जनतंत्र और शिक्षा | शिक्षा में जनतंत्र का अर्थ | जनतंत्र में शिक्षा की आवश्यकता | जनतंत्र में शिक्षा के उद्देश्य
जनतंत्र और शिक्षा
‘जनतंत्रीय सरकार की माँग शिक्षित जनता है।” ऐसी स्थिति में जनतंत्र और शिक्षा में अत्यन्त निकट का सम्बन्ध होता है और शिक्षा एक आवश्यकता भी होती है। अतएव कुछ विद्वानों ने “शिक्षा में जनतंत्र” या शैक्षिक जनतंत्र की भी अभिकल्पना की है। इस पर भी थोड़ा-सा विचार करना जरूरी है।
(अ) शिक्षा में जनतंत्र का अर्थ-
शिक्षा में जनमत अथवा शैक्षिक जनतंत्र का अर्थ उस व्यवस्था से होता है जिसमें धर्म, जाति, वर्ग, सम्प्रदाय, यौन आदि के भेद-भाव को न मानकर सभी सदस्यों का शिक्षा का जन्म-सिद्ध अधिकार समानरूप से होता है और वे अपने विकास में स्वतन्त्र होते हैं, अन्य लोग ऐसे विकास में सहयोग देते हैं। इसे समझाते हुए ई० जे० पावर महोदय ने लिखा है कि “शिक्षा में जनतंत्र की कभी-कभी इस अर्थ में व्याख्या की जाती है कि सभी लोगों के सभी बालकों को शैक्षिक अवसर मिलेंगे और यह कि वे उन सामाजिक भेदों को न मानकर, जो कुछ शिक्षा प्रणाली में शैक्षिक प्रगति की सीढ़ी पर रुकावटें होती हैं, विद्यालयों में पढ़ने के लिए जा।”
इस सम्बन्ध में बी० एच० बोड महोदय ने भी अपना विचार दिया है। वे लिखते हैं कि “शिक्षा के क्षेत्र में इसका अर्थ हुआ व्यक्ति की रुचियों और क्षमताओं के विकास द्वारा उसकी मुक्ति….जनतंत्र का यह पहलू सामाजिक मूल्यों पर शैक्षिक बल में प्रतिबिंबित होता है।” इसका तात्पर्य यह है कि शिक्षा में जनतंत्र वह भावना है जो शिक्षा के संगठन में जनतंत्र के मूल तत्वों का प्रयोग करती है अर्थात् स्वतन्त्रता, समानता, भ्रातृता, सामाजिक न्याय, व्यक्तित्व के लिए रुझान आदि की शैक्षिक क्रियाओं एवं शैक्षिक कार्यक्रमों के संगठन में प्रयोग किया जाता है और शिक्षार्थी को समाजोपयोगी नागरिक बनाया जाता है।
(आ) जनतंत्र में शिक्षा की आवश्यकता-
यदि जनतंत्र में लोग शिक्षा प्राप्त नहीं करते और अशिक्षित रहते हैं तो वे शिक्षित वर्ग के सत्तारूढ़ होने पर उनके अधीन हो जाते हैं और सत्ताधारी शिक्षित वर्ग की इच्छाओं के इशारे पर चलते हैं जैसा कि आज अपने देश में होता है। इसलिए अशिक्षित जनता का शासन खराब कहा जाता है। लोग अधिकार समझते हैं और कर्तव्य मूलते हैं। स्वतंत्र विचार करना असम्भव होता है। स्वार्थ का बोलबाला होता है, और शिक्षा की भी दुर्दशा होती है। अतएव लोगों को समाज का उपयोगी एवं योग्य नागरिक बनाने के विचार से जनतंत्र में शिक्षा अत्यन्त आवश्यक होती है।
जनतंत्र में शिक्षा की आवश्यकता दूसरे विचार से भी होती है। जनतंत्र के आदर्शों को लोगों को समझाने और उसके अनुकूल व्यवहार एवं आचरण करने की जरूरत होती हैं जिससे कि जनतांत्रिक समाज का निर्माण एवं स्थायित्व हो सके। अतः स्पष्ट है कि स्वतन्त्रता, समानता, भ्रातृता, न्याय आदि तत्वों को जनसाधारण के बीच फैलाने के लिए भी शिक्षा की आवश्यकता जनतंत्र में होती है।
