समाज शास्‍त्र / Sociology

कृषक आन्दोलन | अवध किसान आंदोलन | बकाश्त आंदोलन | मोपला विद्रोह

कृषक आन्दोलन | अवध किसान आंदोलन | बकाश्त आंदोलन | मोपला विद्रोह

कृषक आन्दोलन

किसानों और खेतिहर मजदूरों ने भी 20वीं शताब्दी में शोषक वर्ग के विरुद्ध आवाज बुलंद की जैसे कि उनके पूर्वजों ने 19वीं शताब्दी में किया था। हालांकि वे पहले की तुलना में अधिक संगठित थे। बीसवीं शताब्दी के किसानों ने राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। विशेषकर गांधी आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। बहुत से राष्ट्रीय नेता भी खेतिहर मजदूर आंदोलन से जुड़ गये और उनके सहयोग एवं मार्ग-दर्शन में मजदूरों में बड़े पैमाने पर जागृति आयी। वे अपने अधिकारों को स्वर देने के उद्देश्य से अखिल भारतीय मंच की स्थापना की। आजादी से पहले बीसवीं शताब्दी में निम्न किसान आंदोलन सक्रिय थे : अवध किसान आंदोलन, मोपला आंदोलन, बरदोली सत्याग्रह, ऑल इंडिया किसान सभा, तिलंगाना आंदोलन और बकाश्त आंदोलन।

अवध किसान आंदोलन

उत्तर प्रदेश का वर्तमान पूर्वी और मध्य क्षेत्र अवध कहलाता था। बड़े-बड़े और शक्तिशाली जमींदार या तालुकेदार की मुख्य रूप से खेतिहर मजदूरों की दयनीय स्थिति के लिये जिम्मेदार थे। मनमानी बेदखली, अत्यधिक माजगुजारी, गैर-कानूनी लंवी, नज़राना आदि शोषण के अनेक रूप थे, जो उस क्षेत्र के लोगों को सहन करना पड़ता था तो और यदि यह सब कारण ही काफी नहीं था तो प्रथम विश्व युद्ध के समान थी असमान छूती मंहगाई ने उनके जीवन को दूभर कर दिया था।

इन परिस्थितियों में खेतिहर मज़दूर पूरी तरह टूट गये और लगातार होने वाली शोषण के विरूद्ध आखिरकार इकट्ठे हो गये। गौरी शंकर मिश्रा, इन्द्र नाराण द्विवेदी और मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में फरवरी, 1918 में उत्तर प्रदेश किसान सभा का गठन हुआ। लेकिन वास्तविक अर्थों में बाबा राय चंद्र ही किसान नेता के रूप में उभरे। उनका जन्म महाराष्ट्र में हुआ था। फिजी से 1917-18 में वापस होने के बाद वे किसानों के बीच संन्यासी के रूप में रहते थे। वे ‘राम चरित मानस’ को अपने हाथों में उठाये गांव-गांव घूमे और जून, 1920 में जौनपुर और प्रतापगढ़ के किसानों को प्रोत्साहित करने के बाद इलाहाबाद पहुंचे।

बकाश्त आंदोलन (1946-4947)

जमींदारों द्वारा जो खेती के उद्देश्य से भूमि किसानों को बटाई पर दी जाती थी उसे ‘बकाश्त’ कहा जाता था। इसके बदले में ज़मीदार उनसे ‘किराया’ वसूल करते थे इस व्यवस्था के तहत ज़मींदार उनसे ज़मान वापस लेकर किसी ओर को बटाई दे सकता था यदि दूसरा उन्हें कुछ अधिक कर अदा करने को राजी होता या किसी और तरीके से कुछ अधिक सहूलतें देने का वादा करता। किसान-मज़दूरों एवं ज़मींदारों के बीच मई, 1946 में गया, मुंगेर, शाहाबाद, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, मधुबनी और भागलपुर में दंगा भड़क उठा। 1948 में सरकार ने ज़मींदार प्रथा समाप्त कर दी और इस तरह किसानों को थोड़ी बहुत राहत मिली।

किसान आंदोलन और राष्ट्रीय आंदोलन में गहरा संबंध थां किसान और उनकी संस्थाएँ, विशेषकर उनकी अखिल भारतीय किसान सभा गांधीवादी आंदोलन में बहुत ही सक्रिय रहे। उन्होंने 1939 के चुनाव में बहुत ही उत्साह के साथ भाग लिया और कांग्रेस के मंत्रियों से अपनी आशाएं बांध लीं। यद्यपि यह भी एक सच्चाई है कि उनके नेताओं ने भारत छोड़ों आंदोलन में खेलकर हिस्सा नहीं लिया लेकिन गरीब किसानों ने खुलकर इस आंदोलन में भाग लिया। हालांकि उनकी वास्तविक समस्याओं की ओर कांग्रेस नेतृत्व ने कोई ध्यान नहीं दिया। जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस को यदि छोड़ दें तो गांधी जी समेत अनेक कांग्रेसी नेताओं केवल लंबे-लंबे दावें ओर वादे किये। राष्ट्रवादी इतिहासकार इसका औचित्य यह बताते हैं कि गांधी जी ने ज़मींदारी प्रथा का विरोध केवल इसलिए नहीं किया क्योंकि वे वर्ग-संघर्ष से बचना चाहते थे। लेकिन अंत में गांधी जी ने भी यह स्वीकार किया कि किसानों की हितों की रक्षा के लिए जमींदारी प्रथा को समाप्त करना ही होगा।

मोपला विद्रोह

19वीं शताब्दी के दूसरे अद्धशतक में केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपाआलो ने कई विद्रोह कियें यह बगावत जमींदारों और विदेशी शासकों के विरुद्ध बहढ़ते असंतोष के कारण फैला था। खेतिहर मज़दूरों को जिन्हें मोपलाह कहते हैं, में ज्यादातर मुसलमान थे। जमींदार जिन्हें क्षेत्रीय भाषा में ‘जेनमी’ कहते हैं, हिंदु थे। शुरू में यह वर्ग संघर्ष के रूप में शुरू हुआ लेकिन बाद में उसने साम्प्रदायिक रूप ले लिया। जमींदारों में अधिकांश जगहों पर इस आंदोलन को दबाने की कोशिश की ओर कहीं-कहीं उन्होंने बागियों के शरीर को दाग दिया। 1882 और 1885 के बीच इन दोनों समूहों के बीच संघर्ष और तेज हो गया। मोपला ने ज़मींदारों के घरों और सम्पत्तियों को लूटना शुरू कर दिया। ये उनके घरों में आग भी लगाने लगे।

‘मोपला’ और ‘जेनमी’ दोनों की समूह अपने पक्ष में लोगों को तैयार करने के उद्देश्य से अपने धर्मों का हवाला देने लगे इस दंगे में मंदिरों और धार्मिक स्थानों को भी निशाना बनाया गया। बहुत से मोपलाओं ने उस समय आत्महत्याएं भी कर लीं, जब उन्हें पुलिस ने चारों ओर से घेर लिया। उन्हें अपनी जान त्यागते समय यह पूरा विश्वास था कि इस तरह वे शहीद हो रहे है और अल्लाह के यहां उन्हें इसका अच्छा बदला मिलेगा और क़ियामत के दिन उनसे पूछ-ताछ नहीं होगी।

जान देने वालों में लगभग सभी गरीब मज़दूर थे हालांकि उन्हें मुस्लिम जमींदारों एवं व्यापारियों की सहानुभूति प्राप्त थी।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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