वित्तीय प्रबंधन / Financial Management

कम्पनी की ऋण-क्षमता | ऋण-क्षमता के आकलन में प्रयुक्त प्रमाणों का वर्णन

कम्पनी की ऋण-क्षमता | ऋण-क्षमता के आकलन में प्रयुक्त प्रमाणों का वर्णन | Company’s creditworthiness in Hindi | Description of the evidence used in the assessment of creditworthiness in Hindi

कम्पनी की ऋण-क्षमता (Debt Capacity of a Company)-

किसी कम्पनी की ऋऋण- क्षमता को किस प्रकार ज्ञात किया जाय? क्या कोई कम्पनी किसी भी सीमा तक ऋण-पूँजी का भार वहन कर सकती है? ये ऐसे प्रश्न हैं जिनका कोई सर्वमान्य उत्तर नहीं दिया जा सकता है। पुरातन सिद्धान्त, कि कोई व्यवसाय अपनी ऋण-पूँजी की मात्रा अधिक से अधिक अपनी स्वामि-पूँजी की सीमा तक बढ़ा सकता है, आधुनिक परिस्थितितयों में अब अधिक व्यावहारिक नहीं रह गया है। एकाकी स्वामित्व एवं साझेदारी संगठन में इस सिद्धान्त की कुछ उपयोगिता अवश्य है, किन्तु कम्पनी रूपी संगठन में जहाँ ‘वृहद् आकार’ एवं ‘विशाल पूँजी’ की समस्याएँ सामने हों, स्वामि-पूंजी एवं ऋण-पूँजी में समान अनुपात के सहारे भारी-परियोजना लागतों (Heavy Project Costs) को पूरा करना सम्भव नहीं रह गया है। फिर भी ‘खतरे’ या ‘जोखिम’ (Risk-element) को दृष्टिगत रखते हुए ही किसी कम्पनी की ऋण क्षमता (Debt Capacity) का अनुमान लगाया जाना चाहिए। जिन कम्पनियों में जोखिम की मात्रा कम है तथा आय के उच्चावचनों की अधिक सम्भावनाएँ नहीं हैं, उनमें ऋण पूंजी का अधिक अनुपात रखा जा सकता है। इसके विपरीत, जिन कम्पनियों की लाभोपार्जन-क्षमता न्यून है तथा जो आय के पर्याप्त उच्चावचनों (Wide income fluctuations) की स्पष्ट सम्भावनाओं से ग्रासित हैं, उनमें निश्चय ही जोखिम का आधिक्य उनकी ऋऋण क्षमता को कम कर देता है।

कम्पनी प्रबन्ध में ऋण-नीति (Debt Policy) का निर्धारण प्रायः उच्च स्तर पर प्रबन्धकों द्वारा किया जाता है जो वित्तीय आयोजन (Financial Planning) एवं पूँजी-ढाँचे के निर्माण की प्रतिक्रिया का ही एक अंग है। ऐसा करते समय कम्पनी की ॠण क्षमता (Debt Capacity) का सही पूर्वानुमान लगाना अत्यन्त आवश्यक है। इस विषय में उपयुक्त देशा निर्देशों से मार्गदर्शन प्राप्त किया जा सकता है। उद्योग में कार्यरत विभिन्न कम्पनियों के औसत ऋण-पूँजी अनुपात को ‘प्रमाप’ या ‘मापदण्ड’ माना जा सकता है। साथ ही विशिष्ट वित्तीय निगमों एवं वित्तीय ‘विश्लेषकों द्वारा कम्पनी के लिए निर्धारित ऋण-सीमाओं को स्वीकार किया जा सकता है।

प्रायः यह कहा जाता है कि कोई कम्पनी जब तक ऋण-पूँजी का लाभदायक उपयोग कर सकती है, वह ऋण-पूँजी का सहारा ले सकती है। दूसरे शब्दों में, जब तक कुल पूँजी पर उपार्जित लाभ की दर ऋण-पूँजी पर देय ब्याज-दर से अधिक रहती है, ऋण-पूँजी का उपयोग लाभदायक रहता है, क्योंकि ऋण- पूँजी की कर-रहित लागत (After tax Cost) अनुबन्धित ब्याज दर से कम होती है, किन्तु यदि कुल पूँजी पर लाभ की दर शून्य अथवा ऋणात्मक (Negative) हो जाती है तो यह लाभ समाप्त हो जाता है और ऋण-पूंजी का भार असहनीय हो जाता है। ऐसी दशा में ऋण-पूंजी ऐसे बोझे के समान होती है जिसे न तो ढोया ही जा सकता है और न जिससे तत्काल मुक्त ही हुआ जा सकता है। किसी कम्पनी की ऋण-क्षमता के आकलन में प्रायः जिन पाँच प्रमापों का प्रयोग किया जाता है वे अप्रलिखित हैं:

