सार्वजनिक ऋण | सार्वजनिक ऋण एवं व्यक्तिगत ऋण में अन्तर | सार्वजनिक ऋणों का वर्गीकरण | आन्तरिक ऋण तथा बाह्य ऋण में अन्तर | विदेशी ऋणों लाभ | विदेशी ऋण से हानियाँ
सार्वजनिक ऋण
प्राचीन समय में ही ऋण लेने की प्रथा चली आ रही है। राजा तथा महाराजा भी बैंकों तथा कम्पनियों से ऋण लेते थे। वर्तमान समय में तो सभी देश चाहे विकसित हों या अविकसित, किसी न किसी प्रकार से ऋण लेकर ही अपनी अर्थव्यवस्था को ठीक प्रकार से चलाने का प्रयास करते रहे हैं। राज्य की वित्तीय आवश्यकताओं में वृद्धि के कारण लोक ऋणों का महत्व और भी बढ़ गया है। राज्य सरकारों की आय का स्रोत लोक ऋण भी है। सामाजिक कल्याण के लिए सरकार जनता से ऋण लेती है।
सार्वजनिक ऋण का अर्थ-
सरकार द्वारा देश के अन्दर या विदेशों से जब ऋण लिया जाये तो उसे सार्वजनिक ऋण कहा जाता है। सार्वजनिक ऋण के अर्थ के सन्दर्भ में अनेक परिभाषायें दी गयी हैं जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-
फिण्डले शिराज के अनुसार, “सार्वजनिक ऋण वह ऋण है, जिसके भुगतान हेतु कोई सरकार अपने देश के नागरिकों या दूसरे देश के नागरिकों के प्रति जिम्मेदार होती है।” इस प्रकार उपर्युक्त विवरण से सार्वजनिक ऋण की निम्नलिखित विशेषतायें स्पष्ट होती हैं-
- सरकार सामाजिक कल्याण के लिए लोक ऋण देती है।
- लोक ऋण सामान्यता दीर्घकालीन होते हैं।
- लोक ऋण वर्तमान समय में अनिवार्य है।
- लोक ऋण व्यापक होते हैं।
- सरकारी भुगतान क्षमता अधिक होने के कारण लोक ऋण की मात्रा अधिक होती है।
- लोक ऋणों का भुगतान अनिश्चित काल के लिए स्थगित किया जा सकता है य असाधारण परिस्थितियों में इसका भुगतान समाप्त भी किया जा सकता है।
- लोक ऋणों पर ब्याज का दर साधारणतया कम ही होती है।
- लोक ऋणों का अंशतः भार ऋणदाता पर ही पड़ता है क्योंकि सरकार ऋणों का भुगतान करारोपण के आधार पर करती है।
- लोक ऋण धन प्राप्त करने के दृष्टिकोण से नहीं वरन् अर्थशास्त्रियों को प्रभावित करने के लिए तथा उसके आवश्यक परिवर्तन करने के दृष्टिकोण से लिए जाते हैं।
- सार्वजनिक ऋण प्रायः उत्पादक होते हैं।
- सार्वजनिक ऋण देश की उत्पादन तथा वितरण व्यवस्था पर विशेष प्रभाव डालते हैं।
- सार्वजनिक ऋण गोपनीय होते हैं।
(1) फिन्डले शिराज के अनुसार, “सार्वजनिक ऋण वह ऋण होता है जिसके भुगतान के लिये कोई सरकार अपने देश के नागरिकों अथवा दूसरे देश के नागरिकों के प्रति उत्तरदायी होती है।”
(2) प्रो0जे0के0 मेहता के अनुसार, “सार्वजनिक ऋण अपेक्षाकृत आधुनिक घटना है तथा विश्व में जनतान्त्रिक सरकारों के विकास के साथ व्यवहार में आया है।”
सार्वजनिक ऋण एवं व्यक्तिगत ऋण में अन्तर-
राज्य भी व्यक्तियों की ही भाँति ऋण प्राप्त करता है परन्तु इन दोनों प्रकार के ऋणों की व्यवस्था एवं उपयोग के क्षेत्र में कुछ मौलिक भेद हैं, जिन्हें निम्न प्रकार से रखा जा सकता है-
