वित्तीय प्रबंधन / Financial Management

अनुकूलतम वित्तीय ढाँचा | उत्तम वित्तीय ढाँचे के गुण | Optimum Capital Structure in Hindi | Best Financial Structure Qualities in Hindi

अनुकूलतम वित्तीय ढाँचा | उत्तम वित्तीय ढाँचे के गुण | Optimum Capital Structure in Hindi | Best Financial Structure Qualities in Hindi

अनुकूलतम वित्तीय ढाँचा (Optimum Capital Structure)-

वित्तीय आयोजको द्वारा पूँजी प्राप्ति के विभिन्न साधनों के पारस्परिक अनुपात का निर्धारण अनेक मान्यताओं तथा परिस्थितियों के सन्दर्भ में किया जाता है। पूँजी-ढाँचे अथवा पूँजी मिश्रण (Capital Mix) का स्वरूप क्या हो एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। पूँजी प्राप्ति के विभिन्न साधनों की अपनी-अपनी विशेषताएँ होती हैं। विभिन्न विशेषताओं वाले पूँजी के अनेक साधनों का पूंजी ढाँचे में सम्मिश्रण किस अनुपात में हो, यह इस बात पर निर्भर होगा कि व्यवसाय संचालन का मूल उद्देश्य क्या है? चूँकि प्रत्येक व्यवसाय स्वामियों के हितों में वृद्धि के लिए संचालित किया जाता है, अतः पूंजी-ढाँचा इस प्रकार होना चाहिए जिससे कम्पनी के अंशधारियों को अधिकतम (Maximum) आय प्राप्त हो सके। यह तभी हो सकेगा, जबकि पूंजी के विभिन्न साधनों की औसत लागत (Average Cost) न्यूनतम हो। आय के अतिरिक्त ऐसे अन्य अनेक विचारणीय प्रश्न हैं जिन पर भी ध्यान केन्द्रित करना आवश्यक होगा, जैसे कि कम्पनी पर नियन्त्रण (Control) के वर्तमान स्वरूप को यथावत् बनाये रखने का प्रश्न, अथवा जोखिम (Risk) की मात्रा को एक सीमा से अधिक न बढ़ने देने की समस्या आदि। इस प्रकार उन सभी कारकों (Factors) पर विचार करना होगा जो पूँजी-ढाँचे को प्रभावित करते हैं। यहाँ अनुकूलम वित्तीय ढाँचे के प्रमुख गुणों का विवेचन करना आवश्यक है।

उत्तम वित्तीय ढाँचे के गुण

(Best Financial Structure Qualities)

एक उत्तम वित्तीय ढाँचे में अग्रलिखित गुणों का होना आवश्यक है:

