हिन्दी / Hindi

राष्ट्रभाषा | राजभाषा | राष्ट्रभाषा और राजभाषा का अन्तर

राष्ट्रभाषा | राजभाषा | राष्ट्रभाषा और राजभाषा का अन्तर

राष्ट्रभाषा

हिन्दी के संबंध में सुभाषचन्द्र बोस, बंकिमचन्द्र, रवीन्द्रनाथ टैगोर सभी का अभिमत था, कि इसे राष्ट्रभाषा होना चाहिए। 1938 ई. में वर्धा में श्री सुभाषचन्द्र बोस ने कहा था-

“हिन्दी का प्रचार इसलिए किया जा रहा है कि यह बहुत व्यापक रूप में बोली समझी जाती- है और भाषा विचार से सरल तथा नम्य है। इसकी शैली सरल और स्वाभाविक अवश्य होना चाहिए। हमें एक मिश्रित भाषा का निर्माण करना चाहिए, जो न तो हिन्दी, न उर्दू, न हिन्दुस्तानी हो।” जो भाषा उत्तर में बोली जाती है, वही हमारी भाषा का प्रमाण है।”

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था-“हमें उस भाषा को राष्ट्रभाषा रूप में ग्रहण करना चाहिए जो देश के सबसे बड़े भू-भाग में बोली जाती है और जिसे स्वीकार करने के लिए महात्मा जी ने हमसे आग्रह किया अर्थात् हिन्दी। इस विचार से हमें एक भाषा की आवश्यकता भी है।”

भारतीयों ने ही नहीं, इस देश के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले विदेशियों ने भी हिन्दी को ही भारत की राष्ट्रभाषा माना। एनीबेसेंट ने कहा-

“भारत के भिन्न-भिन्न भागों में जो अनेक देशी भाषाएँ बोली जाती हैं, उनमें एक भाषा ऐसी है जिसमें शेष सब भाषाओं की अपेक्षा एक सबसे बड़ी विशेषता है, वह यह कि उसका प्रचार सबसे अधिक है। वह भाषा हिन्दी है। हिन्दी जाननी वाला आदमी सम्पूर्ण भारतवर्ष में मिल सकता है और वह भारतवर्ष में यात्रा कर सकता है।…..भारत के सभी स्कूलों में हिन्दी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।”

बंगाल ही नहीं, आज हिन्दी का सबसे बड़ा विरोधी समझा जाने वाला दक्षिण भारत स्वतंत्रता आन्दोलन के समय हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने का बहुत बड़ा पक्षघर था। 1937 ई. में मुख्यमंत्री के रूप में राजाजी ने तमिलनाडु के 125 स्कूलों में हिन्दी शिक्षा अनिवार्य घोषित कर दी। उनका विचार था-

“यदि दक्षिण भारतीय क्रियात्मक रूप से पूरे देश के साथ एक सूत्र में बंधकर रहना चाहते हैं और अखिल भारतीय मामलों से तथा तत्संबंधी निर्णयों के प्रभाव से अपने को दूर नहीं रखना चाहते, तो हिन्दी पढ़ना जरूरी है।…..भारत की संस्कृतिक एकता के लिए भी एवं सर्वान्य भारतीय भाषा के ग्रहण करना चाहिए। दक्षिण भारतीयों के पूरे भारत में सरकारी तथा व्यावसायिक नौकरियाँ पाने के लिए भी हिन्दी बोलने, समझने और लिखने का ज्ञान प्राप्त करना जरूरी है।”

दक्षिण भारत के अनंतशयन आयंगर जिनके फालि पर संविधान में राजभाषा संबंधी अनुमोदों का प्रारूप आधारित है, हिन्दी के बारे में कहते है-

“पश्न अत्पन्न होता है कि जब अंगरेजी का अन्त हो जाये तो फिर उसने स्थान पर समस्त भारतवर्ष के लिए एक सामान्य भाषा होना की आवश्यक है। विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं का अपना प्राचीन इतिहास और साहित्य है, अन्ना उनकी स्थिति अण्ण रहनी भी परमावश्यक हैं। यह देखते हुए हमें अन्तर पान्तीय सम्पर्क के लिए एक भाषा चुननी ही पड़ेगी। प्रजातंत्रीय देश में अधिकतम समुदाय द्वारा बोली और समझी जाने वाली भाषा ही यह कार्य कर सकती है। इस दृष्टि से हिन्दी कसौटी पर पूरी उतरती है। हिन्दी संस्कृत के निकटतम है। इसमें हजारी महत्त्व देने वाली भाषा मानक भाषा कहलाती है। हिन्दी के संबंध में मानकता का प्रश्न उठाना इसलिए भी जरूरी है, स्मोकि यह अत्यन्त विस्तृत क्षेत्र की भाषा है- बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, हरियाण। इस सभी प्रदेशों की भाषा हिन्दी हैं। स्वाभाविक है कि इस प्रदेशों की बोलियाँ इसे प्रभावित करती हैं। इसी प्रभाव के कारण हिन्दी की पाँच उपभाषाएँ मानी गयी हैं- (1) पूर्वी हिन्दी (2) पश्चिमी हिन्दी (3) बिहारी हिन्दी (4) राजस्थानी हिन्दी (5) पहाड़ी हिन्दी। इन सभी क्षेत्रीय तत्वों को अपने में समाहित करते हुए भी व्याकरणिक एकरूपता वाली भाषा ही मानक भाषा कही जायेगी। मानक भाषा के लिए यह भी आवश्यक है कि इसके विस्तृत परिक्षेत्र के लोग इसे बोलने और लिखने में समानता बनाये रखें।

