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गुल्ली डण्डा कहानी की व्याख्या | प्रेमचंद की कहानी गुल्ली डण्डा

गुल्ली डण्डा कहानी की व्याख्या | प्रेमचंद की कहानी गुल्ली डण्डा

गुल्ली डण्डा कहानी की व्याख्या

  1. मुझे पदाकर मेरा कचूमर नहीं निकालना चाहता था। ‘ अब अफसर हूँ। यह अफसरी मेरे और उसके बीच में दीवार बन गयी है। अब मैं उसका लिहाज पा सकता हूँ, अदब पा सकता है, साहचर्य नहीं पा सकता। लड़कपन था, तब मैं उसका समकक्ष था। हममें कोई भेद न था। यह पद पाकर अब में केवल उसकी दया के योग्य हूँ। वह मुझे अपना जोड़ नहीं समझता। वह बड़ा हो गया है, मैं छोटा हो गया है।

सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा रचित ‘गुल्ली डण्डा’ कहानी से अवतरित है।

प्रसंग- यह गद्यांश ‘गल्ली डण्डा’ कहानी के अन्तिम अनुच्छेद से उधृत है। इसमें प्रेमचन्द्र ने कथावाचक (मैं) तथा ‘गया’ के लीचा समय के साथ बदते सामाजिक स्तर को दिखाया है।

व्याख्या- छुआछूत और अमीर-गरीब के संस्कार बचपन में उतने प्रबल नहीं होते लेकिन समय के साथ यह न चाहते हुए भी मनुष्य को यह भावना घेर लेती है। ‘मैं’, (कथावाचक) गया, को दूर से पहचान कर उसकी ओर लपकने में संकोच करता है। ‘गया’ अपने को डिप्टी साहब का साईस बताता है तो मैं अपने आपकों जिले का इंजीनियर। वर्ग- चेतना का यह बोध बचपन में नहीं था, लेकिन अब है। ‘गया’ तथा ‘मैं’ ने अपनी सीमायें तय कर ली हैं। सामाजिक जकड़-बन्दी ने उन्हें ऐसा करने को मजबूर किया है। अफसरों ‘मैं’ तथा गया के बीच दीवार बन गयी। अब लिहाज होता है, साहचर्य नहीं। ‘मैं’ शिद्दत से अनुभव करता है कि अब पद और सामाजिक हैसियत के कारण वह ‘गया’ का समकक्ष न रहकर उसकी दया का पात्र हो गया है। ‘गया’ अब उसे अपना जोड़ नहीं समझता। गया बड़ा हो गया है, वह (मैं) छोटा हो गया है।

विशेष- (1) ‘गुल्ली-डण्डा’ का यह गद्यांश अन्तिम अनुच्छेद से लिया गया है। इसमें ‘गया’ तथा ‘मैं’ (कथा – वाचक) के माध्यम से सामाजिक हैसियत के बदलते स्वरूप को दिखाया गया है। (2) इस गद्यांश की भाषा सरल, स्वाभाविक होने के साथ कथ्य को समझ पाने योग्य बनाती है।

  1. मुझे गुल्ली ही सब खेलों से अच्छी लगती है और बचपन की मीठी स्मृतियों में गुल्ली ही सबसे मीठी है। वह प्रातः काल घर से निकल जाना, वह पेड़ पर चढ़कर टहनियाँ काटना और गुल्ली-डण्डे बनाना, वह उत्साह, वह लगन, वह खिलाड़ियों के जमघट, वह पदना और पदाना और, वह लड़ाई-झगड़े, वह सरल स्वभाव, जिसमें छूत-अछूत, अमीर गरीब का बिल्कुल भेद न रहता था, जिसमें अमीराना चोंचलों की, प्रदर्शन की, अभिमान की गुजाइश ही न थी, यह उसी वक्त भूलेगा जब……जब……। घरवाले बिगड़ रहे हैं, पिताजी चौके पर बैठे वेग से रोटियों पर अपना क्रोध उतार रहे हैं, अम्माँ की दौड़ केवल द्वार तक है, लेकिन उनकी विचारधारा में मेरा अन्धकारमय भविष्य टूटी हुई नौका की तरह डमडगा रहा है और मैं हूँ कि पदाने में मस्त हूँ, न नहाने की सुधि है न खाने की । गुल्ली है तो जरा-सी, पर उसमें दुनिया भर की मिठाइयों की मिठास और तमाशों का आनन्द भरा हुआ है।

सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश प्रेमचन्द्र द्वारा लिखित ‘गुल्ली-डण्डा’ कहानी से उद्धृत है।

प्रसंग- इस गद्यांश में प्रेमचन्द्र ने बचपन को याद किया है। ‘मैं’ कथावाचक इंजीनियर बनकर आया है। वह अपने बचपन को याद कर रहा है।

