अर्थशास्त्र / Economics

विकुंचित माँग वक्र परिकल्पना | विकुंचित माँग वक्र | विकुंचित माँग रेखा के सिद्धान्त की आलोचना

विकुंचित माँग वक्र परिकल्पना | विकुंचित माँग वक्र | विकुंचित माँग रेखा के सिद्धान्त की आलोचना

विकुंचित माँग वक्र परिकल्पना का परीक्षण

अल्पाधिकार में कीमत स्थिरता के सम्बन्ध में बहुत-सी व्याख्याएँ प्रस्तुत की गयी हैं परन्तु सबसे लोकप्रिय व्याख्या विकुंचित (Kinked) माँग वक्र परिकल्पना की है। विकुंचित माँग वक्र परिकल्पना का प्रतिपादन पॉल एम० स्वीजी (Paul M. Sweezy) ने, जो एक अमेरिकन अर्थशास्त्री हैं, विकुंचिंत माँग वक्र परिकल्पना अल्पाधिकार में कीमत-निर्धारण की व्याख्या नहीं करती; यह केवल इतना बताती है कि जब एक बार अल्पाधिकार में कीमत निर्धारित हो जाती है तो यह अपरिवर्तित या स्थिर क्यों रहती है। इस परिकल्पना अनुसार, अल्पाधिकारी जिस माँग वक्र का सामना करता है, उसमें वर्तमान कीमत के स्तर पर विकुंचन (kink) होता है। विकुंचन वर्तमान कीमत-स्तर पर इसलिए होता है क्योंकि माँग वक्र का वह भाग जो वर्तमान कीमत से ऊपर है अत्यन्त लोचदार होता है और वर्तमान कीमत से माँग वक्र का नीचे का भाग बेलोचदार होता है।

मान्यताएँ-

(1) फर्मे कीमत युद्ध के भय से वस्तु विभेद युक्त तथा वस्तु विभेदहीन दशाओं में बिना किसी गठबन्धन के एक कीमत अथवा कीमत समूह की स्थापना कर सकती है जो कि सभी के लिए सन्तोषजनक है।

(2) फर्मे परस्पर संवेदनशील क्रियाओं तथा प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप मूल्य में यथोचित परिवर्तन करेंगी, ताकि वे बाजार में अपने हिस्से को बनाये रख सकें।

(3) कीमत-बढ़ाने वाली फर्म के ग्राहक अब सापेक्षिक रूप से (relatively) नीची कीमत वाली फर्मों की तरफ चले जायेंगे और कीमत बढ़ाने वाली फर्म बाजार में अपने हिस्से का पूरा भाग नहीं, तो कम से कम एक भाग, अवश्य खो बैठेंगी।

विकुंचित माँग वक्र का अभिप्राय

ऊपर दी गई मान्यताओं में से मान्यता नम्बर 2 तथा नम्बर 3 का परिणाम यह होता है कि वर्तमान कीमत (existing price) पर एक फर्म की माँग रेखा में ‘तीव्र मोड़’ (sharp bend) या ‘एक कोना’ (A corner of a kink) कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, एक अल्पाधिकारी फर्म ‘एक विकुंचित माँग रेखा’ का सामना करती है। ऐसा एक माँग रेखा को चित्र में दिखाया गया है; माँग रेखा dKD1 [जो ठोस लाइन (Solid line) द्वारा दिखायी गयी है] के बिन्दु K पर ‘विकुंचन’ (Kink) है।

चित्र में एक अल्पाधिकारी फर्म के सामने रेखा dKD1 बिन्दु K पर विकुंचन रखती है और यह विकुंचन कीमत P पर है, तथा कीमत P शुरू की सन्तुलन कीमत (intial equilibrium price) है। यह कीमत P दी हुई है, परन्तु यह कीमत कैसे निर्धारित होती है इस बात की व्याख्या यह सिद्धान्त नहीं करता है।

