घाटे की वित्त व्यवस्था | घाटे के बजट एवं घाटे की वित्त-व्यवस्था में अन्तर | विकासशील देश और हीनार्थ प्रबन्धन | हीनार्थ प्रबन्धन का महत्व | हीनार्थ प्रबन्धन की सीमायें
घाटे की वित्त व्यवस्था | घाटे के बजट एवं घाटे की वित्त-व्यवस्था में अन्तर | विकासशील देश और हीनार्थ प्रबन्धन | हीनार्थ प्रबन्धन का महत्व | हीनार्थ प्रबन्धन की सीमायें
घाटे की वित्त व्यवस्था (Deficit Financing)-
साधारण शब्दों, में जब सरकार का व्यय उसकी आय से अधिक हो जाता है अथवा उसकी आय उसके व्यय से कम रह जाती है तो बजट में इस प्रकार के घाटे को पूरा करने के लिये जो व्यवस्था अपनाई जाती है उसे हीनार्थ प्रबन्धन अथवा घाटे की अर्थव्यवस्था कहते हैं। बजट के इस घाटे को पूरा करने के लिये तीन विधियाँ अपनाई जाती हैं-(1) विदेशी ऋण लेकर, (2) आन्तरिक ऋण लेकर, (3) नोट छापकर। आय और व्यय के इस घाटे को पूरा करने के लिये कौन-सी विधि अपनाई जाये, इस सम्बन्ध में दो विचारधारायें प्रचलित हैं-
प्रथम विचारधारा (अमेरिकन दृष्टिकोण)-
अमेरिका तथा अधिकांश देशों में जब कभी सरकार का व्यय उसकी आय से अधिक हो जाता है तो बैकों तथा जनता से ऋण लेकर इस घाटे को पूरा किया जाता है। इस प्रकार पश्चिमी देशों में यदि बजट के घाटे को ऋणों द्वारा पूरा किया जाये तो उसे हीनार्थ प्रबन्धन अथवा घाटे की अर्थव्यवस्था कहते हैं। डॉ0 के0के0 शर्मा के अनुसार, “पश्चिमी देशों में राजस्व प्राप्तियों की तुलना में सरकार द्वारा किये गये व्यय की अधिकता को, जिसमें कि पूँजीगत व्यय भी सम्मिलित है, घाटे को वित्त-व्यवस्था कहा जाता है, भले ही उस व्यय की पूर्ति ऋण द्वारा उपलब्ध प्राप्तियों से की गई हो।”
द्वितीय विचारधारा (भारतीय दृष्टिकोण)-
हीनार्थ प्रबन्धन के सम्बन्ध में भारतीय दृष्टिकोण अमेरिकन दृष्टिकोण से सर्वथा भिन्न है। यहाँ घाटे की वित्त व्यवस्था से तात्पर्य यह है कि सरकार बजट के घाटे को अधिक नोट छापकर अथवा केन्द्रीय बैंक से ऋण लेकर पूरा करे। दोनों ही दशाओं में देश में मुद्रा की मात्रा में वृद्धि होती है।
घाटे की वित्त-व्यवस्था को किस विधि द्वारा पूरा किया जाये, इस सम्बन्ध में भले ही अर्थशास्त्रियों में मतभेद हो परन्तु इतना अवश्य है कि –(i) सरकार जानबूझकर बजट में घाटा उत्पन्न करती है, (ii) देश में मुद्रा की मात्रा में वृद्धि हो जाती है।
घाटे के बजट एवं घाटे की वित्त-व्यवस्था में अन्तर-
जब किसी देश के बजट में चालू आय की अपेक्षा व्यय अधिक दिखाया जाता है तो उसे घाटे का बजट कहते हैं। इसके विपरीत जब सरकार इस घाटे को पूरा करने के लिये किसी भी विधि को अपनाती है (ऋण लेकर, संचित कोषों का प्रयोग करके, नोट छापकर) उसे घाटे की वित्त व्यवस्था कहा जाता है।
विकासशील देश और हीनार्थ प्रबन्धन