(1) पूँजीकरण प्रमाप (Capitalisation Standard)- यह प्रमाप वह अनुपात है जो एक ओर दीर्घकालीन वाण-पूंजी और दूसरी ओर कुल पूँजीकरण की राशि में होता है। इसे प्रतिशत के रूप में व्यक्त किया जाता है। उदाहरण के लिए, मान लीजिए किसी कम्पनी में दस-दस रुपये मूल्य के एक लाख अंश हैं, दो लाख रुपये का संचित कोष तथा दस-दस रुपये के चालीस हजार ऋणपत्र हैं। इस प्रकार कम्पनी का कुल पूँजीकरण सोलह लाख रुपये है जिसमें दीर्घकालीन ऋण-पूँजी चार लाख रुपयों की है। इस प्रकार कुल पूंजी में ऋण-पूँजी का प्रतिशत 25 है। निश्चय ही यह कम प्रतिशत प्रबन्धक की सतर्कतापूर्ण नीति का परिचायक है। यह इस बात का द्योतक भी है कि आगे कम्पनी की प्रकृति एवं उसकी प्रगति को देखते हुए पूँजीकरण में ऋण-पूँजी की उत्तरोत्तर अधिक समावेश की सम्भावनाएँ मौजूद हैं।

(2) गीयर-अनुपात (Gear-Ratio)- यह अनुपात एक ओर स्वामि-पूँजी तथा दूसरी ओर स्थिर लाभांश एवं ब्याज वाली पूंजी (जैसे प्रीफरेंस शेयर्स एवं बॉण्ड या ऋणपत्र) के बीच सम्बन्ध को दर्शाता है।

(3) ऋण-पूँजी अनुपात (Debt-Equity Ratio)-  कुल पूँजीकरण की तुलना में ऋण-पूंजी के प्रतिशत के स्थान पर ऋण-पूँजी अनुपात (Debt-equity Ratio) के मापदण्ड का प्रयोग भी ऋऋण क्षमता के निर्धारण के लिए किया जा सकता है। प्रत्येक उद्योग के लिए ऋण-पूँजी श्रीअनुपात को पृथक ‘प्रमाप’ हो सकते हैं जिनके आधार पर कोई कम्पनी अपनी ॠण क्षमता का अनुमान लगा सकती है। वस्तुतः पूँजीकरण-प्रमाप (Capitalisation Standard) तथा ऋण- पूँजी (Debt-capital Ratio) अनुपात में कोई विशेष अन्तर नहीं है। उपर्युक्त उदाहरण में ऋण-

पूँजी अनुपात Borrowed Capital/ (Paid up Capital + Reserves) =  चार लाख/ (दस लाख + दो लाख) = 1:3 हुआ। इसे ऋण-स्वामि

पूँजी अनुपात (Debt Equity Ratio) के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। पूंजी-ढाँचे के निर्माण के समय ऋऋण-पूंजी अनुपात को निर्धारित करना एक महत्वपूर्ण निर्णय माना जाता है। बाद में भी विकास एवं विस्तार के समय अतिरिक्त पूँजी की व्यवस्था करते समय यह देखना होता है कि कितनी पूँजी अंशों (Shares) के द्वारा तथा कितनी ॠण (Debt) के द्वारा प्राप्त की जाय ताकि पूँजी-ढाँचे में ऋण पूँजी का उचित अनुपात बना रहे।

(4) आय परिव्यास अनुपात (Earnings Coverage Ratio)- यह अनुपात एक और दीर्घकालीन ऋण पर देय स्थिर व्याज सम्बन्धी दायित्व तथा दूसरी ओर परिचालन लाभ (operating profit) अथवा ब्याज एवं करों से पूर्व आय (EBIT) में सम्बन्ध स्थापित करता है इसे times- interest eared ratio’ भी कहा जाता है। यह अनुपात फर्म की ऋण सेवा क्षमता (Debt Servicing Capacity) का उत्तम मापक माना जाता है। इसके लिए निम्न सूत्र प्रयोग किया जाता है:

Times-interest earned = EBIT/ Annual – Interest

यह अनुपात यदि अधिक है तो अनुकूलता का परिचायक होगा। उदाहरण के लिए, यदि यह अनुपात 5 है तो इसका आशय हुआ कि EBIT यदि 1/5 भी गिर जाती है तब भी वह स्थिर ब्याज सम्बन्धी दायित्व को पूरा करने के लिए पर्याप्त होगी, किन्तु यदि यह अनुपात कम है तो यह प्रतिकूलता का परिचायक होगा। उदाहरण के लिए, यदि यह 1 : 1 है तो इसका आशय होगा कि आय केवल ब्याज की देनदारी के लिए ही पर्याप्त होगी तथा उसके बाद अन्य दावेदारों के लिए कुछ नहीं बचेगा। यदि यह अनुपात 111 से भी कम हो जाता है तो ब्याज का भुगतान अंशतः संचित कोष में से करना होगा।

ब्याज के अतिरिक्त निष्क्रयण-कोष (Sinking Fund) के लिए भी आय में से (कर घटाने के बाद) उचित समायोजन आवश्यक होता है। अतः इसके लिए निम्न सूत्र प्रयुक्त किया जाता है:

