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व्यक्ति का विकास | व्यक्ति की अभिवृद्धि | विकास का अर्थ | अभिवृद्धि का अर्थ | विकास के कारण | विकास के रूप

व्यक्ति का विकास | व्यक्ति की अभिवृद्धि | विकास का अर्थ | अभिवृद्धि का अर्थ | विकास के कारण | विकास के रूप

व्यक्ति का विकास

जीव के उत्पत्ति से सम्बन्धित सूचनाओं से ज्ञात होता है कि पुरुष (नर) और स्त्री (मादा) के संयोग से गर्भाधान की क्रिया होती है। जीव के गर्भस्थ होने पर सूक्ष्माकार होता है और क्रमशः वह बीज रूप में बढ़ता जाता है। गर्भावस्था में शरीर की रचना होती है और सभी अवयव से युक्त होकर जीव 9 मास बाद जन्म लेता है। अतएव स्पष्ट है कि जीव का विकास गर्भावस्था में ही होता है और जन्म के बाद उसका विकास सभी दृष्टियों से होता है। उसके अंगों की अभिवृद्धि भी लेती है। अभिवृद्धि एवं विकास के परिणामस्वरूप व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इस प्रकार से वृद्धि और विकास में कुछ विशेष सिद्धान्त भी पाये जाते हैं जिनके कारण जीव में कुछ विशेषताएँ समय-समय पर प्रमुख रूप से प्रकट होती हैं और उन विशेषताओं के द्वारा विकास की अवस्थाओं का बोध हमें होता है। अब हमें अभिवृद्धि एवं विकास के सम्बन्ध में कुछ विस्तार से जानना जरूरी होता है और शिक्षा मनोविज्ञान के अध्ययन-विस्तार में इसको सीखने वाले व्यक्ति के सन्दर्भ में शामिल किया गया है।

व्यक्ति की अभिवृद्धि एवं विकास का अर्थ

यदि हम किसी प्राणी को ध्यान से कुछ लम्बे अरसे तक देखें तो हमें साफ मालूम हो जावेगा कि उसमें अभिवृद्धि होती है और उसका छोटा-सा रूप बढ़ कर विकसित होता है। उसका शारीरिक एवं मानसिक विकास उसकी शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं में पाया जाता है, ऐसी दशा में हमें अभिवृद्धि और विकास के अर्थ को समझ लेना चाहिए।

(i) अभिवृद्धि का अर्थ-

अभिवृद्धि में दो शब्द हैं अभि और वृद्धि । अभि का अर्थ है अच्छी तरह से और वृद्धि का अर्थ है बढ़ना। इसलिए जब व्यक्ति शरीर और उसका मन अच्छी तरह से बढ़ता है तो अभिवृद्धि होती है। अंग्रेजी में इसे Growth कहा गया है जिसका अर्थ है क्रमिक बढ़ोत्तरी, प्रगति, विकास । अभिवृद्धि की परिभाषा निम्नलिखित रूप में दी जाती है-

“अभिवृद्धि प्राणी की मनोशरीर प्रक्रिया है जिसके द्वारा वह शक्ति, क्रियाशीलता एवं सृजनात्मकता में वृद्धि करता है और प्रगतिपूर्ण ढंग से परिपक्वता की ओर बढ़ता है।”