व्याख्या- इस कहानी का पात्र, जो अपनी कहानी सुना रहा है, एक थानेदार का बेटा है। अब इंजीनियर बन गया है। वह अपने बचपन को याद कर रहा है। उसे बचपन के दिन याद आते हैं, जब वह कस्बे में अपने दोस्तों के साथ गुल्ली-डण्डा खेला करता है। यह सुनहरी याद अभी भी उसने मन में ताज है। बड़ा होने पर आदमी अपने बचपन की स्मृतियों में बराबर डुबकी लगाता है। इस गद्यांश में गुल्ली डंडा बचपन की आजादी का प्रतीक है। प्रेमचन्द्र ने बच्चों तथा किशोरों की इसलिए………….. बचपन की आजादी खेलकूद के महत्व पर बल दिया है। वे अंग्रेजी किस्म के शिक्षा के कारण ही इसे रटंतू बनाया जाता है, बचपन लुप्त कर दिया गया है। अनुच्छेद के अन्त में गुल्ली- डन्डा के खेल का आनन्द बताया गया है। पदने-पदाने के सुख या दुःख का वही इतना डूबकर वर्णन कर सकता है जिसने कभी गुल्ली-डण्डा खेला हो।

विशेष – (1) इस गद्यांश की भाषा सरल, सहज एवं बेहद स्वाभाविक हैं।

(2) इसमें मुहावरों का भी प्रयोग है- टूटी नौका की तरह डगमगाना।

  1. हमारे अंग्रेजीदों दोस्त माने या न मानें, मैं तो यही कहूँगा कि गुल्ली-डण्डा सब खेलों का राजा है। अब भी कभी लड़कों को गल्ली-डण्डा खेलते देखता हूँ, तो जी लोट-पोट हो जाता है कि इनके साथ जाकर खेलने लगूं। न लॉन की जरूरत, न कोर्ट की, न नेट की, न थापी की। मजे से किसी पेड़ से एक टहनी काट ली, गुल्ली बना ली और दो आदमी भी आ गये, तो खेल शुरू हो गया। विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब है कि उनके सामान महँगे होते हैं। जब तक कम-से-कम एक सैकड़ा न खर्च कीजिए खिलाड़ियों में शुमार ही नहीं हो सकता। यह गुल्ली- डण्डा है कि बिना हर्र फिटकरी के चोखा रंग देता है, पर हम अंग्रेजी चीजों के पीछे ऐसे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से अचि हो गयी है। हमारे स्कूलों मे हरेक लड़के से तीन-चार रुपये सालाना केवल खेलने की फीस ली जाती हैं। किसी को यह नहीं सूझता की भारतीय खेल खेलायें, जो बिना दाम-कौड़ी के खेले जाते हैं। अंग्रेजी खेल उनके लिए है, जिनके पास धन है।

सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश प्रेमचन्द्र द्वारा लिखित कहानी ‘गुल्ली-डण्डा’ से उद्धृत है।

प्रसंग- प्रस्तुत गद्धांश में प्रेमचन्द्र ने गुल्ली-डंडा की विशेषताओं का बखान करते हुए उसकी बारीकियों को बताया है।

व्याख्या- इस कहानी में प्रेमचन्द्र ने गुल्ली-डंडा के माध्यम से अपने बचपन को याद किया है गुल्ली-डंडा की बारीकियों को बताते हुए कथावाचक (मैं) जैसे गुल्ली-डंडा खेलना सिखा रहा हो। गुल्ली-डंडा को खेलों का राजा बताते हुए, उसकी अंग्रेजी खेलों से तुलना करते हैं, फायदे का वर्णन करते हैं। अंग्रेजी खेलों को अमीर वर्ग से जोड़ते हैं तो गुल्ली-डंडा को गरीब वर्ग से। गुल्ली- डंडा को ठेठ भारतीय खेल बताते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि इस खेल में खर्च नहीं होता। प्रेमचन्द्र ने गुल्ली-डंडा खेल के माध्यम से तत्कालीन स्कूलों में अंग्रेजी खेलों के लिये ली जाने वाली शुल्क पर प्रश्न-चिह्न लगाते हैं। गुल्ली-डंडा की प्रशंसा तथा अंग्रेजी खेलों की भर्त्सना के साथ प्रेमचन्द्र इस कहानी को स्वदेशी से जोड़ते हैं।

विशेष- (1) यह कहानी ‘मैं’ के वाचन-शैली मे लिखी गयी है। (2) इस कहानी को आज के सन्दर्भ में पेश किया जा सकता है। उस समय मध्य-वर्ग में अपनी देशी चीजों को छोड़ विदेशी चीजों की ललक थी, वही ललक आज भी देखी जा सकती है।

(3) भाषा सहज, सरल एवं स्वाभाविक है। इसकी भाषा बचपन तथा जवानी के बीच सेतु का कार्य करती है।