मानक शब्द का अर्थ है- शुद्ध, उच्च, परिनिष्ठित। अंगरेजी में Standard Genuine, डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार-

“मानक भाषा किसी भाषा के उस रूप को कहते है, जो उस भाषा के पूरे क्षेत्र में शुद्ध माना जाता है तथा जिसे उस प्रदेश का शिक्षित तथा शिष्ट समाज अपनी भाषा का आदर्श रूप मानता है और प्रायः सभी औपचारिक परिस्थितियों में, लेखन प्रशासन और शिक्षा के माध्यम के रूप में, यथासाध्य उसी का प्रयोग करने का प्रयत्न करता है।” डॉ0 हरदेव बाहरी मानव भाषा की परिभाषा इस प्रकार देते हैं-

“मानक या आदर्श का जो चयन होता है, उसे समाज द्वारा, विशेषतः शिक्षित समाज द्वारा स्वीकृत होना चाहिए, बोलचाल में और लिखित में भी। लिखित रूप अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, क्योंकि इसमें समानता और एकरूपता का निर्वाह भलीभांति होता है।”

आशय यह है कि शिक्षित समाज द्वारा स्वीकृत तथा प्रशासन और शिक्षा का माध्यम-भाषा का वह रूप जिसे लिखने में एकरूपता हो, मानक भाषा कहा जायेगा। भाषा के लिखित रूप को मानकता प्रदान करता है- व्याकरण। व्याकरण का ज्ञान भाषा के शुद्ध लेखन में सहायक होता है। इसीलिए द्विवेदी युग में जब हिन्दी के मानकीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई तो सबसे बड़ी आवश्यकता व्याकरण की अनुभव हुई। तब तक हिन्दी के जो व्याकरण लिखे भी गये थे, वे अंगरेजों द्वारा लिखित थे। उन्हें हिन्दी की मूल प्रकृति संस्कृत का ज्ञान अल्प मात्रा में था। उन सभी ने अंगरेजी व्याकरण के आधार पर हिन्दी की व्याकरण लिखा था। आज भी यह प्रवृत्ति विद्यमान है। आचार्य महावीर प्रसार द्विवेदी ने अपनी प्रेरणा से कामत प्रसाद गुरु द्वारा हिन्दी का एक स्तरीय व्याकरण ग्रन्थ लिखवाया, जो आज भी अपनी कोई तुलना नहीं रखता और कामता प्रसाद गुरु को हिन्दी के पाणिनि की पद्वी दिलाता है। यहीं से हिन्दी के मानकीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। रामचन्द्र शुक्ल को मानक हिन्दी का आदर्श लेखक माना जा सकता है। मानक हिन्दी की सारी विशेषताएं इनकी रचनाओं में विद्यमान है। भाषा के मानकीकरण की प्रक्रिया में वर्णमाला, वर्तनी, शब्द प्रयोग, व्याकरणिक रूप तथा विराम चिन्ह आदि में एकरूपता आवश्यक है। आज हम जिसे मानक हिन्दी कहते हैं उसकी उपर्युक्त विशेषताओं में सर्वत्र एकरूपता देखी जा सकती है।

राजभाषा हिन्दी

1946 ई. में कुछ कांग्रेस के लोगों, मुस्लिम लीग के कुछ सदस्यों और कुछ स्वतंत्र सदस्यों को मिलकर एक संविधान सभा गठित की गयी। 11.12.46 को इसकी दूसरी बैठक में बाबू राजेन्द्र प्रसाद इसके अध्यक्ष चुने गये। इसकी पछली बैठक मात्र दो दिन पूर्व 9.12.46 को हुई थी दूसरी बैठक में यह निर्णय ले लिया गया था कि भारत के राजकाज की भाषा हिन्दुस्तानी या अंगरेजी होगी। 1947 ई. में संविधान सभी के चौथे सत्र में हिन्दुस्तानी के स्थान पर ‘हिन्दी’ शब्द जोड़ने की सिफारिश की गयी, साथ ही इसे देवनागरी लिपि में लिखने की भी सिफारिश की गयी। दोनों प्रस्ताव बहुमत से स्वीकृत हो गये। इसके बाद देश आजाद हो गया और मुस्लिम लीग के सदस्य (पाकिस्तान बन जाने के कारण) अलग हो गये। इसके बाद संविधान सभा की अनेक हंगामी बैठक हुईं, जिनमें नागरी लिपि और रोमन अंकों को हिन्दी अंकों के समानान्तर मान्यता मिली। हिन्दी के संबंध में पं. नेहरू चाहते थे कि इसे समावेश मूलक भाषा के रूप में विकसित किया जाये परित्यागमूलक नहीं। इसमें कुछ उर्दू के छोटे हों और हिन्दूस्तानी भी हों।

