शिक्षाशास्त्र / Education

शैशवावस्था | शैशवावस्था का अर्थ | शैशवावस्या की सामान्य विशेषताएँ

शैशवावस्था | शैशवावस्था का अर्थ | शैशवावस्या की सामान्य विशेषताएँ

शैशवावस्था (जन्म से 6 वर्ष तक)

प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देने वाली यह अवस्था विकास की पहली सीढ़ी है। जन्मोपरान्त यह शुरू होती है और 6 वर्ष तक चलती है। विकास की दृष्टि से यह बहुत ही महत्वपूर्ण अवस्था है। इसका कारण यह है कि जन्म से लेकर युवावस्था तक जितना भी विकास व्यक्ति का होना होता है उसका अधिकांश शैशवावस्था में ही पूरा हो जाता है। उस अवस्था में विकास की तीव्र गति होती है, भविष्य जीवन की नींव शैशवावस्था में ही पड़ती है। शिक्षा की दृष्टि से इसलिये इसका महत्त्व अधिक कहा जाता है। अधिकतर अभिभावक एवं शिक्षा के अधिकारी इस अवस्था के लिये शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं करते हैं, ऐसी दशा में इस अवस्था का शैक्षिक महत्त्व बढ़ जाता है।

(क) शैशवावस्था का अर्थ-

शिशु होने की अवस्था को शैशवावस्था कहते हैं। शिशु हम उसे कहेंगे जो अपने आप जीवन की सभी क्रियाओं को नहीं कर पाता है और अपने विकास के लिए दूसरों पर आश्रित होता है। अंग्रेजी में शिशु को Infant कहते हैं। Infant में (In+fant) शब्द होते हैं। In का अर्थ “नहीं” होता है और fant का अर्थ “कहना” होता है। इससे यह संकेत मिलता है कि शिशु अबोध प्राणी है जो अपने लिए कुछ “कह नहीं सकता’ अर्थात् दूसरे पर आश्रित रहने वाला व्यक्ति है। इसलिये शैशवावस्था पराश्रितता, असहायावस्था भी कही जाती है। प्रो० को ने लिखा है कि “शैशवावस्था (सामान्य रूप से जन्म से पाँच-छ: वर्ष की आयु तक) जिसमें ऐन्द्रिय प्रणालियों कार्य करने लगती हैं और शिशु रेंगना, चलना और बोलना सीखता है।

(ख) शैशवावस्या की सामान्य विशेषताएँ-

शिशु के प्राकृतिक विकास पर विचार करने से हमें उसकी कुछ प्रमुख बातें दिखाई देती हैं। ये विशेषताएँ सभी मानव शिशुओं में पाई जाती हैं। शैशवावस्था में मनोवैज्ञानिक अध्ययनों के फलस्वरूप निम्नलिखित सामान्य विशेषताएँ मिलती हैं-

(i) पराश्रिता- जन्म से लेकर 5-6 वर्ष की आयु तक शिशु अपने माता-पिता एवं अन्य लोगों पर आश्रित होता है क्योंकि डेढ़-दो साल तक तो शिशु की शारीरिक स्थिति ऐसी होती है कि वह अपने से कुछ कर नहीं सकता। बाद में भी माँ उसे साफ करती, नहलाती-धुलाती, कपड़े पहनाती, भोजन कराती है। अपनी रक्षा, ज्ञानार्जन एवं प्रशिक्षण के लिये शिशु अपने से बड़ों के आश्रित होता है। आयु के बढ़ने के साथ-साथ यह पराश्रितता दूर हो जाती है।

(ii) अपरिपक्वता- जन्म के समय शिशु सर्वथा अशक्त होता है। रोने-चिल्लाने, हाथ-पांव हिलाने के अलावा कुछ दिन तक और कुछ वह नहीं कर सकता। मानसिक क्रिया करने में भी वह -अशक्त रहता है। भाषा बोलने में वह असमर्थ पाया जाता है। संवेगात्मक रूप से भी वह अपरिपक्व होता है। धीरे-धीरे शारीरिक, मानसिक एवं संवेगात्मक क्षमताओं की परिपक्वता आती है।

