एक दुराशा | बालमुकंद गुप्त – एक दुराशा | फणीश्वर नाथ रेणु – ‘तीसरी कसम’ के सेट पर तीन दिन

एक दुराशा | बालमुकंद गुप्त – एक दुराशा | फणीश्वर नाथ रेणु – ‘तीसरी कसम’ के सेट पर तीन दिन

एक दुराशा – बालमुकंद गुप्त

  1. “द्वितीया के चन्द्र की भाँति-कभी-कभी बहुत देर तक नजर गड़ाने से उसका चन्द्रानन दिख जाता है तो दिख जाता है। लोग उँगुलियों से इशारा करते हैं कि वह है। किन्तु दूज के चाँद का भी एक समय है। लोग उसे जान सकते हैं। माई लार्ड के मुखचन्द्र के उदय के लिए कोई समय भी नियत नहीं।”

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यावरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘निबन्ध संग्रह’ के ‘एक दुराशा’ शीर्षक निबन्ध से अवतरित है। इसके लेखक बालमुकुन्द गुप्त हैं। इसमें अंग्रेजी शासकों की भारतीयों के प्रति उपेक्षा और तिरस्कार का चित्रण किया गया है।

व्याख्या- द्वितीय को भारतीय धर्मशास्त्रों के अन्तर्गत अत्यन्त शुभ माना गया है। इस दिन चन्द्र दर्शन का अपना एक विशेष महत्व है। लाखों लोग संध्या से ही चन्द्रोदय की प्रतीक्षा में आकाश की ओर टकटकी लगाये रहते हैं। कभी तो उन्हें चन्द्र-दर्शन हो जाता है, किन्तु कभी बादलों का आड़ आ जाने पर नहीं दिखाई पड़ता। लेकिन इससे वे क्षुब्ध या निराश नहीं होते। क्योंकि उसका अपना एक नियत समय रहता है वह टल जाने के पश्चात् उनकी आतुरता उनकी शान्त हो जाती है, पर माई लार्ड के मुख चन्द्र के सम्बन्ध में ऐसा कदापि नहीं कहा जा सकता। इसका कोई समय निर्धारित नहीं। अब्बल तो इनके दर्शन ही दुर्लभ हैं, यदि मान लीजिये दर्शन हो भी जाये तो आप इसे अपना अहो-भाग्य समझिये।

विशेष- (1) भाषा सरल व शैली विवेचनात्मक है।

(2) गुप्त जी खड़ी बोली को यहाँ पर एक नई दिशा दी है।

  1. अच्छा यदि आज.………….खेल सकता।

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

व्याख्या- प्रस्तुत पंक्तियों में- परतंत्र भारत की दयनीय और विडम्बनात्मक स्थिति का बड़ा मार्मिक चित्रण करते हुए लेखक अपनी व्यंग्यपूर्ण शैली में लिखता है कि शिव शम्भु शर्मा (भारत की सम्पूर्ण प्रजा का प्रतिनिधि अथवा लेखक) अपने अन्य मित्रों को कर होली के नशे में महदोश अबीर गुलाल की झोलियाँ भरे और रंग की पिचकारियाँ लिये अपने राजा से होली खेलने जाय तो कहाँ जाय? वास्तविक राजा (रानी विक्टोरिया) तो भारत में है नहीं, उसके प्रतिनिधि (नौकर) भारत का शासन करने के लिए भेजे जाते हैं। कितनी दयनीय स्थिति है? एक तो राजा विदेशी है, दूसरे वह स्वयं राज्य नहीं करता, भाड़े के टटुओं को शासन करने के लिए भेजता है। ये शासक उसी प्रकार अपने शासन में असफल हैं, जैसे उद्धव ने गोपियों को ज्ञान का रूखा उपदेश देकर उन्हें दुःखी किया था।

विशेष- प्रस्तुत पंक्तियों में गुप्त जी ने परतन्त्र भारत की दनयीय स्थिति का बड़ा व्यंग्यपूर्ण चित्र खींचा है। राजा-प्रजा का सारा सम्बन्ध खन्डित हो गया है।

