अर्थशास्त्र / Economics

भारत में आर्थिक नियोजन की उपलब्धियाँ | भारत में आर्थिक नियोजन की असफलताएँ | योजनाओं को सफल बनाने हेतु उपाय/सुझाव

भारत में आर्थिक नियोजन की उपलब्धियाँ | भारत में आर्थिक नियोजन की असफलताएँ | योजनाओं को सफल बनाने हेतु उपाय/सुझाव | Achievements of Economic Planning in India in Hindi | Failures of Economic Planning in India in Hindi | Measures/suggestions to make the plans successful in Hindi

भारत में आर्थिक नियोजन की उपलब्धियाँ

उपलब्धियाँ- भारत में आर्थिक नियोजन की प्रमुख उपलब्धियाँ निम्नानुसार हैं

  1. कृषि क्षेत्र में प्रगति- भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का अत्यधिक महत्त्व है। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं मेंकृषि को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान की गई है। वर्ष 1949-50 से वर्ष 1992-93 के बीच कृषि उत्पादन में 2.71% की चक्रवृद्धि दर से बढ़ोत्तरी हुई। वर्ष 1949-50 में खाद्यान्न उत्पादन 5 करोड़, 49 लाख, 20 हजार टन था जो 1992-93 में बढ़कर 19 करोड़, है10 हजार टन हो गया। हरित क्रांति के बाद फसल चक्र कहीं अधिक विविधतापूर्ण हो गया है। घरेलू माँग और निर्यात सम्बन्धी आवश्यकता के अनुरूप नकदी फसलों की खेती को प्रोत्साहन मिला है। इसके फलस्वरूप सूरजमुखी, सोयाबीन तथा गर्मियों में होने वाले मूँगफली एवं मूँग जैसी गैर-परम्परागत फसलो का महत्त्व धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है। खरीफ और रबी फसलों के बाद जमीन में बाकी बची नमी का इस्तेमाल करके जल्दी पकने वाली तीसरी फसल बोयी जा रही है।
  2. औद्योगिक क्षेत्र में प्रगति- नियोजन काल में देश का औद्योगिक विकास भी तेजी से हुआ है। देश में औद्योगिक विकास की शुरुआत द्वितीय पंचवर्षीय योजना से हुई है, जबकि उद्योगों को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र में लोहा एवं इस्पात के तीन कारखानें-राउरकेला, भिलाई तथा दुर्गापुर में स्थापित किए। बाद की योजनाओं में भी सरकार ने उद्योगो की स्थापना एवं विकास परध्यान दिया है। आधारभूत संरचना के निर्माण एवं विभिन्न औद्योगिक नीतियों के माध्यम से सरकार ने देश में औद्योगिक वातावरण निर्मित किया है। अर्थव्यवस्था में लघु एवं कुटीर उद्योगों के महत्त्व को स्वीकार करते हुए विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में इनके विकास पर भी जोर दिया गया है। पंचवर्षीय योजनाओं में किए गये प्रयासों से देश के औद्योगिक उत्पादन में बहुत अधिक वृद्धि हुई है। वर्ष 1950-51 से 1992-93 की अवधि के बीच कोयले के उत्पादन में 8 गुना, लौह अयस्क में 17 गुना, तैयार इस्पात में 13 गुना, सूती कपड़े में 5 गुना, चीनी में 16 गुना एवं चाय के उत्पादनमें 2.5 गुना वृद्धि हुई है।
  3. राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि- नियोजन काल में राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति में लगातार वृद्धि हुई है। 1950-51 में 1980-81 के मूल्य स्तर पर राष्ट्रीय आय 42.871 करोड़ रुपये तथा प्रति व्यक्ति आय 1.127 रु. थी जो बढ़कर 1991-92 में क्रमशः 2,12,316 करोड़ रुपये तथा 2,175 रु. हो गयी।
  4. बचत एवं विनियोग दरों में वृद्धि- नियोजित विकास के कारण हमारे देश में बचत एवं विनयोग की दरों में काफी वृद्धि हुई है। 1950-51 में सकल घरेलू बचत सकल घरेलू उत्पादन की 10.4% तथा सकल घरेलू पूँजी निर्माण सकल घेरलू उत्पाद का 10.2% था जो 1991-92 में बढ़कर क्रमशः 24.3% तथा 25.5% हो गया।
  5. विद्युत उत्पादन में वृद्धि – आर्थिक एवं सामाजिक प्रगति के लिए विद्युत का विशेष महत्त्व है। देश का औद्योगिक एवं कृषि विकास बहुत कुछ विद्युत की उपलब्धता पर निर्भर होता है। इस आधार पर पंचवर्षीय योजनाओं में विद्युत के उत्पादन पर विशेष जोर दिया गया है। इसके परिणामस्वरूप 1950-51 में विद्युत की जो स्थापित क्षमता 23 लाख किलोवट थी, वह 1991-92 में बढ़कर 780 लाख किलोवाट हो गयी।

