वित्तीय प्रबंधन / Financial Management

वित्तीय योजना एवं पूँजी ढाँचा | पूँजी ढांचे के निर्धारक जोखिम का तात्पर्य | पूँजी संरचना के आन्तरिक तत्वों का वर्णन | पूँजी सरंचना के बाह्य तत्व का वर्णन

वित्तीय योजना एवं पूँजी ढाँचा | पूँजी ढांचे के निर्धारक जोखिम का तात्पर्य | पूँजी संरचना के आन्तरिक तत्वों का वर्णन | पूँजी सरंचना के बाह्य तत्व का वर्णन | Financial Planning and Capital Structure in Hindi | Meaning of risk determinant of capital structure in Hindi | Describe the internal elements of capital structure in Hindi | Description of external elements of capital structure in Hindi

वित्तीय योजना एवं पूँजी ढाँचा (Financial Plan and Capital Structure)-

वित्तीय-योजना, पूँजी-ढाँचा, वित्तीय ढाँचा एवं परिसम्पत्ति ढाँचा आदि शब्द वित्तीय प्रबन्ध की शब्दावली में विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त किये जाते हैं। अतः अनुकूलमत वित्तीय ढाँचे (The Optimum Financial Structure) की व्याख्या करने से पूर्व इनका स्पष्टीकरण आवश्यक हो जाता है।

  1. वित्तीय योजना (Financial Plan)- एक व्यापक शब्द है। इसके तीन प्रमुख अंग होते हैं: (क) व्यवसाय का पूंजीकरण या पूँजी की कुल मात्रा का निर्धारण, (ख) पूँजी के स्वरूप या पूँजी-ढाँचे का निर्धारण, एवं (ग) वित्तीय नीतियों का निर्धारण। वित्तीय योजनाकरण (Financial Planning) इन्हीं पर आधारित होता है।

इन तीनों अंगों का स्पष्ट एवं सुनिश्चित चित्र प्रवर्तकों के समक्ष होना चाहिए। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि वित्तीय योजना केवल प्रवर्तन के समय ही महत्व रखती है और एक बार बन जाने के बाद फिर उसका कोई महत्व ही नहीं रहता, किन्तु इतना अवश्य कहा जाता सकता है कि आरम्भ में जो वित्तीय योजना अपना ली जाती है उसका प्रभाव आजीवन कम्पनी की प्रगति पर पड़ता है। यदि प्रारम्भ से ही वित्तीय योजना दोषपूर्ण है तो इसका परिणाम यह होगा कि भविष्य में कम्पनी के मार्ग में अनेक वित्तीय कठिनाइयाँ आ सकती हैं। अनेक कम्पनियाँ दोषपूर्ण वित्तीय योजना के कारण ही आगे चलकर सफल नहीं हो पातीं।

  1. पूँजी ढाँचे (Capital Structure)- का अभिप्राय पूँजी के दीर्घकालीन साधनों के पारस्परिक अनुपात से है और इसमें स्वामि-पूँजी (Owned Capital), अधिमान्य या पूर्वाधिकार अंश-पूंजी (Preference Share Capital) तथा दीर्घकालीन ऋण-पूँजी (Long term Bor- rowed Capital) सम्मिलित की जाती हैं। इसका आशय यह ज्ञात करना होता है कि व्यवसाय की दीर्घकालीन पूँजी किन-किन साधनों के द्वारा एवं किस-किस अनुपात में प्राप्त की गयी है। इसके अन्तर्गत प्रमुख समस्या ऋण-पूँजी अनुपात (Debt-equity Ratio) के निर्धारण की होती हैं।
  2. वित्तीय ढाँचा (Financial Structure)- पूँजी-ढाँचे से कुछ अधिक व्यापक शब्द है और इसका अभिप्राय दायित्वों के ढाँचे (Liabilities Structure) से है जिसमें पूँजी के दीर्घकालीन एवं अल्पकालीन सभी साधन सम्मिलित किये जाते हैं, जैसे स्वामि-पूँजी, अधिमान्य अंश-पूँजी, दीर्घकालीन ऋण-पूँजी, चल-दायित्व (current liabilities) एवं अल्पकालीन ऋण पूँजी।

पूँजी ढांचे के निर्धारक जोखिम का तात्पर्य

जोखिम (Risk)- प्रत्येक अनुवर्ती ऋण के साथ-साथ कम्पनी की स्थिर ब्याज देयता (Fixed Interest Liability) की मात्रा में वृद्धि हो जाती है, जो कम्पनी की भावी आय पर प्रभार उत्पन्न की तरलता (Liquidity) करती है। और व्यवसाय में रोकड़ निर्गमों (Cash Out flows) की सीमा को बढ़ा देती है। यह स्थिति कम्पनी की तरलता (Liquidity) को तो प्रभावित करती ही है, साथ ही कालान्तर में कम्पनी की शोध्य क्षमता (Solvency) पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है। ब्याज के रूप नियमित भुगतान एवं समय-समय पर मूल के पुनर्भुतान की बढ़ती हुई बाध्यता कम्पनी की शोध्य क्षमता (Solvency) के लिए (विशेषतः कम आय वाले वर्षों) में खतरा या जोखिम उत्पन्न कर सकती है।