यदि एक फर्म अपनी कीमत को घटाती है [चित्र में कीमत को P से घटाकर P2 करती है। तो मान्यतः नम्बर 2 के आधार पर अन्य फर्मे भी कीमत घटायेंगी, फर्म के सामने माँग रेखा बेलोचदार (inelastic) होगी, जैसा कि चित्र में KD1 रेखा है। ऐसी स्थिति में कीमत घटाने वाली फर्म की बिक्री में वृद्धि बहुत अमहत्त्वपूर्ण या बहुत मामूली होगी जैसा कि चित्र में QQ2 मात्रा बताती है। दूसरी ओर, यदि फर्म कीमत की बढ़ाती है [चित्र में P से बढ़ाकर P1 कर देती है ] तो मान्यता नम्बर 3 के आधार पर अन्य फर्मे कीमतें नहीं बढ़ायेंगी, फर्म के सामने माँग रेखा अत्यधिक लोचदार (highly elastic) होगी जैसा कि चित्र में dK रेखा है। ऐसी स्थिति में कीमत- बढ़ाने वाली फर्म की बिक्री में बहुत महत्त्वपूर्ण कमी हो जाएगी जैसा कि चित्र में QQ1 मात्रा बताती है। इस प्रकार मान्यता नम्बर 2 मान्यता नम्बर 3 के परिणामस्वरूप, एक अल्पाधिकारी फर्म के सामने माँग रेखा प्रारम्भिक सन्तुलन कीमत P से नीची कीमतों पर बेलोचदार हो जाती है, तथा कीमत P से ऊँची कीमतों पर माँग रेखा अत्यधिक लोचदार हो जाती है। दूसरे शब्दों में, प्रारम्भिक कीमत P अर्थात् ‘विकुंचन’ (kink) K पर, माँग की लोच में एकदम परिवर्तन (radical change) हो जाता है। प्रारम्भिक सन्तुलन कीमत P में परिवर्तन करने से फर्मों को कोई लाभ नहीं होगा, अर्थात् कीमत P’दृढ़’ (rigid) या ‘कड़ी’ (sticky) बनी रहती है।

वास्तव में विकुंचित माँग रेखा dKD1 दो भिन्न माँग रेखाओं से बनी है-ये दो भिन्न माँग रेखाएँ dd1 तथा DD1 हैं, जैसा कि चित्र में दिखाया गया है। अधिक लोचदार माँग रेखा dd1 अल्पाधिकारी फर्म की वस्तु की माँग को बताती है, जबकि यह मान लिया जाता है कि बाजार में अन्य  सभी फर्मे अपनी कीमतों को स्थिर रखती हैं। दूसरे शब्दों में, dd1 ‘मार्शल की माँग रेखा’ है जो कि अन्य बातों के स्थिर रहने की दशा के अन्तर्गत निकाली जाती है। कम लोचदार माँग रेखा’ अर्थात् बेलोचदार माँग रेखा उसी एक फर्म की वस्तु की माँग को बताती है जबकि यह मान लिया जाता है कि बाजार में सभी फर्मे एक साथ कीमत में परिवर्तन करती है। जब सभी फर्म एक साथ कीमतें घटाती हैं तो कोई भी एक फर्म अपनी बिक्री को बाजार में किसी भी दूसरी फर्म की बिक्री में कमी के परिणामस्वरूप नहीं बढ़ा सकती है। दूसरे शब्दों में फर्म बजार में केवल अपने हिस्से को ही बनाये रख सकेगी; अत: रेखा DD1 बाजार की मांग में एक फर्म के हिस्से को बताती है। दोनों माँग रेखाओं (अर्थात् dd DD1) के कटराव (Intersection) पर ‘विकुंचन’ (kink) बन जाता है, एक अल्पाधिकारी फर्म विकुंचित माँग रेखा dKD1 का सामना करती है। अत: विकुंचित माँग रेखा dKD1 के ऊपर का भाग ‘मार्शल की माँग रेखा’ है, जबकि dKD1 का नीचे का भाग DK1 बाजार की मांग फर्म के हिस्से को बताता है, अर्थात् नीचे का भाग ‘चैम्बरलिन की माँग रेखा’ है।