प्रो० एस० एन० मुकर्जी ने सम्बन्ध में यह भी कहा है कि जनतंत्र में “शिक्षा जनतंत्र के अस्तित्व के लिए आवश्यक है।” इसका तात्पर्य यह है कि शिक्षा के कारण ही जनतंत्र बनेगा और उसी के सहारे वह जीवित रहेगा। ऐसी दशा में यह जरूरी है कि हमें जनतंत्र में शिक्षा की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए अन्यथा जनतंत्र ही नहीं रह पायेगा।
(इ) जनतंत्र में शिक्षा का तात्पर्य-
यदि डीबी के मत को मान लें कि “जनतंत्र प्राथमिक तौर में सहयोगी रूप में प्रदान किये गये अनुभव के सहयुक्त जीवन का एक तरीका है।”, तो फिर शिक्षा का क्या तात्पर्य होगा यह भी हमें समझना चाहिये । एम० पी० फोलेट ने कहा है कि जनतंत्र हमें आत्मविश्वास करना सिखाता है और तभी हमें सामाजिक हित की चेतना आती है और हम समाज (जनतंत्र) के आदर्शों को अपनाते हैं। इन बातों को ध्यान में रखकर हम कह सकते हैं कि जनतंत्र में शिक्षा का तात्पर्य एक सामाजिक प्रक्रिया से होता है। डीवी ने भी बताया है कि जनतंत्र में शिक्षा सामाजिक पुनर्निर्माण की प्रक्रिया होती है। कुछ अन्य लोगों ने इसे समाजीकरण की प्रक्रिया (Process of Socialisation) कहा है अर्थात् इसके द्वारा व्यक्ति अपने को समाज के अनुकूल बनाता है और समाज को अपने अनुकूल । ऐसा दशा में शिक्षा व्यक्ति एवं समाज के बीच परिस्थिति के अनुकूल आचरण-व्यवहार, अनुभव-ज्ञान प्रदान करने की प्रक्रिया है।
शिक्षा का तात्पर्य एक दूसरे ढंग से भी लोगों ने बताया है। शिक्षा को एक साधन माना गया है जिसकी सहायता से व्यक्ति अपने को इस योग्य बनाता है कि वह एक उपयोगी, सक्रिय और निर्माणकर्ता सदस्य बन जावे । ऐसी दशा में हम कह सकते हैं कि जनतंत्र में शिक्षा का तात्पर्य है वह साधन जिससे व्यक्ति समाज के जीवन में सक्रिय भाग लेने में समर्थ होता है। शिक्षा इस प्रकार से जीवन की वास्तविक समस्याओं को हल करती है। अमरीका जैसे जनतंत्र में शिक्षा के साधन से वैयक्तिक विकास, सामाजिक व्यवस्थापन, नागरिकता का विकास, जीवन की तैयारी का काम होता है। अतएव शिक्षा व्यक्ति एवं समाज की प्रगति की प्रक्रिया व साधन है।
(ई) जनतंत्र में शिक्षा के उद्देश्य-
विद्वानों ने जनतंत्र में शिक्षा के उद्देश्यों को दो भागों में बाँट दिया है-(1) सामान्य उद्देश्य (2) अनिवार्य उद्देश्य । इन्हें नीचे दिया जा रहा है:-
(1) सामान्य उद्देश्य- (क) योग्य सदस्यता का विकास जो घर एवं समाज से सम्बन्ध रखे और प्रेम, सहयोग आदि पर आश्रित हो।
(ख) व्यवसाय सम्बन्धी कुशलता और नैतिकता का विकास जिससे व्यक्ति समाज का सदस्य बने।
(ग) अवकाश प्राप्त करने तथा प्रयोग करने की क्षमता का विकास जिससे मनोरंजन और अन्य लाभ प्राप्त हो सके।
(घ) शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त करना जिससे कि सही ढंग से रह सके और कार्य कर सके।
(ङ) बुद्धि और ज्ञान का विकास जिससे कि सभी कार्य आसानी से किये जा सकें।