एक सीमा से अधिक ऋण-पूँजी का उपयोग व्यवसाय के लिए जोखिम से पूर्ण होता है। यद्यपि यह सही है कि ऋण-पूँजी का सबसे बड़ा लाभ यह है कि अन्य साधनों की अपेक्षा यह एक सस्ता (Cheaper) साधन है। साथ ही यह एक ऐसा साधन भी है जिसका कम्पनी के नियन्त्रण एवं प्रबन्ध में कोई हस्तक्षेप नहीं होता है। फिर भी ऊँचा ऋण-पूँजी अनुपात (High Debt-equity Ratio) ऐसी कम्पनियों में जोखिम की मात्रा में वृद्धि कर देता है जिनकी आय में प्रायः उतार-चढ़ाव होते रहते हैं। अतः कम्पनी की ऋण-क्षमता (debt capacity) का सही आकलन करने बाद ही जोखिम का पूर्वानुमान करके पूँजी-ढाँचे में पूँजी के अन्य साधनों के साथ-साथ ऋण-पूँजी का अनुपात निर्धारित किया जाना चाहिए।

पूँजी संरचना के आन्तरिक तत्वों का वर्णन

  1. व्यवसाय की प्रकृति (Nature of Business)- किसी नवीन प्रवर्तित उपक्रम में पूँजी के स्वरूप को निधारित करने पर व्यवसाय की प्रकृति का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। कुछ व्यवसाय ऐसे होते हैं जिनमें उत्पादन एवं विक्रय निरन्तर वर्षपर्यन्त होता रहता है। इसके विपरीत, कतिपय अन्य व्यवसाय मौसमी प्रकृति (seasonal nature) के होते हैं, जैसे चीनी उद्योग, ऊनी वस्त्र उद्योग, बरफ और शीतल-पेय उद्योग आदि। मौसमी प्रकृति के उद्योगों में व्यस्त मौसम में अधिक पूँजी की आवश्यकता होती है, तथा शिथिल मौसम (Off-Season) में इसकी कम आवश्यकता होती है। अतः पूँजी-ढाँचा इस प्रकार का होना चाहिए कि मौसम के अनुसार पूँजी में आवश्यक समायोजन किया जा सके। स्पष्ट है कि पूँजी के दीर्घकालीन साधनों की बजाय पूँजी के अल्पकालीन साधनों को अधिक महत्व ऐसी दशा में दिया जायेगा।
  2. परिसम्पत्तियों का ढाँचा (Assets Structure )- सभी प्रकार की कम्पनियों का परिसम्पत्ति ढाँचा समान नहीं होता है। कुछ कम्पनियों में स्थिर सम्पत्तियों (Fixed Assets) का अनुपात अधिक होता है तो कतिपय अन्य प्रकार की कम्पनियों में चल सम्पत्तियों (Current Asets) का अनुपात अधिक होता है। उदाहरण के लिए जनोपयोगी (Public Utilities) एंव एवं भारी निर्माणक (Heavy Manufacturing) कम्पनियों की परिसम्पत्तियों के ढाँचे में स्थिर सम्पत्तियों की प्रधानता होती है। इनकी स्थिर सम्पत्ति-चल सम्पत्ति अनुपात (Ratio of Fixed & Current Assets) 70:30 अथवा 80: 20 तक होता है। निश्चित रूप से ही ऐसी कम्पनियाँ ऋण-पूंजी के लिए पर्याप्त एवं उत्तम, सुरक्षात्मक आवरण (Security Cover) प्रदान करती हैं। अतः इनके पूँजी ढाँचे में इक्विटी अंशों के साथ-साथ पर्याप्त मात्रा में पूँजी के अन्य दीर्घकालीन साधनों (जैसे प्रीफरेंस अंश-पूँजी एवं ऋण-पत्र पूँजी) को स्थान दिया जायेगा। वैसे भी यह एक सामान्य नियम है कि पूँजी के उपयोगों एवं पूँजी के साधनों में उचित तालमेल रखा जाना चाहिए अतः दीर्घकालीन या स्थिर सम्पत्तियों का वित्त-पोषण पूँजी के दीर्घकालीन साधनों के द्वारा ही होना चाहिए।