सामान्यतः यह कहा जाता है कि हीनार्थ प्रबन्धन का प्रयोग केवल उन्हीं देशों में किया जाना चाहिये जहाँ (i) मन्दी काल आरम्भ हो चुका हो, (ii) देश में पर्याप्त कुशल श्रम शक्ति उपलब्ध हो। ये दोनों स्थितियाँ अल्प विकसित देशों में नहीं पाई जाती। अतः अल्पविकसित देशों को अपने विकास के लिये हीनार्थ प्रबन्धन की नीति नहीं अपनानी चाहिये। दूसरे, अधिकांश अल्पविकसित देश कृषि प्रधान देश होते हैं और कृषि में उत्पत्ति ह्रास नियम लागू होता है। अतः मुद्रा की मात्रा की बुद्धि के अनुपात में उत्पादन बढ़ाना सम्भव नहीं है जिसका परिणाम यह होता है कि बढ़ते हुये मूल्य और अधिक मूल्य वृद्धि को जन्म देने लगते हैं। इस प्रकार मुद्रा-प्रसार की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
इसके विपरीत कुछ अर्थशास्त्री ऐसे भी हैं जो अल्पविकसित देशों के विकास के लिये हीनार्थ प्रबन्धन की नीति का समर्थन करते हैं। प्रो0 जे0के0 अन्जारिया के अनुसार, “विकासशील राष्ट्रों में हीनार्थ प्रबन्धन न केवल सुरक्षित है वरन् आवश्यक भी, और जो लोग इसका विरोध करते हैं वे वास्तव में नियोजित विकास के प्रति भी शंकालु हैं।”
प्रो० एम0 एल0 सेठ के अनुसार, “हीनार्थ प्रबन्धन विकास वित्त की एक शक्तिशाली तकनीक है और अल्पविकसित देशों में आर्थिक विकास की वित्तीय व्यवस्था में इसका एक अपना केन्द्रीय स्थान है।”
प्रो0 हैरिस के अनुसार, “नियोजन सदैव दुर्भाग्य का परिणाम होता है और इस दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलते के लिये हीनार्थ प्रबन्धन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।”
हीनार्थ प्रबन्धन का महत्व
अल्पविकसित देशों के लिये हीनार्थ प्रबन्धन का महत्व निम्न कारणों से है-
(1) भौतिक साधनों के पूर्ण उपयोग के लिये- प्रो० शिनोय के अनुसार, “जन तक देश में अशोषित भौतिक साधन उपलब्ध हैं, तब तक हीनार्थ प्रबन्धन द्वारा उत्पन्न नई मुद्रा से मुद्रा स्फीतिक दबाब उत्पन्न नई मुद्रा से मुद्रा स्फीतिक दबाव उत्पन्न नहीं हो सकते।” अल्पविकसित देशों में अवशोषित भौतिक साधन प्रचुर मात्रा में होते हैं जिनका शोषण नई मुद्रा के माध्यम से सरलता से किया जा सकता है।
(2) मुद्रा की माँग व पूर्ति में सन्तुलन स्थापित करने के लिये- नियोजित आर्थिक विकास के कारण विकासशील देश की राष्ट्रीय आय बढ़ती है। इस कारण राष्ट्रीय आय की वृद्धि के अनुपात में मुद्रा की पूर्ति बढ़ना भी आवश्यक है वरना अर्थव्यवस्था में विघटन हो जायेगा।
(3) अमौद्रिक क्षेत्र को मौद्रिक क्षेत्र में बदलने के लिये- विकासशील देशों में अधिकांश ग्रामीण क्षेत्र अमौद्रिक क्षेत्र होता है। विकास की गति के साथ-साथ इस अमौद्रिक क्षेत्र में मुद्रा की माँग बढ़ने लगती है।
(4) तरलता पसन्दगी में वृद्धि- विकास के साथ-साथ जनता के जीवन-स्तर में सुधार हो जाता है और तरलता पसन्दगी के लिये मुद्रा की माँग में वृद्धि हो जाती है।
(5) अन्य लाभ- (i) यातायात व संचार के साधनों का विकास हो जाता है, (ii) बैंकिंग सुविधाओं का विकास हो जाता है। फलतः हीनार्थ प्रबन्धन द्वारा बढ़ी हुई मुद्रा स्फीतिक दबाव उत्पन्न नहीं करती है।
हीनार्थ प्रबन्धन की सीमायें
इस प्रकार विकासशील देशों के आर्थिक विकास में हीनार्थ प्रबन्धन पर्याप्त सहायक हो सकता है। परन्तु हीनार्थ प्रबन्धन एक सीमा के अन्तर्गत ही होना चाहिये। हीनार्थ प्रबन्धन अपनाने में निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिये-
