शिक्षाशास्त्र / Education

भारतीय जनतंत्र की शिक्षा | जनतंत्र को शिक्षा द्वारा सफल बनाना

भारतीय जनतंत्र की शिक्षा | जनतंत्र को शिक्षा द्वारा सफल बनाना

भारतीय जनतंत्र की शिक्षा

भारत का राए अब एक जनतंत्र घोषित कर दिया गया है और उसका संविधान भी उसी आधार पर बना है जिसके प्रारम्भ में ही स्वतंत्रता, समानता, भ्रातृता और सामाजिक न्याय के पालन का प्रण किया गया है। शिक्षा की व्यवस्था भी तदनुक्रम की गई है। अतएव भारतीय जनतंत्र में शिक्षा की क्या स्थिति है, इस पर दृष्टिपात किया जाना भी जरूरी है। भारतीय जनतंत्र का आरम्भ 1947 ई० से हुआ और सबसे पहले 1949 में राधाकृष्णन विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने विश्वविद्यालय की शिक्षा को संगठित करने को सिफारिशें दी। पुनः 1952-53 में ए० एल० मुदालियर की अध्यक्षता में माध्यमिक शिक्षा आयोग ने देश की माध्यमिक शिक्षा को नये ढंग से संगठित करने के लिए रिपोर्ट एवं सिफारिशें दी। पुनः 1964-66 में डॉ० डी० एस० कोठारी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय शिक्षा संगठन हेतु बने शिक्षा आयोग ने अपनी सिफारिश दी जिसका पूर्णरूप से पालन अभी नहीं हुआ है फिर भी उसके आधार पर शिक्षा नई दिशा की ओर मुड़ रही है।

कोठारी शिक्षा आयोग के द्वारा बताई गई शिक्षा आयोजना में शिक्षा को विकास का प्रमुख साधन माना गया है और कहा गया कि “यह शिक्षा ही है जो जनता की सम्पन्नता, भलाई और सुरक्षा का स्तर निश्चित करती है।”

इस कमीशन के द्वारा शिक्षा के उद्देश्य भी बताये गये हैं जिसमें भारत के चार प्रकार की समस्याओं का निराकरण किया जावेगा। ये समस्याएँ हैं- (1) खाद्य सामग्री में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना, (2) आर्थिक उन्नति तथा बेरोजगारी का अन्त करना, (3) सामाजिक एवं राजनैतिक एकता लाना, (4) राजनैतिक विकास करना। अतएव शिक्षा एक साधन के रूप में आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक विकास का उद्देश्य रखती है। इस आयोग के द्वारा बताये गये पंचमुखी कार्यक्रम के साथ शिक्षा के उद्देश्य जुड़े पाये जाते हैं-

शिक्षा का उद्देश्य (1) उत्पादन की वृद्धि करना है, (2) विभिन्न कार्यक्रमों द्वारा सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता को बल देना है, (3) जनतंत्र को मजबूत बनाना है, (4) सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का विकास करना है, (5) लोगों में जिज्ञासा, अभिवृत्ति और मूल्यों की सहायता से कौशल का विकास करना और समाज को आधुनिक बनाना है।

शिक्षा के पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में जो सिफारिशें विभिन्न स्तरों के सम्बन्ध में मिलती हैं उनसे स्पष्ट है कि पाठ्यक्रम व्यापक, लचीला, आवश्यकता-पूरक, विचार एवं कार्यपरक होना चाहिए। इस विचार से शिक्षा के पाठ्यक्रम में मानविकी, तकनीकी व औद्योगिकी विज्ञान, गणित-विज्ञान, कृषि-विज्ञान व व्यवसाय, वाणिज्य, कौशल, कार्यानुभव, समाज- सेवा, शरीर-शिक्षा, नैतिक एवं धार्मिक शिक्षा को रखने को कहा गया है।

शिक्षा विधि पर भी कोठारी आयोग ने कुछ विचार दिये हैं । शिक्षा की विधियाँ गतिशील, लचीली, नवीन, वस्तु-सज्जा युक्त, क्रियात्मक एवं प्रायोगिक हों। इस आधार पर निम्नलिखित विधियों की प्रयोग के लिये सिफारिशें मिलती हैं-

(1) क्रिया और कर्मशाला विधि। (2) प्रदर्शन और परीक्षण विधि। (3) गोठी, सम्मेलन, परिचर्या विधि। (4) वाद-विवाद-सम्भाषण विधि। (5) सहायक वस्तुओं की सहायता से शिक्षा विधि । (6) निर्देशन विधि। (7) पाठ्यपुस्तक की सहायता से शिक्षा विधि।