अब हमें विकास का अर्थ भी समझना चाहिये । वास्तव में प्राणी की अभिवृद्धि की एक विशेषता यह होती है कि वह स्वतः लगातार होती रहती है। और इस लगातार अभिवृद्धि का परिणाम ही विकास है जो स्वयं भी क्रमशः धीरे-धीरे होता रहता है। इस विचार से प्रो० स्किनर ने कहा है कि “विकास एक क्रमिक और मन्दगति से चलने वाली प्रक्रिया है ।” विकास होने से प्राणी के अवयवों में आन्तरिक एवं बाह्य दोनों प्रकार के परिवर्तन होते जाते हैं। अतएव श्रीमती हरलॉक महोदया ने इसे “परिवर्तन” ही कहा है। इनके शब्दों में “विकास के अन्तर्गत क्रमबद्ध और सुसम्बद्ध परिवर्तनों की प्रगतिशील श्रृंखला शामिल होती है जो परिपक्वता की ओर उन्मुख होती है ।” इस अर्थ से प्रकट होता है कि. मनुष्य में जो शारीरिक, बौद्धिक एवं भावात्मक परिवर्तन होते हैं वे विकास को बताते हैं। विकास होने से प्राणी परिपक्व समझा जाता है। अब साफ ज्ञात हो गया कि विकास भी अभिवृद्धि के समान ही मनोशरीरी प्रक्रिया है और इसका भी लक्ष्य परिपक्वता प्राप्त करना है। वास्तव में विकास गर्भाधान से लेकर सारे जीवन तक होने वाले परिवर्तनों का संचित नाम है। इस सन्दर्भ में एक भारतीय विद्वान का विचार इस प्रकार है-“गर्भाधान से प्रारम्भ होकर जीवन पर्यन्त जीवन प्रसार में शारीरिक एवं मानसिक क्षमताओं के स्वरूप में जो क्रमिक परिवर्तन होते हैं उन्हीं का नाम विकास है।”

परिपक्वता और अभिवृद्धि तथा विकास परम्परा में बहुत समीपी सम्बन्ध मालूम होता है। अतएव हमें परिपक्वता के सम्बन्ध में भी कुछ प्रकाश डालना चाहिए। इस सम्बन्ध में श्रीमती वैलेन्टाइन ने लिखा है कि “परिपक्वन का तात्पर्य पर्यावरण के प्रभावों की अपेक्षा कारकों के कारण पकने, विकास करने से समझा जा सकता है, वस्तुतः यह मान लिया जाय कि जीवन एवं स्वास्थ्य पर्याप्त अनुकूल पर्यावरण रहा ।” इस प्रकार परिपक्वन अर्थात् परिपक्वता की दशा, अभिवृद्धि एवं विकास में बहुत ही समीपी सम्बन्ध है। वास्तव में परिपक्वन आन्तरिक शक्तियों के प्राकृतिक ढंग से होने वाला विकास है जबकि अभिवृद्धि में परिपक्वन एवं पर्यावरण के प्रभाव के कारण विकास होता है। अस्तु, विकास आन्तरिक एवं बाह्य कारणों से व्यक्तित्व में होने वाला परिवर्तन है।

विकास के कारण

शिक्षा मनोविज्ञानियों एवं मनोविज्ञानियों ने विकास के निम्नलिखित कारपा बताये हैं-

  1. परिपक्वन- परिपक्वन की प्रक्रिया से व्यक्ति में आनुवंशिक दाय के फलस्वरूप प्राप्त मूल कणों का स्वतः प्रकटीकरण होता है। इस प्रकटीकरण से मनुष्य में जो परिवर्तन होते हैं उसे ही विकास कहा जाता है। अतः परिपक्वन के कारण परिवर्तन या विकास होता है।
  2. जीवनी शक्ति- हर व्यक्ति के अन्दर जीवनी शक्ति होती है। इसी कारण वह कार्य करता है। प्रो० टी० पर्सी नन के अनुसार यह शक्ति छोटे से बालक को बड़ा आदमी बनाती है। अतएव यह शक्ति उसका विकास करती है और इसलिये यह विकास का एक कारण है।
  3. अस्तित्व के लिए संघर्ष- प्रत्येक प्राणी में जीवनी शक्ति होती है। इसी कारण वह कार्य करता है। यह उसे अपनी परिस्थितियों का सामना करने में सहायता देती है जिससे कि उसका अस्तित्व कायम रह सके। यही प्राणी का अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष होता है। इस संघर्ष के कारण प्राणी में परिवर्तन होते हैं और यही उसके विकास का कारण है।
  4. अधिगम- जीवन के लिये संघर्ष करते समय प्राणी अपने पर्यावरण से जानकारी प्राप्त करता है, यह प्रक्रिया “अधिगम” कहलाती है, और अधिगम के फलस्वरूप प्राणी को अनुभव एवं ज्ञान की प्राप्ति होती जाती है या अभिवृद्धि होती रहती है। इससे वह परिस्थिति के अनुकूल अपने व्यवहार में परिवर्तन करता रहता है। इन सभी प्रक्रियाओं को एक साथ मिला कर भी “अधिगम” कहा गया है। प्रो० गेट्स और अन्य ने लिखा है कि “अनुभव एवं प्रशिक्षण के द्वारा व्यवहार में परिवर्तन-पस्विर्द्धन को अधिगम कहते हैं” इससे स्पष्ट है कि अधिगम भी विकास का कारण है।
  5. परिपक्वन एवं अधिगमन का मिश्रित प्रभाव- व्यक्ति का विकास वास्तव में परिपक्वन एवं अधिगम के मिश्रित प्रभाव के कारण होता है। व्यक्ति में आन्तरिक क्रिया शक्ति आ जाने से अधिगम सरल हो जाता है और इसका प्रभाव विकास पर पड़ता है। उदाहरण के लिये पाँच वर्ष के शिशु से दसवीं कक्षा की हिन्दी या गणित नहीं समझी जा सकती है, इसलिये कि उसका मस्तिष्क परिपक्व नहीं है। फलतः परिपक्वन एवं अधिगम के मिश्रित प्रभाव के कारण विकास होता है।