अब हम एक अल्पाधिकार फर्म की ‘सीमान्त आगम रेखा’ की विचेचना करते हैं। फर्म की ‘विकुंचित माँग रेखा’ से सम्बन्धित ‘सीमान्त आगम रेखा’ dABC है जैसा कि चित्र में दिखाया गया है औसत आगम रेखा या माँग रेखा में ‘विकुंचन’ होने के कारण सीमान्त आगम रेखा, उत्पादन स्तर Q पर, असंतत है जैसा कि चित्र में AB दिया (Part) बताता है। चित्र से स्पष्ट है कि सीमान्त आगम रेखा का असंतत भाग AB या खाली भाग (gap) AB ‘विकुंचन’ K के नीचे है; तथा उत्पादन स्तर पर विकुंचन कोना K है। सीमान्त आगम रेखा का भाग dK से सम्बन्धित है; माँग रेखा का भाग dK अत्यधिक लोचदार है और इसलिए उसे सम्बन्धित सीमान्त आगम रेखा का भाग dA धनात्मक (positive) है। सीमान्त आगम रेखा का भाग BC माँग रेखा का भाग KD1 से सम्बन्धित समझा जा सकता है; नीची कीमतों पर माँग रेखा का भाग KD1 बेलोचदार है और इसलिए सीमान्त आगम रेखा का भाग BC, एक बिन्दु के बाद, ऋणात्मक हो जाता है।

सीमान्त आगम रेखा में खाली जगह (gap), माँग रेखा के अधिक लोचदार भाग से कम लोचदार भाग में एकदम परिवर्तन के कारण उत्पन्न होता है। विकुंचन से ऊपर माँग रेखा जितनी अधिक लोचदार होगी तथा ‘कोना’ से नीचे माँग रेखा जितनी अधिक बेलोचदार होगी, उतनी ही अधिक ‘खाली जगह’ (gap) या असंतता (discontinuity) सीमान्त आगम रेखा में होगी; तथा खाली जगह अधिकतम (maximum) हो जायेगी जबकि कोण dDK1 90° का होगा।

(क) लागत परिवर्तन का प्रभाव- माना कि एक अल्पाधिकारी फर्म की अल्पकालीन औसत लागत तथा सीमान्त रेखाएँ SAC1 तथा SMC1 हैं जैसा कि चित्र में दिखाया गया है। चित्र से स्पष्ट है कि SMC1 रेखा ‘सीमान्त आगम रेखा’ को उसके असंतत भाग AB में बिन्दु L पर काटती है। अत: उत्पादन Q तथा कीमत P फर्म के लिए अधिकतम लाभ करने वाले उत्पादन तथा कीमत हैं। यदि उत्पादन कम रहता है Q से तो ‘सीमान्त आगम’ अधिक होगा ‘सीमान्त लागत’ से और फर्म के लाभ में वृद्धि उत्पादन को Q तक बढ़ाकर की जा सकेगी। यदि उत्पादन Q से अधिक रहता है, तो ‘सीमान्त लागत’ ‘सीमान्त आगम’ से अधिक होगी और फर्म का लाभ घटेगा। अत: उत्पादन Q तथा कीमत P पर अपने लाभ को अधिकतम करती है। प्रति इकाई लाभ को कीमत P (अर्थात् KQ) तथा औसत लागत रेखा SAC1 के बीच खड़ी दूरी के अन्तर के द्वारा ज्ञात किया जायेगा।