Times-Burden Covered =

EBIT/ {Sinking Fund Interest +/(1-t)}

इस प्रकार यह अनुपात एक ओर EBIT तथा दूसरी ओर समस्त ऋण सेवा भार (Overall Debt Servicing Burden) में सम्बन्ध स्थापित करता है।

(5) रोकड़-पर्याप्तता प्रमाप (Cash Adequacy Standard)- यह ‘प्रमाप’ कम्पनी की तरलता की स्थिति एवं उससे उत्पन्न जोखिम की मात्रा पर आधारित है तथा इसके निर्धारण का श्रेय श्री गोर्डन डोनाल्डसन को है। श्री डोनाल्डसन ने यह विश्लेषण किया कि किसी कम्पनी की ऋण- क्षमता का निर्धारण उस जोखिम की मात्रा के आधार पर किया जाना चाहिए जो मन्दी या शिथिलता के काल में कम्पनी की रोकड़-हीनता की स्थिति (Out of Cash Position) अथवा कमजोर तरलता (Poor Liquidity) की स्थिति के कारण उत्पन्न हो सकता है। सम्भावित रोकड़ हीनता अथवा कमजोर तरलता की स्थिति के कारण उत्पन्न जोखिम की मात्रा के अनुमान कम्पनी के भावी रोकड़ निर्गमनों (Cash outflows) तथा रोकड़ आगमों (Cash Inflows) के आधार पर लगाया जा सकता है। आर्थिक शिथिलता (recession) के काल में कम्पनी के रोकड़ प्रवाहों (Cash Flows) के व्यवहार में परिवर्तन हो जाता है और यह परिवर्तन कम्पनी की रोकड़ स्थिति (Cash Position) को कमजोर बना देता है। अतः कम्पनी की रोकड़ स्थिति (Cash Position) को प्रभावित करने वाले कतिपय प्रमुख मूल कारकों (जैसे सम्भावित विक्रय की मात्रा, माँग का स्वरूप, प्रति इकाई मूल्य आदि) का विश्लेषण करके रोकड़ स्थिति में प्रतिकूलता की सम्भावित अधिकतम सीमाओं का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है और उसके आधार पर जोखिम की मात्रा का निर्धारण करके उसके अनुसार कम्पनी की ऋण-क्षमता (debt-. capacity) का अनुमान लगाया जा सकता है। श्री गोर्डन डोनाल्डसन के नाम पर ही इस प्रमाप को Donaldson Approach के नाम से सम्बोधित किया जाता है।

मन्दी के चक्र अथवा आर्थिक शिथिलता (recession) के काल में कम्पनी की रोकड़ स्थिति से सम्बद्ध जिन दो तत्वों का अधिक महत्व होता है, वे हैं रोकड़ शोधन-क्षमता (Cash Solvency). तथा रोकड़ पर्याप्तता (Cash Adequacy) । रोकड़ शोघन-क्षमता उस खतरे या जोखिम का पूर्वाभास देती है जिसके कारण कम्पनी की रोकड़ स्थिति इतनी गिर जाये कि वह ब्याज सम्बन्धी अनिवार्य दायित्व को भी पूरा करने में असमर्थ हो और इस प्रकार दिवालियापन (insolvency) की स्थिति तक पहुँच जाय। रोकड़ पर्याप्तता (Cash adequacy) उस स्थिति की परिचायक है जिसमें कम्पनी की रोकड़-स्थिति ब्याज सम्बन्धी दायित्वों के साथ-साथ न्यूनतम आवश्यक दायित्वों (जैसे लाभांशों तथा अनुसन्धान एवं विकास परियोजनाओं) को पूरा करने के लिए भी सक्षम हो। ये ऐसे दायित्व हैं जिन्हें कम्पनी की अशोध्यक्षमता (insolvency) के निवारण के लिए टाला तो जा सकता है; किन्तु कम्पनी के दीर्घकालीन हितों को देखते हुए प्रबन्धक जिन्हें पूरा करना आवश्यक समझते हैं। अतः रोकड़-पर्याप्तता (Cash adequacy) के मापने के लिए ब्याज-देयता के साथ-साथ इन न्यूनतम आवश्यक दायित्वों को भी सम्मिलित करना चित समझा जाता है।

इस प्रकार इस ‘प्रमाप’ के अन्तर्गत शिथिलता के काल में सम्भावित रोकड़ प्रवाहों (Cash flows) का विश्लेषण करके अधिकतम अनुकूल (maximum favourable) एवं अधिकतम प्रतिकूल (maximum adverse) सीमाओं को ज्ञात करके उनके आधार पर ऋण-पूँजी के भार से उत्पन्न खतरों का पूर्वानुमान लगाया जाता है और इस प्रकार कम्पनी की ऋण-क्षमता (Debt- Capacity) को यथानुरूप निर्धारित किया जा सकता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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