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बाल्यावस्था की विशेषताएँ | बाल्यावस्था के शारीरिक विकास | बाल्यावस्था में मानसिक विकास | बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास | बाल्यावस्था में सामाजिक विकास

बाल्यावस्था की विशेषताएँ | बाल्यावस्था के शारीरिक विकास | बाल्यावस्था में मानसिक विकास | बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास | बाल्यावस्था में सामाजिक विकास

बाल्यावस्था की विशेषताएँ

5-6 वर्ष समाप्त होने पर जीवन की दूसरी विकासावस्या आती है जिसे मनोविज्ञानियों ने बाल्यावस्था कहा है जो 12 वर्ष तक चलती है। इसमें शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक विकास और आगे बढ़ता है। यह हमें जानना है।

बाल्यावस्था के शारीरिक विकास

(1) शारीरिक विकास की गति तेज होती है। लम्बाई, शक्ति और क्रियाशीलता में तीव्र गति से वृद्धि होती इस अवस्था में 105 से० मीटर तक ऊँचाई हो जाती है। लड़कियाँ अधिक लम्बी होती हैं। इसी प्रकार भार में वृद्धि होती है। 35 किलो ग्राम तक भार हो जाता है।

(2) सिर और मस्तिष्क की भी वृद्धि होती है। मस्तिष्क पूरे शरीर के भार का 1/8 भाग होता है। सिर भी शरीर के अनुपात में बढ़ता है। धड़ लम्बा-पतला होता है। मांसपेशियाँ दृढ़ हो जाती हैं। हाथ पाँव में क्रिया की क्षमता बढ़ती है।

(3) क्रियाशीलता आन्तरिक एवं वाह्य दोनों रूपों में बढ़ती है। खेल-कूद, घरेलू व सामाजिक कार्य, सामूहिक गतिशीलता में विकास तेजी से होता है।

(4) इस अवस्था में विकास का स्थायित्व पाया जाता है। शक्तियों पर नियन्त्रण होने लगता है। शरीर परिपक्वता की ओर बढ़ने लगता है।

(5) खाने-पीने की आदत का विकास होता है, स्वच्छता की ओर ध्यान रहता है। सभी कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों का विकास स्वाभाविक ढंग से होता है।

(6) इस अवस्था में स्वास्थ्य अच्छा होता है, रोग दूर रहते हैं, गले की ध्वनि में थोड़ा अन्तर अवश्य आ जाता है।

(7) मनोविज्ञानियों के विचार से प्रतिभाशाली बालकों में सामान्य बालकों की अपेक्षा अधिक विकास होता है। प्रतिभाशाली लड़कियाँ प्रतिभाशाली लड़कों की अपेक्षा आगे होती हैं।

(8) शैशवावस्था की स्थूलता बाल्यावस्था में कम हो जाती है बालकों का शारीरिक गठन सुडौल हो जाता है, वे मोटे नहीं मालूम होते हैं।

(9) बाल्यावस्था में जब दाँत निकल आते हैं जो एक प्रकार से प्रौढ़ता का आगम बताते हैं।

(10) शारीरिक विकास की गति इस अवस्था के अन्तिम वर्षों में धीमी हो जाती है। इस प्रकार शारीरिक विकास लहरदार होता है और पुनः आगे की अवस्था के आरम्भ में तीव्र हो जाता है।

बाल्यावस्था में मानसिक विकास

बाल्यावस्था वृद्धि और विकास के साथ अनुभव एवं ज्ञान की भी बढ़ोत्तरी होती है जिसमें बालक का मानसिक विकास प्रकट होता है। इसमें मानसिक विकास की नीचे लिखी विशेषताएँ पाई जाती हैं।

(1) ज्ञानेन्द्रियों के विकास से बालक में संवेदन एवं प्रत्यक्षीकरण का विकास तीव्रता से होता है। स्थूल एवं सूक्ष्म प्रत्ययों का भी विकास होता है।

(2) ध्यान की क्रिया का भी विकास इस अवस्था में होता है क्योंकि बालक अपने ज्ञानेन्द्रियों पर नियन्त्रण की क्षमता रखता है।

(3) रुचि एवं मन का केन्द्रीकरण भी बालक में अधिक पाया जाता है। इसलिये जिस काम में वह लगता है उसमें पूरी शक्ति से जुटा रहता है।

