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किशोरावस्था | किशोरावस्था का अर्थ | किशोरावस्या की सामान्य विशेषतायें

किशोरावस्था | किशोरावस्था का अर्थ | किशोरावस्या की सामान्य विशेषतायें

किशोरावस्था – (12 वर्ष से 18 वर्ष तक)

व्यक्ति के विकास में किशोरावस्था तीसरी अवस्था होती है। शिशु बालक होकर अपनी विभिन्न क्षमताओं का पर्याप्त विकास कर लेता है। प्रकृति के अनुसार जो कुछ बची हुई शक्ति प्रकट नहीं हो पाती है, वह किशोरावस्था में तीव्र गति से अग्रसर होती है। प्रो० हैडो ने लिखा है कि “यह एक ऐसा ज्वार है जो ग्यारह या बारह वर्ष की अवस्था में किशोर की नसों में उठने लगता है। इसे किशोरावस्था के नाम जाना जाता है । ज्वार का उपयोग इसके दाढ़ के ही समय में किया जा सके और एक नवीन यात्रा उसकी धारा का अनुकूल दिशा में उसकी शक्ति द्वारा प्रारम्भ की जा सके तो हम सोचते हैं कि इससे व्यक्ति को समृद्धिशाली बनाया जा सकता है। ” सभी दृष्टियों से किशोरावस्था परिपक्व होती है।

(क) किशोरावस्था का अर्थ-

अंग्रेजी में किशोरावस्था के लिए Adolescence शब्द होता है जो लैटिन भाषा के Adolescere शब्द से निकला है। Adolescere का अर्थ है “परिपक्वता की ओर बढ़ना ।” इस प्रकार किशोरावस्था वह काल है जिसमें व्यक्ति परिपक्व बनता है। किशोर में शारीरिक, मानसिक, भावात्मक एवं सामाजिक परिपक्वता बढ़ जाती है, वह अब अपने आप पर निर्भर रहता है और जीवन के महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों को पूरा करने में समर्थ पाया जाता है।

मनोविज्ञानियों ने किशोरावस्था की परिभाषा कई ढंग से की है-

(1) प्रो० ए० टी० जरसील्ड- “किशोरावस्था वह काल है जिसमें विकासोन्मुख व्यक्ति बाल्यावस्था से परिपक्वता की ओर संक्रमण करता है।”

(2) प्रो० कुल्हेन- “किशोरावस्था बाल्यावस्था तथा प्रौढ़ावस्था के मध्य का संक्रमण काल होता है।”

ऊपर के विचारों से स्पष्ट है कि किशोरावस्था जीवन का वह काल है जिनमें व्यक्ति प्रौढ़ता की ओर संक्रमण करता है और अपनी शक्तियों में परिपक्व हो जाता है। इसमें शारीरिक, मानसिक और भावात्मक परिपक्वता बाहर और भीतर से भी आ जाती है। इस प्रकार यह व्यक्तित्व के विकास की सब से जटिल अवस्था है। इस अवस्था में हमें निम्नलिखित विशेषताएँ प्रमुख रूप से दिखाई देती हैं।

(ख) किशोरावस्या की सामान्य विशेषतायें-

किशोरावस्था की बहुतेरी विशेषताएँ ऐसी हैं जिनसे इस अवस्था को सम्बोधित भी किया जाता है जैसे “तूफानी अवस्था”, “पुनरावृत्ति की अवस्था”, “प्रौढ़ावस्था की तैयारी की अवस्था” आदि। इन सभी विशेषताओं की जानकारी करके हम इसके बारे में अधिक अच्छी तरह जान सकते हैं विशेषकर अध्यापकवर्ग जिसके सामने आज “तूफान” खड़ा रहता है।

(i) तूफान, तनाव और परेशानी- किशोरावस्था बड़े दबाव और तनाव, तूफान और संघर्ष का काल होता है। भीतर और बाहर इतना परिवर्तन पाया जाता है कि वह उसी में उलझ जाता है और उससे मुक्त करने में सारा तूफान, तनाव, संघर्ष उसे करना पड़ता है। और अस्त-व्यस्त हो जाता है। उसके सामने तमाम परेशानी रहती है।

(ii) संक्रान्ति दल के कारण परिवर्तन- किशोर न तो बालक होता है न युवा न प्रौढ़ बल्कि वह युवा प्रौढ़ की ओर संक्रमण करता है। इसालेए उसमें प्रकृति के द्वारा महान शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन होते हैं। घर में घर के बाहर वह अब बड़ा हो जाता है और उसे अपने उत्तरदायित्वों के साथ समायोजन करना पड़ता है। इस प्रकार उसमें काफी परिवर्तन दिखाई देते हैं।

