इतिहास / History

इतिहास की अवधारणा | इतिहास के उद्देश्य | इतिहास का स्वरूप | इतिहास का प्रयोजन | इतिहास : विचार का इतिहास है | इतिहास : विशिष्ट प्रकार विज्ञान

इतिहास की अवधारणा
इतिहास की अवधारणा

इतिहास की अवधारणा | इतिहास के उद्देश्य | इतिहास का स्वरूप | इतिहास का प्रयोजन | इतिहास : विचार का इतिहास है | इतिहास : विशिष्ट प्रकार विज्ञान

इतिहास की अवधारणा

इतिहास की अवधारणा वस्तुतः कालिंगवुड की पुस्तक का नाम है; उसने पुस्तक की योजना पहले ही बना ली थी किन्तु इसका प्रकाशन (1945) उसकी मृत्यु के पश्चात् ही संभव हो सका। कालिंगवुड के इतिहास-दर्शन की प्रायः क्रोचे के इतिहास-दर्शन से तुलना की जाती है। दोनों में कापी समानताएँ मिलती हैं और कुछ लोगों ने कालिंगवुड को क्रोचे का शिष्य तक बताया है। दोनों व्यक्तियों के दार्शनिक विकास में पर्याप्त सदशता है, दोनों में ही अपनी कलात्मक तथा ऐतिहासिक अभिरुचियों के कारण उस समय पढ़ाए जाने वाले दर्शन से असंतोष उत्पन्न हुआ; दोनों ही हीगल का स्वयं अध्ययन कर इतिहास में मौलिक लेखन को तत्पर हुए, एवं दोनों ने ही एक प्रकार के आदर्शवाद तथा दर्शन एवं इतिहास की अभिन्नता का प्रतिपादन किया। किन्तु, जैसा कि नाक्स ने कालिंगवुड की पुस्तक के अपने प्राक्कथन में लिखा है, यद्यपि कालिंगवुड ने क्रोचे से सौन्दर्यशास्त्र के क्षेत्र में बहुत कुछ एवं इतिहास के क्षेत्र में कुछ सीखा था, किन्तु उसके निष्कर्ष प्रमुखतः स्वतन्त्ररूपेण अधिगत थे एवं क्रोचे की अपेक्षा वे अधिक विस्तारपूर्ण तथा समीक्षात्मक ढंग से प्रतिपादित किए गए हैं। स्वयं कालिंगवुड का कहना था कि उसका प्रिय दार्शनिक प्लेटो था एवं विको ने उसे किसी अन्य व्यक्ति की अपेक्षा अधिक प्रभावित किया था यद्यपि अपने अन्तिम दिनों में उसने क्रोचे के सदृश आदर्शवाद का प्रतिपादन किया, अपने प्रारम्भिक दिनों में उसने क्रोचे की गम्भीर आलोचना की थी और अपने लिये स्वतन्त्र दर्शन की रचना में तत्पर हुआ था।

कालिंगवुड के मतानुसार इतिहास-दर्शन न तो ‘ऐकान्तिकरूपेण अतीत’ से और न ही ‘ऐकान्तिकरूपेण इतिहासकार के चिन्तन’ से सम्बद्ध है अपितु यह अपने पारस्परिक संबंधों में दोनों से’ ही संबद्ध है। ‘जिस अतीत का इतिहासकार अध्ययन करता है वह मूर्त अतीत नहीं है अपितु ऐसा अतीत है जो कुछ अर्थों में वर्तमान में विद्यमान होता है।’ किन्तु, यदि इतिहासकार अतीतकालिक घटना के पीछे स्थित विचार को नहीं समझ सकता तो वह अतीतकालिक घटना उसके लिए मृत अर्थात् निरर्थक होती है, और इस प्रकार, सभी इतिहास विचार का इतिहास होता है। कालिंगवुड का मत इस पर बल देता प्रतीत होता है कि इतिहासकार को अपने तथ्य विशुद्ध तथ्य के रूप में नहीं प्राप्त होते हैं, अपितु स्वयं तथ्यों का प्रतिष्ठापन इतिहासकार द्वारा होता है। इतिहास में व्याख्या की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है और इस प्रकार ऐतिहासिक तथ्य व्युत्पादित तथ्य होते हैं। अतीत को वर्तमान की दृष्टि से ही देखा जा सकता है।