(4) उर्दू-मिश्रित शब्दों का प्रयोग है, जैसे- अंग्रेजीदा, दोस्त, विलायती आदि।

  1. बीस साल गुजर गये। मैंने इंजीनियरी पाख की और उसी जिले का दौरा करता हुआ उसी कस्बे में पहुँन और डाकबंगले में ठहरा। उस स्थान को देखते ही मधुर बाल-स्मृतियाँ हृदय में बाग उठीं कि मैंने छडी उठाई और कस्बे की सैर करने निकला। आँखे किसी प्यासे पथिक की भाँति बचपन के उन क्रीड़ा-स्थलों को देखने के लिये व्याकुल हो रही थीं, पर उस परिचित नाग के सिवा वहाँ और कुछ परिचित न था। जहाँ खंडहर था, वहाँ पक्के मकान खड़े थे. जहां बरगद का पुराना पेड़ था, वहाँ अब एक सुन्दर बगीचा था, स्थान की काया पलट हो गयी थी। अगर उसके नाम और स्थिति का ज्ञान न होता, तो मैं इसे पहचान भी न सकता। बचपन की सञ्चित और अमर स्मृतियाँ बाँहें खोले अपने उन पुराने मित्रों से गले मिलने को अधीर हो रही थीं, मगर वह दुनिया बदल गयी थी। ऐसा जी होता था कि उस धरती से लिपट कर रोऊँ और कहूँ- तुम मुझे भूल गयीं। मैं तो अब भी तुम्हारा वही रूप देखना चाहता हूँ।

सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश प्रेमचन्द्र की कहानी ‘गुल्ली-डंडा’ से लिया गय है।

प्रसंग- इस गद्यांश में लेखक ने बचपन तथा तरुणावस्था के बीच की यात्रा स्मृतियों के माध्यम से की है। बचपन की दुनिया तथा जवानी की दुनिया के बीच बदले परिदृश्य को इस गंद्धाश मे दिखाया गया है।

व्याख्या- इस कहानी का ‘मैं इंजीनियर बनकर उसी जगह पर तैनात हुआ है जहां पर उसने अपना बचपन गुल्ली-डंडा के साथ बिताया था। वह सुनहरी याद उनके मन में अभी भी ताजा है। बड़ा होने पर आदमी अपने बचपन की स्मृतियों में बराबर डुबकी लगाता है और यदि स्मृति सुखद होतो उससे, उसे अलौकिक सुख की अनुभूति होती है। इंजीनियर साहब जिस प्रेम से गुल्ली को याद करते हैं, तर अद्भुत हैं। इंजीनियर साहब को वहाँ पहले जैसा कुछ नहीं मिलता, सब कुछ बदल गया है, समय से साद पक्के मकान बन गये हैं, बरगद के पेड़ के स्थान पर सुन्दर बगीचा था। यानी गुल्ली-डंडा के खेलने के स्थान का कायाकल्प हो गया था कथा-वाचक (मैं) देखता हूँ कि वहाँ दुनिया भौतिक रूप से बदल गयी है। वह उसी पुरानी दुनिया को स्मृति में रखते हुए कहता है- “मगर वह दुनिया बदल गयी थी। ऐसा जी होता है कि उस धरती से लिपटकर रोऊँ और कहूँ- तुम मुझे भूल गयी मैं तो अब भी तुम्हारा वही रूप देखना चाहता हूँ।”

विशेष- (1) सरल-स्वाभाविक एंव प्रभावात्पदक करने वाली भाषा का प्रयोग इस गद्यांश में है। (2) इस गद्यांश में बचपन की स्मृतियों के माध्यम से दुनिया में हो रहे भौतिक परिवर्तन को दिखाया है। (3)लेखक का वक्तव्य आज की भौतिकवादी दुनिया पर सटीक बैठता है।

  1. मैं समझता था.……… अन्याय था।

संदर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक अपनी सफाई देते हुए स्वार्थ की बात कर रहा है।

व्याख्या- लेखक कहता है कि मैं अपनी ओर न्याय के झुकाव को देख रहा था क्योंकि मैं किसी न किसी स्वार्थ के वशीभूत होकर ही तो गया को अमरूद खिलाया रहा होगा। इस संसार में भला कौन किसी के साथ निःस्वार्थ व्यवहार करता है। लोग भिक्षा भी देते हैं तो अपने किसी न किसी स्वार्थ के कारण ही तो देते हैं। सोचते हैं कही भिक्षा न देने पर कहीं मेरा कोई अनिष्ट न हो जाय। जब गया ने मेरा अमरूद खाया है तो फिर उसे मेरे प्रति कुछ न कुछ तो नरमी बरतनी होंगी। घूस देकर तो लोग कत्ल के जुर्म को भी पचा जाते हैं। तो फिर क्या यह मेरा अमरूद यों ही पचा जायगा क्या? मैंने अमरूद एक पैसे में पाँच खरीदे थे जो गया के बाप को भी नसीब नहीं होगे। इस प्रकार गया का मेरे प्रति व्यवहार सरासर अन्यायपूर्ण है।