(iii) समस्याओं की बहुलता- चूँकि शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन होते जाते हैं इसलिए निश्चय है कि बहुत सी समस्याएँ भी होंगी। शारीरिक अंगों की पर्याप्त, वृद्धि भावनाओं की प्रबलता संवेगों की अस्थिरता स्वतन्त्र भावना, उत्तरदायित्व की भावना, आत्म निर्भरता आदि के कारण मानसिक संघर्ष, समाज के सदस्य के रूप में काम-काज, इनसे सम्बन्धित समस्यायें किशोर के सामने होती हैं जिनके समाधान में वह जुटा रहता है।

(iv) समायोजन का अभाव- समस्याओं के अधिक होने से संघर्ष करना जरूरी है। भावात्मक अस्थिरता एवं चिन्ता बढ़ती है और फलस्वरूप किशोर अपनी परिस्थितियों के साथ ठीक से समायोजन नहीं कर पाता है।

(v) अस्थिरता- तीव्र परिवर्तनों के कारण किशोर में मानसिक एवं भावात्मक अस्थिरता पाई जाती है। जो योजना वह बनाता है उसकी पूर्ति न होने पर उसे निराशा होती है। उसकी महत्वाकांक्षा उसकी क्षमताओं के परे होती है इसलिए स्थिरता होना स्वाभाविक है।

(vi) अप्रसन्नता, खिन्नता- किशोर आकांक्षाओं के पूरा न होने, समस्याओं से परेशान होने, बड़ों के द्वारा उपेक्षित होते, अपनी क्षमता के कम होने तथा समायोजन न होने से प्रायः दुखी, अप्रसन्न और खिन्न रहा करता है।

(vii) अधिकतम विकास- शारीरिक एवं मानसिक तौर पर सभी क्षमताओं का अधिकतम विकास इस अवस्था में होता है। लम्बाई, चौड़ाई, भार, स्वास्थ्य, शक्ति, बुद्धि, तर्क, चिन्तन, स्मरण आदि सभी में किशोर अधिक-से-अधिक विकास प्राप्त कर लेता है।

(viii) भविष्य की तैयारी की प्रवृत्ति- किशोर अपने भविष्य जीवन की तैयारी में लगा पाया जाता है। उसमें प्रौढ़ों की तरह रुचि, आदत, पाई जाती है। उसी ढंग से वह चिन्तन, कार्य एवं व्यवहार भी करने लगता है।

(ix) विषमलिंगीय आकर्षण- किशोर-किशोरी एक दूसरे के प्रति आकर्षित रहते हैं। इसका कारण काम-प्रवृत्ति का विकास है। यह एक प्राकृतिक घटना होती है।

(x) तीव्र कल्पना- शिशु के समान ही किशोर भी अति कल्पनाशील होता है। अन्तर केवल इतना है कि शिशु वास्तविक एवं काल्पनिक में भेद नहीं कर पाता है। किशोर यह भेद करके भी कल्पना में लीन रहता है। इसी तीद्र कल्पना के सहारे वह भविष्य की योजनायें बनाता है। कभी-कभी किशोर की तीव्र कल्पना दिवा स्वप्न में बदल जाती हैं। कल्पना की सहायता से किशोर कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, चित्रण आदि में व्यस्त पाया जाता है।

(xi) पढ़ने की व्यापक रुचि- किशोर नाना प्रकार के किस्से, कहानी, उपन्यास, कविता पढ़ने की रुचि रखता है। आजकल पाकेट उपन्यास अधिकांश किशोर पढ़ते पाये जाते हैं।

(xii) बहिर्मुखी भावना का विकास- घर से बाहर रहने की प्रवृत्ति बहुत प्रबल इस अवस्था में होती है। घूमना, सिनेमा देखना, पार्टियों में जाना, खेलकूद में भाग लेना, राजनैतिक कामों में हिस्सा लेना, समाज सेवा करना, ये सब किशोर को बहुत अच्छे लगते हैं। उसका ध्यान बाह्यजगत की घटनाओं की ओर ही रहता है।

(xiii) आत्मनिर्भरता की भावना का विकास- किशोर स्वतन्त्रता और आत्मनिर्भरता का अनुभव करता है क्योंकि उसकी सभी शक्तियों काफी विकसित हो जाती हैं। यथासम्भव वह अपने को अपने पैरों पर खड़ा करने की कोशिश भी करता है।

