इतिहास की पाठ्य-वस्तु के चयन के सिद्धान्त | Principles of Selection of History Syllabus in Hindi
इतिहास की पाठ्य-वस्तु के चयन के सिद्धान्त | Principles of Selection of History Syllabus in Hindi
इतिहास की पाठ्य-वस्तु के चयन के सिद्धान्त
इतिहास की पाठ्य-वस्तु के संकलन के विभिन्न सिद्धान्त प्रचलित हैं; परन्तु आज के युग में शिक्षा मनोविज्ञान की प्रवृत्ति का बोलबाला है। इस प्रवृत्ति ने इतिहास की शिक्षा को भी प्रभावित किया है। इतिहास पाठ्य-वस्तु के चयन में दो प्रमुख मनोवैज्ञानिक आधार प्रचलित हैं। वे इस प्रकार हैं-
(1) सांस्कृतिक-युग-सिद्धान्त (Culture Epoch-Theory)
(2) जीवन-गाथा-सिद्धान्त (Biographical Theory)
(i) सांस्कृतिक-युग-सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के मुख्य प्रवर्त्तक अमेरिका के स्टेनले हाल (Stanley Hall) है। इस सिद्धान्त को पुनरावृत्ति के सिद्धान्त (Recapitulatory Theory) के नाम से भी पुकारा जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार-
“प्रत्येक व्यक्ति अपने विकास क्रम में स्तरों की श्रृंखला में से गुजरता है। यह श्रृंखला जाति के सामाजिक विकास क्रम में श्रृंखला के समान है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि व्यक्ति उन श्रेणियों में होकर गुजरता है जिनमें होकर प्रजाति गुजरी है। बच्चा उन युगों की आवृति करता है जिसमें होकर प्रजाति गुजर चुकी है और बालक इन युगों या स्तरों को पुनरावृत्ति करते हुए प्रजाति के प्रत्येक स्तर के अनुभवों या संस्कृति की आवृत्ति करता है।”
(“Each Individual, in the course of his development, passes through a series of stages that are identical with those through which race passed in its social evolution. The child repeats the ‘epochs’ through which the race has gone-and in repeating these successive stage of epochs the child is recapitulating the culture or experiences of the race at each stage……………”)
स्टेनले हाल का कहना है कि “प्राणी खेल में ही अपनी जाति के विकास के स्तरों को पार करता है। सभ्यता के आदिकाल में मनुष्य की मानसिक स्थिति आज के बालकों के समान थी । बालक अपने पूर्वजों के सभी अनुभवों का उत्तराधिकारी होता है। वह सूक्ष्म रूप में उनके समस्त संस्कार लेकर उत्पन्न होता है। इन संस्कारों की अभिव्यक्ति वह अपने खेलों द्वारा किया करता है। इस सिद्धान्त के अनुसार मानव तथा जाति के विकास में समानता है। इसका अर्थ यह है कि जिन अवस्थाओं में होकर मानव जाति का सांस्कृतिक विकास हुआ है, व्यक्ति भो अपने जीवन में उन्हीं अवस्थाओं की पुनरावृत्ति करता है। इसलिए बालक के लिए इतिहास की शिक्षा की सामग्री प्रजाति के सांस्कृतिक विकास की उस अवस्था से लेनी चाहिए जिस अवस्था से होकर बालक गुजर रहा हो। इसका अर्थ यह है कि यदि बालक छोटी अवस्था में हो तो उसे प्रारम्भिक मानव के जीवन की कहानी पढ़ने को देनी चाहिए और यदि वह युवावस्था में हो तो उसे प्रजाति के यौवन काल का इतिहास पढ़ने को दिया जाय। इस दृष्टि से इतिहास के पाठ्यक्रम के तथ्यों का चयन किया जाना चाहिए। इस सिद्धान्त के अनुसार इतिहास का पाठ्यक्रम अधोलिखित रूप से निर्धारित कर सकते हैं:-
(अ) प्राचीन काल का इतिहास ( प्रारम्भिक अवस्था में प्राइमरी स्तर के लिए)
(ब) मध्यकाल का इतिहास (जूनियर हाई स्तर के लिए)
(स) वर्तमान काल का इतिहास (हाई स्कूल कक्षाओं के लिए)
(द) वर्तमान काल का आलोचनात्मक इतिहास (उच्च कक्षाओं के लिए)
इस सिद्धान्त की वैज्ञानिकता के विरुद्ध निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं –
(1) इस सिद्धान्त का वैज्ञानिक विवेचन नहीं हो सकता। यह बहुत कुछ कल्पना पर आधारित है।
(2) इस सिद्धान्त के अनुसार पाठ्यक्रम तैयार करने से पाठ्यक्रम में हड़ता आती है जबकि पाठ्यक्रम में लोचपन का होना आवश्यक है ।
(3) इसके विपरीत यह भी कहा जाता है कि समस्त प्रजातियों ने अपने विकास में एक ही मार्ग को नहीं अपनाया और न उनका किसी एक ही नियम के अनुसार क्रमिक विकास हुमा ।
(4) व्यक्ति तथा प्रजाति के विकास में बाल्यावस्था के अतिरिक्त और किसी अवस्था पर समानता नहीं पाई जाती है।
उपर्युक्त तकों से इसकी उपादेयता पूर्णतया समाप्त नहीं होती। इस सिद्धान्त ने इतिहास के लिए एक सुन्दर योजना या पाठ्यक्रम निर्धारित करने में काफी सहयोग दिया है। इसके उपयोग में इतिहास के शिक्षण को वास्तविक बनाने में पर्याप्त सहयोग मिला है।
(ii) जीवन गाथा सिद्धान्त – इस सिद्धान्त को ‘Greatman Theory’ के नाम से भी पुकारते हैं। इसका मुख्य प्रवतंक कारमाइल (Carlyle) था। उसका विचार था कि महापुरुष अपने समय का प्रतिनिधित्व करते हैं; अतः उनकी जीवन- गाथाओं को इतिहास के पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि इन महापुरुषों की जीवन गाथाओं के द्वारा इतिहास की शिक्षा प्रदान की जाय। इस सिद्धान्त के समर्थकों का कहना है कि इतिहास कालक्रम के अनुसार महापुरुषों की जीवन-कथाओं की एक श्रृंखला है। इस प्रकार इस सिद्धान्त के अनुसार पाठ्यक्रम में महापुरुषों की जीवन-गायाओं को काल-क्रम के अनुसार स्थान प्रदान किया जाय ।
परन्तु इस सिद्धान्त के विपक्ष में लोगों का कहना है कि यह प्रजातन्त्र का विरोधी है। इसमें सामान्य व्यक्तियों के हेतु कोई स्थान नहीं है। दूसरे, ये महापुरुष अपने काल-विशेष के प्रतिनिधि नहीं होते वरन् सदैव अपने समय से ऊपर होते हैं। वे साधारण समाज से स्पष्टतः पृथक रहते हैं। यद्यपि इन तक में सत्यता का आभास प्रतीत होता है, परन्तु फिर इस सिद्धान्त ने पाठ्यक्रम के निर्धारण में काफी सहयोग दिया है। इस द्धिान्त को अपनाते समय अधोलिखित बातों को ध्यान में रखा जाय तो एक उपयुक्त पाठ्यक्रम के निर्धारण में बहुत सहयोग मिलेगा :-
(1) छोटी अवस्था के बालकों के लिए मानव स्थूल तथ्य है ।
(2) काल-विशेष के सभी क्षेत्रों के महापुरुषों का चयन किया जाय जिससे उस काल के सभी अंगों का बालकों के समक्ष स्पष्ट चित्र प्रस्तुत हो सके।
(3) किसी एक महापुरुष की जीवन-गाथा के चयन से तब तक कोई भी लाभ न हो जब तक कि उसकी जीवन-गाथा के साथ उसके शिष्यों समर्थकों आदि की गतिविधियों का पूरा चित्र उपस्थित न किया जाय।
(4) इन जीवन-गाथाओं के चयन में सदैव ऐतिहासिकता के आधार का ध्यान रखना चाहिए। ऐसा न हो कि कहीं वे गायाएँ काल्पनिक बन जाएँ।
उपर्युक्त मनोवैज्ञानिक आधारों के अतिरिक्त पाठ्य-सामग्री के चयन में उन कुछ स्थूलात्मक (Concrete) सिद्धान्तों को भी ध्यान में रखा जाय जो समय-समय पर विद्वानों ने प्रस्तुत किये उनमें से मुख्य इस प्रकार हैं :-
(iii) प्रो० घाटे (Ghate) के मतानुसार इतिहास के पाठ्यक्रम का निर्धारण अधोलिखित बातों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए-
(1) ‘जूनियर स्तर के लिए एक केन्द्रीय विचार का चयन किया जाय और उस विचार के आधार पर पाठ्यक्रय का ढांचा तैयार किया जाय। पाठ्यक्रम उस केन्द्रीय विचार का ऐतिहासिक क्रम के अनुसार विकास प्रदर्शित करे।” (Select one central idea or group of associated ideas and build up the structure round it at the junior stage. The syllabus should show the development of the central in historical order.)