विद्यालय को जीवन के अनुभव प्रदान करने का साधन कोठारी कमीशन ने माना है। अतएव उनमें व्यावहारिक कार्यों पर अधिक बल दिया गया है। विद्यालय में सभी को समान रूप से सुविधाओं के उपयोग का अवसर दिया जावे। ऐसी दशा में प्राथमिक स्तर पर सामान्य विद्यालय (Common School) खोले जावें जहाँ उच्चतम विकास को प्राप्त करने का प्रयत्न हो। पुनः माध्यमिक स्तर पर सामान्य तथा तकनीकी विद्यालय होंगे। तदुपरान्त उच्च शिक्षा के लिए सामान्य एवं विशेष प्रकार के विश्वविद्यालय हों। कुछ विद्यालय वरिष्ठ (Major) हों। साथ में कुछ ग्रेजुएट स्कूल स्नातकीय स्तर पर खुले । व्यावसायिक शिक्षा के लिए भी विश्वविद्यालय हों। विद्यालय में जनतंत्रीय वातावरण हो और जनतंत्र के आदर्शों को विद्यार्थियों को प्रदान किया जाये। यह कार्य शिक्षक पर निर्भर होगा।

विद्यालय कार्य जनतंत्र में क्या होना चाहिए? इस पर ध्यान देने से ज्ञान होता है कि विद्यालय जनतांत्रिक जीवन का केन्द्र होता है। अतएव उसका प्रथम प्रमुख कार्य है समस्त नागरिकों को जनतांत्रिक जीवन के लिए ज्ञान, अनुभव और कौशल प्रदान करना तथा नागरिकों को वह योग्यता, क्षमता और शक्ति तथा भावना का विकास करना जिससे वे सफलतापूर्वक सामूहिक एवं सम्मिलित जीवन की क्रियाओं में भाग ले सकें और सामाजिक विकास में योगदान दे सकें। जनतंत्र में विद्यालय का दूसरा कार्य है नागरिकों को अपनी सुविधा के अनुसार सभी प्रकार की शिक्षा देना ताकि सभी नागरिक समाज व राष्ट्र की सामूहिक समृद्धि करने में समर्थ हों। जनतंत्र में विद्यालय का तीसरा कार्य समाज, शिक्षा एवं शासन के क्षेत्र में सुयोग्य, गुणवान, चरित्रवान एवं निष्ठावान नेताओं को तैयार करना जो सामान्य जनता को सही मार्ग पर आगे ले जा सकें। जनतंत्र में विद्यालय का चौथा कार्य है नेताओं को सही ढंग का प्रशिक्षण देना और मार्ग-निर्देशन तथा सलाह देना जिससे वे अनिर्दिष्ट दिशा में न भटके। अन्त में जनतंत्र में विद्यालय का कार्य है सभी नागरिकों को शिक्षा के उत्तम अवसर एवं साधन प्रदान करना ताकि वे अधिकतम विकास करें। भारतीय जनतंत्र में शिक्षक का स्थान गिरा हुआ है, न तो उनमें योग्यता है न उनमें नेतृत्व और न सम्मान मिलता है और न धन। फिर भी कोठारी शिक्षा आयोग ने शिक्षक के वेतन बढ़ाने तथा उसके प्रशिक्षण के लिए विशेष सिफारिश की हैं इससे शिक्षा का स्तर ऊँचा उठेगा। परन्तु सरकार इसे प्रदान करने में असमर्थ हो रही है ऐसा ज्ञात हो रहा है। इसी प्रकार से विद्यार्थी की ओर भी सरकार की निगाह है। विद्यार्थी भावी नागरिक हैं ऐसा इस आयोग ने स्वीकार किया है और उसे स्वतंत्र विचारक एवं क्रियाशील बनाने का प्रयत्न विद्यालय के वातावरण में किया जाता है। परन्तु राजनैतिक दलबंदी के कारण विद्यार्थी का स्वतंत्र विकास नहीं हो रहा है सभी विद्यार्थी नेता बनकर स्वार्थ-लिप्त होना चाहता है। ऐसी दशा में अनुशासन की कमी है और राज्य पुलिस तथा सेना की सहायता से शिक्षालय एवं शिक्षार्थी पर नियंत्रण कर रहा है। विद्यार्थी में समाज के दूषित वातावरण के कारण अनैतिकता एवं अनुशासनहीनता पाई जाती है। छात्रों को यथासम्भव विशेष सहायता भी दी जाती है। अतः चतुर्दिक विकास का प्रयल भारतीय जनतंत्र में हो रहा है।

जनतंत्र को शिक्षा द्वारा सफल बनाना

आधुनिक युग जनतंत्र का युग कहलाता है। जनतंत्र में हरेक व्यक्ति को शिक्षा का जन्मसिद्ध अधिकार मिलता है। अतएव शिक्षा मनुष्य जीवन की एक आवश्यकता है शिक्षा एक ऐसा साधन और यंत्र होता है जिससे जनतंत्र की सफलता प्राप्त की जा सकती है, लोगों को जनतंत्र के लिये तैयार किया जाता है और लोग सही अर्थ में समाज शासन, अर्थोत्पादन एवं अर्थ-वितरण के कार्यों में यथायोग्यता से भाग लेते हैं। जनतंत्र को सफल बनाने के लिये निम्नलिखित सिद्धांतों पर शिक्षा के द्वारा बल देना चाहिये-