  1. “मार्ड लार्ड के शासन के छः साल हालवेल के स्मारक में लाठ बनवाने ब्लैक होल का पता लगाने, अखतर लोगों की लाठ को मैदान से उठवाकर वहाँ विक्टोरिया मिमोरियल हाल बनवाने वहाँ गवर्नमेण्ट हौस के आस-पास अच्छी रोशनी, अच्छी फुटपाथ और अच्छी सड़कों का प्रबन्ध करने में बीत गये। दूसरा दौरा भी वैसे ही कामों में बीत रहा है। सम्भव है कि उसमें श्रीमान् के दिल पसन्द अंग्रेजी मुहल्लों में कुछ और बड़ी-बड़ी सड़के निकल जाएँ और गवर्नमेण्ट हौस की तरफ के स्वर्ग की सीमा और कुछ बढ़ जावे। पर जैसा अन्धेरे में था वैसा ही रहा। क्योंकि उसकी असली दशा देखने के लिए और ही प्रकार की आँखों की जरूरत है। जब तक वह आँखे न होगी या अन्धेरा यों ही चला जायेगा। यदि किसी दिन शिवशम्भु शर्मा के साथ माई लार्ड नगर की दशा देखने चलते तो वह देखते कि इस महानगर की लाखों प्रजा भेड़ों और सुअरों की भाँति सडे गन्दे झोपड़ी में पड़ी लोटती हैं।”

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

व्याख्या- गुप्त जी कहते हैं कि लार्ड रुप्पन, जो भारत में दो बार शासन करने आये, का पहली बार का समय हालवेल के स्मारक के लाट बनवाने, ब्लैक होल का पता लगाने आदि व्यर्थ के कामों में बीता। दूसरी बार का समय भी उन्हीं कार्यों में बीत रहा है, जिनका जनता से कोई सम्बन्ध नहीं है। उनके पास जनता के दुःख-दर्द को समझने की आँखे नहीं है। उन्होंने कभी यह भी नहीं सोचा कि भारत की सामाजिक, आर्थिक दशा कैसे सुधर सकती है? यह कहना अनुचित न होगा कि अंग्रेजी शासन की ‘फूट डालो और राज्य करो’ नीति के अन्तर्गत यह नीति भी थी कि भारतीय जनता की किसी भी प्रकार से स्थिति सुधरने न पाये, क्योंकि आत्म-निर्भर हो जाने से या अन्य किसी प्रकार की शक्ति अथवा चेतना आ जाने से उनके शासन को खतरा था। इसीलिए वे सदैव भारतीय जनता का शोषण करते रहे और उसे कमजोर बनाकर नारकीय यातना देते रहे। जिससे कि वे सिर न उठा सकें।

विशेष- प्रस्तुत पंक्तियों में अंग्रेजी शासकों की नीतियों का खुलासा किया गया है।

  1. “जो पहरेदार सिर पर फेटा बाँधे हाथ में संगीनदार बन्दूक लिये काठ के पुतलों की भाँति गवर्नमेन्ट हौस के द्वारा पर दण्डायमान रहते हैं या छाया की मूर्ति की भांति जरा इधर-उधर हिलते-डुलते दिखाई देते हैं कभी उनको भूले भटके आपने पूछा है कि कैसी गुजरती है? किसी काले प्यादे, चपरासी या खानसामा आदि से कभी आपने पूछा कि कैसे रहते हो? तुम्हारे देख की क्या चाल-ढाल है। तुम्हारे देश के लोग हमारे राज्य को कैसा समझते हैं? क्या इन नीचे दरजे के नौकर-चाकारों को कभी माई लार्ड के श्रीमुख से निकले हुए अमृत रूपी वचनों को सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ या खाली पेड़ों पर बैठी चिड़ियों का शब्द ही उनके कानों तक पहुँचकर रह गया?