(iii) अभिवृद्धि और विकास की निरन्तरता- जन्म के समय अत्यन्त अपरिपक्व होने के बावजूद भी शिशु में निरन्तर अभिवृद्धि और विकास होता है। उसके शरीर का आकार, भार मांसपेशियों का गठन, हड्डियों की वृद्धि एवं परिपक्वता तथा सिर से ले कर पैर तक सभी अंगों का बढ़ना और पुष्ट होना निरन्तर पाया जाता है। सम्पर्क से वह भाषा सीखता है, बात करना जानता है और अन्य मानसिक प्रक्रियाएँ विकसित होती रहती हैं। अपने माता-पिता, भाई-बहिन, पास-पड़ोस के लोगों से प्रेम, सहानुभूति, क्रोध, घृणा आदि के संवेगों को भी वह प्रकट करता है। लोगों से मेल-जोल भी 4-5 वर्ष की आयु तक बढ़ाता है। इस प्रकार की अभिवृद्धि एवं विकास लगातार होता रहता है।

(iv) सीखने में तीव्रता- इस अवस्था में सीखने की क्रिया तेजी से होती है। अनुभव बढ़ने के साथ भाषा का ज्ञान बढ़ता है। प्रथम छ: वर्षों में भाषा की वृद्धि तेजी से होती है और शब्द भण्डार बहुत हो जाता है। लगभग 15 हजार शब्द वह सीख लेता है जो आगामी बारह वर्ष के दुगुनी मात्रा होती है। चलना-फिरना-दौड़ना, लोगों के साथ व्यवहार करना, अपने विचार-भाव प्रकट करना भी तेजी से पाया जाता है और ये सब इसी अवस्था में सीखे जाते हैं।

(v) कल्पना की अधिकता- शिशु काल्पनिक एवं वास्तविक जगत में भेद नहीं कर पाता है इसलिये उसमें कल्पना की अधिकता पाई जाती है। खेल में, बातचीत में, प्रेम- व्यवहार में वह कल्पना का ही प्रयोग करता है। रॉस महोदय ने कहा है कि “जीवन की विषम परिस्थितियों की चोटं से अपने को बचाने की वह कोशिश करता है। इसी कारण वह कल्पनाशील होता है ।” झूठ भी वह कल्पना की अधिकता के ही कारण बोलता है। अज्ञानता हो इसका कारण है जो बाद में दूर हो जाता है तो वह झूठ का प्रयोग नहीं करता है।

(vi) अन्य मानसिक क्रियाओं की तीव्रता- शिशु में संवेदन, प्रत्यक्षण, स्मरण- विस्मरण भी तीव्र गति से होता है। अवधान की चंचलता पाई जाती है और किसी एक बिन्दु पर बहुत ही योड़ी देर के लिए ध्यान दे पाता है। तर्क का अभाव अवश्य होता है। फिर भी मानसिक क्रियाओं में तीव्रता पाई जाती है।

(vii) एकान्तप्रियता- शिशु आरम्भ में अकेले रहना पसन्द करता है। कोई साथी न रहने पर भी वह अकेले खेलता है। वह गुड्डे-गुड़ियों को ही अपने साथी होने की कल्पना कर लेता है। धीरे-धीरे उसमें समवयस्कों के साथ खेलने की इच्छा बढ़ती है। आरम्भ में इस प्रकार वह अन्तर्मुखी व्यक्तित्व वाला कहा जाता है।

(viii) मूल प्रवृत्त्यात्मक व्यवहार- शिशु का व्यवहार मूल प्रवृत्तियों से प्रभावित पाया जाता है। उसकी आवश्यकता ही व्यवहार के लिए प्रेरित करती है। भूख लगने पर वह रोता है। मचलना, हठ करना, मनमाना करना उसके मूल प्रवृत्यात्मक व्यवहार हैं। उसे समाज के रीति-रिवाज, परम्परा, नियम की चिन्ता नहीं रहती है।

(ix) अनुकरण की प्रवृत्ति- शिशु अपने चारों ओर जो कुछ क्रिया अन्य लोगों को करते देखता है उसे ही दोहराता है और ऐसी स्थिति में उसमें अनुकरण की प्रवृत्ति पायी जाती है। खेल, बोलचाल, खाने-पीने, घरेलू काम-काज करने में शिशु की अनुकरणशीलता पाई जाती है। इसका कारण मानसिक क्षमता की कम वृद्धि है।

(x) अपनी क्रियाओं की पुनरावृत्ति- प्रो० हंस राज भाटिया ने लिखा है कि “शिशुओं में अपने गतियों एवं ध्वनियों को सुनने की प्रवृत्ति पाई जाती है ।” वास्तव में शिशु के पास कोई अन्य क्रिया करने को नहीं होती है इसलिए वह अपनी ही क्रियाओं को करता है। खाट पर पड़े अशक्त शिशु के लिए अपने हाथ-पाँव मारने की आदत स्वाभाविक है। पड़े-पड़े वह गलगलाता है। क्रियाओं की यह पुनरावृत्ति ही तो है।