माना कि अल्पाधिकारी फर्म की लागतें बढ़ जाती हैं, तो फर्म की लागत रेखाएँ ऊपर को खिसक जायेंगी और माना कि वे SAC2 तथा SMC2 की स्थिति में आ जाती है जैसा कि चित्र दिखाया गया है। सीमान्त लागत रेखा SMC2 सीमान्त आगम रेखा के असंतत भाग (disconti. nuous segment) में एक बिन्दु (M) पर काटती है, इसलिए सन्तुलन कीमत P तथा उत्पादन Q में कोई परिवर्तन नहीं होगा। अतः जब तक सीमान्त लागत रेखा सीमान्त आगम रेखा के असंतत भाग में काटती रहेगी, तब तक फर्म को अपनी कीमत या उत्पादन में परिवर्तन करने का कोई प्रेरणा, (incentive) नहीं होगी। इसी प्रकार से यदि फर्म की लागतें घट जाती हैं तो लागत रेखाएं, नीचे को खिसक जायेंगी, परन्तु जब तक सीमान्त लागत रेखा सीमान्त आगम रेखा के असंतत भाग में काटेगी, तब तक कीमत-उत्पादन में कोई परिवर्तन नहीं होंगे।

यदि फर्म की लागतें बहुत ऊँची हो जाती हैं और सीमान्त लागत रेखा सीमान्त आगम रेखा के भाग dA (चित्र में) को किसी बिन्दु पर काटती है तो अल्पाधिकारी फर्म अपने उत्पादन का उस सीमा तक घटायेगी जहाँ पर कि MR=MC के हो तथा अपनी कीमत को बढ़ा देगी। इसी प्रकार यदि फर्म की लागतें बहुत गिर जाती हैं ताकि सीमान्त लागत रेखा सीमान्त आगम रेखा के भाग BC को किसी बिन्दु पर काटती है, तो अल्पाधिकारी फर्म कीमत को घटायेगी तथा उत्पादन को उस बिन्दु तक बढ़ायेगी जहाँ पर MR=MC के हों।

चूँकि सीमान्त आगम रेखा असंतत होती है, इसलिए फर्म की लागत रेखाओं को ऊपर चढ़ने या नीचे गिरने के लिए पर्याप्त जगह या क्षेत्र रहता है, और लागतों में इस प्रकार वृद्धि या कमी होने पर भी कीमत में कोई परिवर्तन नहीं होता है जब तक सीमान्त लागत रेखा आगम रेखा के असंतत भाग में काटती रहती है। हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि सन्तुलन कीमत में ही परिवर्तन नहीं होता बल्कि उत्पादन की मात्रा में भी परिवर्तन नहीं होता है, जब तक लागत रेखाएँ असंतत क्षेत्र के अन्दर खिसकती रहती हैं।

(ख) माँग परिवर्तन का प्रभाव- यदि लागतें समान रहती हैं और माँग की दशाओं में परिवर्तन होता है, तो भी, माँग में एक बड़े क्षेत्र तक परिवर्तन (over a wide range of change in demand) होने पर भी, फर्म अपनी वस्तु की प्रारम्भिक सन्तुलन कीमत में परिवर्तन नहीं करेगा। ऐसी स्थिति को चित्र में दिखाया गया है।

चित्र में अल्पाधिकार के सामने प्रारम्भिक ‘विकुंचित माँग रेखा’ dKD1 और उससे सम्बन्धित ‘असंतत सीमान्त आगम रेखा’ dABC है; SAC तथा SMC लागत रेखाएँ हैं और यह मान लिया जाता है कि उनमें कोई परिवर्तन नहीं होता है। प्रारम्भिक विकुंचित माँग रेखा dKD1 के बिन्दु K पर कोना’ है; अर्थात् अल्पाधिकारी फर्म कीमत P तथा उत्पादन Q1 को  चुनती है; सीमान्त लागत रेखा SMC सीमान्त आगम रेखा के असंतत भाग AB में किसी एक बिन्दु पर काटती है, और लाभ को अधिकतम करने वाली कीमत तथा उत्पादन क्रमश:P तथा Q1 है।

