शिक्षाशास्त्र / Education

बाल्यावस्था | बाल्यावस्था का अर्थ | बाल्यावस्था की सामान्य विशेषताएँ

बाल्यावस्था | बाल्यावस्था का अर्थ | बाल्यावस्था की सामान्य विशेषताएँ

बाल्यावस्था- (6 वर्ष से 12 वर्ष तक)

शैशवावस्था के बाद व्यक्ति बाल्यावस्था में प्रवेश करता है जो क्रम में दूसरी अवस्था होती है। शैशवावस्था के लक्षण धीरे-धीरे लुप्त हो जाने से बाल्यावस्था में अन्य नए लक्षण दिखाई देते हैं। (पूर्व बाल्यावस्था में दोनों अवस्थाओं का मेल पाया जाता है और उत्तर बाल्यावस्था में पूर्ण रूप से नए लक्षण प्रकट होते हैं जिससे दोनों अवस्थाओं की भिन्नता प्रकट होती है। बाल्यावस्था की अपनी जो विशेषताएँ होती हैं वे नीचे दी जा रही हैं।

(क) बाल्यावस्था का अर्थ-

शैशवावस्था के लक्षणों की समाप्ति हो जाने पर बाल्यावस्था का उदय होता है अतएव 5-6 वर्ष की आयु तक बाल्यावस्था का उदय कहा गया है। प्रो० हरलॉक ने इसे “उत्तर बाल्यावस्था” कहा है और इसकी आयु 6 वर्ष से 11-12 वर्ष तक बताई है। बालक वह व्यक्ति होता है जो शिशु से बड़ा होता है। अंग्रेजी में Child शब्द का अर्थ “every young person” बताया गया है अर्थात् जो युवा सदृश हो या सीधे-सीधे कुछ बड़ा हो गया हो, इस जीवन की अवधि को बाल्यावस्था कहा जाता है।

प्रो० हरलॉक के शब्दों में बाल्यावस्था की परिभाषा इस प्रकार दी गई है- “उत्तर बाल्यकाल 6 वर्ष की आयु से यौनिक परिपक्वता के प्रारम्भ, 11 से 12 वर्ष के बीच फैला होता है ।” इस अवस्था में नियमित रूप से बालक विद्यालय जाने लगता है और सामूहिक जीवन व्यतीत करता है इसलिए इसे कुछ लोगों ने “विद्यालय अबस्था” कुछ ने “क्षीण बौद्धिक बाधा” की अवस्था कहा है जिसमें आगामी वयस्क जीवन को पहुँचने के लिए सफल प्रयास किए जाते हैं क्योंकि हालिंगवर्थ ने भी कहा है, “समूह अवस्था’ के अनुसार बाल्यावस्था में भावावेश और आगम टि का अभाव पाया जाता है। अतः अब स्पष्ट हो जाता है कि वाल्यावस्था से तात्पर्य उस अवस्था से है जब विद्यालय की पढाई- लिखाई शुरू होती है, वास्तावेक ढंग से स्थिर भावों के साथ वयस्क जीवन तक पहुँचने के लिए सफलतापूर्वक प्रयल होता है।

(ख) बाल्यावस्था की सामान्य विशेषताएँ-

प्रमुख रूप से बाल्यावस्था में कुछ सामान्य विशेषताएँ या लक्षण पाए जाते हैं। इन विशेषताओं को समझने से अभिभावक एवं शिक्षक दोनों को बालकों को आगे बढ़ाने में सहायता मिलती है और बालक को सफलता दिलाने में उनका योगदान होता है। सामान्य विशेषताएँ निम्न कही गई हैं-

(i) विकास में स्थायित्व और स्थिरता- विकास इस अवस्था में स्थिर एवं मद गति से होता है। शारीरिक एवं मानसिक अंगों की पुष्टि होती है और परिपक्वता की ओर बढ़ने के लक्षण दिखाई देते हैं। प्रो० रॉस ने इस अवस्था को ‘मिथ्या परिपक्वता’ की अवस्था कहा है।

(ii) मानसिक क्रियाओं की दृढ़ता का विकास- बाल्यावस्था में संवेदन, प्रत्ययन, प्रत्यक्षण, निरीक्षण, अवधान, स्मरण, कल्पना, चिन्तन आदि मानसिक क्रियाएँ दृढ़ता के साथ होती हैं। बालक की मानसिक शक्तियाँ स्थिर होकर विकसित होती हैं।

(iii) वास्तविक जगत से सम्बन्ध- बालक शिशु की तरह कल्पना-जगत में विचरण नहीं करता है दल्कि उसका सम्बन्ध वास्तविक जीवन एवं जगत से होता है। प्रो० स्ट्रेग ने लिखा है कि “बालक अपने आपको एक अत्यन्त विस्तृत जगत में पाता है और उसके विषय में शीघ्रातिशीघ्र जानकारी प्राप्त कर लेता है।”

(iv) तीव्र जिज्ञासा- बालक जगत की जानकारी शीघातिशीघ्र करना चाहता है, इससे उसकी तीव्र जिज्ञासा प्रवृत्ति मालूम होती है। बालक चूंकि, अब घर से बाहर निकलता है, बड़े पर्यावरण से परिचय रखता है अतएव तीव्र जिज्ञासा होना स्वाभाविक है।

(v) वास्तविक कल्पना-चिन्तन- बालक अपने चारों ओर की वस्तुओं को देखता है और उनके बारे में दूर तक सोचता विचारता है। यह वास्तव में कल्पना और चिन्तन है न कि शिशु की कल्पना मात्र ।

