अर्थशास्त्र / Economics

प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों की तुलना | प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों में पारस्परिक सम्बन्ध

प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों की तुलना | प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों में पारस्परिक सम्बन्ध

प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों की तुलना

प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों में तुलना निम्नलिखित आधारों पर की जा सकती है-

(1) साधनों के आवंटन के आधार पर (On the Basis of Allocation or Resources)- इस आधार पर यदि दोनों प्रकार के करों की तुलना की जाये तो प्रत्यक्ष कर परोक्षकरों की अपेक्षा श्रेष्ठ होते हैं। यदि एक निश्चित राशि को प्रत्यक्षकरों द्वारा तथा अप्रत्यक्षकरों द्वारा अलग- अलग एकचित्र किया जाये तो परोक्ष करों का भार प्रत्यक्ष करों की अपेक्षा समाज पर अधिक पड़ेगा।

(2) वितरण के आधार पर (On the Basis of Distribution)- इस आधार पर भी प्रत्यक्षकर परोक्ष करों की तुलना में श्रेष्ठ माने जाते हैं। प्रत्यक्ष कर प्रगतिशील होते हैं और धन के वितरण की असमानता को कम करते हैं। इसके विपरीत परोक्ष कर प्रतिगामी होते हैं और उनका भार निर्धन वर्ग विपरीत परोक्ष कर प्रतिगामी होते हैं और उनका मार निर्धन वर्ग पर अधिक पड़ता है।

(3) प्रशासकीय आधार पर (On the Basis Administration)- प्रशासकीय दृष्टिकोण से परोक्ष-कर प्रत्यक्ष करों की तुलना में अच्छे होते हैं। इसके निम्न कारण हैं-(i) प्रत्यास

कर करदारा और सरकार दोनों के लिये असुविधाजनक होते हैं, (ii) प्रत्यक्ष-करों के भुगतान में करदाता को मानसिक कष्ट होता है, (iii) प्रत्यक्ष-करों की चोरी बहुत होती है।

प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों में पारस्परिक सम्बन्ध-

प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों के महत्त्व के सम्बन्ध में सभी विचारकों में मतभेद है। कुछ विचारकों के अनुसार परोक्ष करों की अपेक्षा प्रत्यक्ष कर अधिक उपयुक्त हैं, क्योंकि इनका भार निर्धन वर्ग की अपेक्षा धनी वर्ग पर अधिक पड़ता है। अन्य विचारकों के मतानुसार प्रत्यक्ष करों की अपेक्षा धनी वर्ग पर अधिक पड़ता है। अन्य विचारकों के मतानुसार प्रत्यक्ष करों की अपेक्षा परोक्ष कर ही अधिक उपयुक्त हैं, क्योंक इनका उत्पादन और निवेश पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ता। परन्तु आधुनिक विचारधारा के अनुसार प्रत्यक्ष और परोक्ष कर दोनों परस्पर विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं और किसी देश की अर्थव्यवस्था में दोनों ही प्रकार के करों को यथास्थान लागू करना चाहिये। डाल्टन के अनुसार, “प्रत्यक्ष और परोक्ष कर-प्रणालियाँ पारस्परिक दोषों को समाप्त करके कर-व्यवस्था के सन्तुलन की स्थाना करती हैं।”

प्रो. डी. मार्को के शब्दों में, “प्रत्यक्ष तथा परोक्ष कर एक-दूसरे के पूरक और परस्पर एक-दूसरे के दोषों को दूर करते हैं।”

तग्रेट स्काटमैन (Great Scottman)- के शब्दों में “प्रत्यक्ष और परोक्ष कर दो सुन्दर बहनों के समान हैं। दोनों ही विपुल भाग्यशाली हैं तथा दोनों के ही माता-पिता एक हैं। दोनों के माता-पिता एक हैं। दोनों के माता-पिता आवश्यकता और आविष्कार हैं। इनमें अन्तर केवल इतना ही है जितना कि दो बहनों के बीच हो सकता है।”

इटली के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डी. माकों ने इन करों के बारे में दो निष्कर्ष निकाले हैं-

(अ) परोक्ष-कर प्रत्यक्ष-कर के पूरक हैं-

डी. माकों का कहना है कि जिस आय पर प्रत्यक्ष-कर तथा जिस आय के सम्बन्ध में प्रत्यक्ष अनुमान सम्भव न हो उस आय पर उपभोग के समय अप्रत्यक्ष-कर लगाये जाने चाहिये।

प्रत्यक्ष-कर परोक्ष कर के पूरक हैं- परोक्ष कर निर्धन व्यक्तियों पर अधिक कर भार डालते हैं और धनिकों पर कम। इसी कमी को पूरा करने के लिये प्रत्यक्ष-कर लगाये जाते हैं ताकि धनिकों पर कर-भार अधिक हो जाये।

(ब) प्रत्यक्ष-करों द्वारा उत्पन्न होने वाली धर्षणात्मक शक्तियों को परोक्ष- कर कम कर देते हैं-

प्रत्यक्ष-करों का जनता द्वारा विरोध किया जाता है। फलस्वरूप वरोध और कर से बचने की दृष्टि से विवर्तन (Shifting of Tax), कर प्रसारण (Diffusion of Tax); कर पूँजीकरण (Capitalisation of Tax) तथा कर चोरी (Evasion of Tax), आदि का सहारा लिया जाता है। प्रत्यक्ष-करों से उत्पन्न विरोधात्मक शक्तियाँ तब तक क्रियाशील रहती हैं जब तक आर्थिक- प्रणाली के इस असन्तुलन को दूसरे कर (परोक्ष-कर) द्वारा सन्तुलित नहीं कर दिया जाता। डी. मार्को के शब्दों में, “प्रत्यक्ष-करों के परस्पर पूरक होने के अतिरिक्त परोक्ष-कर व्यवस्था एक अन्य कार्य भी करती है- आय के अनुमान लगाने तथा प्रत्यक्ष-करों को एकत्र करने में जो घर्षणात्मक शक्तियाँ उत्पन्न होती हैं, परोक्ष-कर उन्हें न्यूनतम कर देते हैं।” इसके निम्नलिखित कारण हैं-

(i) कर वस्तु के मूल्य में सम्मिलित रहता है और करदाता को कर चुकाने पर वह महसूस नहीं होता।

(ii) कर न चुकाने पर उपभोक्ता वस्तु के उपभोग से वंचित रह जाता है। इस कारण वह कर को प्रसन्नतापूर्वक चुका देता हैl (iii) कर की राशि कम होने के कारण करदाता उसे चुकाने में समर्थ होता है।

(iv) कर का भुगतान आवश्यकता की सन्तुष्टि के लिये किया जाता है जिस कारण वह कर का विरोध नहीं करता।

(v) सरकार आय का प्रत्यक्ष अनुमान न लगा सकने के कारण उसके उपभोग के समय अप्रत्यक्ष कर लगाती है, जिसका करदाता विरोध नहीं करता।

निष्कर्ष-

उपर्युक्त विवरण से हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि प्रत्यक्ष-कर और परोक्ष कर एक-दूसरे के पूरक हैं। कोई भी कर पूर्णतया सन्तोषजनक नहीं है। कर प्रणाली में सन्तुलन बनाये रखने के लिये दोनों प्रकार के करों का लगाना आवश्यक है। डाल्टन के शब्दों में, “प्रत्यक्ष परोक्ष-कर एक-दूसरे के दोषों को कम करके कर-प्रणाली से साम्य की स्थापना करते हैं।”

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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