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

व्याख्या- गुप्तजी कहते हैं कि जो चौबीस घण्टे अपने पास रहने वाले भारतीय पहरदारों तक को नहीं पहचानते थे। पहरेदार जो सिर में फेंटा बाँधे, हाथ में संगीनदार बन्दूक लिये काठ के पुतलों की भाँति उनकी सेवा में अपने को खपाते रहते थे और उनकी रक्षा करते थे, या काले भारतीय चपरासी अथवा खानसामे जो रात-दिन उनके आगे-पीछ घूमते थे, कभी उनसे बात नहीं करते थे। नौकर के प्रति मालिक का क्या कर्त्तव्य होता है, इसका ध्यान अंग्रेजों को कभी नहीं रहा। अंग्रेज शासक भारत में ऐश-आराम करने आते थे। उनकी एक मात्र नीति रहती थी ‘फूट डालों और राज्य करो।’ वे भारतीयों को उपेक्षा और घृणा की दृष्टि से देखते थे और उनका शोषण करते थे। वे शिकार खेलना पसन्द करते थे, पर भारतीयों के प्रति कोई रुचि नहीं रखते थे। उनके कानों मे चिड़ियों का शब्द तो पहुंच जाता था, पर किसी गरीब भारतीय की आवाज नहीं पहुंच पाती थी। उन्हें इस बात की चिन्ता भी नहीं रहती थी कि उनके शासन के बारे में भारतीय जनता क्या सोचती है।

विशेष प्रस्तुत पंक्तियों में गुप्त जी ने अंग्रेजों की नीति का पर्दाफाश किया है।

  1. कृष्ण है, उद्धव हैं..……………. पहुँच सकती।

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

व्याख्या- अंग्रेजी शासक पर व्यंग्य करते हुए गुप्तजी कहते हैं कि आप उद्धव हैं लेकिन माई लार्ड आप तक ब्रजवासी रूपी जनता नहीं पहुंच सकती। ब्रजवासियों और कृष्ण का मिलन जिस प्रकार दुर्लभ हो गया था वैसे ही माई लार्ड आपका दर्शन भारतीय जनता को दुर्लभ है। जिस प्रकार ब्रजवासी कृष्ण के दर्शन के इच्छुक थे उसी प्रकार भारतीय आपके। राजा हैं, राजा के प्रतिनिधि भी हैं लेकिन प्रजा की उन तक और उनकी प्रजा तक पहुंच नहीं हो पाती। सूर्य है लेकिन उसकी गर्मी नहीं है, चन्द्रमा है लेकिन उसमें चाँदनी नहीं है अर्थात् माई लार्ड की हुकूमत है लेकिन प्रजा के साथ उनका व्यवहार उचित नहीं है। कहाँ एक समय था कि प्रजा राजा के साथ होली खेलती थी। राजा प्रजा की टोली में मिलकर एक बार और अभिन्न बन जाता था। कहाँ वह समय आ जाता है कि प्रजा अपने राजा के पास पहुँच नहीं सकती। राजा कभी प्रजा के हित के साधनों के विषय में सोचा करता था, प्रजा किस प्रकार खुशहाल हो; सम्पन्न बने। आज इसके विपरीत है, शोषण है, लूट-खसोट है। कभी वह रात में वेष बदलकर अपनी प्रजा के दुःख-सुख के बारे में आँखों देखा हाल जानने के लिए घूमा करता था। आज राजा के पास प्रजा की आर्त पुकार को भी सुनने का वक्त नहीं है। लेखक कहता है कि शिव शम्भु आज उनके दरवाजे पर भटक दरवाजे पर भटक नहीं सकता। यहाँ शिव शम्भु से तात्पर्य बालमुकुन्द गुप्त पर जनता जनार्दन से है।

  1. “इस देश में करोड़ों प्रजा ऐसी है जिसके लोग जब संध्या सबेरे किसी स्थान पर एकत्र होते हैं तो महाराज विक्रम की चर्चा करते हैं और उन राजा-महाराजाओं की गुणावली वर्णन करते हैं जो प्रजा का दुःख मिटाने और उनके अभावों का पता लगाने के लिये रातों को वेश बदलकर निकला करते थे। अकबर के प्रजा पालन की और बीरबल के लोकरंजन की कहानियाँ कहकर वह जी बहलाते हैं और समझाते हैं कि न्याय और सुख का समय बीत गया।”