विशेष- भाषा सरल तथा प्रवाहपूर्ण है। शैली विवेचनात्म है।

  1. मेरे हमजोलियों में.……….बना लेते थे।

संदर्भ- प्रस्तुत गद्यावतरण ‘प्रेमचन्द्र’ द्वारा लिखित कहानी गुल्ली डंडा से अवतरित है।

प्रसंग- प्रस्तुत कहानी में ‘गया’ नामक पात्र की चुस्ती फुर्ती पर प्रकाश डाला गया है।

व्याख्या- लेखक कहता है कि हमारी गुल्ली-डंडा की टीम में एक ‘गया’ नाम का लड़का था। जो हमसे उम्र में दो-तीन साल का बड़ा था। शरीर से दुबला व लम्बा था। उसके हाथों की उंगलियों बन्दरों जैसी पतली व लम्बी थीं उसमें बन्दरों जैसी चपलता (चंचलता) और झुंझलाहट भी थी। गुल्ली कैसी भी हो लेकिन उसकी क्या मजाल जो उसके हाथों से बचकर निकल जाय। वह गुल्ली पर ऐसे झपट्टा मारता था जैसे छिपकली अपने शिकार कीड़ों पर लपकती है। लेखक कहता है कि पता नहीं उसके मां-बाप थे या नहीं, वह क्या खाता था इसका भी मुझे पता नहीं है। जो भी रहा हो लेकिन वह हमारे गुल्ली-डंडा टीम का चैम्पियन था। वह जिसकी तरफ से खेलने लगे उसकी जीत पक्की हो जाती थी। हम सब टीम वाले उसे दूर से आता देखकर उसकी तरफ दौड़कर उसका स्वागत करते थे और उसे अपना गोसइयाँ (लीडर, अगुआ) बना लेते थे।

  1. मुझे न्याय का बल.……….शिकायत न की।

संदर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में दोनों के बीच हो रहे विवाद की परिणति पर प्रकाश डाला गया है।

व्याख्या- लेखक कहता है कि उस झगड़े में मेरे पास न्याय का बल था और वह अन्याय पर अड़ा हुआ था। मैंने अपना हाथ उससे छुड़ा कर भागना चाहा लेकिन वह मुझे जाने नहीं दे रहा था। मैंने क्रोध में आकर उसे गाली दे दी। उसने भी मुझे गाली दी साथ ही साथ एक दो चाँटा मार भी दिया। मैं उससे कमजोर था मैंने उसके हाथ में दाँत काट लिया। उसने इसके जवाब में मेरी पीठ पर डंडा जमा दिया। मैं रोने लगा। गया मुझे रोता देखकर भाग निकला। मैं तुरन्त अपने आँसू पोछता हुआ डंडे की चोट भूलकर हँसता हुआ अपने घर जा पहुंचा। मैं सोतने लगा कि में एक थानेदार का लड़का होकर उस नीच जाति के लड़के की हाथ पिट गया, यह बात मुझे उस समय भी अपमानजनक महसूस हुई थी। फिर भी मैंने घर पर उसकी शिकायत नहीं की थी।

  1. मैंने शाम का समय.………खबर लाती थी।

संदर्भपूर्ववत्।

प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में गुल्ली-डंडा के मैच में ‘गया’ की ढलती उम्र में भी बरकरार चुस्ती-फुर्ती का चित्रण किया गया है।

व्याख्या- लेखक ने दूसरे दिन शाम को समय मैच देखने के लिये दिया और मैच देखने गया। मैच में दस-दस लोगों का ग्रुप था। जिसमें से कई उसके बचपन के साथी थे। ज्यादातर लोग नवयुवक थे जिसे लेखक पहचान न सका। मैच शुरू हुआ। मैं (लेखक) मोटर में बैठे हुए खेल देखने लगा। आज गया का खेल और उसकी निपुणता देखकर मैं चकित हो गया। टांड (चोट) लगाता तो गुल्ली आसमान में काफी ऊंचाई तक जाती तो ऐसा लगता जैसे वह आसमान से बातें कर रही है। आज के खेल में ‘गया’ में न झिझक थी और न ही किसी प्रकार की हिचकिचाहट। आज उसमें कल वाला संकोच व बेदिली नहीं थी। अगर गया कल मुझे आज की भाँति पदाया (दौड़ाया) होता तो मैं निश्चित रोने लगता। गया के डंडे की चोट पड़ते ही गुल्ली दो सौ गज दूर जाकर गिरती थी।

विशेष- भाषा सरल व प्रवाहपर्ण।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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