(अ) किलपैट्रिक के विचार-

(1) व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सिद्धान्त- किलपैट्रिक का मत है कि जनतंत्र को सफल बनाने के लिये प्रत्येक व्यक्ति को ऐसी शिक्षा दी जावे कि वह अपनी स्वतंत्रता का प्रयोग कर सके। ऐसी दशा में चार प्रकार की स्वतंत्रता होती है- (i) भाषण तथा वाद-विवाद की स्वतंत्रता, (ii) आने-जाने, कार्य करने की स्वतंत्रता, (iii) अपने निर्णय एवं मतदान की स्वतंत्रता, (iv) अधिकार-कर्तव्य के प्रयोग की स्वतंत्रता ।

(2) समान अधिकार का सिद्धान्त- समाज का हर व्यक्ति बराबर है और हरेक को सभी प्रकार के अधिकार मिलने चाहिये, शिक्षा के द्वारा ऐसी भावना हरेक व्यक्ति में लानी चाहिये।

(3) अधिकार और कर्तव्य के सन्तुलित प्रयोग का सिद्धान्त- समाज के लोग केवल अधिकारों का उपभोग करें और कर्तव्य की उपेक्षा करें यह जनतंत्र में मान्य नहीं होता है। प्रत्येक सदस्य इस दृष्टि से अधिकार माँगता है तो उसके अनुरूप कर्तव्य भी पूरा करता है। स्वयं स्वतंत्र होता है तो दूसरे की स्वतंत्रता की ओर भी ध्यान रखता है।

(4) सहयोग द्वारा लोक-कल्याण का सिद्धान्त- शिक्षा द्वारा ऐसे गुण उत्पन्न किये जावें कि लोग अपने आप मिलजुल कर सभी सदस्यों के हित के लिये प्रयत्नशील हों, अतएव शिक्षा का उद्देश्य ही सामाजिक हित एव लोककल्याण की भावना का विकास करना। हो तथा समाज के प्रांगण में शैक्षिक क्रियाएँ सम्पादित की जावें।

(5) बुद्धि एवं विचार-विमर्श का सिद्धान्त- शिक्षा बौद्धिक विकास करे जिससे कि प्रत्येक सदस्य जीवन की समस्याओं पर विचार-विमर्श करने में सफल हो सके। हरेक कार्य को बुद्धि, तर्क-वितर्क, एवं वाद-विवाद से करे । इस प्रकार के विचार-विमर्श से शान्ति भी कायम रखी जावे।

(6) स्वतंत्र चिन्तन का सिद्धान्त- माइकेल जॉन ने कहा है कि “जनतंत्र एक साथ स्वतंत्र चिन्तन की कला है।” बात सही है। यदि शिक्षा स्वतंत्र ढंग से चिन्तन करने योग्य न बनावे तो वह शिक्षा और स्वतंत्रता किस काम के होंगे। जनतंत्र की सफलता इस सिद्धान्त पर अधिकतम निर्भर करती है।

(आ) अन्य लोगों के विचार-

(7) अनिवार्य सार्वभौमिक शिक्षा का सिद्धांत- जनतंत्र को सफल बनाने के लिये जनता को शिक्षित बनाना चाहिये तभी हम कह सकते हैं कि जनतंत्र में शिक्षा का जन्मसिद्ध अधिकार होता है। इसके लिये सभी के लिये शिक्षा अनिवार्य, निःशुल्क एवं सार्वभौमिक हो।

(8) प्रौढ़ शिक्षा या समाज का सिद्धान्त- जिन्हें शुरू में शिक्षा मिल सके वे प्रौढ़ जीवन में शिक्षा प्राप्त करें और जीवन को सम्पन्न तथा सुखी बनावें। प्रौढ़ शिक्षा का यही तात्पर्य एवं लक्ष्य होता है। इसके साथ अब अभिभावकों की शिक्षा भी चल पड़ी है।

(9) स्त्री शिक्षा के समान विस्तार का सिद्धान्त- जनतंत्र में समानता के बल पर स्त्रियों की शिक्षा की व्यवस्था पुरुषों की शिक्षा व्यवस्था के समान होना जरूरी है।

(10) रुचि के अनुकूल शिक्षा पाने का सिद्धान्त- हरेक व्यक्ति अपनी रुचि के अनुकूल विषय चुने और पढ़े तथा अपनी योग्यता बढ़ावे और सफल नागरिक बने।

(11) शिक्षक शिक्षार्थी के प्रतिनिधि का सिद्धान्त- जनतंत्र प्रतिनिधित्व पर स्थिर रहता है। अतएव समाज के कार्यों एवं शिक्षालय के कार्यों में शिक्षक तथा शिक्षार्थी का उचित मात्रा में प्रतिनिधित्व होना जरूरी है।

(12) आत्मानुशासन एवं आत्मोत्तरदायित्व का सिद्धान्त- जनतंत्र की शिक्षा ऐसे ढंग से दी जाये कि पत्येक सूत्र में आत्मानुशासन और आत्मोत्तरदायित्व की भावना का विकास होता जाये। इसके लिये विभिन्न प्रकार की शिक्षाविधियों से काम लेना चाहिये। ये सब विद्यालय के द्वारा प्रदान किये जायें।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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