(2) “उन तथ्यों को चुनो जो विश्लेषणात्मक हों तथा मानवीय विकास या उन्नति की योजना में उपयुक्त हों।” (Select facts which will bear inter- pretation and will fit in a scheme of human development or progress.)
(3) “उन तथ्यों को चुनो जो कम उत्पन्न करें तथा इतिहास के प्रस्तुतीकरण में एकता बनी रहे।” (Select fact which will provide continuity and therefore unity in the treatment of history.)
(4) “उन तथ्यों को चुना जाय जो वर्तमान विश्व को स्पष्ट करें; क्योंकि यही उनके लिए महत्वपूर्ण एवं अर्थपूर्ण है।” (Select facts which will in some way or the other explain the present day world in which thec live and which alone has significance and meaning for them.)
(iv) प्रो० सी० पी०हिल (C. P. Hill) ने पाठ्यक्रम निर्धारण के लिए अधोलिखित सुझाव प्रस्तुत किये हैं :-
(1) पाठ्यक्रम इस प्रकार नियोजित किया जाय कि वह शिक्षालयों को आवश्यकताओं की पूर्ति करे।
(2) पाठ्यक्रम इस प्रकार रचा जाय कि उसके द्वारा इतिहास का अन्य विषयों से सम्बन्ध स्पष्ट हो।
(3) उच्च कक्षाओं के लिए विशेष काल निर्धारित किये जाएं।
(4) पाठ्यक्रम में लोच होना चाहिए जिससे इसका ॠम प्रयोग के लिए सदैव उपयुक्त रहे, अर्थात् उसमें प्रयोग किये जा सकें तथा नवीन अनुभवों को स्थान प्रदान किया जा सके ।
(5) इतिहास का पाठ्यक्रम सदैव सामाजिक पुनर्जीवन के निर्माण के लिए एक साधन का कार्य करे।
(6) बालकों की रुचि, अवस्था आदि का ध्यान रखकर विभिन्न स्तरों के अनुकूल पाठ्यक्रम निर्धारित किया जाय।
प्रो० भाटिया तथा भाटिया के अनुसार, बालकों के मानसिक जीवन के विभिन्न स्तरों के अनुसार इतिहास की पाठ्य-वस्तु चयन की जाय ।
विषय-वस्तु के चयन के पश्चात् स्वतः ही प्रश्न उठता है कि इस चयन की हुई सामग्री को प्रस्तुतीकरण के लिए किस प्रकार संगठित किया जाय ? इसके प्रस्तुतीकरण करने से पूर्व उसका उपयुक्त संगठन होना आवश्यक है। इसके संगठन के लिए कई सिद्धान्त प्रचलित हैं:-
तथ्यों के संगठन के सिद्धान्त (Principles of Organization of Facts )
इतिहास की चयन की हुई पाठ्य-वस्तु को अग्रलिखित सिद्धान्तों के अनुसारसंगठित किया जा सकता है :-
(i) एक समान केन्द्र-विधि (Concentric Method)
(ii) काल-क्रम विधि (Chronological or Periodical Method)
(iii) प्रकरण विधि (Topical Method)
(iv) परावर्तन विधि (Regressive Method)
(i) एक समान केन्द्र– विधि– इस विधि के अनुसार इतिहास की सम्पूर्ण पाठ्य सामग्री को प्रत्येक वर्ष के लिए निर्धारित किया जाता है। इसमें पीठिका एक ही समान रहती है अर्थात् यदि हम भारत का इतिहास समस्त स्तरों पर पढ़ाना चाहते हैं तो इसकी रूपरेखा समान रहेगी। केवल पाठ्यक्रम को संक्षिप्त एवं विस्तृत बनाया जायगा । इस विधि के अनुसार सम्पूर्ण इतिहास को एक समान केन्द्र के वृत्तों की लड़ी के रूप में रखा जाता है। इसमें सामग्री का बुत्त बढ़ता जाता है, परन्तु शिक्षा के विषय समान रहते हैं। इस विधि के विपक्ष में विद्वानों ने निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये हैं:
(1) इस विधि के द्वारा तथ्यों की आवृत्ति होती है, जिसमें इतिहास के प्रतिपादन में कोई रोचकता नहीं आ पाती है जिसके कारण छात्रों में नीरसता आती है तथा वे इन तथ्यों को सुनने तथा पढ़ने में कोई रुचि नहीं लेते हैं।
(2) यह विधि सरल से कठिन, स्थूल से सूक्ष्म आदि सूत्रों का अनुसरण नहीं करती।
(3) प्रो० भाटिया तथा भाटियां महोदय के अनुसार, “The plan destroys the idea of chronological sequence and makes it difficult to develop the time sense of the pupils as the distance in time between events and characters will not be properly grasped by the pupils owing to the history of some thousand years being covered in a short time.”