इसके विपरीत, व्यापारिक कम्पनियों (Trading Companies) में स्थिर सम्पत्तियों एवं चल सम्पत्तियों के मध्य अनुपात 30: 70 अथवा 20: 80 ही होता है। बैकिंग एवं वित्तीय कम्पनियों (Banking & Financial Companies) में तो यह अनुपात 10.: 90 तक होता है। ऐसी दशा में ऐसी कम्पनियों के पूँजी-ढाँचे में ऋणपत्रों का अनुपात कम होगा। यही कारण है कि विशिष्ट वित्तीय निगमों (Special Financial Corporations) के द्वारा जो बॉण्ड निर्गमित क जाते हैं वे प्रायः सरकार द्वारा गारण्टीयुक्त होते हैं क्योंकि बन्धक रखने या जमानत के रूप में प्रस्तुत करने के लिए ऐसी कम्पनियों के पास पर्याप्त स्थायी सम्पत्ति का अभाव होता है।

  1. लोच (Flexibility)- प्रारम्भ में पूँजी-ढाँचे का स्वरूप सरल होना चाहिए ताकि भविष्य में जैसे-जैसे पूँजी की आवश्यकता होती जाय, नवीन पूँजी के समायोजन के लिए रास्ता खुला रहे। इसका तात्पर्य यह है कि पूंजी प्राप्ति की चरणबद्ध प्रक्रिया (Phased Process) को अपनाया जाना चाहिए क्योंकि कुल परियोजना लागत (Total Project Cost) के समस्त भाग की आवश्यकता प्रारम्भ में नहीं होती है। यही कारण है कि प्राधिकृत पूँजी (Authorised Capital) की सीमा ऊंची निर्धारित की जाती है और एक भाग को निर्गमित किया जाता है। यही नहीं, चुकाता पूँजी (Paid up-Capital) कुल निर्गमित पूँजी (Issued Capital) का भी एक भाग होती है। भविष्य में जैसे-जैसे आवश्यकता होती है, अयाचित-पूँजी (Uncalled Capital) को चुकता करने के लिए याचना की जाती है।

इसके अतिरिक्त पूँजी-ढाँचा इस प्रकार का निर्मित किया जाना चाहिए जिससे कि आन्तरिक साधनों से पर्याप्त पूँजी संचित करने में सक्षम होने पर कम्पनी के लिए पूँजी के कुछ बाहरी साधनों का प्रत्यावर्तन करना सम्भव हो सके इसी उद्देश्य से शोध्य-प्रीफरेन्स अंशों (Redeemable Preference Shares) तथा मध्यकालीन ऋणों (Medium-term Debentures) को पूँजी-ढाँचे में स्थान दिया जाता है जिससे कि पूँजी ढाँचें में लोच बनाये रखा जा सके।

वित्तीय संकट के समय ऐसी कम्पनियाँ जिनका वित्तीय ढाँचा सरल है, अपनी आस्तियों पर प्रभार उत्पन्न करके सरलता से अतिरिक्त पूँजी की व्यवस्था कर सकती हैं। जटिल पूँजी-ढाँचे (Complex Capital Structure) वाली कम्पनियों में ऐसा करना कठिन होगा, क्योंकि अनेक प्रकार के ऋणपत्रों एवं बॉण्डों के कारण उनकी सम्पत्तियों पर पहले से ही प्रभार होता है।

  1. प्रबन्धकों की वित्तीय नीतियाँ (Financial Policies of Management) – प्रवर्तक या संचालक प्रायः इस बात का प्रयास करते हैं कि न्यूनतम विनियोग के द्वारा अधिकतम सम्पत्तियों पर नियन्त्रण प्राप्त कर लिया जाये। इस अभिप्राय की पूर्ति के लिए जिस वित्तीय नीति का सहारा लिया जाता है उसे ट्रेडिंग आन इक्विटी (Trading of Equity) कहते हैं। ऐसी दशा में कम्पनी सीमित मात्रा में स्वामि पूँजी (Owned Capital) की व्यवस्था करके पूंजी की व्यवस्था दीर्घकालीन ऋणों के द्वारा करती है। इस प्रकार प्राप्त कुल पूँजी की सहायता से उपार्जित लाभ दीर्घकालीन ऋणों पर देय ब्याज की राशि से कहीं अधिक होता है; और इसलिए स्वामि-पूंजी या इक्विटी अंशों पर अधिक दर से लाभांश घोषित किया जा सकता है। अतः यदि संस्थापकों का उद्देश्य ट्रेडिंग ऑन इक्विटी की नीति अपनाकर इक्विटी अंशधारियों को अधिक लाभ पहुँचाना है तो पूँजी-ढाँचे में उच्च पूँजी गीयरिंग (High Capital Gearing) का समावेश करना आवश्यक होगा। आधुनिक वित्तीय शब्दावली में इसे वित्तीय लीवरेज (Financial Leverage) की संज्ञा प्रदान की जाती है।