(1) धन की प्रकृति- हीनार्थ प्रबन्धन का प्रयोग अनुत्पादक कार्यों की अपेक्षा उत्पादक कार्यों में अधिक किया जाये जिससे वस्तुओं की माँग बढ़ने के साथ-साथ उत्पादन भी बढ़ जाये और मूल्यों में वृद्धि भी न हो।
(2) स्फीतिक सम्भावनायें-हीनार्थ प्रबन्धन की सुरक्षित सीमा कम मात्रा में हीनार्थ प्रबन्धन करना है ताकि मूल्यों पर नियन्त्रण रखा जा सकें और मुद्रा स्फीतिक दशायें उत्पन्न न हो पायें।
(3) अतिरिक्त क्रय- शक्ति को बटोरना-हीनार्थ प्रबन्धन की सीमा सरकार द्वारा अतिरिक्त क्रय-शक्ति को निष्क्रिय करने की क्षमता पर निर्भर करती है। सरकार नई मुद्रा को करारोपण, अनिवार्य बचत, सार्वजनिक-ऋण आदि की सहायता से यदि शीघ्रता से अपने पास वापस ले सकती है तो अधिक हीनार्थ प्रबन्धन किया जा सकता है।
(4) अमौद्रिक क्षेत्र- यदि देश में अधिकांश क्षेत्र अमौद्रिक हैं तो हीनार्थ प्रबन्धन अधिक मात्रा में किया जा सकता है क्योंकि आर्थिक विकास के साथ-साथ मौद्रिक क्षेत्र बढ़ेगा, मुद्रा की माँग बढ़ेगी और नयी मुद्रा स्फीति दशायें उत्पन्न नहीं कर सकेगी।
(5) जनता की मनोवृत्ति-हीनार्थ प्रबन्धन की सुरक्षित सीमा इस बात पर निर्भर करती है कि जनता किस सीमा तक त्याग करने को तैयार है। यदि जनता प्रारम्भिक कष्टों को को सहन करने के लिये तैयार है तो हीनार्थ प्रबन्धन अधिक मात्रा में किया जा सकता है।
निष्कर्ष-
हीनार्थ प्रबन्धन स्वयं में कोई खतरनाक पद्धति नहीं है, यदि इसे उचित सीमाओं और नियंत्रण में रखा जाये। “हीनार्थ प्रबन्धन अपने आप में न अच्छा है और न बुरा और न इसमें मुद्रास्फीति स्वभावतः निहित है।” यह एक अत्यन्त कोमल हथियार है जिसका प्रयोग सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिये। इस प्रकार आर्थिक विकास के लिये साधनों को जुटाने, भौतिक साधनों का शोषण करने में हीनार्थ प्रबन्धन महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है, बशर्ते उससे मुद्रा- स्फीतिक स्थिति उत्पन्न न हो।
अर्थशास्त्र – महत्वपूर्ण लिंक
- अप्रत्यक्ष कर (परोक्षकर) | परोक्ष कर की परिभाषायें | अप्रत्यक्ष कर के गुण/विशेषताएँ | परोक्ष करों के दोष
- प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों की तुलना | प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों में पारस्परिक सम्बन्ध
- वस्तु एवं सेवाकर (जी.एस.टी) | एकल कर प्रणाली | जीएसटी में शामिल कर
- करारोपण के प्रभाव | करारोपण का उत्पादन पर प्रभाव | करारोपण का वितरण पर प्रभाव | करारोपण का आर्थिक स्थायित्व पर प्रभाव
- सार्वजनिक ऋण | सार्वजनिक ऋण एवं व्यक्तिगत ऋण में अन्तर | सार्वजनिक ऋणों का वर्गीकरण | आन्तरिक ऋण तथा बाह्य ऋण में अन्तर | विदेशी ऋणों लाभ | विदेशी ऋण से हानियाँ
- सार्वजनिक ऋण का प्रभाव | सार्वजनिक ऋण का उत्पादन पर प्रभाव | सार्वजनिक ऋण का वितरण पर प्रभाव | सार्वजनिक ऋण का व्यावसायिक क्रियाओं एवं रोजगार पर प्रभाव
Disclaimer: sarkariguider.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- sarkariguider@gmail.com