विकास के रूप

व्यक्ति के विकास कई रूप एवं पहलू पाये जाते हैं। प्रायः व्यक्तित्व के कई पक्ष होने से और उनके विकास होने से ही विकास का रूप भी हमें कई प्रकार का दिखाई देता है। नीचे हम विकास के विभिन्न रूपों की ओर संकेत करेंगे जिनका अध्ययन आज मनोविज्ञानी लोग करते हैं-

(i) शारीरिक विकास- इसका सम्बन्ध व्यक्ति के शारीरिक अंगों से होता है जैसे आकार, भार, लम्बाई और अंगों की क्रियाशीलता का विकास ।

(ii) मानसिक विकास- इसमें हम संवेदन, प्रत्यक्षण, निरीक्षण, स्मरण, कल्पना, चिन्तन, निर्णय, तर्क, बुद्धि आदि की क्रियाओं से सम्बन्धित विकास को शामिल करते हैं।

(iii) संवेगात्मक विकास- प्राणी अपने पर्यावरण के प्रभाव स्वरूप कुछ अनुभूति करता है जो स्वाभाविक होता है। इसके फलस्वरूप उसमें संवेगात्मक विकास होता है।

(iv) नैतिक विकास- मनुष्य में गुण-अवगुण पहिचानने एवं उन्हें अलग करने का विवेक होता है। फलस्वरूप अच्छी चीजों के लिये उसमें स्थायी भाव, मान्यता, आदर्श- स्थापना के गुण पाये जाते हैं। यही उसका नैतिक विकास कहलाता है।

(v) चारित्रिक विकास- जब नैतिकता को अपने आचरण में मनुष्य प्रकट करता है तो वह उसका चरित्र कहा जाता है। इन्हीं का लगातार प्रकाशन चारित्रिक विकास है।

(vi) सामाजिक विकास- व्यक्ति जन्म तो अकेले लेता है परन्तु उसका विकास दूसरों के सम्पर्क में होता है। अतएव वह समाज के साथ चलता-फिरता-बढ़ता है। जब दूसरे के साथ वह समायोजन कर लेता है तो उसमें सामाजिक गुण आ जाता है और इस तरह से दूसरों के साथ मिल-जुलकर रहने, काम करने से व्यक्ति का सामाजिक विकास होता है।

(vii) सौन्दर्यात्मक- व्यक्ति सुन्दर को ही पसन्द करता है और सुन्दर वस्तु की प्रशंसा करता है। जीवन में सुन्दर वस्तु, व्यवहार, आदि का लगातार प्रयोग करने से व्यक्ति में सौन्दर्यात्मक विकास होता है।

(viii) आध्यात्मिक विकास- व्यक्ति में एक आत्मा पाई जाती है जो सूक्ष्म होती है और अदृश्य रूप में आन्तरिक प्रेरणा देती है जिससे व्यक्ति हमेशा अच्छाई की ओर है। परमात्मा की अवधारणा सभी देशों में की गई और मनुष्य की आत्मा जब उस परम आत्मा की खोज में प्रयत्नशील होती है तो मनुष्य का आध्यात्मिक विकास होता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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