यास में प्रशिक्षण है।’’
अपने देश तथा पाश्चात्य देश के धार्मिक व्यक्ति बड़े-बड़े शिक्षक हुए हैं और लोगों को शिक्षा भी दी है। राम, कृष्ण, बुद्ध, चैतन्य, विवेकानन्द, अरविन्द प्रभृति भारत में, ईसा, मुहम्मद साहब, थारो प्रभृति विदेशों में धर्म शिक्षा देने के लिए प्रसिद्ध हैं। इन उदाहरणों से धर्म एवं शिक्षा का घनिष्ठ सम्बन्ध मिलता है। धर्म की संस्था के द्वारा शिक्षालय खोले गये और आज भी खुले हैं। इनमें पढ़ाये जाने वाले विषयों में “धर्म” एक विषय है। अब स्पष्ट है कि शिक्षा और धर्म में किस प्रकार अभिन्न सम्बन्ध पाया जाता है। जे० डब्लू० फिस्के ने तो लिखा है कि “शिक्षा को पूर्ण होने के लिए धार्मिक होना चाहिये।” इसका आशय यह भी है कि शिक्षा और धर्म एक दूसरे के पूरक भी हैं।
शिक्षा में धर्म का स्थान
शिक्षा में धर्म का क्या स्थान होता है इस सम्बन्ध में दो प्रकार के विचार हैं। एक विचार तो यह है कि आज के वैज्ञानिक युग में धर्मविहीन और धर्म-निरपेक्ष शिक्षा दी जानी चाहिये जैसा कि रूस में हो रहा है। अमरीका में भी धर्म के प्रति तथा धर्म की शिक्षा के प्रति कोई झुकाव नहीं पाया जाता है। अन्य पश्चिमी देशों में धर्म का मूल्य शिक्षा की दृष्टि से बहुत कम पाया जाता है। इससे लोग अपना मानव धर्म भी भूल गये हैं।
दूसरा विचार शिक्षा में धर्म को महत्वपूर्ण स्थान देता है। प्रो० ह्वाइटहेड ने धर्म को शिक्षा का सारतत्व माना है। प्रो० फिस्के ने भी लिखा है कि “भौतिकवादी दृष्टिकोण के सिवाय सभी दृष्टिकोणों से शिक्षा में धार्मिक पहलू और धार्मिक विषय वस्तु दिखाई देती है।” गाँधी जी धर्म के सामान्य सिद्धान्तों की शिक्षा को देने के लिए अवश्य जोर दिया है। प्रो० कनिंघम ने भी जोर देकर कहा है कि पढ़ना-लिखना गणित के विषय-त्रयी के अलावा चतुर्थ विषय धर्म होता है। इंग्लैण्ड की माध्यमिक शिक्षा समिति तथा अपने देश के राधाकृष्णन शिक्षा आयोग, मुदालियर शिक्षा आयोग एवं कोठरी शिक्षा आयोग ने धर्म को शिक्षा में महत्वपूर्ण स्थान दिये हैं। अतः स्पष्ट है कि यद्यपि भौतिकवादी आस्था बढ़ी हुई है फिर भी शिक्षा में धर्म को स्थान अवश्य दिया जाना है। इस सम्बन्ध में कोठारी शिक्षा आयोग (1964-66) में लिखा है कि “सचेतन एवं व्यवस्थित प्रयल जहाँ कही सम्भव हो महान धर्मों की नीतिशास्त्रीय शिक्षाओं की सहायता से सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को प्रदान करने के लिए किये जावें।” अब स्पष्ट है कि शिक्षा में धर्म का स्थान काफी महत्वपूर्ण है। इस प्रसंग में हमें प्रो० टी० रेमाण्ट के भी विचार पर दृष्टि डालनी चाहिए। प्रो० रेमाण्ट ने लिखा है कि शिक्षक को धर्म की संस्था की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। यह कथन भी शिक्षा में धर्म के महत्वपूर्ण स्थान पर प्रकाश डालता है।
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