(4) जिज्ञासा का विकास इस अवस्था में होता है जिस पर वातावरण का प्रभाव पाया जाता है। घर, विद्यालय एवं पास-पड़ोस का वातावरण जिज्ञासा में विकास को उत्तेजित करता है।

(5) स्मृति और कल्पना का भी विकास होता है। वास्तविक परिस्थितियों में रहकर जो अनुभव होता है उसे बालक धारण करता है और आगे की कल्पना भी करता है। इसका प्रकाशन उसके विद्यालयी कार्यों में होता है।

(6) चिन्तन, तर्क एवं निर्णय की शक्तियाँ भी इस अवस्था में विकसित होती हैं। 10- 12 वर्ष की आयु तक बालक पूछे गये प्रश्नों का उत्तर विचारपूर्वक देता है। जिसमें उसकी उपर्युक्त शक्तियाँ स्पष्ट रूप से पाई जाती हैं। लिखाई-पढ़ाई और सृजन में ये शक्तियाँ पाई जाती हैं।

(7) समस्या समाधान और बुद्धि का विकास भी बालक में होता है। 10-12 वर्ष की आयु का बालक जिस विभिन्न वातावरण में अपने को पाता है उसे अपनी योग्यता और बुद्धि के आधार पर हल करता है।

(8) उचित अभिवृत्तियों का निर्माण इस अवस्था में होने लगता है। पढ़ाई-लिखाई, काम-काज, घर-समाज के लोगों के प्रति बाल्यावस्था में उचित अभिवृत्तियों पाई जाती हैं जिसमें वह श्रद्धा, सम्मान और अनुशासन प्रकट करता है।

(9) आत्म चेतना, सामाजिक चेतना एवं व्यक्तित्व का विकास इस अवस्था में पूर्णतया होता है जिससे बालक उचित-अनुचित के लिये विवेकपूर्ण निर्णय लेता है। और तदनुकूल कार्य करता है। व्यक्तित्व का विकास तीर होता है और जो कुछ बनना होता है वह इसी अवस्था में हो जाता है।

(10) मानसिक विकास में भाषा का विकास भी आता है और इस अवस्था में यह विकास भी तेजी से होता है। 12 वर्ष की अवस्था तक प्रायः 5000 शब्दों का ज्ञान हो जाता है। विभिन्न प्रकार के शब्दों का ज्ञान इस अवस्था में होता है। जिनका प्रयोग शिक्षा, खेल कार्य में होता है।

बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास

बाल्यावस्था में प्रायः विकास की स्थिति सुदृढ़ पाई जाती है। इससे संवेगात्मक विकास भी अच्छी तरह होता है।

(1) इस अवस्था में सभी मूल प्रवृत्तियाँ बढ़ती हैं पर स्थित गति से। जिज्ञासा, रचना, सामूहिकता, पलायन आदि मूल प्रवृत्तियाँ विशेष कर आगे बढ़ती हैं।

(2) सहन प्रवृत्तियों का भी विकास होता है। अनुकरण, खेल, सहानुभूति, और संकेत जैसी सहज प्रवृत्तियों का विकास होता है। इसीलिये सामूहिक जीवन की ओर बालक का ध्यान रहता है, माता-पिता व अध्यापक के आदर्श का पालन होता है।

(3) संवेगों के स्थायीकरण से स्थायीभाव, भावग्रंथि एवं भावनियन्त्रण बालक में पाया जाता है। समूह प्रेम, अनुशासन प्रियता, नैतिकता, भय, क्रोध आदि का विकास इस अवस्था में होता है।

(4) टोली या दल में खेलने, घूमने, काम करने की प्रवृत्ति इस अवस्था में अत्यन्त प्रबल पाई जाती है। टोली की सदस्यता, समूह-क्रियाशीलता की भावना अति प्रबल होती है। नेतृत्व की भावना का उदय एवं विकास इस अवस्था में होता है।

(5) विचरण की भावना का विकास, जिज्ञासा एवं सामूहिकता की प्रवृत्ति के फलस्वरूप होता है। इस कारण बालक घर से बाहर रहना पसन्द करता है। पास-पड़ोस के स्थानों का भ्रमण भी करता है।