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

व्याख्या- गुप्तजी कहते हैं कि – मुसलमान अथवा अंग्रेजी शासन से पूर्व जब हमारा देश स्वतन्त्र था, तब ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था। चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में लोग घरों में ताला- नहीं लगाते थे। गुप्त वंश के राजाओं-चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य विशेष रूप से- का शासन भी भारतीय इतिहास मे स्वर्ण युग के नाम से प्रसिद्ध है। सामाजिक, आर्थिक सभी दृष्टि से हमारा देश विश्व में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखता था। धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में भी हमारा देश जगद्गुरू था। भगवान बुद्ध ने अपने विचार और सन्देश का डंका विश्व में बजाया। अशोक जैसे प्रतापी और समर्थ राजाओं का प्रश्रय प्राप्त कर बुद्ध धर्म विश्व का एक महानतम धर्म बना। भारतीय जनता इन्हीं सब बातों का स्मरण आज करती है और अंग्रेजी शासन की नीतियों पर आँसू बहाती है। भारत मुसलमानों का गुलाम भी रहा है, पर मुस्लिम शासन में भारतीय जनता की इतनी बुरी दशा नहीं थी। मुस्लिम राजाओं और अंग्रेजी शासकों में एक मूलभूत अन्तर यह था कि मुस्लिम राजाओं ने भारत अपने देश समझा और यहीं रहने की सोचकर इसके उत्थान में हाथ बंटाया। अंग्रेज शासकों ने भारत को कभी अपना देश नहीं समझा। उन्होंने कभी भारत की आत्मा को पहचानने की आवश्यकता नहीं समझी। भारत महज उनके लिए एक उपनिवेश से अधिक कुछ नहीं था। इसलिए भारतीय जनता अकबर के शासन को अंग्रेजी शासन से अच्छा समझती थी। अकबर की उदार नीति के कारण हिन्दू-मुस्लिम भेद-भाव की खाई पर्याप्त मात्रा में पटी थी। उसकी अन्दरूनी नीति कुछ भी रही हो सामान्य जनता को राहत मिली थी।

विशेष- प्रस्तुत पंक्तियों में भारत के प्राचीन शासकों और अंग्रेजी शासकों की तुलना की गयी है।

  1. “सचमुच बड़ी कठिन समस्या है। कृष्ण हैं, उद्धव हैं, पर ब्रजवासी के निकट भी नहीं फटकने पाते। राजा हैं, राजा प्रतिनिधि है, पर प्रजा की उन तक रसाई नहीं। सूर्य है, धूप नहीं। चन्द्र है, चाँदनी नहीं। माई लार्ड नगर में है, पर शिवशम्भु उनके द्वार तक फटक नहीं सकता , उनके घर चलकर होली खेलना तो विचार ही दूसरा है।”

सन्दर्भ और प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘निबन्ध-संग्रह’ में संकलित एक दुराशा’ शीर्षक निबन्ध से अवतरित किया गया है, जिसके रचनाकार भारतेन्दु युग के समर्थ निबन्धकार बालमुकुन्द गुप्त जी हैं। गुप्त जी के निबन्ध ‘शिवशम्भु के चिट्टे’ में संग्रहीत हैं जिसमें उन्होंने काल्पनिक पात्र शिवशम्भु के माध्यम से ब्रिटिश शासन की खुलकर निर्भीक आलोचना की है। दूर से आती हुई गाने की आवाज ‘चलो चलो आज खेलें होली, कन्हैया घर, सुन शिवशंभु शर्मा चौंक उठे। गीत के अर्थ की पृष्ठभूमि में निबन्धकार भारत के अतीत एवं वर्तमान की तुलना करता हुआ अपने हृदय के क्षोभ को व्यक्त करता हुआ कहता है कि-