(vi) बहिर्मुखी भावना- शिशु में अकेलापन पाया जाता है, बालक में बाहर रहने की, पास-पड़ोस के संगी-साथी के साथ खेलने-घूमने की, समाज में काम करने की और समाज को समझने की विशेष भावना पाई जाती है। यही बहिर्मुखी भावना होती है।

(vii) समूह-प्रवृत्ति- बालक अपने साथियों के झुंड में रहता है। यह गिरोह का नेता या सदस्य के रूप में होता है। गिरोह के नेता के आदेश का बालक पालन करते हैं। गुप्त ढंग से वे कार्य करते हैं और समूह की निष्ठा एवं मर्यादा को बनाये रखते हैं। जहाँ भी जायेंगे एक समूह या झुंड में रहेंगे। इससे बालक की समूह-प्रवृत्ति प्रकट होती है।

(viii) संग्रह-प्रवृत्ति- बालक विभिन्न वस्तुओं के संग्रह और संचय की प्रवृत्ति भी रखता है जो इस अवस्था में सक्रिय हो उठती है। इसलिए पुस्तक, खेल के सामान, टिकट, पत्थर के टुकड़े, कीड़े-मकोड़े, गोलियाँ, खिलौने आदि के ढेर वह रखता है। आगे चल कर वह एक वास्तविक बनता है जो जीवन में ज्ञान, धन, सम्पत्ति-संचित कर लेता है।

(ix) खेल की विशेष रुचि- बालक भी खेलों में रुचि रखता है और अधिक समय खेल में देता है। वह दौड़-धूप वाले, सामूहिक तथा गतिशील खेलों में विशेष रुचि रखता है।

(x) आत्म निर्भरता का विकास- बालक में पराश्रितता की कमी पाई जाती है। वह आत्मनिर्भर होने लगता है और अपनी सुरक्षा, सफाई, देख-रेख स्वयं करता है। वह दूसरे के द्वारा काम न किये जाने पर जोर देता है।

(xi) अनुभव में वृद्धि- विभिन्न वस्तुओं एवं व्यक्तियों से परिचय पाने के कारण बालक के अनुभवों की वृद्धि होना स्वाभाविक है। मानसिक शक्तियों की वृद्धि से वह अपने बीते हुये अनुभवों को स्मरण भी रखता है और भाषा के द्वारा उन्हें अभिव्यक्त करने की क्षमता रखता है। इससे उसकी स्मरण शक्ति, अभिव्यक्ति क्षमता एवं भाषा में वृद्धि होती है।

(xii) सुषुप्त काम प्रवृत्ति- बालक अन्य क्रियाओं में लगे रहने से काम भाव से प्रभावित नहीं होता है। वह समलिंगीय समूह में रहता है और विषमलिंगीय लोगों से दूर रहता है। वह माता-पिता की भाव-ग्रन्थियों से भी मुक्त पाया जाता है। इन सभी बातों से स्पष्ट है कि उसकी काम प्रवृत्ति सुषुप्त होती है।

(xiii) नैतिक भावना का विकास- अनुभव की वृद्धि से बालक में नैतिक भावना का विकास होता है। माता-पिता, पास-पड़ोस, साथी-संगी के कार्यों में वह उचित-अनुचित को पहचानने लगता है और उचित के लिए ही इच्छुक रहता है। समाज द्वारा मान्य बातों को वह ग्रहण करता है।

(xiv) सामाजिक भावना का विकास- बालक अपने साथियों के सार, समाज में रहने लगता है और इस सम्पर्क से वह सहयोग, सहानुभूति, सहकारिता, शिष्टता आदि की भावना का विकास करता है। समाज के कार्यों में भाग लेता है और समाज के हित की सोचता है।

(xv) भिन्न रुचियों का विकास- बालकों और बालिकाओं में अलग-अलग रुचियो का विकास होना पाया जाता है लड़के बाहरी कामों में रुचि लेते हैं तो लड़कियाँ घरेलू काम-काज में। फिर भी दोनों में विभिन्न कार्यों के करने की रुचि पाई जाती है। पढ़ने- लिखने, सीने-पिरोने, सजाने, लोगों से मिलने-जुलने, विभिन्न क्षेत्रों में लोगों का स्वागत- सत्कार करने और उनसे मित्रता बढ़ाने की रुचियों का विकास होता है।

(xvi) रचनात्मक कार्यों में आनन्द- सभी बालक बालिका रचनात्मक कार्यों में अधिक आनन्द पाते हैं। इससे स्पष्ट है कि उनकी रचना प्रवृत्ति का विकास होता है। लड़के-लड़कियाँ कला-कौशल के कार्यों में रुचि रखते है जैसे लड़कियाँ गुड़ियाँ आदि तथा लड़के खिलौन, फूल, लिफाफे, गुब्बारे आदि बनाते हैं। सम्भवतः इसी प्रवृत्ति को बढ़ाने के लिए बेसिक शिक्षा में ‘शिल्प’ की शिक्षा की व्यवस्था की गई है।

(xvii) घूमने की प्रवृत्ति का विकास- सर सिरिल बर्ट ने अपने अध्ययन से बताया कि 9 वर्ष के बालकों में बेकार घूमने की प्रवृत्ति पाई जाती है। वास्तव में बालक की जिज्ञासा प्रवृत्ति उसे इधर-उधर घूमने में प्रवृत्त करती है। दूसरे उसकी क्रियाशीलता भी उसे निश्चेष्ट बैठने नहीं देती है। अतएव वह निरुद्देश्य घूमने की प्रवृत्ति को विकसित करता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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