(6) 9 से 12 वर्ष तक बालक में ‘मुक्त’ भावना का विकास होता है, वह “वयस्कों से मुक्त होकर आनन्द मनाता है”। बालकों में स्वतन्त्र जीवन की ओर बढ़ने की भावना इस प्रकार दिखाई देती है।

(7) स्थायी भावों के विकास के कारण बालक के चरित्र का निर्माण होता है, यह भी उसके संवेगात्मक विकास का एक अंग कहा जाता है। पढ़ने-लिखने, सेवा करने, दूसरों के साथ सहानुभूति करने की आदतें उसके चरित्र का निर्माण करती हैं।

(8) बाल्यावस्था में समलिगी भावना न कि विषम-लिंगी भावना का विकास होता है। इस कारण बासक, बालक के साथ न कि बालिकाओं के साथ रहना पसंद करता है।

(9) संग्रह-प्रवृत्ति का विकास भी इस अवस्था में होता है। इससे बालक वस्तुओं, ज्ञान और अनुभव का संग्रह करने में प्रयलशील पाया जाता है।

(10) आत्म निर्भरता की भावना का विकास आत्म चेतना के कारण होता है। बालक अब माता-पिता के ऊपर अपने दैनिक कार्यों की पूर्ति के लिए आश्रित नहीं होता है। वह स्वयं खाने-पीने, पढ़ने-लिखने, जीवन की दौड़ में आगे रहने में भाग लेता है।

बाल्यावस्था में सामाजिक विकास

आत्म-निर्भरता और स्वतन्त्रता की भावना सामूहिकता की प्रवृत्ति के साथ बालक में सामाजिक विकास को गतिशील बनाती है। इस दृष्टि से उसमें निम्न लक्षण दिखाई देते हैं-

(1) समाज के कार्यों में भाग लेने के लिए बालकों की तत्परता पाई जाती है। घर के काम-काज छोड़कर बालक दूसरे का काम करता है। इसमें उसे गौरव की अनुभूति होती है।

(2) बहिर्मुखी व्यक्तित्व का विकास बालक में होता है। उसमें ऐसे गुण आते हैं जिससे कि वह ‘आत्म’ के स्थान पर ‘पट’ में केन्द्रित पाया जाता है।

(3) समाजीकरण की ओर बालक का बढ़ना देखा जाता है। समाज की परिस्थितियों के अनुकूल अपने को व्यवस्थित करने में बालक लगा पाया जाता है। समाज कल्याण एवं समाज सुधार जैसे कामों में उसकी रुचि पाई जाती है।

(4) टोली बनाने और नेतृत्व करने की प्रवृत्ति के प्रकाशन में बालक की रुचि होती है और यहाँ भी हमें उसका विकास दिखाई देता है। इसलिए इसे टोली अवस्था भी कहा गया है। इसके पीछे “सहकारिता” की भावना पाई जाती है।

(5) अलग-अलग समूहों के निर्माण की भावना इस अवस्था में होती है। इससे खेल- कूद, काम-काज, सेवा-सुश्रूषा में बालकों का समूह अलग और बालिकाओं का समूह अलग होता है।

(6) मित्रों का चुनाव बालक आर्थिक, स्थिति, जाति, स्वभाव, काम के आधार पर करता है। यह भी सामाजिक विकास का एक अंग है।

(7) सामाजिक मान्यता, प्रशंसा एवं स्वीकृति की भावना भी बालकों में पाई जाती है। समाज में उपेक्षित होने पर बालक विद्रोही एवं अपचारी और अपराधी बन जाते हैं।

(8) खेलों के द्वारा सामाजिक सम्पर्क बढ़ता है। उनमें संगठन की क्षमता आती है। समस्या समाधान करने में सभी एक साथ जुटते हैं। एक प्रकार से सामाजिक बुद्धि का विकास होता है।

(9) सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना का विकास इसी अवस्था में होता है। समाज के बड़े लोगों महापुरुषों, देश के नेताओं, देश की चीजों के प्रति श्रद्धा एवं भक्ति का विकास इसी अवस्था में होता है।

(10) विभिन्न प्रकार के समाज-निर्माण से बालक प्रभावित होता है। गृह समाज, विद्यालय समाज, मित्रसमाज, व्यवसाय समाज से प्रभावित होकर बालक उनकी सदस्यता के निर्वाह में प्रयत्नशील पाया जाता है और वास्तविक जीवन की ओर बढ़ता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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