विकास के सिद्धान्त | अभिवृद्धि और विकास का शैक्षिक अभिप्राय | अभिवृद्धि और विकास का शैक्षिक महत्त्व

विकास के सिद्धान्त | अभिवृद्धि और विकास का शैक्षिक अभिप्राय | अभिवृद्धि और विकास का शैक्षिक महत्त्व

विकास के सिद्धान्त

मनुष्य के विकास एवं वृद्धि पर ध्यान दें तो विदित होगा कि यह कुछ सिद्धान्तों पर आधारित होता है ये सिद्धान्त नीचे दिए जा रहे हैं जिनकी जानकारी शिक्षा मनोविज्ञान के अध्ययन करने वालों को होनी चाहिए।

(i) मस्तकाधोमुखी सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार प्राणी का मस्तक पहले विकसित होता है बाद में उसके नीचे के अंगों का विकास होता है। मानव रचना में सिर पहले, फिर धड़, अन्त में हाथ-पैर की अंगुलियों का विकास होना बताया गया है।

(ii) निकटस्थ-दूरस्थ सिद्धान्त- शरीर की धुरी से निकट वाले अंग पहले और धुरी से दूर वाले अंग बाद में विकसित होते हैं, यह इस सिद्धान्त से प्रकट होता है। इसलिए हृदय, फेफड़ा, सीना आदि पहले विकसित होते हैं और हाथ-पैर, अँगुलियाँ बाद में विकसित होती है।

(iii) भिन्नता का सिद्धान्त- हर प्राणी का विकास अलग-अलग होता है, अपने ढंग से होता है। फलस्वरूप हरेक व्यक्ति में शारीरिक एवं मानसिक भिन्नताएँ पाई जाती हैं। विकास की गति एवं दर में भी भिन्नता पाई जाती है।

(iv) सह-सम्बन्ध का सिद्धान्त-प्रत्येक प्राणी के शारीरिक, बौद्धिक, भावात्मक, नैतिक, आध्यात्मिक सामाजिक आदि विकास अलग-अलग होते हैं परन्तु उनमें एक दूसरे के साथ सम्बन्ध पाया जाता है अन्यथा इकाई रूप में व्यक्ति का विकास सम्भव नहीं होता। यह सहसम्बन्ध का सिद्धान्त होता है जिससे सभी विकास परस्पर जुड़े पाए जाते हैं।

(v) “सरल से जटिल की ओर” का सिद्धान्त- व्यक्ति में पहले सरल क्रियाएँ होती हैं बाद में जटिल क्रियाएँ। इस आधार पर पहले स्थूल अंग बढ़ते हैं फिर सूक्ष्म एवं जटिल अंग। इस सिद्धान्त से बालक पहले अंगों का प्रयोग करता है बाद में मस्तिष्क का ।

(vi) पूर्ण से अंश की ओर” का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति पहले अपने सम्पूर्ण शरीर का प्रयोग करता है बाद में वह केवल एक अंश का प्रयोग करता है। शिशु खिलौना पकड़ने में हाथ-पाँद, मुख तथा धड़ भी उठाता है, बाद में वह केवल अपना हाथ ही बढ़ाता है। कुछ लोगों ने इसे “सामान्य से विशिष्ट की ओर” का सिद्धान्त भी कहा है।

कुछ अन्य विद्वानों ने अन्य सिद्धान्तों की ओर भी संकेत किया है जो नीचे दिए जा रहे हैं-

(vii) निरंतर विकास का सिद्धान्त- इसके अनुसार गर्भ धारण होने से लेकर मृत्यु तक प्राणी विकास करता रहता है।

(viii) समान प्रतिमान का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक जाति अपनी जाति के समान एवं अनुरूप विकास के प्रतिमान ग्रहण करती है। मनुष्य, पशु सभी के अपने प्रतिमान होते हैं और इनका अनुसरण लगातार होता है।

(ix) विकास क्रम का सिद्धान्त-जीवन एक क्रम से बढ़ता है। पहले शिशु लेटा रहता है, फिर कुछ उठता है, पुनः बैठता है और अन्त में खड़ा होता है। और सबसे बाद में दौड़ता-फिरता है। शरीर का विकास भी क्रम से होता है। मांस-पेशियों एवं अंगों पर नियन्त्रण में भी एक क्रम पाया जाता है।