माना कि वस्तु की मांग बढ़ जाती है और इसलिए माँग रेखा दायें को खिसक कर dK1D2 की स्थिति में पहुँच जाती है। इस नयी माँग रेखा के बिन्दु K1 पर विकुंचन है। इसी नयी माँग रेखा से सम्बन्धित असंतत सीमान्त आगम रेखा dEFG है, इस नयी सीमान्त आगम रेखा का असंतत भाग EF है जो कि ‘नये ‘विकुंचन’ K1 के ठीक नीचे है।

चूँकि लागत की दशाओं में कोई परिवर्तन नहीं होता है, इसलिए लागत रेखाएँ SAC तथा SMC वह ही रहती है। सीमान्त लागत SMC नयी सीमान्त आगम रेखा के असंतत भाग EF में किसी एक बिन्दु पर काटती है। अत: कीमत P में कोई परिवर्तन नहीं होता है, अर्थात् वह स्थिर या दृढ़ (rigid) रहती है, परन्तु सन्तुलन उत्पादन Q1 से बढ़कर Q2 हो जाता है। इसी प्रकार से यदि माँग घटती है, तो उत्पादन घट जायेगा परन्तु कीमत P वह ही रहेगी, उसमें कोई परिवर्तन नहीं होगा।

परन्तु यदि बाजार माँग में बहुत अधिक वृद्धि हो जाती है, तो माँग रेखा दायें को (dK1D2 की तुलना में) बहुत दूर खिसक जायेगी, और तब सीमान्त लागत रेखा SMC नयी सीमान्त आगम रेखा के भाग dE को किसी बिन्दु पर काटेगी, तथा ऐसी स्थिति में अपने लाभ को अधिकतम करने के लिए, फर्म कीमत में वृद्धि करेगी और उत्पादन में भी वृद्धि करेगी। इसी प्रकार से यदि बाजार माँग में बहुत कमी हो जाती है तो फर्म कीमत तथा उत्पादन दोनों में कमी कर देगी।

उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचन के आधार पर हम निम्नलिखित निष्कर्ष (conclusions) प्रस्तुत करते हैं।

(1) विकुंचित माँग रेखा का सिद्धान्त बिना गठबन्धन के अल्पाधिकार के अन्तर्गत कीमत दृढ़ता’ (price-rigidity) की व्याख्या करता है। परन्तु यह सिद्धान्त इस बात की व्याख्या नहीं करता है कि प्रारम्भिक सन्तुलन कीमत किस प्रकार से स्थापित या निर्धारित होती है।

(2) लागत तथा माँग में परिवर्तन होने पर भी वस्तु की कीमत में परिवर्तन नहीं होता है (अर्थात् कीमत ‘दृढ़’ रहती है) जब तक कि सीमान्त लागत रेखा सीमान्त आगम रेखा के असंतत भाग में से गुजरती है। लागत में परिवर्तन होने पर कीमत ही नहीं बल्कि उत्पादन भी स्थिर (constant) रहता है; परन्तु माँग में परिवर्तन होने पर कीमत तो स्थिर रहती है परन्तु उत्पादन स्थिर नहीं रहता, उत्पादन में परिवर्तन होता है।

(3) कीमत में परिवर्तन तब होता है जबकि माँग की दशाओं या लागत की दशाओं में बहुत बड़े या अधिक परिवर्तन हों।

(4) विकुंचित माँग रेखा का सिद्धान्त अनेक अल्पाधिकारी मॉडलों (Models) में से एक है; और यह एक फर्म के कार्यों के उत्तर में प्रतियोगी फर्मों के व्यवहार के सम्बन्ध में कुछ विशेष मान्यताओं पर आधारित है।

