अर्थशास्त्र / Economics

घाटे के बजट की सुरक्षित सीमा | Safe Limit of Deficit Budget in Hindi

घाटे के बजट की सुरक्षित सीमा | Safe Limit of Deficit Budget in Hindi

घाटे के बजट की सुरक्षित सीमा (Safe Limit of Deficit Budget)-

यों तो घाटे के बजट को अनुचित ही समझा जाता है, लेकिन ऐसा वास्तव में नहीं है क्योंकि घाटे के बजट के संदर्भ में कहा जाता है कि “घाटे का बजट एक कड़वी दवाई के समान है जो गुणकारी भी है, किन्तु अधिक मात्रा में लेने पर मृत्यु का कारण भी बन सकता है। इसी प्रकार से ‘घाटे के बजट’ को राष्ट्र हित में दवा की भाँति उपयोग करें तो राष्ट्रीय समृद्धि का प्रतीक होगा, यदि देश को इसी पर ही निर्भर कर दिया जाये तो देश की अर्थव्यवस्था गर्त में पहुँच जायेगी। इसीलिए अहम् प्रश्न उठता है कि घाटे की वित्त व्यवस्था की सुरक्षित सीमा कितनी हो? जो आर्थिक विकास की सतत् प्रक्रिया में ही सहायक न हो वरन् आर्थिक विकास की दर को लक्ष्य तक पहुँचाये। वैसे ‘घाटे के बजट’ का कितना रखा जाये, कोई निश्चित राशि को बतलाना कठिन होगा किन्तु कुछ तथ्य हैं, जिनका आर्थिक अध्ययन स्वतः निर्धारित कर देता है कि घाटे के बजट की सुरक्षित सीमा क्या हो ? प्रमुख तथ्य निम्न हैं।

  1. निवेश (Investment)-

किसी देश की अर्थव्यवस्था में निवेश (Investment) एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथ्य है। अब प्रश्न है कि निवेश कितना जाये जो आर्थिक स्थायित्व (Economic Stability) प्रदान करे। क्योंकि घाटा ऊँचा करके निवेश तो बढ़ाया जा सकता है लेकिन देश का कीमत सूचकांक उतना ही ऊँचा हो जायेगा जो आर्थिक अस्थिरता प्रदान करेगा दूसरी ओर यदि निवेश न्यूनतम करें तो आर्थिक विकास की प्रक्रिया इतनी मन्द हो जायेगी जो राष्ट्रीय अस्मिता के लिए अनुचित होगी। अतः निवेश को उचित मात्रा में किया जाना चाहिए जिससे कीमत वृद्धि ऊँची न हो सके।

  1. मजदूरी (Wages)-

किसी देश में घाटे के बजट की सुरक्षित सीमा ज्ञात करने हेतु मजदूरी दर में वृद्धि नहीं होनी चाहिए। यदि घाटे के बजट से कीमत वृद्धि हो रही है तो वेतन भोगी वर्ग के लिए वेतन एवं कीमत सूचकांक के मध्य विषमता बढ़ जाती है, फलस्वरूप श्रमिक संघ मजदूरी दर में वृद्धि की माँग करने लगते हैं। इसलिए घाटे का बजट इतना मात्र हो कि मजदूरी दर में वृद्धि की सम्भावनाएँ शून्य हों। इससे मुद्रा प्रसार के अवसर कम रहेंगें, और उत्पादन लागतों में अधिक वृद्धि नहीं होगी।

  1. कीमत नियंत्रण (Price-Control)-

किसी देश की अर्थव्यवस्था में कीमत नियंत्रण एक ऐसा उपकरण है जो ‘घाटे के बजट’ की सीमा को निर्धारित करता है। इसलिए सरकार को खाद्यात्र एवं अन्य वस्तुओं के मूल्यों पर नियंत्रण रखना अनिवार्य हो जाता है, यदि सरकार कीमत नियंत्रण करने में सफल है तो कच्चे माल के वितरण की समुचित व्यवस्था हो जायेगी इससे मुद्रा प्रसार पर नियंत्रण रहेगा। अतः घाटे के बजट की सुरक्षित सीमा हेतु कीमत नियंत्रण एक आवश्यक अंग हैं।