  1. सरलता (Simplicity)- प्रबन्ध की सुविधा को ध्यान में रखते हुए वित्तीय ढाँचे को सरल रूप दिया जाना चाहिए। प्रारम्भ से ही यदि योजना जटिल होगी, तो भविष्य में अतिरिक्त पूंजी की व्यवस्था सरलता से न की जा सकेगी। यदि आरम्भ में ही कई प्रकार की प्रतिभूतियों को निर्गमित करके पूँजी की व्यवस्था की जाती है तो इससे विनियोक्ताओं में प्रस्तावित योजना के प्रति सन्देह उत्पन्न हो सकता है। अतः आरम्भ में केवल सामान्य अंशों (Equity Shares) और यदि आवश्यक हो तो उनके साथ- अधिमान्य अंशो (Preference Shares) का निर्गमन उचित होगा। ऋणपत्रों या बन्धपत्रों के निर्गमन को आगे आवश्यकतानुसार सुरक्षित रखा जाना उचित हो सकता है। वैसे भी ऋणपत्र या बॉण्ड पहले से स्थापित ऐसी कम्पनियों द्वारा निर्गमित किये जाते हैं जिनका पिछला रिकार्ड उत्तम रहा हो। ऋण-पूँजी के लिए वित्तीय निगमों से विशेष अनुबन्ध नयी स्थापित की जाने वाली कम्पनियों के द्वारा किये जाते हैं तथा कुछ वर्षों के बाद ऐसी कम्पनियाँ ऋणपत्रों का निर्गमन करने की स्थिति में हो जाती हैं।
  2. लोचपूर्णता (Flexibility) – वित्तीय योजनाकरण एक तात्कालिक व्यवस्था न होकर एक दीर्घकालीन व्यवस्था है। अतः कम्पनी के सीमानियमों के उद्देश्य खण्ड (object. clause) में उल्लिखित विभिन्न उद्देश्यों को ध्यान में रखकर ही इसे अन्तिम रूप दिया जाना चाहिए। तात्कालिक आवश्यकताओं की लोचपूर्णता का अभिप्राय यहाँ दीर्घकाल में व्यवसाय की बढ़ती अथवा घटती हुई आवश्यकताओं के अनुरूप पूँजी-ढाँचे में समायोजन से है अर्थात् यदि कुछ वर्षों बाद व्यवसाय के विस्तार के लिए पूँजी की आवश्यकता हो तो उसे सुविधापूर्वक उपलब्ध करने की सम्भावनाओं का वित्तीय योजना में समावेश हो, अथवा यदि कम पूंजी की आवश्यकता प्रतीत हो तो वित्तीय योजना ऐसी हो कि उसे घटाया जा सके। यही कारण है कि प्राधिकृत पूँजी (authorised Capital) एक ऊंचे बिन्दु पर निर्धारित की जाती है तथा निर्गमित पूँजी (Issued Capital) उसका एक भाग ही होती है। इस प्रकार भविष्य में अतिरिक्त इंक्विटी पूँजी की व्यवस्था सीमानियमों में परिवर्तन किये बिना ही सरलता से की जा सकती है।
  3. पूर्ण उपयोगिता (Full Utilisation)- पूँजी की मात्रा एवं वित्तीय आवश्यकताओं में पूर्ण सामंजस्य होने पर ही पूंजी का अधिकतम उपयोग सम्भव हो सकता है। अपर्याप्त पूँजीकरण अथवा आवश्यकता से अधिक पूँजीकरण दोनों ही अवांछनीय है। पूँजी के जलयुक्त (watered) हो जाने पर भी उसकी उपयोगिता कम हो जाती है। अतः पूर्ण उपयोगिता के लिए उचित पूँजीकरण (Fair Capitalisation) अनिवार्य है।
  4. तरलता (Liquidity) – स्थिर सम्पत्ति एवं तरल सम्पत्तियों में क्या अनुपात रखा जाय- यह प्रत्येक व्यवसाय की प्रकृति एवं प्रत्येक कम्पनी के आकार आदि कई परिवर्तनशील तत्वों पर निर्भर होता है। तरल सम्पत्तियों से यहाँ आशय चल सम्पत्तियों से है, किन्तु सही अर्थों में तरल सम्पत्तियों में रोकड़ बैंक में जमा राशियाँ, चालू विनियोग तथा प्राप्तियों (Receivables) को सम्मिलित किया जाता है। आवश्यकता से अधिक तरलता (Liquidity), शोधनक्षमता (Solvency), में वृद्धि करके जोखिम को कम करती है, किन्तु साथ ही इससे लाभदायकता (Profit- ability) में कमी हो जायेगी। इसके विपरीत आवश्यकता से कम तरलाता शोधनक्षमता कम करके जोखिम को बढ़ा देती है, किन्तु साथ ही यह लाभदायकता में वृद्धि कर सकती है। अतः तरल साधनों में कोषों के विनियोग को उचित सीमा में बनाये रखना आवश्यक होता है।