(xiv) स्वतन्त्रता और विद्रोह की भावना- प्रो० बी० एन० झा ने लिखा है कि “किशोर बंधनों से मुक्त होना चाहता है।” इस भावना के कारण वह माता-पिता के आदेश, समाज के नियम, रीति-रिवाज, शासन के कानून आदि का विरोध खुलकर करता है।

(xv) संवेगों की प्रबलता- किशोर-किशोरियों में यह गुण पाया जाता है वे बहुत शीघ्र भावावेश में आ जाते हैं। इनमें आत्मसम्मान का स्थायी भाव प्रबल पाया जाता है। तनिक भी इनकी ओर उपेक्षा हुई कि इनके आत्मसम्मान को चोट पहुँचती है। काम भावना भी बहुत प्रबल पाई जाती है।

(xvi) वीर पूजा की भावना- सभी किशोर-किशोरी अपना आदर्श चुन लेते हैं और उसकी पूजा भी करते हैं। देश के धर्मनेता, राजनीति के नेता, नाटककार, कलाकार, लेखक, विद्यालय के अध्यापक, सिनेमा के अभिनेता, अथवा अपने माता-पिता का आदर्श रखकर किशोर उसी के समान अपने को बनाने की भावना रखता है और चेष्टा भी करता है l

(xvii) समाज कल्याण एवं परामर्थ की प्रवृत्ति का विकास- अपने देश, जाति, धर्म, समाज, पास-पड़ोस सभी को ध्यान में रखकर किशोर काम करता है। इससे स्पष्ट होता है कि उसमें समाज कल्याण एवं परमार्य की प्रवृत्ति होती है और इस अवस्था में उसका विकास होता है क्योंकि किशोर विभिन्न परिस्थितियों में आगे बढ़ता है। किशोरी में यह प्रवृत्ति अधिक पाई जाती है।

(xviii) धार्मिक चेतना का विकास- इस अवस्था में धार्मिक भाव जागृत होते हैं। पूजा-पाठ, मन्दिर-मस्जिद-चर्च में जाना किशोर में पाया जाता है। परन्तु भारत जैसे देश में धर्म एक खिलवाड़ हो गया है और सभी किशोर धार्मिक चेतना से तो नहीं आनन्द प्राप्ति से धर्म प्रवृत्त पाए जाते हैं। सिनेमा की क्रियाओं को दोहराना किशोर का धर्म हो गया है।

(xix) जीवन-दर्शन का निर्धारण- किशोरावस्था में व्यक्ति अपना एक निश्चित जीवन दर्शन बनाने का प्रयल करता है और उसे सामने रखकर अपना जीवन व्यतीत करने का प्रयत्न करता है। इसी आधार पर आज अपने देश में “छात्र-नेता” बनाए गये हैं जिनका जीवन दर्शन छात्रों की समस्याओं के समाधान के लिए हरेक साधन का प्रयोग करना है।

(xx) व्यवसाय चुनने की इच्छा- प्रत्येक किशोर अपने उत्तरदायित्व को समझने लगता है इसलिए वह अपनी जीविका प्राप्त करने के विचार से किसी-न-किसी व्यवसाय को चुनने की इच्छा रखता है। वह आत्मनिर्भर बनने का भी इसी तरह से प्रयत्न करते पाया जाता है। स्वयं या दूसरों से काम-धन्धे के बारे में जानकारी करता है। पत्र- पत्रिकाओं में “आवश्यकता” के स्तम्भ पर दृष्टि डालता है।

(xxi) अपराध प्रवृत्ति का विकास- शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तनों के तीव्र होने से तथा उचित ढंग के समायोजन न कर पाने से किशोर में अपराध की प्रवृत्ति भी बढ़ती है। झूठ बोलना, चोरी करना, राहजनी करना, तस्करी करना, बीड़ी-सिगरेट पीना, जुआ खेलना, कक्षा से भागना और यौन सम्बन्धी दुराचरण करना किशोरों में पाया जाता है।

ऊपर हमने विकास की अवस्थाओं का संक्षिप्त विवरण दे दिया है जिससे उनके बारे में समझा जा सकता है। शिक्षा मनोविज्ञान केवल इस प्रकार के विवरण-विश्लेषण से ही सम्बन्धित नहीं होता है जब तक कि हम उसके शैक्षिक महत्त्व पर भी कुछ विचार न कर लें। इस विचार से नीचे हम विकासावस्थाओं के शैक्षिक महत्त्व पर कुछ विचार प्रकट करेंगे।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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