  1. संचय (Liquid Deposit)-

प्रत्येक व्यक्ति की तरल मुद्रा को संचित रखने की प्रवृत्ति होती है। यदि ‘घाटे के बजट‘ के फलस्वरूप लोगों की आय बढ़ रही है, और देशवासी बढ़ी हुई आय को खर्च करने की अपेक्षा अपने पास नकद रूप में संचित कर लें तो मुद्रा प्रसार को उस सीमा तक रोका जा सकता है जिस सीमा तक देशवासी अपनी आय को नकद रूप में रखना चाहते हैं तो ‘घाटे के बजट’ की सुरक्षित सीमा हेतु संचय प्रवृत्ति का आकलन आवश्यक हैं।

  1. अतिरिक्त आय (Excess Income)-

सामान्यतः घाटे के बजट’ से लोगों की आय में अतिरिक्त वृद्धि होती है। क्योंकि घाटे के आपूर्ति हेतु अतिरिक्त धन का व्यय लोगों के पास अतिरिक्त आय के रूप में पहुँचता है। यदि सरकार ऐसे धन को करारोपण द्वारा एकत्रित कर लेती है तो मुद्रा प्रसार नियंत्रित हो जाता है, फलस्वरूप मुद्रा प्रसार के दबाव से अर्थव्यवस्था भयमुक्त हो सकती है; अतः सरकार को घाटे का बजट उतना बनाना चाहिए जो अतिरिक्त आय को करों द्वारा एकत्रित किया जा सके। इसके विपरीत यदि भारी घाटा करके विकास का कदम उठाया जायेगा तो राष्ट्र मुद्रा प्रसार के भंवर में फंस जायेगा।

  1. परपिक्व काल (Gestation-Period)-

यदि घाटे के बजट से प्राप्त धन का प्रयोग ऐसी छोटी-छोटी परियोजनाओं पर किया जा रहा है जो अल्पकाल में ही परिपक्वता प्रदान करने वाली है तो निश्चय ही मुद्रा प्रसार का प्रभाव अति अल्प समय तक ही सीमित हो जावेगा। दूसरी ओर सरकार यदि बड़ी परियोजनाओं पर निवेश कर रही है तो उनकी उत्पादकता में दीर्घकाल लगेगा, फलतः दीर्घकाल तक मुद्रा प्रसार का प्रभाव रहेगा। अतः सरकार को ‘घाटे के बजट’ में कितने घाटे की सीमा या हीनार्थ प्रबन्धन की व्यवस्था करना है, इसके लिए शीघ्र उत्पादक क्षेत्रों का चयन करना चाहिए।

  1. व्यय-प्रकृति (Expenditure nature)

घाटे के बजट को किस सीमा तक निश्चित किया जाये, इसके लिए व्यय की प्रकृति एक उपयोगी तथ्य है। यदि सरकार घाटे का प्रयोग अनुत्पादक कार्यों पर कर रही है, तो निश्चय ही मुद्रा प्रसार को निमंत्रण दे रही है। इसलिए व्यय की प्रकृति सदैव उत्पादकता से जुड़ी होनी चाहिए। इससे घाटे के बजट राष्ट्र हित में दिखाई देंगे। डॉ. वी. के. आर. वी. राव का मत है कि घाटे का बजट स्वयं में न तो अच्छा है और न ही बुरा तथा घाटे के बजट में न तो मुद्रा प्रसार स्वभावतः निहित ही है।”

इस प्रकार घाटे के बजट की एक सुरक्षित सीमा वहीं समझी जानी चाहिए जिसमें मुद्रा प्रसार का स्थाई संकट उत्पन्न न हो। अतः घाटे के बजट को आर्थिक विकास के पर्याय के रूप में प्रयोग करना चाहिए।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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