शिक्षाशास्त्र / Education

प्रकृतिवाद के रूप | भारतीय परिप्रेक्ष्य में प्रकृतिवाद

प्रकृतिवाद के रूप | भारतीय परिप्रेक्ष्य में प्रकृतिवाद | Forms of Naturalism in Hindi | Naturalism in Indian Perspective in Hindi

प्रकृतिवाद के रूप

प्रकृतिवाद के तीन रूप हमें मिलते हैं जो निम्नलिखित हैं-

(i) भौतिक विज्ञानों का प्रकृतिवाद (Naturalism of Physical Sciences) – प्रकृति में पाये जाने वाले पदार्थों के सम्बन्ध में जो अध्ययन होता है वह भौतिक विज्ञानों का प्रकृतिवाद है। इसके अन्तर्गत पदार्थों से सम्बन्धित बाह्य नियमों का अध्ययन होता है, जैसे प्रकाश का प्रभाव प्राणी पर, पौधों पर क्या पड़ता है ? इस प्रकार  बाह्य प्रकृति से ही इस प्रकृतिवाद का सम्बन्ध होता है, मनुष्य अथवा अन्य जीवों की अन्तः प्रकृति से इसका कोई सम्बन्ध नहीं होता है। शिक्षा जो मनुष्य की एक क्रिया है और मनुष्य के अन्तस् एवं बाह्य दोनों से उसका सम्बन्ध है, उससे इसका सम्बन्ध बहुत ही कम होता है। अतएव भौतिक विज्ञानों के प्रकृतिवाद का प्रभाव शिक्षा की प्रक्रिया पर बहुत कम पड़ा है।

(ii) यंत्रवादी प्रकृतिवाद (Mechanical Naturalism)- प्रकृति जगत यंत्र के समान काम करता है, ऐसा विश्वास इसके मानने वालों का है। इस जगत का निर्माण पदार्थ एवं उसकी गति से हुआ है, इसमें कोई आध्यात्मिक शक्ति नहीं होती है। यह जगत निष्प्रयोजन है और कार्य भी करता है। ऐसी विचारधारा के कारण मनुष्य भी एक मशीन है, उसमें कोई आत्मा, चेतना, कल्प (will) नहीं है। मनुष्य का व्यवहार परिस्थितियों और उसकी उत्तेजना के सिद्धान्त पर यंत्र सदृश्य होता है। मनुष्य की सहज क्रिया एवं मूल प्रवृत्ति उसे मशीन की तरह काम करने को उत्तेजित करती है। परन्तु यह सही नहीं है क्योंकि मनुष्य में चिन्तन-मनन, नियन्त्रण, संकल्प की शक्ति होती है जिसका प्रयोग करके वह यन्त्र के सदृश्य काम करता है। फिर भी शिक्षा के क्षेत्र में इस प्रकृतिवाद का प्रयोग हुआ है।

(iii) जैविक विज्ञान का प्रकृतिवाद (Biological Naturalism) — जैविक विकास के सिद्धान्त में यह विचारधारा विश्वास करती है। संसार के सभी मनुष्य पशु, पक्षी, पौधों सभी का विकास प्रकृति के नियम से ही होता है। शिशु बालक बनता है, बालक किशोर, किशोर युवा, युवा प्रौढ़, और अन्त में प्रौढ़ वृद्ध बनता है। इसी तरह पौधा भी अंकुरित होता है तथा धीरे-धीरे पूरा वृक्ष बनता है। यह प्रकृतिवाद इस बात पर भी जोर देता है कि प्राणी अपनी परिस्थिति पर विजय प्राप्त करके आगे बढ़ता है, और क्रमशः वह आज की उन्नत अवस्था तक आया है। इस सिद्धान्त के मानने वाले विकास के दो सिद्धान्तों पर जोर देते हैं-(क) जीवन के लिए संघर्ष का सिद्धान्त तथा (ख) सामर्थ्यवान के अस्तित्व रखने का सिद्धान्त (Theory of Struggle for Existence and Theory of the Survival of the Fittest) । शिक्षा के क्षेत्र में प्रकृतिवाद के इस रूप का प्रभाव अधिक पड़ा है। शिक्षा का अर्थ, उद्देश्य, साधन आदि इस सिद्धान्त से काफी प्रभावित हुए हैं। उदाहरण के लिए जीविकोपार्जन का उद्देश्य है जो जीवन के लिए संघर्ष को सामने रखकर मनुष्य निश्चित करता है। लामार्क जैसे जीव-विज्ञानियों ने ऊँट और जिराफ की लम्बी गर्दन का होना इसी सिद्धान्त के अनुसार माना है। विकास के लिए पर्यावरण की शक्ति की सार्थकता भी इस सिद्धान्त से सिद्ध होती है। शिक्षा पर्यावरण का परिणाम है यह स्पष्ट करना इसी सिद्धान्त की सहायता से हुआ है।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में प्रकृतिवाद