विकुंचित माँग रेखा के सिद्धान्त की आलोचना

विकुंचित माँग रेखा के सिद्धान्त की आलोचना सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक दोनों आधारों पर की गयी है। मुख्य आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं

(1) विकुंचित माँग रेखा को प्रायः व्यक्तिगत बताया जाता है, अर्थात् ऐसी माँग रेखा निर्णय लेने वाले के दिमाग में मौजूद होती है। उसकी वास्तविक माँग रेखा, जो कि वस्तुगती होता है, भिन्न हो सकती है।

(2) विकुंचन (kink) इसलिए उत्पन्न होता है कि फर्म दो मान्यताओं-अर्थात्, कीमत में वृद्धि की अन्य फर्मों द्वारा नकल नहीं की जायेगी; और दूसरे, कीमत में कमी की अन्य फर्मों द्वारा  नकल की जायेगी-को मानकर चलती है।

परन्तु ये मान्यताएँ बहुत उचित नहीं है क्योंकि फर्म इन मान्यताओं को मानने के लिए तब ही तैयार होगी जबकि माँग और लागत की घटनाएँ केवल एक ही फर्म तक सीमित हो। अन्य कम सीमित परिस्थितियों’ में फर्म द्वारा इस प्रकार की मान्यताओं को मानने की सम्भावना बहुत कम होगी।

अत: यह कहा जा सकता है कि विकुंचित माँग रेखा, यदि प्रयोग में लायी जा सकती है,तो वह सीमित परिस्थितियों के अन्तर्गत ही उपयोगी है।

(3) विकुंचित माँग रेखा का सिद्धान्त इस बात की व्याख्या नहीं करता कि प्रारम्भिक सन्तुलन कीमत कैसे स्थापित या निर्धारित की जाती है यह तो प्रारम्भिक सन्तुलन कीमत या वर्तमान कीमत को दिया हुआ मान लेता है और उसके बाद वर्तमान कीमत की ‘दृढ़ता’ की व्याख्या करता है, यह ‘एक कीमत-निर्धारक मॉडल’ नहीं है; और इस ‘मॉडल’ या ‘सिद्धान्त’ का यह एक गम्भीर दोष बताया जाता है।

(4) विकुंचित माँग सिद्धान्त कीमत-दृढ़ता’ को एक पूर्ण व्याख्या नहीं देता है। “निस्सन्देह. जनता द्वारा बदला लेने का डर, विदेश से प्रतियोगिता, उद्योग में सम्भावित प्रवेशकर्ताओं का डर- ये सब बातें भी ‘कीमत-दृढ़ता’ की व्याख्या कर सकती है। विकुंचन के अस्तित्व को सिद्ध करना कठिन होता, अथवा इस बात को मालूम करना कठिन है कि यह व्यवहार में कितना प्रयोग में आता है।”

(5) प्रो० स्टिगलर ने यह बताने का प्रयत्न किया कि विकुंचित माँग रेखा का सिद्धान्त व्यवहार में लागू नहीं होता है। प्रो० स्टिगलर ने सर्वेक्षण द्वारा यह देखा कि वास्तविक जीवन में ‘कीमत-नेतृत्व मॉडल के विभिन्न रूप अधिक पाये जाते हैं अपेक्षाकृत विकुंचित माँग रेखा के।’

निष्कर्ष

यद्यपि इस सिद्धान्त की अनेक आलोचनाएँ की गयी हैं, परन्तु फिर भी यह सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण है क्योंकि जिन बाजारों में किसी निश्चित कीमत-नेतृत्व का रूप उत्पन्न नहीं हुआ है या जिन बाजारों में प्रतियोगियों की प्रतिक्रियाओं के प्रति बहुत अनिश्चितता पायी जाती है, ऐसे बाजारों में विकुंचित माँग सिद्धान्त अभी भी इस बात की एक अच्छी व्याख्या प्रदान करता है कि कीमतें क्यों ‘दृढ़’ रहती हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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