(xi) संवेगशीलता की तीव्रता- शिशु में क्रोध, घृणा, आश्चर्य, प्रेम, ईर्ष्या संवेग का प्रकाशन तीव्रता से होता है। ये क्षणिक, अपरिष्कृत और अपरिपक्व होते हैं। इनकी अभिव्यक्ति स्वतन्त्र रूप से होती है इसलिये शिशु स्थान, समय एवं व्यक्ति की परवाह इन्हें अभिव्यक्त करते समय नहीं करता है। धीरे-धीरे वह इन पर नियन्त्रण करना सीख लेता है।

(xii) इन्द्रिय संवेदनों की तीव्रता- शिशु को अपनी ज्ञानेन्द्रियों के एवं कर्मेन्द्रियों के प्रयोग करने की बड़ी इच्छा होती है। छोय शिशु खिलौने को मुँह में डाल लेता है। सभी चीजों को पकड़ने का प्रयल करता है। स्थूल वस्तुओं के माध्यम से वह खेलता है, रचना करता है जैसा कि मॉन्टेसरी एवं किण्डर गार्टेन प्रणाली में शिशु करते हैं। यह इन्द्रिय- संवेदनों की तीव्रता प्रकट करता है। बाद में प्रत्यक्षीकरण होता है और इनके आधार पर अन्य मानसिक क्रियाएँ पूरी होती हैं।

(xiii) आत्म के प्रति तीव्र प्रेम- शिशु अपने आत्म के लिए बहुत प्रेम रखता है, इस कारण कुछ लोगों ने उसे ‘स्वार्थी’ कहा है। अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए वह जिद्द करता है। अपनी चीजों के लिए विशेष प्रेम रखता है और दूसरों को छूने नहीं देता। माता-पिता, भाई और बहिन, सभी अन्य सम्बन्धियों को केवल अपने से सम्बन्ध रखने की इच्छा रखता है। अन्य हिस्सेदारों से वह ईर्ष्या भी रखता है। बाद में वह इस प्रेम को दूसरों के साथ बाँट लेता है।

(xiv) पर्यावरण से अनुकूलन की असमर्थता- अपनी अशक्तता के कारण शिशु अपनी परिस्थितियों के साथ अनुकूलन नहीं कर पाता है। इसीलिए वह रोग-ग्रस्त हो जाता है, मृत्यु तक प्राप्त करता है सामाजिक तौर पर भी वह अनुभवहीन होने के कारण समायोजन करने में समर्थ नहीं होता, इससे अधिकतर शिशु ‘अशिष्ट’ व्यवहार कर देता है।

(xv) काम प्रवृत्ति की सुप्तता- प्रो० फ्रायड और अन्य मनोविश्लेषणवादियों ने खोज निकाला है कि शिशु में काम की प्रवृत्ति सुप्त पाई जाती है और इसलिए उसका प्रकटीकरण दूसरे ढंग से होता है जैसे अँगूठा चूसना, मल-मूत्र करना, दुग्धपान करते समय स्तन पकड़ना या माँ का स्तन यों ही पकड़ना। इसमें उसकी काम-प्रवृत्ति सन्तुष्ट होती है परन्तु यह पूर्णतया सत्यं नहीं मालूम पड़ता। इसी प्रकार से मनोविश्लेषणवादियों ने शिशु में आत्म-प्रेम तथा ‘स्वात्व-प्रेम’ भी होना बताया है। माता के प्रति पुत्र का प्रेम तथा पिता के प्रति पुत्री का प्रेम भी शिशु में बताया गया है जिसे मनोविश्लेषणवादियों ने क्रमशः पितृ-विरोध भावग्रन्थि तथा मातृविरोधी भावग्रन्थि कहा है।

(xvi) नैतिक भावना का अभाव- शिशु को मनोविज्ञानियों ने नैतिकता से परे प्राणी माना है अर्थात् उसे उचित-अनुचित सभी बराबर है। शिशु को परवाह नहीं रहती कि उसका कार्य सामाजिक दृष्टि से स्वीकार्य होगा या नहीं। वह अपनी इच्छा को स्वतन्त्र रूप से प्रकट करता है और आवश्यकता की पूर्ति कर लेता है।

(xvii) स्नेह की भूख- शिशु सभी से स्नेह पाने को भूखा रहता है वह सभी से लिपट जाता है, सभी से स्नेह पाने की कोशिश करता है स्नेह के अभाव में वह मानसिक आघात का अनुभव करता है। और उसके मन में कुण्ठाएँ उत्पन्न हो जाती हैं तथा भाव- ग्रंथियाँ बन जाती हैं अतएव उसके व्यक्तित्व के विकास पर बड़ा प्रभाव पड़ता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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