पूँजी सरंचना के बाह्य तत्व का वर्णन

(External Factors)

(1) पूँजी बाजार की दशाएँ (Capital Market Conditions)- मन्दी की दशाओं में जब लाभांश की दरें कम होती हैं तो लाभ की सम्भावनाएँ अनिश्चित होती हैं, तब साधारण अंशों की अपेक्षा ऋणपत्र अधिक लोकप्रिय होते हैं। यह समय ऋणपत्रों के निर्गमन के लिए अनुकूल होता है। इस दशा में पूर्व निर्गमित ऊँची ब्याज दर वाले ऋणपत्रों को नवीन नीची ब्याज दर वाले ऋणपत्रों द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सकता है। इसके विपरीत, तेजी के काल में जब लाभ की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं, ऋणपत्रों के बजाय साधारण अंशो की माँग अधिक बढ़ जाती है। अतः पूंजी का स्वरूप निश्चित करते समय पूँजी बाजार की विद्यमान दशाओं को ध्यान में रखकर ही पूँजी- ढाँचे का निर्धारण किया जाना चाहिए।

(2) विनियोजकों का मनोविज्ञान (Psychology of Investors)- सब निवेशक समान नहीं होते हैं। कुछ लोगों के पास विनियोग के लिए अधिक पूँजी होती है, जबकि कुछेक के पास कम। फिर सब की प्रकृति एवं धाराएँ भी समान हीं होती। कुछ निवेशक साहसी होते हैं एवं जोखिम उठाने को तत्पर हो जाते हैं, जबकि अन्य सतर्क होते हैं तथा धन की सुरक्षा एवं ब्याज की निश्चित गारण्टी चाहते हैं। अतः विभिन्न निवेशकों की माँग के स्वरूप में भी भित्रता होती है। इसलिए अनेक कम्पनियाँ विभिन्न प्रकार की प्रतिभूतियों का निर्गमन करती हैं ताकि विभिन्न प्रकृति के व्यक्ति एक या अधिक प्रकार की प्रतिभूतियों में पूँजी का विनियोग कर सकें। पूँजी निर्गमन की सफलता विभिन्न निवेशकों की मनोवैज्ञानिक दशा पर निर्भर होती है।

(3) पूँजी निर्गमन के व्यय (Expenses of Capital Issues) – आन्तरिक तत्वों के अन्तर्गत पूँजी की लागत (Cost of Capital) के प्रभाव का वर्णन किया जा चुका है। इसके अतिरिक्त पूँजी निर्गमन की लागतों (Costs of Issues of Capital) का भी प्रभाव पूँजी-ढाँचे पर पड़ सकता है। पूँजी निगर्मन प्रतिभूतियों के विक्रय के रूप में होता है जो आधुनिक युग में स्वयं एक विशिष्ट कार्य बन गया है। इस कार्य के लिए दलालों एवं मध्यस्थों तथा अभिगोपकों (underwriters) को कमीशन देना होता है। इसके अतिरिक्त, ऋणपत्र एवं बॉण्ड प्रायः अंकित मूल्य पर निर्गमित किये जाते हैं। पूँजी निर्गमन के व्यय पूंजी के विभिन्न साधनों के लिए न्यूनाधिक हो सकते हैं। अतः निर्गमन व्यय कम्पनी के लिए पूँजी की लागतों को बढ़ा देते हैं।

(4) प्रचलित नियम एवं सन्नियम (Current Regulations & Laws)- आय कर अधिनियम के अनुसार, कुल आय (gross income) से व्यावसायिक व्यय निकाल देने के बाद जो राशि बचती है वह कर देय (taxable) होती है। अंशों पर देय लाभांश व्यावसायिक व्यय नहीं माना जाता जबकि ऋणों पर देय ब्याज व्यावसायिक व्यय माना जाता है, तथा अन्य व्ययों के साथ यह कुल आय में से घटाया जाता है। स्पष्ट है कि इस दृष्टिकोण से एक सफल कम्पनी में अतिरिक्त पूँजी का प्रश्न उपस्थित होने पर ऋणपत्रों को प्राथमिकता दी जायेगी, क्योंकि ऐसा करके कम्पनी निगम कर में पर्याप्त बचत कर लेगी और इसलिए उस सीमा तक उसकी कर रहित आय (income after tax) में वृद्धि हो जायेगी। सम्भावित अधिनियमों का भी पूंजी के स्वरूप पर प्रभाव पड़ता है। सर्वविदित है कि भाभा समिति की रिपोर्ट के बाद स्थगित अंशो को समाप्त किये जाने की सम्भावना के कारण नवनिर्मित कम्पनियों में इस प्रकार के अंशों का चयन कम्पनी अधिनियम पास होने से ही बहुत पहले ही कम हो गया था।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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