जन-निक्षेप

जन-निक्षेप | जन-निक्षेपों के प्रमुख लक्षण | अन्तर कम्पनी ऋण एवं विनियोग

जन-निक्षेप | जन-निक्षेपों के प्रमुख लक्षण | अन्तर कम्पनी ऋण एवं विनियोग | public deposit in Hindi | Major Characteristics of Mass Deposits in Hindi | Inter Company Debts and Investments in Hindi

जन-निक्षेप (Public Deposits)-

गत कुछ वर्षों से कम्पनी क्षेत्र (Corporate Sector) के मध्यमकालीन एवं अल्पकालीन कोषों के साधन के रूप में जन-निक्षेपों (Public Deposits) का महत्व बढ़ गया है निजी क्षेत्र की कम्पनियाँ ही नहीं, अपितु सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियाँ भी अब जनता से प्राप्त जमा राशियों के आधार पर पर्याप्त कोषों की व्यवस्था करती हैं। कम्पनियों में जमा राशियाँ दो प्रकार की होती हैं, प्रथम, विमुक्त-निक्षेप (Exempted Deposits) तथा द्वितीय, नियमबद्ध निक्षेप (Regulatory Deposits) । विमुक्त-निक्षेप, वे निक्षेप होते हैं। जो भारत सरकार अथवा रिजर्व बैंक द्वारा जन-निक्षेपों के लिए बनाये गये नियमों द्वारा निर्देशित नहीं होते हैं। नियमबद्ध निक्षेपों के लिए कम्पनी अधिनियम की धारा 58ए की व्यवस्थाएं तथा भारत के रिजर्व बैंक द्वारा सन् 1975 में कम्पनियों में जन-निक्षेपों के लिए निर्मित नियमों की शर्तें लागू होती हैं। गैर-बैकिंग, गैर-वित्तीय (Non-Banking, Non-Financial) कम्पनियों के जन-निक्षेपों (Public Deposits) पर कम्पनी अधिनियम, 1956 की धारा 58-A’व्यवस्थाएँ लागू होती हैं। गैर बैंकिंग वित्तीय (Non-Banking Financial) कम्पनियों के जन-निक्षेपों (Public Deposits ) पर कम्पनियों द्वारा प्राप्त जंन-निक्षेपों के लिए भारत के रिजर्व बैंक द्वारा निर्मित नियम लागू होते हैं।

पब्लिक लिमिटेड कम्पनियों एवं सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों के नियमबद्ध (Regulatory) जन-निक्षेपों के लिए उपर्युक्त व्यवस्थाओं के अन्तर्गत समय-समय पर शर्तो एवं नियमों में परिवर्तन किया जाता रहा है कुल मिलाकर अब जो स्थिति है उसका वर्णन निम्न प्रकार है:

(i) निजी क्षेत्र की कम्पनियाँ अपनी चुकता-पूँजी (Paid up Capital) एवं मुक्त कोषों (Free Reserves) के योग के 35 प्रतिशत से अधिक के जन-निक्षेप प्राप्त नहीं कर सकती हैं। इस 35 प्रतिशत में भी जनता से अधिक से अधिक 25 प्रतिशत तथा शेष 10 प्रतिशत अंशधारियों से प्राप्त किये जा सकते हैं। लीजिंग एवं फाइनेन्स कम्पनियाँ अपनी स्वामि-पूँजी के दस गुना तक निक्षेप प्राप्त कर सकती हैं।

(ii) सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों को अब यह छूट हाल ही में दी गयी है कि वे अपनी स्वामि-पूँजी (Owned Capital) के 35 प्रतिशत तक जन-निक्षेप सीधे जनता से प्राप्त कर सकती हैं (क्योंकि उनके अंश अधिकांशतः सरकार द्वारा ही धारित होते हैं।)

(iii) कम्पनियों द्वारा प्राप्त जन-निक्षेपों की अवधि तीन वर्ष से अधिक नहीं हो सकती हैं।

(iv) जहाँ तक ब्याज दर का प्रश्न है, यह 15 प्रतिशत वार्षिक से अधिक नहीं हो सकती है। व्यवहार में कम्पनियाँ एक वर्ष के लिए 12% दो वर्ष के लिए 13 प्रतिशत तथा तीन वर्ष के लिए 14 प्रतिशत तक ब्याज देती हैं। अंशधारियों को ½% या 1 प्रतिशत अधिक ब्याज दर दी जाती है।