भाषा को लेकर संविधान सभा की मुख्य बैठक 12 सितम्बर से 14 सितम्बर, 1949 तक चली। 14 सितम्बर को सभी पक्षों में राजीनामा हुआ। मुंशी आयंगर फार्मूले को स्वीकार करते हुए, इसी तिथि 14 सितम्बर को हिन्दी को राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित कर दिया गया। मुंशी आयंगर फार्मूला है-भारतीय संविधान के अनुच्छेद को मान्यता देती है। पहले इसमें भारत की कुल चौदह भाषाएं थीं। इसके दूसरे संशोधन में सन्धि को जोड़ा गया और संख्या 15 हो गयी। पुनः इसमें मणिपुरी, नेपाली तथा कोंकणी को जोड़ा गया और आज प्रान्तीय भाषाओं की संख्या 18 हो गयी है। आयंगर फार्मूले को स्वीकृति मिल जाने के बाद संविधान सभा के अध्यक्ष ने कहा-

“आज पहली बार हम अपने संविधान में एक भाषा स्वीकार कर रहे हैं जो भारत संघ के प्रशासन की भाषा होगी और समय के अनुसार इसे अपने आपको ढालना और विकसित करना होगा। हमने अपने देश का राजनीतिक एकीकरण सम्पन्न किया है। राजभाषा हिन्दी देश की एकता को कश्मीर से कन्याकुमारी तक अधिक सुदृढ़ बना सकेगी। अंगरेजी की जगह भारतीय भाषा को स्थापित करने से हम निश्चय ही और भी एक-दूसरे के नजदीक आ सकेंगे।

अस्तु, संविधान में हिन्दी को राजभाषा का पद मिला, अंगरेजी को आगे दस-पन्द्रह सालों तक इसके साथ-साथ चलाये रखने की बात कही गयी, यह अवधि बढ़ती ही गयी और आज भी अंगरेजी हिन्दी के समान्तर राजकाज की भाषा बनी हुई है। हिन्दी अपने वर्चस्व से भले ही बढ़ रही हो, पर भारतीय राजनीतिक कर्णधारों ने हिन्दी की रोटी खाकर भी, अंगरेजी के कसीदे पढ़ना नहीं छोड़ा है। हिन्दी राजभाषा भी है और राज्यभाषा भी है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा बिहार की यह राज्यभाषा है। अष्टाय सूची में उल्लिखित 18 भाषाएँ अपने अपने राज्यों में पढ़ायी- लिखायी जायेंगी और आचार-व्यवहार का माध्यम होंगी। ये राजभाषा हिन्दी की भी राज्यों के बढ़ावा देंगी। राज्यों से सम्पर्क के केन्द्र उनकी प्रान्तीय भाषा तथा राजभाषा दोनों का प्रयोग करेगा। संसद में अध्यक्ष की आज्ञा से कोई सदस्य अपनी मातृभाषा में बोल सकता है। कुल मिलाकर भारत की राष्ट्रभाषा का प्रश्न यहाँ के स्वार्थी एवं पैतरेबाज नेताओं की राजनीति में उलझ कर रहा गया है कि केन्द्र के स्तर पर हिन्दी का कम अंगरेजी का अधिक बोलबाला है। हालात ऐसे हैं कि स्कूलों में अंगरेजी पढ़ाने वाले अध्यापक नहीं मिल रहे हैं, फिर भी भारत का उच्च वर्ग इस भाषा का गुलाम बना हुआ है। पूरे देश में कुल दो प्रतिशत लोग अंगरेजी भाषी हैं। पूरे देश पर इन्हीं का राज्य है, जिधर चाहें उधर देश की ले जायें। हिन्दी के साथ आज भी सौतेला व्यवहार किया जा रहा है। केन्द्र के आदेश अंगरेजी में होते है, इनका अनुवाद हिन्दी में भी कर दिया जाता है, परन्तु निराश होने की आवश्यकता नहीं है। पूरा भारत हिन्दी को अपनी राष्ट्रभाषा मानता रहा है, आज भी मान रहा है। यह पूरे देश की सम्पर्क भाषा है। पूरा देश ही नहीं दक्षिण एशिया के कई ऐसे देश हैं, जहाँ की यह अपनी भाषा है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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