(1) ऋण भार का अन्तर- व्यक्तिगत ऋण में ऋण की सम्पूर्ण राशि वापस मिल जाती है, जबकि सार्वजनिक ऋण में प्रत्यक्ष रूप से समस्त राशि मिलती है परन्तु अप्रत्य? रुप से उसका भार व्यक्ति को ही सहन करना पड़ता है, क्योंकि राज्य उस ऋण का भुगतान करने के लिए जनता पर कर लगाती है तथा उस कर से प्राप्त राशि का ही भुगतान कर दिया जाता है।
(2) अनिवार्यता एवं ऐच्छिकता का अन्तर- सार्वजनिक ऋण में सरकार के पास सार्वभौमिक सत्ता होने के कारण वह जनता को ऋण देने के लिए बाध्य कर सकती है और वह ऋण कम ब्याज पर भी प्राप्त किए जा सकते हैं। इसके विपरीत, व्यक्तिगत ऋण केवल व्यक्ति की इच्छा पर ही प्राप्त किए जा सकते सकते हैं तथा ब्याज की दर का निर्धारण ऋण देने वाले पर रहता है न कि ऋण लेने वाले पर। इस प्रकार सार्वजनिक ऋण अनिवार्य होता है, जबकि व्यक्तिगत ऋण ऐच्छिक।
(3) साख का अन्तर- सरकार की आय अच्छी होने के कारण उसे कम ब्याज पर पर्याप्त मात्रा में ऋण प्राप्त हो जाता है तथा यह ऋण किसी भी समय प्राप्त किए जा सकते हैं। इसके विपरीत, व्यक्तिगत ऋण में यह सुविधा नहीं होती और न तो यह कम ब्याज पर और न ही हर समय निर्गमित किए जा सकते हैं।
(4) गुप्तता में अन्तर- व्यक्तिगत ऋण सदैव गोपनीय रखे जाते हैं, जबकि सार्वजनिक ऋण को गोपनीय नहीं रखा जाता है।
(5) आवश्यकता का अन्तर- व्यक्ति बहुत आवश्यकता होने पर ही ऋण प्राप्त करता है, जबकि राज्य बिना किसी आवश्यकता के भी ऋण प्राप्त कर सकता है, जैसे- स्फीतिक काल में राज्य व्यक्तियों से ऋण प्राप्त करके उनकी क्रय-शक्ति को कम कर देता है, जिससे सामान्य मूल्य-स्तर नीचे गिर जाती है।
सार्वजनिक ऋणों का वर्गीकरण
सार्वजनिक ऋणों के वर्गीकरण का विभिन्न आधार है। जैसे- अवधि, व्याज की दर, ऋण लेने के स्रोत, ऋण का उद्देश्य, ऋण लेने की अवधि आदि। यहाँ पर सामान्य रूप से सार्वजनिक ऋणों का वर्गीकरण किया जाता है।
- अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन ऋण- समय के आधार पर सरकार या तो अल्पकालीन ऋण लेती है या दीर्घकालीन ऋण लेती है। अल्पकालीन ऋण दैवी प्रकोप की स्थिति में बजट के घाटे को पूरा करने के लिए लिया जाता है जिसका भार वर्तमान पीढ़ी पर पड़ता है। दीर्घकालीन ऋण सरकार सार्वजनिक हित के लिए जैसे- पुल का निर्माण, बाँध का निर्माण आदि के लिए लेती है जिसका भार भावी पीढ़ी पर पड़ता है। वैसे इस प्रकार के ऋणों में भेद करना कठिन है। दीर्घकालीन ऋणों का अनिश्चितकालीन ऋण तथा स्थायी ऋण तथा अल्पकालीन को निश्चितकालीन या अस्थायी ऋण कहते हैं। प्रो0 डाल्टन के अनुसार अनिश्चित कालीन ऋण वे हैं जिनके मूल के लौटाने का नहीं बल्कि ब्याज का भुगतान का आश्वासन दिया जाता है। जैसे- इंग्लैण्ड के ब्रिटिश कौंसल्स निश्चितकालीन ऋणों का भुगतान एक वर्ष में कर देना होता है।