(v) जन-निक्षेपों के लिए कम्पनी द्वारा विज्ञापन समाचार पत्रों में दिया जाना चाहिए जिसमें स्थानीय भाषा के समाचार पत्र भी होने चाहिए। विज्ञापन में कम्पनी के पूँजी-ढॉचे एवं पिछले वर्षों की प्रगति एवं हाल की वित्तीय स्थिति आदि के बारे में ब्यौरा दिया जाना चाहिए। विज्ञापन न दिये जाने की दशा में उसके स्थान पर एक प्रविवरण-पत्र (Statement in lieu of advertisement) फाइल करना आवश्यक होगा।

(vi) जन-निक्षेपों के लिए आवेदन कम्पनी द्वारा एक निर्धारित आवेदन-पत्र (Application form) पर किया जाना चाहिए तथा ऐसी जमा राशियों के लिए कम्पनी द्वारा रसीद (Receipt) दी. जानी चाहिए।

(vii) जन-निक्षेपों के लिए प्रत्येक कम्पनी द्वारा एक रजिस्टर रखना अनिवार्य होगा तथा प्रत्येक वर्ष मार्च के अन्त तक जन-निक्षेपों के बारे में एक रिटर्न (Periodic Return of deposits) कम्पनियों के रजिस्ट्रार अथवा रिजर्व बैंक को प्रेषित करना होगा।

(viii) कम्पनियाँ जन-निक्षेपों के लिए अब एक प्रतिशत से दो प्रतिशत तक दलाली (Brokerage) दे सकती हैं। दलाली एक वर्ष के निक्षपों पर 1 प्रतिशत, दो वर्ष के निक्षेपों पर 1 1/2% तथा तीन वर्ष के निक्षेपों पर 2 प्रतिशत होगी। जनवरी 1986 से पूर्व यह क्रमशः 1,1-1/4 तथा 1 1/2 प्रतिशत ही थी।

उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अब कम्पनियों में जनता के निक्षेपों का नियमन (Regulation) जन हित में किया जा रहा है। इन प्रतिबन्धों के कारण जमाकर्ताओं के हितों को सुरक्षा प्रदान की गयी है। जिससे कि कम्पनियों प्रबन्धक मनमानी न कर सकें। सन् 1960 तक बहुत ही कम कम्पनियों में जन-निक्षेप थे, किन्तु अब इनके आधार पर मध्यमकालीन कोषों की व्यवस्था करने वाली कम्पनियों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि हुई है। अब इनकी धनराशि लगभग दो हजार करोड़ रुपयों की है। अब 1988 में कम्पनी कानून में किये गये संशोधन के द्वारा जमाकर्ता कम्पनी लॉ बोर्ड (Company Low Board) के समक्ष अपनी शिकायत रख सकते हैं।

अन्तर कम्पनी ऋण एवं विनियोग (Inter-Corporate Loans & Investments )

विभिन्न कम्पनियों द्वारा अपनी सहायक कम्पनियों में अथवा उसी प्रबन्ध समूह की अन्य कम्पनियों में अपने कोष का विनियोग किया जाता है। ऐसा विनियोग दीर्घकालीन एवं मध्यमकालीन दोनों प्रकार का हो सकता है तथा अंशों में अथवा ऋणपत्रों में पूँजी लगाकर अथवा ऋण देकर किया जा सकता है। इस साधन में कम्पनियों को अपनी वित्तीय आवश्यकताओं के 8 से 10 प्रतिशत भाग की पूर्ति के लिए कोष प्राप्त हो जाते हैं किन्तु इस प्रकार के कोष एक सीमा तक प्राप्त हो सकते हैं, क्योंकि कम्पनी अधिनियम में इनके प्रयोग पर कतिपय प्रतिबन्ध लगाये गये हैं जो निम्न हैं –