  5. न्यूनतम लागत (Minimisation of Costs)- पूँजी उपलब्धि के विभिन्न साधनों की लागत समान नहीं होती है- कुछ साधनों से पूँजी प्राप्त करने में लागत अधिक एवं अन्य साधनों से पूँजी प्राप्त करने में कम लागत होती है, अतः पूँजी मिश्रण (Capital Mix) ऐसा होना चाहिए जिसे प्राप्त करने और व्यवसाय में प्रयोग में लाने की लागत न्यूनतम हो। पूँजी की धारयुक्त औसत लागत (Weighted Average Cost of Capital) के आधार पर इसे निर्धारित किया जा सकता है। यह लागत वस्तुतः पूँजी के महँगे एवं सस्ते साधनों की एक औसत लागत का परिचायक होती है।
  6. अधिकतम लाभ (Maximisation of Return)- किसी कम्पनी के लिए सर्वोत्तम या आदर्श पूंजी-ढाँचा वह होगा जिसके आधार पर कम्पनी की लाभादायकता (Profitability) में अधिकतम वृद्धि होती हो। वैसे लाभदायकता का सम्बन्ध पूँजी-ढाँचे के अतिरिक्त प्रबन्ध की कुशलता एवं सामान्य आर्थिक स्थिति से अधिक है, भी जहाँ तक पूँजी-ढाँचे का सम्बन्ध है न्यूनतम लागत पर प्राप्त की गयी पूँजी लाभ में वृद्धि कर देगी, साथ ही समय पर पर्याप्त पूँजी साधनों की सुविधा अनेक प्रकार के अपव्ययों को रोककर बचत में वृद्धि कर सकेगी। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि पूंजी ढाँचे में ऋण- पूंजी का अनुपात ऐसा होना चाहिए कि जिसके आधार पर अंशधारियों को अधिकतम प्रति अंश आय (Earnings per share) का लाभ प्रदान किया जा सके। ऐसी स्थिति में परिचायक पूँजी-ढाँचे को अनुकूलतम पूँजी-ढाँचे (Optimum Capital Structure) की संज्ञा प्रदान की जाती है।
  7. न्यूनतम जोखिम (Minimisation of Risks)- व्यवसाय में अनेक प्रकार के जोखिम सदैव विद्यमान रहते हैं, जैसे करों में वृद्धि, लागतों में वृद्धि, मूल्यों में कमी, ब्याज की दरों में वृद्धि आदि। इन जोखिमों का कम्पनी की आय पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। अतः कम्पनी का पूँजी ढाँचा इस प्रकार का होना चाहिए कि जिससे इन जोखिमों के बोझ को सहजता से सहन किया जा सके। विशेष रूप से व्यावसायिक जोखिम (Business Risk) एवं वित्तीय जोखिम (Financial Risk) से बचाव के लिए पूँजी ढाँचे में समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए। व्यावसायिक जोखिम से आशय बाजार की मंदी या माँग में कमी के कारण उत्पन्न संकट से है जबकि वित्तीय जोखिम से तात्पर्य परिचालन लाभों (Operating profits) में कमी के कारण उत्पन्न प्रतिकूल स्थिति से है। इन जोखिमों को समाप्त करना तो व्यवसाय के बूते से बाहर होता है, किन्तु उत्तम पूँजी ढाँचा इनका सामना करने की सामर्थ्य अवश्य प्रदान करता है।
  8. अधिकतम नियन्त्रण (Maximisation of Control) – कम्पनी का नियन्त्रण साधारण अंशधारियों (Equity Shareholders) के हाथों में रहता है, क्योंकि मतदान का अधिकार इनको ही प्राप्त होता है अधिमान्य अंशधारियों एवं ऋणपत्रधारियों को ऐसा कोई अधिकार सामान्यतः प्राप्त नहीं होता है। यही कारण है कि नये इक्विटी अंशों का निर्गमन राइट्स अशों (Right Shares) के आधार पुराने अंशधारियों को उनके द्वारा धारित अंशों के अनुपात में किया जाता है जिससे कि उनकी मतदान शक्ति (Voting Power) यथावत् बनी रहे।
वित्तीय प्रबंधन – महत्वपूर्ण लिंक

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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