भारत में आध्यात्मिक एवं विचार-जगत में इतना अधिक विश्वास जमा था कि विचारकों का ध्यान प्रकृतिवादी दर्शन की ओर न रहा। जिसे आज हम पाश्चात्य दृष्टिकोण से प्रकृतिवाद कहते हैं वह भारत में भौतिकवाद के नाम से प्रसिद्ध रहा। इसके अलावा प्रकृति की वस्तुओं में भी भारतीयों ने देवत्व, रहस्य, अलौकिकता के गुण जोड़ कर इन्हें आध्यात्मिक जगत का अंश बना दिया, तभी तो आज ‘बट’, ‘अश्वत्थ’, ‘नीम’, ‘बबूल’ जैसे पेड़ों को ब्रह्म, आत्मा, सुख का आध्यात्मिक संकेत दिया जाता है। कुछ भी हो वैदिककाल से लेकर आज तक हमारे देश में प्रकृतिवाद का कोई न कोई स्वरूप रहा है। वैदिककाल में अग्नि, सूर्य, जल, आकाश, पृथ्वी, वायु आदि से ऋचाएँ बनी और इसमें लोगों की आस्था आयी। जीवन के लिये ] इन्हें उपयोगी मान कर उन्हें ऊँचा स्थान दिया गया। बाद में सांख्य दर्शन ने “प्रकृति” को संसार का एक मूल तत्व माना और इस प्रकार से प्रकृतिवादी-भौतिकवादी विचारधारा फैली जो विदेशी विचारधारा के समान ही रही। वैशेषिक दर्शन में परमाणुओं की परिकल्पना आधुनिक भौतिक विज्ञान की ही भाँति की गई। आधुनिक युग में दयानन्द एवं टैगोर जैसे शिक्षा दार्शनिकों ने प्रकृतिवादी विचार अपनाया। दयानन्द ने शहर से दूर प्रकृति की गोद में ज्ञानार्जन के लिए जोर दिया। टैगोर ने प्रकृति की सुन्दरता, सहनशीलता और सरलता मानव को अपनाने के लिए बताया जैसा कि रूसो तथा बसवर्थ ने कहा था कि “प्रकृति की ओर लौटो।” दयानन्द एवं टैगोर ने यहप्रकृति को आध्यात्मिक उन्नति का साधन बनाया। यहीं भारतीय प्रकृतिवाद पाश्चात्य प्रकृतिवाद से भिन्न हो गया। रूसो और अन्य प्रकृतिवादियों ने दुखी मानव-मन को शान्ति, सन्तोष एवं सहानुभूति प्रकृति से दिलवाया परन्तु उससे भी आगे भारतीय विचारकों ने मानवता के उन्नयन और प्राचीन शब्दावली में “मोक्ष” देने वाला प्रकृति को ही माना है। टैगोर के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने प्रकृति को मानवीकृत करने का प्रयत्न किया जो दुःख-सुख में साथ देती है। (Tagore tried to humanise nature which gives company both in sorrow and happiness) । भारतीय प्रकृतिवाद की यह अपनी विशेषता रही।

भारतीय प्रकृतिवाद में नवीन विचार यह है कि प्रकृति सत्य ही नहीं है वह आत्म- बोध का साधन है। प्रकृति को जानना-समझना और उसका अनुपालन करना मनुष्य का धर्म है। मनुष्य यदि प्रकृति से अपना तादात्य एवं सम्बन्ध स्थापित नहीं करता है तो उसका असन्तुलन हो जाता है। प्रकृति ही मनुष्य को मानवता के पथ पर ले जाने में सहायता देती है। प्रकृति मनुष्य का जीवनी शक्ति है। इसीलिए ईश्वर ने प्रकृति और मनुष्य दोनों को एक दूसरे बाँध दिया है (God has united Nature and Man together) । अब स्पष्ट होता है कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में प्रकृतिवाद आदर्शवाद के समान ही मनुष्य को धर्म-आध्यात्म की ओर ले जाने वाला माना गया है। जिस प्रकार आदर्शवाद सादा जीवन और उच्च विचार पर जोर देता है वैसे ही भारतीय प्रकृतिवाद सादा जीवन, उच्च विचार तथा नियन्त्रण पर जोर देता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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