(च) चरित्र का विकास और अनुशासन की स्थापना जिससे जिम्मेदारी पूरी की जावे।
(छ) जीवन के विभिन्न क्षेत्रों को तैयार करना जिससे वे अन्य लोगों को आगे ले जाने का सफल प्रयत्न करें।
(2) अनिवार्य उद्देश्य –(क) योग्य नागरिकों का निर्माण जिनमें देश को राजनतिक, आर्थिक, तथा सामाजिक समस्याओं का समझाने तथा सुलझाने की क्षमता होवे, सही चीजों को वे समझें, चिन्तन-मनन कर सकें, अर्थोपार्जन की शक्ति हो, अधिकार-कर्तव्य समझें, समाज के लिये त्याग कर सकें, सहनशीलता, सहानुभूतिपूर्ण, अनुशासित, राष्ट्रप्रेम से पूर्ण, समाज चेतन हों। (ख) सामाजिक दृष्टिकोण का विकास । (ग) अच्छी आदतों का निर्माण । (घ) बहुमुखी रुचियों का विकास। (ङ) सामंजस्यपूर्ण व्यक्तित्व का विकास । (च) व्यावसायिक एवं आर्थिक कुशलता एवं सम्पन्नता प्रदान करना। (छ) समाज तथा व्यक्ति को उँचा उठाना।
इन उद्देश्यों को देखने से ज्ञात होता है कि जनतंत्र में शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को योग्य एवं कुशल नागरिक बना कर समाज को ऊपर उठाना है। इस विचार से मनुष्य के व्यक्तित्व के सभी पक्षों का विकास शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिये जैसा कि प्रो० हुमायूँ कवीर के शब्दों से ज्ञात होता है, “शिक्षा को मानव प्रकृति के समस्त पक्षों के लिए सामग्री जुटानी चाहिये और मानवीय शास्त्रों, विज्ञानों तथा प्रौद्योगिकी को समान महत्व देना चाहिये जिससे कि मनुष्य को सभी कार्यों को निष्पक्षता, कुशलता और उदारता से करने के योग्य बना सकें।”
(3) अन्य आधुनिक उद्देश्य- उपर्युक्त उद्देश्यों के अलावा जनतंत्र में शिक्षा के कुछ अन्य उद्देश्य भी कहे गये हैं क्योंकि अब प्राचीन संसार बदल गया है और जीवन अन्तर्राष्ट्रीय होता जा रहा है जिसमें संसार के लोगों से सम्पर्क रखना अनिवार्य हो गया है। इस आधार पर ये अन्य उद्देश्य हैं :-
(क) भावात्मक एकता का विकास। (ख) अन्तर सांस्कृतिक सम्पर्क का विकास । (ग) अन्तर्राष्ट्रीय सम्भावना का विकास ।
(उ) जनतंत्र में शिक्षा का पाठ्यक्रम-
जनतंत्र में पाठ्यक्रम का निर्माण उन सिद्धान्तों के आधार पर किया जाता है जिससे कि जनतंत्र के आदर्शों की प्राप्ति होती है। इस सम्बन्ध में अमरीकी शिक्षा बुलेटिन में लिखा गया है कि “जनतंत्र में शिक्षा को प्रत्येक व्यक्ति में ज्ञान, रुचियों, आदर्शों, आदतों और शक्तियों का विकास करना चाहिये जिससे वह अपना उचित स्थान प्राप्त करे और उस स्थान का प्रयोग स्वयं और समाज दोनों को उच्च लक्ष्यों की ओर ले जाने के लिये करे।”
(क) पाठ्यक्रम-निर्माण के सिद्धान्त- जनतंत्र में शिक्षा के पाठ्यक्रम निर्माण के लिये निम्नलिखित सिद्धान्त बताये गये हैं-
(1) लचीलेपन का सिद्धान्त जिससे सभी को अध्ययन की सुविधा मिले ।
(2) आवश्यकताओं एवं आदर्शों की पूर्ति का सिद्धान्त जिससे व्यक्तिगत एवं सामाजिक तौर से सभी लोग विकास हेतु अध्ययन कर सकें।