इतिहास का प्रयोजन

इतिहास का प्रयोजन आत्म-ज्ञान की प्राप्ति है। यह सामान्यतया महत्त्वपूर्ण माना जाता है कि मनुष्य स्वयं को जाने और इस जानने का अर्थ केवल अपनी अन्य व्यक्तियों से पृथक् व्यक्तिगत विशिष्टताओं को जानना नहीं अपितु मनुष्य के रूप में अपने स्वभाव को जानना है। अपने को जानने का अर्थ है कि हम क्या कर सकते हैं और चूँकि बिना प्रयास किये कोई भी यह नहीं बता सकता कि वह क्या कर सकता है, मनुष्य क्या कर सकता है इस विषय में एकमात्र सूत्र यह है कि उसने क्या किया है। इतिहास का मूल्य उससे प्राप्य इस शिक्षा में निहित है कि मनुष्य ने क्या किया है और इस प्रकार इसमें कि मनुष्य क्या है।

इतिहास : विचार का इतिहास है

प्राकृतिक प्रक्रिया को केवल घटनाओं के अनुक्रम के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है। इसके विपरीत, ऐतिहासिक प्रक्रिया केवल घटनाओं की प्रक्रिया नहीं होती, यह कार्यों की प्रक्रिया होती है जिनका विचार प्रक्रियाओं से निर्मित एक आभ्यन्तर पक्ष होता है और इतिहास इन विचार-प्रक्रियाओं को ढूँढ़ता है। सभी इतिहास विचार का इतिहास होता है।…. इतिहासकार अतीत का पुनर्विधायन करता है, किन्तु यह पुनर्विधायन उसके अपने ज्ञान के संदर्भ में होता है और इस कारण इसका पुनर्विधायन करते हुए वह उसकी समीक्षा करता है एवं इसके मूल्य के प्रति अपना निर्णय बताता है और इसमें दिखाई पड़ने वाली त्रुटियों का शोधन भी करता है।

ऐतिहासिक ज्ञान, इसका ज्ञान है कि मन ने अतीत में क्या किया है और इसके साथ ही इस अतीत को फिर से क्रियान्वित करना है, अर्थात् वर्तमान में अतीत का सातत्य है। इस प्रकार इसका विषय कोई बाह्य स्थित वस्तु नहीं है, अपितु यह विचार का एक कार्य-व्यापार है। इतिहासकार के लिये अध्येय कार्य-व्यापार केवल दर्शनीय वस्तु नहीं होते अपितु वे अनुभव होते हैं जिनकी वह अपने मन में अनुभूति करता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि ऐतिहासिक गवेषणा इतिहासकार को उसके अपने मन की शक्तियों से परिचित कराती है।

ऐतिहासिक ज्ञान केवल सुदूर अतीत से ही संबद्ध नहीं होता। जिस प्रकार ऐतिहासिक चिन्तन द्वारा हम किसी अतीतकालिक व्यक्तित्व के विषय में पुनर्चिन्तन करते हैं और इस प्रकार उसे जानते हैं, उसी प्रकार किसी अपने मित्र को। यह भी आवश्यक नहीं है कि इतिहासकार का विषय उससे भिन्न ही हो। ऐतिहासिक चिन्तन के द्वारा ही हम अपने अतीत को जानते हैं। इस प्रकार मन का सभी ज्ञान स्वरूपतः ऐतिहासिक होता है। इस प्रकार सिद्धान्ततः समस्त प्रत्यक्ष जगत इतिहासकार के लिए साक्ष्य स्वरूप है। हमारे अन्दर ऐतिहासिक ज्ञान जितना ही अधिक है, किसी प्रदत्त साक्ष्य हम उतना ही अधिक सीख सकते हैं। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विचार करने पर कोई साक्ष्य बनता है।