- उत्पादक तथा अनुत्पादक ऋण- लोक ऋण को उत्पादनशीलता के आधार पर विभाजित किया गया है जिसे उत्पादक तथा अनुत्पादक ऋण कहते हैं। उत्पादक ऋण वे ऋण हैं जो सरकार की उत्पादन शक्ति को बढ़ाते हैं जिससे सरकार की आय में वृद्धि होती है जैसे यातायात के साधनों का विकास, नहरें बिजली घर आदि के विकास पर लिया गया ऋण। अनुत्पादक ऋण वह ऋण है जिनके उपयोग से देश के उत्पादन शक्ति में कोई वृद्धि नहीं होती है। हिक्स ने इसे मृतभार ऋण कहा है, जैसे- बजट का घाटा पूरा करने के लिए, युद्ध-संचालन के लिए। विस्तृत दृष्टिकोण से युद्ध के अतिरिक्त प्रत्येक प्रकार का व्यय उत्पादक है।
- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक ऋण- ऐच्छिक ऋण वह ऋण है जो जनता अपनी इच्छा के अनुसार सरकार को देती है। जब जनता का सरकार पर विश्वास होता है तो जनता अपनी बचत को सरकार द्वारा विनियोजित करने के लिए सरकार को ऋण प्रदान करती है। इसके विपरीत अनैच्छिक ऋण वह ऋण है जो सरकार जनता को बाध्य करके अनिवार्य रूप से ऋण लेती है जैसे भारत में अनिवार्य जमा बचत योजना लागू करना बलात ऋण या अनैच्छिक ऋण का ही उदाहरण है।
- शोध्य तथा अशोध्य ऋण- शोध्य ऋण वे ऋण होते हैं जिसका भुगतान एक निश्चित समय के पश्चात् कर दिया जाता है। प्रो0 जे0के0 मेहता के अनुसार, “शोध्य ऋण ऋण हैं जिन्हें सरकार द्वारा एक भावी तिथि पर भुगतान करने का वचन दिया जाता है।”
अशोध्य ऋण वे ऋण होते हैं जिनके मूधन के भुगतान की कोई तिथि निश्चित नहीं होती है लेकिन इनके ब्याज के भुगतान का सरकार द्वारा आश्वासन दिया जाता है। इन्हें सार्वजनिक अथवा बेमियादी ऋण भी कहते हैं।
- विपणन योग्य तथा गैर विपणन योग्य ऋण- विपणन योग्य उस ऋण को कहते हैं जिसमें सरकार द्वारा प्रतिभूतियों को खुले बाजार में विपणन किया जा सकता है। गैर विपणन ऋण वे ऋण होते हैं जिनमें ऋणपत्रों को स्वतंत्रतापूर्वक बेचा नहीं जा सकता है। इसे सरकार ही वापस लेती इस प्रकार ऋण का प्रमुख उद्देश्य मूल्य में स्थिरता लाने के लिए होता है।
- ब्याज सहित तथा ब्याज रहित ऋण- ब्याज सहित ऋण से आशय ऐसे ऋणों से लगाया जाता है जिनका भुगतान मूलधन में ब्याज से जोड़कर किया जाता है, इसके विपरीत ब्याज रहित ऋण वे ऋण होते हैं, जिनकी निर्धारित अवधि के बाद केवल मूलधन ही वापस किया जाता है। कुछ विशेष परिस्थितियों में अन्तर्राष्ट्रीय वित्त संस्थायें भी ब्याज रहित ऋण देती है।
- आन्तरिक ऋण- जब सरकार अपने देश की जनता को प्रतिभूतियाँ बेचकर ऋण प्राप्त करती हैं तो ऐसे ऋण को आन्तरिकत ऋण कहा जाता है। इस संबंध में प्रो० डाल्टन ने कहा है कि एक ऋण आन्तरिक है यदि वह उन व्यक्तियों या संस्थाओं द्वारा दिया जाता है जो उस क्षेत्र में रहते हैं जिसे ऋण लेने वाली लोक सत्ता द्वारा नियंत्रित किया जाता है।”
- बाह्य या विदेशी ऋण- बाह्य ऋण या विदेशी ऋण से आशय ऐसे ऋण से लगाया जाता है जिन्हें सरकार द्वारा विदेश में रहने वाले व्यक्तियों, संस्थाओं या सरकार से लिया जाता है। इस संबंध में प्रो० डाल्टन का मत है कि ऋण उस समय बाह्य होगा, यदि वह उन व्यक्तियों या संस्थाओं द्वारा दिया जाता है जो उस क्षेत्र से बाहर रहते हैं जिसे ऋण लेने वाली लोक सत्ता द्वारा नियंत्रित किया जाता है।”
आन्तरिक ऋण तथा बाह्य ऋण में अन्तर-
आन्तरिक ऋण