(x) निश्चित दिशा का सिद्धान्त- इसके अनुसार विकास की एक निश्चित प्रकृति होती है। जैसे मनुष्य का विकास पशु की अपेक्षा धीमे गति से होता है। हरेक प्राणी में पहले कुछ विकास होता है फिर उसमें स्थिरता आती है पुनः गति बढ़ती है।

(xi) आवांछित व्यवहार के स्वतः दूर होने का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार जो कुछ अवांछित व्यवहार व्यक्ति करता है वह उस अवस्था विशेष के समाप्त होने पर अपने आप दूर हो जाता है। इस प्रकार उसमें परिवर्तन होता है। जैसे शिशु शुरू में कुछ चीजों से डरता है लेकिन कुछ बड़ा होने पर उनको छूने लगता है, उनका प्रयोग करता है।

अभिवृद्धि और विकास का शैक्षिक अभिप्राय या महत्त्व

अभिवृद्धि और विकास का शिक्षा के क्षेत्र में क्या महत्त्व होता है इसे भी थोड़े में जानना जरूरी है। एक दृष्टि से शिक्षा विकास की प्रक्रिया होती है, अतः विकास शिक्षा का आधार है। अभिवृद्धि और विकास में जो परिवर्तन शारीरिक और मानसिक तौर पर होते हैं उन्हीं के आधार पर शिक्षा की व्यवस्था की जाती है और शिक्षा सफल होती है।

अभिवृद्धि और विकास का प्रभाव शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा की विधि भी निर्धारित करने में देखा जाता है। उदाहरण के लिये जिस बालक का शारीरिक और मानसिक विकास तेजी से होता है उसे ऐसी विधि से शिक्षा दी जाती है जो उसके विकास के साथ सम्बन्ध रखे। इसके विपरीत मंद विकास वालों की शिक्षा विधि क्रियात्मक होती है। इन्हें इन्द्रियों के सहयोग से सिखाना सरल होता है। इस प्रकार तीव्र विकास के बालकों की शिक्षा का उद्देश्य सैद्धान्तिक शिक्षा देना तथा मंद विकास के बालकों की शिक्षा का उद्देश्य क्रियात्मक, हस्त-कौशल द्वारा शिक्षा देना होता है। आजकल ‘कार्य-अनुभव’ का यही उद्देश्य रखा गया है।

अभिवृद्धि और विकास का सम्बन्ध पाठ्यचर्या एवं पाठ्य-वस्तु से भी होता है। किस अवस्था में कौन सी शक्ति का विकास कितनी मात्रा में और किस दिशा में होता है, यह बालक की शिक्षा के पाठ्यक्रम एवं पाठ्यवस्तु को निश्चित करने में सहयोग देता है। उदाहरण के लिये शिशु में कल्पना का विकास तीव्र होता है, यही स्थिति किशोर में पाई जाती है। इसलिए विज्ञान के चमत्कार व आविष्कार, कहानी-कविता, गणित का सरल व कठिन कार्य क्रमशः पाठ्यक्रम में रखा जाता है। उच्चकक्षाओं में विकास बहुत अधिक होता है इसीलिये विश्वविद्यालयी (स्नातक व स्नातकोत्तर) कक्षाओं में उच्चस्तरीय पाठ्यवस्तु रखी जाती है। स्नातकोत्तर कक्षा में एक विषय के व्यापक अध्ययन की व्यवस्था होती है। इसका कारण यही विकास व अभिवृद्धि है।

अभिवृद्धि व विकास का सम्बन्ध अध्यापक के व्यवहार विशेषतया कक्षा या विद्यालय के व्यवहार से भी होता है। कुछ छात्र बड़े संवेदनशील होते हैं क्योंकि उनका भावात्मक विकास अधिक होता है। कक्षा में ऐसे लड़कों को डाँटने-मारने से उनकी शैक्षिक प्रगति तक जाती है। कुछ ऐसे छात्र होते हैं जिनमें मानसिक पिछड़ापन तथा भावात्मक पिछड़ापन पाया जाता है। ऐसे छात्रों पर मार-पीट, डाँट-फटकार का कोई असर नहीं पड़ता। इन्हें सहानुभूति के साथ शिक्षा देने से सफलता मिलती है। इस प्रकार अभिवृद्धि एवं विकास का शैक्षिक महत्त्व दिखाई देता है।

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