अतीत के विवरण की भिन्न व्याख्याएँ

इतिहास में कोई भी उपलब्धि अंतिम नहीं होती। किसी भी प्रदत्त समस्या के प्रति उपलब्ध साक्ष्य ऐतिहासिक विधा में परिवर्तन के साथ तथा इतिहासकारों की क्षमता में परिवर्तन के साथ परिवर्तित होते रहते हैं। इस प्रकार के परिवर्तन के कारण प्रत्येक पीढ़ी को अपने इतिहास का पुनर्लेखन करना चाहिए। प्रत्येक नए इतिहासकार को चाहिए कि वह पुराने प्रश्नों के केवल नए उत्तर प्रदान करके संतुष्ट न होकर उन प्रश्नों का पुनर्निरीक्षण करे। केवल एक इतिहासकार ही किसी एक प्रश्न पर लम्बे समय तक विचार करते हुए जब किसी पुराने प्रश्न को पुनः उठाता है तो पाता है कि प्रश्न बदल गया है। इतिहासकार को ऐतिहासिक सत्य का मान-दण्ड कहीं बाहर से नहीं मिलता, यह मानदण्ड स्वयं इतिहास की अवधारणा होती है, अतीत के एक काल्पनिक चित्र की अवधारणा। यह एक ऐसी अवधारणा होती है जिसके ठीक अनुरूप अनुभव का कोई भी तथ्य नहीं होता। कोई भी इतिहासकार कितने ही दीर्घकाल तक तथा लगन से कार्य क्यों न करे, वह यह कभी भी नहीं कह सकता कि इस विषय पर उसका कार्य अन्तिम है। वह कभी भी.यह नहीं कह सकता कि अतीत का उसका चित्रण, किसी भी बिन्दु पर, इसे क्या होना चाहिए, उसकी इस भावना के उपयुक्त है। किन्तु उसकी कृति के निष्कर्ष कितने भी आंशिक एवं त्रुटिपूर्ण हों, इसके पीछे काम कर रही भावना स्पष्ट, तर्कशील तथा सार्वत्रिक होती है।

इतिहास : विशिष्ट प्रकार विज्ञान

इतिहास विज्ञान है, किन्तु यह एक विशेष प्रकार का विज्ञान है। यह एक ऐसा विज्ञान है जो ऐसी घटनाओं का अध्ययन करता है जो हमें प्रत्यक्षतः नहीं प्राप्य हैं अपितु जिन्हें प्रत्यक्षतः प्राप्य वस्तुओं के आधार पर-जिन्हें इतिहासकार साक्ष्य कहता है-अनुमानात्मक ढंग से जाना जाता है।

फ्रेंसिस बेकन ने अपने एक अविस्मरणीय वाक्य में यह कहा है कि भौतिक वैज्ञानिक को प्रकृति से प्रश्न करना चाहिए। इससे उसका अभिप्राय यह था कि भौतिक वैज्ञानिक का प्रकृति के प्रति दृष्टिकोण केवल. आदरपूर्ण सावधानी का नहीं होना चाहिए, एक ओर तो उसे यह निश्चित करना चाहिए कि वह क्या जानना चाहता है तथा वह इसे एक प्रश्न का जामा पहनावे एवं दूसरे चरण के रूप में, उसे चाहिए कि वह ऐसे उपादानों का प्रयोग करे जिससे प्रकृति उसके प्रश्नों का उत्तर देने को विवश हो जाय। यही विधा सही ऐतिहासिक विधा भी है। सामान्यतया इतिहास को पूर्व-प्राप्त सामग्री का विवरण समझा जाता है। अवैज्ञानिक इतिहासकार का अपने साक्ष्यों के प्रति दृष्टिकोण केवल आदरपूर्ण सावधानी का होता है, वह केवल यह सुनने की प्रतीक्षा करता है जो ये साक्ष्य अपने ढंग से और अपने समय के सन्दर्भ में बताना चाहते हैं। निस्संदेह वैज्ञानिक इतिहासकार भी उन्हीं पुस्तकों हेरोडोटस, थ्यूसीडायडीज, लिवी, टेसीटस, इत्यादि का अध्ययन करता है, किन्तु वह इनका अध्ययन सर्वथा भिन्न भावना से करता है। अवैज्ञानिक इतिहासकार की केवल ग्रहणकारी भावना होती है जबकि वैज्ञानिक इतिहासकार इनका अध्ययन अपने मन में एक प्रश्न रखते हुए करता है। वह यह निश्चित करके इस अध्ययन में प्रवृत्त होता है कि इनसे वह क्या जानना चाहता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि वैज्ञानिक इतिहास में कोई पूर्व स्थित अभिकथन नहीं होता। वैज्ञानिक इतिहासकार इन अभिकथनों को अभिकथनों के रूप में नहीं अपितु साक्ष्य के रूप में लेता है, यह उन्हें उन तथ्यों, जिनका कि यह विवरण होने का दावा करते हैं, के मिथ्या अथवा सत्य विवरण के रूप में न लेकर अन्य तथ्यों के रूप में लेता है जो-यदि वह इनके प्रति सही प्रश्न पूछना जानता है-उन तथ्यों के ऊपर प्रकाश डाल सकते हैं।