(4) इसके विरुद्ध यह भी कहा जाता है कि किसी भी स्तर पर बालक का इतिहास का पूर्ण ज्ञान नहीं हो पाता, क्योंकि उसके वृत्त की प्रत्येक स्तर या कक्षा पर वृत्ति होती रहती है।
(ii) काल-क्रम विधि – “काल-क्रम इतिहास का आवश्यकीय ढाँचा है।” इस योजना के अनुसार पाठ्य-सामग्री को विभिन्न कालों (Periods) में बॉट लिया जाता है, परन्तु कालों का विभाजन पूर्ण रूप से काल-क्रम के अनुसार होना चाहिए, उदाहरणार्थ- हम भारतीय इतिहास को विभिन्न स्तरों के लिए इस प्रकार निर्धारित कर सकते हैं।
(1) प्राचीन काल – कक्षा 6 के लिए।
(2) राजपूत तथा सल्तनत काल-कक्षा 7 के लिए।
(3) मुगल काल–कक्षा 8 के लिए।
(4) ब्रिटिश काल – कक्षा 9 के लिए।
(5) आधुनिक काल (स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् का काल) – कक्षा 10 के लिए।
कालों का विभाजन करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए-
(1) प्रत्येक काल अपनी विशेषताएं रखता है। चयन करते समय उस काल की समस्त विशेषताओं का समावेश हो जाना चाहिए ।
(2) प्रत्येक काल का एक केन्द्रीय विचार होना चाहिए जिसके चारों ओर, ऐतिहासिक घटनाओं तथा चरित्रों का ढांचा तैयार किया जा सके।
(3) जो काल चुना जाय, वह महापुरुषों की कियाओं से पूर्ण हो ।
इस योजना के विरुद्ध निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं।
(1) यह विधि मनोवैज्ञानिक नहीं है, क्योंकि इसमें ‘सरल से कठिन की ओर’ आदि सूत्रों का उल्लंघन होता है।
(2) इस योजना के अनुसार जो काल एक स्तर पर चढ़ा दिया जाता है, उसकी आवृत्ति के लिए अवसर नहीं मिल पाता।
(iii) प्रकरण विधि- यह योजना काल-कम को प्रयोगात्मक रूप प्रदान करने के लिए एक मार्ग है। इस योजना के अनुसार काल को विभिन्न प्रकरणों में विभक्त कर लिया जाता है । प्रकरण एक काल का छोटा समुदाय नहीं है जैसा कि काल है। प्रकरण इतिहास में एक विचार या आन्दोलन है। इसके द्वारा ऐतिहासिक श्रृंखला को गतिविधि प्राप्त होती है। इसका सम्बन्ध मुख्य धारा से पृथक् नहीं होता है। प्रो० घाटे (Ghate) के अनुसार, “A topic should not be isolated from incident or episode, but should represent a factor which influ- ences the main current of history.” परन्तु इन प्रकरणों की विवेचना इस ढंग से की जाय जिससे बालक मुख्य घटनाओं, चरित्रों, आन्दोलनों आदि के विचारों को ग्रहण कर सके।
(iv) परावर्तन विधि- यह योजना इस सूत्र अर्थात् ‘ज्ञात से अज्ञात की ओर’ पर आधारित है। यह विधि मनोवैज्ञानिकता पर आधारित है; क्योंकि इसके अनु-सार हम वर्तमान से प्रारम्भ करते हैं जो कि स्थूल तथा सरल है। उसके द्वारा पीछे की ओर देखते हैं और वर्तमान काल की जड़ों को खोज अतीत में करते हैं। प्रो० घाटे ने इस विधि को लोलक विधि (Pendulum Method) का नाम दिया है। प्रो० भाटिया के अनुसार, “The teacher choose a certain vital, social or economic problem of today as a starting point or introduction, goes back to the remote past which has led to this problem or the state of things, again comes back to the period that immediately concerns him and follows the chronological order.”
इस विधि के विपक्ष में क्लैपर (Klapper) महोदय का मत है कि:
“The problems of today do not necessarily form a satisfactory criterion for the content of history. They may be solved without reference to the past. The syllabus should be so planned that it prepares us for the problems of tomorrow”.
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