(3) रुचि एवं योग्यता का सिद्धान्त जिससे सभी लोग अपने पसन्द की योग्यता के अनुसार शिक्षा पा सकें।
(4) व्यावहारिकता एवं उपयोगिता का सिद्धान्त जिससे कि जीवनोपयोगी शिक्षा लेकर लोग आराम से जीवन बिता सकें।
(5) क्रियाशीलता का सिद्धान्त जिससे पाठ्यक्रम में केवल शुष्क विषय ही न हों प्रत्युत क्रियाएँ भी हों।
(6) व्यापकता का सिद्धान्त जिससे जीवन के सभी विषय एवं क्रियाएँ पाठ्यक्रम में शामिल हों।
(7) समय के सदुपयोग का सिद्धान्त जिससे अवकाश काल में अन्यान्य क्रियाओं मनोरंजन आदि की व्यवस्था की जाये।
(ख) विशेषताएँ- उपर्युक्त सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम की रचना होने से जनतंत्र में पाठ्यक्रम की कई विशेषताएँ मिलती हैं जैसे-बहुमुखी होना, सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति होना, विविध प्रकार का होना, व्यक्ति की स्थानीय आवश्यकताओं के अनुकूल होना; व्यावसायिक शिक्षा के लिये अवसर मिलना, क्रिया और प्रयोग तथा परीक्षण के लिये प्रयत्न होना, बचे हुए समय में अभ्यास, मनोरंजन एवं अधिक ज्ञान- अनुभव मिलने की कोशिश की जाती है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि जनतंत्र में पाठ्यक्रम के अन्तर्गत सभी मानविकी विषय, विज्ञान, तकनीकी ज्ञान, दैनिक जीवन की क्रियाएँ समाज की क्रियाएँ आती हैं।
(ऊ) जनतंत्र में शिक्षा की विधि-
जनतंत्र की स्थापना आधुनिक युग में हुई इसलिये रूढ़िवादी, स्थिर और परम्परागत शिक्षाविधियों का प्रयोग नहीं किया जाता है। चूँकि जनतंत्र मनुष्यत्व का मूल्य करता है इसलिये मनुष्य क्रियाशील और आत्मनिर्भर होकर शिक्षा लेवे और जीवन के कार्यों को स्वयं करने की क्षमता रखे। इस दृष्टि से शिक्षा प्राप्त करने में क्रियाविधियों का प्रयोग किया जाना जनतंत्र में जरूरी समझा जाता है। इसी आधार पर मनुष्य प्रगतिशील बनता है। क्रियाशीलता और प्रगतिशीलता के अलावा शिक्षाविधि में स्वतन्त्रता भी होनी चाहिए। शिक्षार्थी स्वतंत्र ढंग से कार्य करे और अनुभव तथा ज्ञान प्राप्त करें, यह जनतंत्र में अपेक्षा रहती है।
अन्त में शिक्षा की विधि से शिक्षार्थी की बुद्धि का विकास होना चाहिये जैसा कि डीवी का मत है कि जनतंत्र का तात्पर्य होता है उसके सदस्यों द्वारा अपनी बुद्धि का प्रयोग करना।
अब स्पष्ट हो जाता है कि किन विधियों से जनतंत्र में शिक्षा दी जाती है। जनतंत्र में इस प्रकार से वाद-विवाद विधि, समाजीकृत अभिव्यक्ति की विधि, समस्या-विधि, अभिनय-विधि, प्रोजेक्ट-विधि, क्रिया-विधि, खेल-विधि, निरीक्षण-विधि, सह-सम्बन्ध-विधि, प्रयोगशाला-विधि, रिष्टिक-विधि, डाल्टन-विधि, मॉण्टेसरी -विधि, अन्वेषण-विधि से शिक्षा दी जाती है। इन विधियों का प्रयोग यथा समय किया जाता है एक साथ नहीं। इससे सीखने वाले को अपनी रुचि और आवश्यकता के अनुसार शिक्षा की विधि को चुनने में स्वतन्त्रता होती है। शिक्षकों का पूरा सहयोग, निर्देशन एवं परामर्श विद्यार्थियों को मिलता है।