किसी भी व्यक्ति की प्रगति की अवधारणा दो ऐतिहासिक कालों अथवा जीवन-मार्गों की तुलना करने पर स्पष्ट होती है। यहां यह अपेक्षित है कि वह इन दोनों तुलनीय वस्तुओं को ऐतिहासिक ढंग से समझे अर्थात् उसमें उनके अनुभवों को अपने लिये पुनर्निमित करने की सहानुभूतिपरक दृष्टिकोण तथा सूक्ष्मदृष्टि हो। उसे तथा उसके पाठकों को पूर्ण विश्वास होना चाहिए कि न तो उसके मन में कोई ऐसा कलंक है और न ही उसकी विधा में कोई ऐसी त्रुटि है जिससे वह एक की अपेक्षा अन्य के अनुभवों में उतना प्रवेश पा रहा हो। इस अपेक्षा की पूर्ति होने पर वह यह प्रश्न कर सकता है कि प्रथम से द्वितीय में परिवर्तन प्रगति है अथवा नहीं। किन्तु, इस प्रश्न से वह क्या पूछ रहा है? इस प्रश्न का केवल एक यथार्थ अर्थ हो सकता है। यदि कोई विचार प्रथम अवस्था में तत्कालीन कतिपय समस्याओं का समाधान करता है और यह करते हुए कुछ ऐसी समस्याओं से उलझता है कि जिनसे वह पराजिल हो जाता है; और यदि दूसरा प्रथम अवस्था में प्राप्त समाधानों पर नियंत्रण खोए बिना इन नई समस्याओं को सफलतापूर्वक समाधान कर लेता हैतो निश्चित रूप से विकास मानना होगा। किसी अन्य अर्थ में विकास नहीं माना जा सकता। विकास केवल एक रूप में होता है किसी भी एक अवस्था में पूर्ववर्ती अवस्था की उपलब्धियों को मन में बनाए रखकर। दो अवस्थाएँ केवल अनुक्रम से परस्पर संबद्ध नहीं होतीं अपितु सातत्य-एक विशेष प्रकार के सातत्य द्वारा होती है। यदि आइन्स्टीन न्यूटन पर विकास प्रदर्शित करता है, तो वह ऐसा न्यूटन के विचारको जानते हुए तथा इसे अपने विचार में सुरक्षित करते हुए करता है इस अर्थ में कि उसे यह ज्ञात है कि न्यूटन की समस्याएँ क्या थीं और उसने कैसे उसका समाधान किया। वह इन समाधानों के सत्य को उन त्रुटियों से पृथक् करता है जिन्होने न्यूटन को और आगे बढ़ने से रोका था, और इस प्रकार इन पृथकृत समाधानों को अपने सिद्धान्त में समाविष्ट करता है। संभव है उसने यह न्यूटन का अध्ययन किए बिना किया हो, किन्तु उसने किसी से न्यूटन के सिद्धान्त को अवश्य प्राप्त किया होगा। इस प्रकार के संदर्भ में न्यूटन एक मनुष्य के रूप में नहीं अपितु वैज्ञानिक इतिहास के किसी युग-विशेष में प्रभावी सिद्धान्त के रूप में प्रतिष्ठित होता है। इस सिद्धान्त को विज्ञान के इतिहास में एक तथ्य के रूप में जानते हुए ही आइन्स्टीन कोई विकास प्रदर्शित कर सकता है। न्यूटन इस प्रकार आइन्स्टीन में उसी प्रकार निवास कर रहा है जिस प्रकार कोई अतीत काल इतिहासकार के मस्तिष्क में निवास करता है।

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: sarkariguider.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- sarkariguider@gmail.com

About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!