भारी एवं रक्षा सम्बन्धी वस्तुओं के उद्योगों की स्थापना की गई। पहली पंचवर्षीय योजना में आरम्भ में अर्थात् 1 अप्रैल, 1951 को देश में सार्वजनिक प्रतिष्ठानों की संख्या मात्र पाँच थी जिनमें 29 करोड़ रुपये की पूँजी का विनियोग किया गया था। 31 मार्च, 1993 तक सार्वजनिक प्रतिष्ठानों की संख्या बढ़कर 245 एवं इनमें विनियोजित पूँजी की मात्रा बढ़कर 1,46,971 करोड़ रुपये हो गयी।

1991 में घोषित नयी औद्योगिक नीति सेसार्वजनिक क्षेत्र के महत्त्व को कम कर दिया गया है।

  1. विदेशी व्यापार में वृद्धि- अर्थव्यवस्था के विश्वव्यापी प्रसार के साथ भारत ने भी अपने विदेशी व्यापार को पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से विस्तृत आधार प्रदान किया है। आज भारत द्वारा 190 देशों को 7,500 से भी अधिक वस्तुओं का निर्यात किया जाता है और 140 देशों से 6,000 से अधिक वस्तुएँ आयात की जाती हैं। पंचवर्षीय योजनाएँ शुरू होने के बाद से कुल विदेशी व्यापार में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है। 1950-51 में विदेशी व्यापार मूल्य 1,214 करोड़ रुपये था जो कि 2016-17 में बढ़कर 1,71,364 करोड़ रुपये हो गया।
  2. शिक्षा का प्रसार-प्रचार- भारत की आर्थिक योजनाओं में शिक्षा को उच्च प्राथमिकता दी गई है जिसके कारण इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रसार एवं प्रचार हुआ है। 1950-51 में विद्यालयों की संख्या 2,30,83 थी जिनमें लगभग 2.4 करोड़ विद्यार्थी थे। 1992-93 में इनकी संख्या बढ़कर 8, 21, 988 तथा विद्यार्थियों की संख्या 16.08 करोड़ हो गई। 1991-92 में उच्च शिक्षा के लिए कुल 44.25 लाख विद्यार्थी थे। पंचवर्षीय योजनाओं की अवधि में इंजीनियरिंग तथा तकनीकी संस्थाओं में प्रवेश क्षमताओं में सात गुनी वृद्धि हुई है। देश में निरक्षता को समाप्त करने के लिए अनेक कार्यक्रम शुरू किये गये जिनके परिणामस्वरूप साक्षरता का जो प्रतिशत 1951 में 16.6% था वह 2011 की जनगणना के अनुसार बढ़कर 121.091% हो गया।

भारत में आर्थिक नियोजन की असफलताएँ

यद्यपि नियोजनकाल में देश में आर्थिक विकास हुआ है लेकिन उसमे आशा में अनुरूप सफलता नहीं मिली है। इस कारण कुछ विद्वान् यह कहते हैं कि हमारा नियोजन असफल रहा है। डॉ. के.एन. राज के अनुसार, “नियोजन काल में देश में आय एवं संपत्ति की असमानता बढ़ी है तथा भारत की मिश्रित अर्थव्यवस्था में समाजवादी तत्त्वों की अपेक्षा पूँजीवादी तत्त्वों का बाहुल्य बना हुआ है।” भारत में आर्थिक नियोजन की कुछ प्रमुख कमियाँ निम्न हैं –