आन्तरिक ऋण अपने देश की जनता से लिया जाता है।
आन्तरिक ऋण अपने देश की मुद्रा में लिये जाते हैं।
आन्तरिक ऋण ऐच्छिक या अनिवार्य ह सकते हैं।
सरकार आन्तरिक ऋणों को प्राथमिकता देती है।
आन्तरिक ऋण बाह्य ऋणों से पहले लिये जाते हैं।
बाह्य ऋण
बाह्य ऋण विदेश में रहने वाले व्यक्तियों,संस्थाओं तथा सरकारों से लिया जाता है।
बाह्य ऋण विदेशी मुद्रा में लिये जाते हैं।
बाह्य ऋण केवल ऐच्छिक होते हैं।
सरकार बाह्य ऋणों को प्राथमिकता नहीं देती है।
बाह्य ऋण आन्तरिक ऋणों के बाद लिये जाते
विदेशी ऋणों लाभ-
निम्नलिखित लाभ हैं-
- विकासशील देशों के लिए पूँजी की विशेष आवश्यकता होती है जिन्हें उस पर देश की सरकार आन्तरिक साधनों से पूरा करने में असमर्थ रहती है। इसलिए इन देशों के लिए बाह्य ऋणों का महत्व अधिक हो जाता है।
- कुछ दैवी प्रकोप जैसे- अकाल, बाढ़, महामारी आदि के कारण देश की आर्थिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाती है। ऐसे समय में आन्तरिक ऋण प्राप्त करना भी देश के लिए एक समस्या बन जाती है। ऐसी स्थिति में बाह्य ऋणों का लेना देश के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध होता है।
- कभी-कभी सरकार विदेशी विनिमय संकट दूर करने के लिए तथा व्यापार संतुलन को पक्ष में लाने के लिए विदेशी ऋणों को लेती है और यह ऋण देश के लिए उपयोगी सिद्ध होता है।
- युद्ध के उपरान्त ध्वस्त राष्ट्र पुनर्निर्माण के लिए बाह्य ऋण प्राप्त करते हैं जिससे भविष्य में उनके विकास की सम्भावना रहती है।
- बाह्य ऋणों के माध्यम से निर्धन देश विकासशील कार्यों को करके उन्नति करते हैं और इस प्रकार अंतराष्ट्रीय विकास की विषमताओं की खाई कम होती जाती है और आपसी सहयोग बढ़ता जाता है।
इसके अतिरिक्त बाह्य ऋणों के साथ ही कुछ तकनीकी सहायता भी प्राप्त होती है और जिनमें पूँजी का लाभकारी विनियोग भी सम्भव होता है।
विदेशी ऋण से हानियाँ-
इसकी प्रमुख हानियाँ निम्नलिखित हैं-
- विकासशील तथा धनी देश अविकसित तथा निर्धन देशों को धन देकर उनका आर्थिक शोषण करते हैं और उनसे अनेक प्रकार की सुविधायें लेने का प्रयास करते हैं।
- बाह्य ऋणों से देश की राजनैतिक प्रभुसत्ता खतरे में पड़ जाती है क्योंकि ऋणदाता देश ऋणी राष्ट्रों के आन्तरिक मामले में हस्तक्षेप करना प्रारम्भ कर देते हैं।
- कभी-कभी यह देखा गया है कि देश में बाह्य ऋणों का दुरुपयोग होता है जिससे देश की अर्थव्यवस्था दुर्बल हो जाती है।
- बाह्य ऋणों का भुगतान अधिकतर देश को स्वर्ण या वस्तुओं तथा सेवाओं के रूप से करना पड़ता है। इनकी कमी के कारण देश को बड़ी असुविधा का सामना करना पड़ता है।
- बाह्य ऋणों से विदेशी विनिमय संकट उत्पन्न होने का सदैव भय बना रहता है। उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि बाह्य ऋणों का प्रयोग सीमित मात्रा में ही उत्पादक कार्यों के लिए ही किया जाना चाहिए जिससे इन ऋणों का भुगतान सरलता से किया जा सके।
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