धारा 370 के अधीन यह व्यवस्था है कि यदि कोई कम्पनी किसी अन्य कम्पनी को ऋण देती है अथवा ऋण की गारण्टी देती है, तो विशेष संकल्प ( Special resolution ) पास करके ही वह ऐसा कर सकती है, किन्तु यदि किसी कम्पनी द्वारा उसी प्रबन्ध समूह की किसी कम्पनी अथवा कम्पनियों को दिया गया ऋण, ऋणदाता कम्पनी की अभिदत्त पूँजी (Subscribed Capital) एवं मुक्त कोषों (Free Reserves) के योग से 10 प्रतिशत से अधिक नहीं है तो फिर उधारकर्ता को ऐसा करने के लिए विशेष संकल्प पास करने की आवश्यकता नहीं होती है। किन्तु यदि किसी कम्पनी द्वारा उसी प्रबन्ध समूह एवं उसी प्रबन्ध समूह के बाहर की सब कम्पनियों को दिये गये ऋण की मात्रा ऋणदाता कम्पनी की अभिदत्त पूँजी एवं मुक्त कोषों के योग से 30 प्रतिशत से अधिक है; अथवा यदि किसी कम्पनी द्वारा उसी प्रबन्ध समूह की (Under the same group of same management) किसी कम्पनी या कम्पनियों को दिये गये ऋणों की मात्रा से 20 प्रतिशत से अधिक है तो फिर विशेष संकल्प पास करने के साथ-साथ उधारकर्ता कम्पनी को ऐसा करने के लिए केन्द्रीय सरकार की अनुमति भी प्राप्त करना अनिवार्य होगा।

अन्तर कम्पनी विनियोगों का स्वरूप दीर्घकालीन होता है, क्योंकि इसके अन्तर्गत एक कम्पनी, दूसरी कम्पनी के अंशों में अभिदान करती है। धरा 372 के अधीन अंश-पूँजी में अन्तर- कम्पनी (Inter-corporate) विनियोगों पर प्रतिबन्ध लगाये गये हैं। कोई कम्पनी किसी अन्य कम्पनी की अंश-पूंजी में उस अन्य कम्पनी की अभिदत्त अंश-पूंजी के 10 प्रतिशत से अधिक भाग में अभिदान नहीं कर सकती है। अंश-पूँजी में किये गये समस्त विनियोग उसी प्रबन्ध समूह की कम्पनी या कम्पनियों की दशा में विनियोगकर्ता कम्पनी (Investing Company) की अभिदत पूँजी (Subscribed capital) के 20 प्रतिशत तथा समस्त कम्पनियों (उसी प्रबन्ध समूह एवं उसके बाहर की कुल मिलाकर) की दशा में विनियोगकर्ता कम्पनी की अभिदत्त पूँजी के 30 प्रतिशत, से अधिक नहीं होने चाहिए। यदि इन सीमाओं से अधिक विनियोग किया जाता है तो ऐसी दशा में विनियोगकर्ता कम्पनी के लिए आवश्यक होगा कि वह इस विषय में कम्पनी की साधारण सभा में संकल्प (Resolution in general meeting) पास करे तथा ऐसा करने के लिए केन्द्रीय सरकार की अनुमति (Approval of Central government) प्राप्त करे। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ऐसा विनियोग तब तक नहीं किया जा सकता है जब तक कि संचालक-मण्डल की सभा में उपस्थित मत देने के अधिकारी समस्त संचालकों द्वारा सर्वसम्मति से ऐसा करने के लिए प्रस्ताव पास न कर लिया गया हो।

धारा 372 की व्यवस्थाओं से कुछ दशाओं में छूट दी गयी है, जो निम्न है:

(क) ऐसी कम्पनियों के लिए जिनका व्यवसाय ही अन्य कम्पनियों में पूँजी का विनियोग करना है।

(ख) सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त वित्तीय निगमों के लिए।

(ग) धारक (Holding) कम्पनियों को अपनी सहायक (Subsidiary) कम्पनियों के लिए।

(घ) अंशों के राइट्स निर्गमनों (Rights Issues) में विनियोग के लिए।

अन्य दशाओं में भी यदि कोई कम्पनी धारा 372 में निर्धारित सीमाओं से अधिक विनियोग करना चाहती है तो वह साधारण प्रस्ताव पास करके तथा केन्द्रीय सरकार की अनुमति लेकर ऐसा कर सकती है। भारत सरकार के कम्पनी विभाग द्वारा ऐसे आवेदनों पर उदारता से विचार किया जाता रहा है। वर्ष 1997-98 के केन्द्रीय बजट में यह प्रावधान किया गया है कि कम्पनी अधिनियम की धारा 370 एवं 372 को मिलाकर अन्तर्कम्पनी विनियोगों एवं ऋणों (Inter- corporate Investments & Loans) के लिए उधारकर्ता कम्पनी की चुकता-पूँजी एवं मुक्त संचित कोषों के 60 प्रतिशत की मिली-जुली सीमा निर्धारित की जानी चाहिए। इससे कम्पनियाँ अन्तर्कम्पनी निवेशों एवं ऋणों की पारस्परिक सीमा निर्धारित करने में अधिक लोचपूर्ण नीति अपना सकेगी।

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