व्याख्या- ब्रजवासी ग्वाल-बालआनन्द में मग्न कृष्ण के घर होली खेलने को उद्धत हैं। राजा और प्रजा के बीच इतनी आत्मीयता अब एक दुराशा मात्र है। आज देश में महारानी विक्टोरिया का शासन है, उनका राज प्रतिनिधि वाइसराय उद्धव रूप है और शिव शम्भु देशवाली निरीह प्रजा का प्रतीक। देश की प्रजा चाहती है कि वह अपने राजा के साथ होली खेले, किन्तु वहाँ तक वह पहुँच ही नहीं सकता। वर्तमान और अतीत का कैसा दुर्भाग्यपूर्ण विरोधाभास है। कहाँ एक समय ऐसा भी था कि राजा अपनी प्रजा के साथ घुल-मिलकर होली खेलता था अर्थात् अपने सुख को अपनी प्रजा में बाँटकर आनन्दित होता था, किन्तु आज ऐसी घड़ी भी आ गयी है कि प्रजा अपने दुःखों के निवारण हेतु राजा अथवा अपने राज-प्रतिनिधि तक पहुँच ही नहीं सकती। कैसी बिडम्बना है। सूर्य है किन्तु प्रकाश नहीं ,चन्द्र है किन्तु शीतल चाँदनी नहीं अर्थात् वाइसराय महोदय नगर में है किंतु सर्वत्र अंधेरा ही अंधेरा है, शोषण एवं दमन का साम्राज्य है सत्य कहने वाले को जेल के अंदर ठोस दिया जा रहा है, लूट का खसोट का बोलबाला, प्रजा की गुहार सुनने वाला कोई नहीं। निबंधकार कहता है कि शिव शंभू शर्मा जो देश की करोड़ों जनता का प्रतिनिधि है, अपने राजा के प्रतिनिधि माई लार्ड के दरवाजे पर पटक नहीं सकता। आज हमारा देश कैसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से गुजर रहा है कि रोना ही आता है। कोई विकल्प नहीं।

फणीश्वर नाथ रेणु-‘तीसरी कसम’ के सेट पर तीन दिन

  1. ‘एक बात कह दूँ, मैं सुबत बाबू के कैमरे को सुबत बाबू की देह से भिन्न नहीं- उनका सजीव अंग मानता है। मेरे दिल में इस व्यक्ति (कैमरा सहित) के लिये असीम श्रद्धा है।’

सन्दर्भ- प्रस्तुत व्याख्येय पंक्तियाँ प्रसिद्ध रिपोर्ताज लेखक रेणु जी द्वारा रचित ‘तीसरी कसम के सेट पर तीन दिन’ नामक रिपोर्ताज से उद्धृत की गयी है।

प्रसंग- व्याख्या पंक्तियों में रेणु जी ने एक फिल्मी निर्देशक में प्रति सम्मान प्रकट किया है।

व्याख्या- असिस्टेंट डायरेक्टर बासू चटर्जी के माध्यम से रेणु जी ने इस गद्याश में एक निर्देशक के महत्व को बताया है। कैमरे को देह से तुलना करके उसके महत्व को दर्शाते हैं। कैमरे तथा सुव्रत बाबू के देह को एक मानकर रेणु जी ने फिल्मी निर्देशक के जीवन में कैमरे के महत्व का अंकन किया है। रेणु ने इस गद्यांश में डायरेक्टर सुब्रत बाबू के सम्मान के साथ उनके प्रोफेसन का भी सम्मान किया है।

  1. “शाम को लौटते समय मुझे क्या वर्षों से मेरी छाती पर बैठ कर मूंग दलने वाला हिरामन, लाल मोहर, पलट दास, और लहसनवाँ सभी देव-दानव एक साथ उतर कहीं चले गये। सिर्फ चक्की की घरघराती हुई एक रागिनी मेरे मन में मडरा रही हैं।”

सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा लिखित रिपोर्ताज ‘तीसरी कसम के सेट पर तीन दिन से लिया गया है।

प्रसंग- इस गद्यांश में रेणु जीने सेट पर तीन दिन बीतने के बाद की मनोदशा का वर्णन किया है।

व्याख्या- रेणु ने वर्षों के चिन्तन के बाद तीसरी कसम नामक कहानी को लिखा था। हिरामन, लाल मोहर, पलटदास जैसे पात्रों का निर्माण करने में रेणु ने वर्षों का समय लगाया था। इस दौरान वे चिन्तन की एक जटिल प्रक्रिया से गुजरे थे। इस गद्यांश में लेखक सोच रहा है कि जिस चिन्तन प्रक्रिया से पात्रों का निर्माण हुआ था फिल्म निर्माण प्रक्रिया में वे उतर गये। प्रतीकात्मक रूप से अपनी बात को रखने के लिये रेणु जी ने ‘वन्दिनी’ के गीत का प्रयोग किया है।

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