(ए) जनतंत्र में विद्यालय-
यूरोप की औद्योगिक क्रान्ति का प्रभाव विश्व के सभी देशों पर पड़ा और इसके परिणामस्वरूप श्रमिकों, उद्योगकर्ताओं, उत्पादकों, पूँजीपतियों, नियोजकों उपभोक्ताओं के समुदाय बने। इसी प्रकार से शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति के कारण स्वरूप समाज परिवार, पाठशाला, विश्वविद्यालय, व्यवसाय केन्द्र, व्यापार संघ, छात्रसंघ, चर्च आदि को स्थापित किया गया। जनतंत्र में विद्यालय समाज तथा जनतंत्र को संगठित करने और दृढ़ बनाने के लिये बना हुआ एक अभिकरण है।
विद्यालय जनतंत्र में एक आवश्यकता है, समाज की एक प्रयोगशाला है। इस विचार से उसका आविष्कार समाज ने किया है जिससे कि जनतंत्र को सुचारु रूप से चलाया जावे। अतः विद्यालय जनतंत्रीय सिद्धान्तों पर ही बनाये गये। विद्यालय का संगठन एवं प्रशासन भी जनतंत्रीय हुआ जिसमें स्वतन्त्रता, समानता, भ्रातृता, और सामाजिक न्याय के आदर्श पाये गये। विद्यालय का एक विशेष वातावरण भी तैयार किया गया जिसमें प्रेम, मित्रता, सहयोग, सहानुभूति, त्याग, सेवा, परोपकार, आदि भाव व्याप्त हों। विद्यार्थी एवं शिक्षक स्वतंत्र ढंग से पाठ्य-विषय, पाठ्य-पुस्तक, शिक्षा विधि आदि का प्रयोग करें। दोनों मिलजुल कर सम्मान के साथ शिक्षा लेवें। अध्यापक एवं प्रशासक मित्र, पथ प्रदर्शक, सलाहकार, दार्शनिक एवं सामाजिक नेता के रूप में समझे गये जिनका कार्य जनतंत्र को सफल बनाना रहा।
जनतंत्र में विद्यालय राजनैतिक पार्टियों के प्रभाव से मुक्त होना चाहिए। विद्यालय निरीक्षक निर्माणकारी आलोचना करें और सुधार की कोशिश करें। विद्यालय के कार्यक्रम में कोई हस्तक्षेप न हो। विद्यालय की व्यवस्था एवं प्रबंध में स्वशासन की भावना होती है। शिक्षक, शिक्षार्थी एवं प्रशासक मिलकर स्वयं विद्यालय का ऐसा प्रबन्ध करें कि योग्य एवं चरित्रवान नागरिकता का विकास विद्यालय जीवनयापन के कौशल प्रदान करे तथा व्यक्तित्व का विकास करे। इसलिये जनतंत्र के विद्यालय सुसज्जित हों और अपने उत्तरदायित्व को पूरा करने में समर्थ हों।
(ए) जनतंत्र के शिक्षक-
जनतंत्र के शिक्षक, मित्र, सहयोगी, पथप्रदर्शक और समाज-सुधारक कहे जाते हैं। ऐसी दशा में उनमें कुछ गुणों का होना जरूरी है, उस पर जनतंत्र को सफल बनाने का उत्तरदायित्व होता है। उसमें निम्नलिखित गुण बताये गये हैं-
(1) जनतंत्र के मूल्य और आदर्श से भरा होना। (2) प्रेम तथा सहानुभूति से व्यवहार करना । (3) बालक को पवित्र मानकर सम्मान देना। (4) व्यक्तिगत भिन्नताओं में विश्वास करके शिक्षा देना। (5) बालक के व्यक्तित्व को स्वतंत्रता और समानता के साथ अवसर देकर विकसित करना । (6) वंशानुक्रम की अपेक्षा पर्यावरण को अधिक महत्व देना तथा अच्छा वातावरण प्रदान करके बालक का सर्वांगीण विकास करना । (7) शिक्षार्थी के अभिभावकों तथा समाज की परिस्थितियों से पूर्ण परिचित होना। (8) अपने अधिकार और कर्तव्य का पूर्ण ज्ञान होना। (9) शिक्षक को पथ-प्रदर्शन, परामर्श और शिक्षाण की विधियों से पूर्ण दक्ष होना चाहिए। (10) शिक्षक जीवन की समस्याओं को व्यावहारिक ढंग से हल कराने वाला होना चाहिये। (11) शिक्षक को सामाजिक अनुशासन मानना चाहिए।
