घाटे के बजट के दोष | Demerits of Deficit Budget in Hindi
घाटे के बजट के दोष | Demerits of Deficit Budget in Hindi
घाटे के बजट के दोष (Demerits of Deficit Budget)-
यदि सरकार ‘घाटे के बजट’ में अन्धाधुन्ध वृद्धि कर रही है तो ऐसे बजट राष्ट्र हित में नहीं रहते हैं। क्योंकि जहाँ घाटे के बजट आर्थिक विकास के पर्याय हैं और सीमा के भीतर घाटा दिखाया जा रहा है घाटे का बजट एक उपयोगी यन्त्र सिद्ध होता है, लेकिन असीमित घाटे का प्रयोग करके असावधानी की जा रही है तो निश्चत ही ऐसे बजट अर्थव्यवस्था में गंभीर आर्थिक समस्यायें उत्पन्न कर देंगे। इस प्रकार घाटे के बजट में कतिपय दोष भी हैं जो निम्नलिखित हैं।
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कीमत वृद्धि (Price Rise)-
‘घाटे के बजट’ किसी देश की अर्थव्यवस्था को अस्थिर कर देते हैं, यदि देश में घाटे के बजट अनवरत तेजी से प्रस्तुत हो रहे हैं, जिनका व्यय अनुत्पादक दिशा में जा रहा है तो निश्चत ही ऐसे बजटों में जो मुद्रा की मात्रा में तो वृद्धि कर रहा हैं और उत्पादकता वृद्धि नगण्य है तो लोगों की आय तो बढ़ जाती है किन्तु उत्पादकता वृद्धि न होने की दशा में बेतहाशा कीमत वृद्धि होती है, जिससे देशवासी सशंकति हो जाते हैं और अर्थव्यवस्था मुद्रा प्रसार की चपेट में जा जाती है। वस्तुओं के मूल्यों में तीव्र वृद्धि से मध्यम वर्ग आर्थिक अभावों में जीवन यापन करने लगता है। हाँ केवल उत्पादक-वर्ग अथवा व्यवसायी वर्ग ऐसी परिस्थितियों में लाभ में रहते हैं। इससे आर्थिक विषमता में तीव्र वृद्धि होती है। इतना ही नहीं, कीमत वृद्धि से आयातों में वृद्धि और निर्यातों में कमी होती है। ध्यान रहे, यह विषम स्थिति ‘घाटे के बजट’ की गलत नीति का परिणाम होता है। प्रो. लुईस (Leiwes) का मत है कि “यदि घाटे के बजट के साथ-साथ देश के उत्पादनों में वृद्धि होती है तो कीमत वृद्धि सम्भव नहीं होगी।”
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बलात् बचत (Forced Saving)-
घाटे के बजट‘ का दूसरा दोष यह है कि यह बलात-बचत का कारण भी बनता है। जब घाटे के बजट से कीमत वृद्धि होती है और कीमत वृद्धि से मध्यम एवं निम्न वेतन भोगी वर्ग अनेक वस्तुओं को क्रय करने से वंचित हो जाता है। फलत: वह अपनी आय से उपभोग में कटौती करके बचत करने लगता है, इसे बलात-बचत कहते हैं। ऐसी बचत अनुचित हैं, क्योंकि माँग पर विपरीत प्रभाव से उत्पादन प्रभावित होने का भय उत्पन्न हो जाता है। दूसरी ओर धनी वर्ग, उत्पादक व व्यवसायी वर्ग की आय व लाभ में वृद्धि से वे ऊँचे उपभोग करने लगते हैं। इससे सामाजिक अन्याय का जन्म होता है, क्योंकि धन-कुछ ही हाथों में केन्द्रित हो जाता है।
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बैंक का साख निर्माण (Credit Creation of Banks)-
“घाटे के बजटों’ से सार्वजनिक व्यय में तीव्र वृद्धि होती है, लेकिन निजी क्षेत्र के व्यय इतने नहीं बढ़ पाते हैं, फलस्वरूप बैंकों में जमा (Deposits) की वृद्धि होती है, ऐसी दशा में बैंक साख का ऊँचा सृजन कर लेती है, इसका दुष्परिणाम यह होता है कि बैंकों के नये साख से तीव्र कीमत वृद्धि होने लगती है। यह आर्थिक स्थिति हानिकारक सिद्ध होती है।
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विनियोग ढांचे में परिवर्तन (Change in Investment Structure)-
जब किसी अर्थव्यवस्था में भारी घाटे के बजट प्रस्तुत होने लगते हैं तो विनियोग के लिए पर्याप्त पूँजी सरकार के पास एकत्रित हो जाती है अतः विनियोग के ढांचे में परिवर्तन होने लगता है अर्थात् सरकार ऐसी वस्तुओं पर भी विनियोग करने लगती है जो आर्थिक विकास की दृष्टि से अनुचित होते हैं। ऐसी दशा में देशवासी विलासितापूर्ण वस्तुओं के उपभोग एवं विदेशी वस्तुओं की ओर आकर्षित होने लगते हैं, जिसे राष्ट्रहित में उचित नहीं ठहराया जा सकता है। इतना ही नहीं, देश में सट्टेबाजी की प्रवृत्ति प्रोत्साहित होती है। इस प्रकार मुद्रा प्रसार के दल-दल में राष्ट्र फंसने लगता है जिससे विनियोग की वृद्धि योजनागत विकास की दृष्टि से अनुचित होता है।
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