  1. प्रति व्यक्ति आय में धीमी प्रगति- नियोजित अर्थव्यवस्था रहने के बावजूद भी भारत में प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि बहुत कम रही है जिसके परिणामस्वरूप जनता के जीवन स्तर सुधार नहीं हुआ। देश में पूर्ण हुई सात योजनाओं में राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर औसत रूप में 4% रही है जो कि विश्व के अन्य राष्ट्रों की तुलना में बहुत कम है।
  2. बेरोजगारी में वृद्धि- यद्यपि प्रत्येक योजना काल में देश की श्रमशक्ति के लिए रोजगार के अवसर बढ़ाये गए लेकिन रोजगार के साधनों की अपेक्षा श्रम साधनों में अधिक वृद्धि होने से बेरोजगारी बढ़ती ही जा रही है। आज हमारे नियोजन की यह सबसे प्रमुख असफलता बतायी जाती है। बेरोजगारी की समस्या भारत की एक मुख्य समस्या बन गई। शिक्षित बेरोजगारी की समस्या दिन-प्रतिदिन उग्र रूप धारण करती जा रही है। बेरोजगारी के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार के विश्वसनीय आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। जहाँ प्रथम योजना के शुरू में 33 लाख व्यक्ति बेरोजगार थे, वहीं सातवीं योजना के अन्त में लगभग 5.4 करोड़ बेरोजगार होने का अनुमान रखा गया।
  3. मूल्य स्तर में वृद्धि- यद्यपि योजनाओं की रणनीति स्थिरता के साथ विकास पर आधारित रही है लेकिन यह योजनाओं की विफलता रही है कि मूल्यों पर नियन्त्रण नहीं रखा जा सका। मूल्यों की इस वृद्धि के कारण गरीब व्यक्ति और अधिक गरीब होते जा रहे हैं तथा धनी व्यक्ति धनी। मूल्य वृद्धि के कारण एक तरफ उपभोक्ताओं को अपार कष्ट होता है वहीं दूसरी ओर योजनाओं की लागत काफी बढ़ जाती है। 1950-51 में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (आधार वर्ष 1982 = 100) केवल 17 तथा थोक मूल्य सूचकांक 16.9 था जो बढ़कर 1991-92 में क्रमश: 219 तथा 217.8 हो गया। इन 60 वर्षों में उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्यों में लगभ 17 गुनी हुई है।
  4. धन तथा आय के वितरण में असामनता- यद्यपि हमारे आर्थिक नियोजन का प्रमुख उद्देश्य धन तथा आय के वितरण की विषमता को दूर करना था लेकिन छठी योजना के पूरी होने के बाद भी हम उद्देश्य को प्राप्त करने में पूरी तरह से असफल रहे है। हमारे नियोजन का प्रमुख उद्देश्य समाजवादी समाज की स्थाना करना है, जबकि हम इसके विपरीत दिशा में जा रहे हैं। नियोजित विकास के परिणामस्वरूप एक तरफ गरीबों की गरीबी बढ़ी है, वहीं दूसरी तरफ अमीरों का वैभव बढ़ा।
  5. आर्थिक शक्ति के केन्द्रीकरण में वृद्धि- योजनाकालमें निजी क्षेत्र में एकाधिकार तथा आर्थिक शक्ति के केन्द्रीकरण की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिला है। टाटा, बिड़ला, सिघानिया, मफतलाल, साहू, जैन आदि औद्योगिक घरानों ने देश की अर्थव्यवस्था पर अपना आधिपत्य जमा लिया है। इन घरानों की सम्पत्तियों में काफी वृद्धि हुई। 1990 में बिड़ला समूह की सम्पत्ति 6,974 करोड़ रुपये, टाटा समूह की 6,621 करोड़ रु0 तथा रिलायंस समूह की सम्पत्ति 3,141 करोड़ हो गई। वित्तीय संस्थाओं की ऋण देने की सुविधाओं, लाइसेन्स देने की व्यवस्था, आयात नियन्त्रण तथा भुगतान सन्तुलन की प्रतिकूलता के कारण आर्थिक शक्ति के केन्द्रीकरण को प्रोत्साहन मिला।

योजनाओं को सफल बनाने हेतु उपाय/सुझाव

  1. तकनीकी ज्ञान का विकास- आज विकसित देशों की तुलना में हमारे कृषि उत्पादन तथा औद्योगिक उत्पादन की दर इसलिए कम हैं, क्योंकि तकनीकी ज्ञान के क्षेत्र में हम उनसे पिछड़े हुए हैं। हमें आपने तकनीकी ज्ञान का विकास करना चाहिए।
  2. राजनैतिक स्थिरता- योजनाओं की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि देश की केन्द्रीय एवं राज्य सरकारें सुदृढ़ एवं स्थायी हों। यदि देश में राजनीतिक स्थिरता का अभाव होता है तो योजना सम्बन्धी नीतियों में बार-बार परिवर्तन करना पड़ता है और इससे योजनाएं असफल हो जाती हैं।
  3. सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र में समन्वय- देश की योजनायें तभी सफल हो सकती हैं, जबकि सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र एक-दूसरे के प्रतियोगी न होकर सहयोगी के रूप में कार्य करें।
  4. मूल्यों में स्थिरता- यदि मूल्य स्तर में बहुत ज्यादा वृद्धि होती है तो आर्थिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अतः योजनाओं की सफलता के लिए यह जरूरी है कि मूल्यों में स्थिरता रहे।
  5. जन सहयोग- योजनाओं की सफलता के लिए जनता का सहयोग मिलना भी बहुत जरूरी होता है। जनता का सहयोग प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि लोगों तक योजनाओं के लाभों की जानकारी पहुँचे तथा उनमें विकास की भावनाएँ जागृत की जायें।
  6. गाँवों में गैर कृषि क्षेत्र का विकास- भारत की अर्थव्यवस्था ग्राम प्रधान है और गाँवों में हमारी 3/4 जनसंख्या रहती है। राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि करने के लिए जरूरी है कि ग्रामीण जनता को गैर-कृषि कार्यों में लगाया जाय। गाँवों में छोटे उद्योगों की स्थापना की जानी चाहिए ताकि ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अतिरिक्त अवसर निर्मित हों। इन उद्योगों के विकास से योजनाओं की सफलता की सम्भावनायें बढ़ जाती है।
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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

1 Comment

  • Very well information…. I m a upsc aspirant it’s very useful
    If possible then please provide..
    Techniques of planning.
    Thank you🙏

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