जनतंत्र में शिक्षक के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि प्रथम, वह एक योग्य नागरिक हो तथा जनतंत्र के मूल्यों, आदर्शो, सिद्धान्तों में पूर्ण निष्ठा हो। द्वितीय, उसमें शिक्षार्थी को समझने, पथ-प्रदर्शन करने, सफल नागरिक बनाने की शक्ति और क्षमता होनी चाहिये, तृतीय उसका प्रशिक्षण जनतंत्रीय ढंग से होना चाहिए। चतुर्य उसे नेतृत्व करने में समर्थ होना चाहिये। पंचम, इसके लिये उसमें चरित्र तथा व्यक्तित्व के उत्तम गुण होने चाहिये जिससे कि वह अपने कर्तव्य को पूरा कर सके।
(अ) जनतंत्र में अनुशासन- जनतंत्र में अनुशासन बहुत महत्वपूर्ण होता है उसे विद्वानों ने “कुंजी” बताया है। जनतंत्र के मूल्य और आदर्श उसके अनुशासन को भी बताते हैं। जनतंत्र एक सामाजिक व्यवस्था है इसलिये अनुशासन भी सामाजिक होता है। सामाजिक अनुशासन का तात्पर्य समाज के लोगों द्वारा नियंत्रण होना है अर्थात् समूह का प्रभाव व्यक्ति की क्रिया पर पड़ता है। इसके अलावा समाज के सभी सदस्यों के प्रति सद्भावना एवं ध्यान रखना पड़ता है। ऐसी दशा में व्यक्ति को आत्म-अनुशासन। रखना पड़ता है। आत्म-अनुशासन के लिये हरेक विद्यार्थी के लिये स्वतंत्र ढंग से कार्य करने की सुविधा होनी चाहिये। विद्यालय का वातावरण सरल, सहानुभूतिपूर्ण, प्रेम एवं मित्रता से भरा हुआ होना चाहिये। कोई दमन और तानाशाही नहीं हो। विद्यालय में स्वेच्छा एवं अपनी योग्यतानुसार क्रिया करने को मिले। विद्यालय में आत्म-अनुशासन लाने के लिये पाठ्यक्रमेत्तर क्रियाओं, विषय-समितियों, विद्यार्थी परिषद्, सेवा योजना संघ, स्काउटिंग, सैनिक शिक्षा संघ आदि हों जिसमें विद्यार्थियों को भाग लेने के लिये अवसर मिले। इससे समाज में कार्य करने के उत्तरदायित्व समझने का अवसर मिलता है आत्म-अनुशासन में कर्तव्य-अधिकार का पूर्ण संतुलन पाया जाता है।
आत्म-अनुशासन की भावना लाने के लिये विद्यार्थियों के साथ-साथ शिक्षकों को भी कार्यरत् होना चाहिये। उन्हें पुलिस की तरह दण्ड देने वाला नहीं होना चाहिये बल्कि अपने काम में हिस्सा देना चाहिए। विद्यालय की समितियों में अध्यापक एवं विद्यार्थी को साथ-साथ रखना चाहिये जिससे विद्यार्थी अपने को विद्यालय का एक अंग समझने लगे। इस कार्य के लिये प्रधानाध्यापक एवं अध्यापक विद्यार्थी को अपने-आप कार्य करने के लिये प्रोत्साहित करते रहे। उन्हें उचित निर्देशन देवें। समाज के लोगों और विद्यालय के लोगों के बीच विद्यार्थी को जोड़ने वाली कड़ी के रूप में रखना चाहिये।
शिक्षाशास्त्र – महत्वपूर्ण लिंक
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