समाज शास्‍त्र / Sociology

लौकिकीकरण | लौकिकीकरण का अर्थ एवं परिभाषा | लौकिकीकरण की विशेषताएं | लौकिकीकरण के क्षेत्र | लौकिकीकरण के प्रभाव | लौकिकीकरण के प्रमुख कारण

लौकिकीकरण | लौकिकीकरण का अर्थ एवं परिभाषा | लौकिकीकरण की विशेषताएं | लौकिकीकरण के क्षेत्र | लौकिकीकरण के प्रभाव | लौकिकीकरण के प्रमुख कारण

लौकिकीकरण का अर्थ एवं परिभाषा

सामान्यतया लौकिकीकरण की प्रक्रिया में हिन्दू धर्म अधिकाधिक, यद्यपि बहुत मन्द गति से अपनी जाति, सगोत्रता और ग्रामीण समुदाय वाले पारमपरिक सामाजिक ढाँचे से विलग होता जा रहा है, और राज्य, राजनीतिक दलों और भारतीय संस्कृति के प्रोत्साहन संगठनों से जुड़ता जा रहा है। पारम्परिक संस्थाओं जैसे- मठों, मन्दिरों सन्तों के पन्थों, भजन-मण्डलियों, तीर्थयात्राओं में लचीलापन और नीवन परिस्थितियों के अनुरूप ढलने की क्षमता दिखाई पड़ती है। फिल्म, रेडियों, टेलीविजन, पुस्तकें और समाचार-पत्र एवं पत्रिकायें जैसे सामूहिक हिन्दू धर्म को जनता के सभी वर्गों तक पहुंचने में योग दे रहे हैं और लोकप्रिय बनने की इस प्रक्रिया में धर्म की पुनर्व्याक्ष्या कर रहे हैं।

लौकिकीकरण सांस्कृतिक परिवर्तन की वृहत्तम कोटि के अन्तर्गत परिवर्तन के एक विशिष्ट वर्ग को निरूपित करता है। इका मतलब यह नहीं है कि इसमें (लौकिकीकरण में) धर्म के स्थापित विश्वास के प्रति अस्वीकृति अथवा इसकी साख समाप्त करने जैसी कोई बात है। हालांकि यह विचारों में धार्मिक प्रभुत्व, विश्वास एवं व्यवहार से एक प्रकार की मुक्ति की क्रिया अवश्य है। लौकिकीकरण धर्म का प्रतिस्थापन (अलौकिक में विश्वास जो मानवीय विचार एवं क्रिया को संचालित करता है) तर्क अथवा दलील द्वारा करता है। लौकिकता धार्मिक सहिष्णुता को एक ऐहिक अथवा लौकिक नीति की भाँति समाविष्ट करती है, गोरे (Gore) कहते है- “लौकिकीकरण स्वयं अधार्मिक नहीं भी हो किन्तु यह ऐसी नीति अवश्य है जो अधार्मिक है लौकिकीकरण व्यवहार अथवा क्रिया के निदेशक की भाँति बौद्धिकता अथवा तार्किकता की दृढ़ स्वीकृति पर निर्भर करता है।” श्रीनिवास (Srinivas) धार्मिक प्रथाओं को समाप्त करने, समाज के विभिन्न पक्षों में बढ़ते विभेदीकरण, उसके इस परिणाम के साथ जो कि समाज के आर्थिक, राजनैतिक, वैधानिक एवं नैतिक पक्षों की एक-दूसरे से पृथकता बढ़ा रहा है और बौद्धिकता जिसमें आधुनिक परम्परागत विश्वास एवं विचार का स्थान लिया जाता है, की तरह लौकिकीकरण को रेखांकित करते हैं लोमिस (Lomis) (1971 : 303-11) लौकिकीकरण का सन्दर्भ भारतीय परिप्रेक्ष्य में जाति-व्यवस्था एवं पवित्रता से सम्बन्धित मानक से विचलन की भाँति है।

अतः स्पष्ट है कि लौकिकीकरण में धर्म पुनक्ष्यिा, बुद्धिवाद और तर्क का स्पष्ट सम्बन्ध मानक विचलन की भाँति है।

इसे दूसरे शबदों में ऐसे भी कह सकते हैं कि परम्परागत मान्यताओं को दृष्टिगत रखते हुए काल एवं सन्दर्भ विशेष के अनुरूप किया गया आचरण ही लौकिकीकरण का परिणाम हैं यद्यपि लौकिकीकरण का प्रभाव सम्पूर्ण भारतीय नागरिकों पर पड़ा तथापि इसका विशेष प्रभाव हिन्दुओं पर पड़ा।

लौकिकीकरण की विशेषताएं

धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) धार्मिक भावना में कमी (Decreasing of Religious Feeling) (2) विभेदीकरण की प्रक्रिया (Process of Discrimination) (3) विवेकशीलता का विकास (Development of Rationalization) (4) वैज्ञानिक दृष्टिकोण (Scientific Attitude)

लौकिकीकरण के क्षेत्र या प्रभाव

(1) पवित्रता औरअपवित्रता की धारणा (Concept of Holiness and Impureness)-  भारतीय जीवन शैली और समाज रचना में पवित्रता और अपवित्रता की धारणाओं का बड़ा प्रभाव रहा है। पवित्रता को विभिन्न अर्थों में समझा जाता है, जैसे- स्वच्छता, सदाचरण और धार्मिकता। इसी प्रकार अपवित्रता को भी मलिनता, दुराचरण और पाप, इत्यादि अर्थों में प्रयोग किया जाता है। भारत में जातियों के बीच की दूरी का निर्धारण ऊँची जातियों की पवित्रता और नीची जातियों की अपवित्रता की धारणाओं के आधार पर किया जाता है। जो जातियां ऊंची बनना चाहती हैं वे संस्कृतिकरण के द्वारा अधिक पवित्रता की ओर बढ़ती हैं। जाति सोपान ऊंची जातियों के व्यवसाय, भोजन, रहन-सहन, पवित्रता की धारणा से परिभाषित किये जाते हैं।

पवित्रता और अपवित्रता की धारणाएँ वस्त्रों और जीवनचर्या को भी प्रभावित करती रही हैं। विभिन्न अवसर जैसे-श्राद्ध आदि पर बाल बनवाना ओर स्नान भी इसी आधार पर अनुचित माना जाता है। डॉ. श्रीनिवास ने इस सम्बन्ध में अपना अनुभव बताया है कि उन्होंने अनुसन्धान कार्य के समय रामपुर ग्राम के मुखिया के घर पर स्नान के पश्चात् हजामत बनायी तो उन्हें डॉट सुननी पड़ी थी। स्त्रियों और बूढ़े पुरुषों द्वारा अपवित्रता सम्बन्धी नियमों का अधिक कट्टरता से पालन किया जाता है। धार्मिकता का अर्थ पवित्रता समझा जाता है और पाप का अर्थ अपवित्रता। यही कारण है कि विशेष रुप से पवित्र नदियों में स्नान, हरिकथा, मन्दिर दर्शन और पूजा, उपवास, प्रार्थना, आदि को अभी तक लौकिक संसासर के चक्र से ऊपर धार्मिक संसार की वस्तुएं समझा जाता रहा है।

(2) हिन्दू समाज एवं धर्म के सुधार और उनकी पुनर्व्याख्या (Reformation in Hindu society and Religion and their Reinterpretation)-  अठारहवीं शताबदी में हिन्दू धर्म तथा तत्कालीन समाज में कुछ विकृतियाँ एवं कुरीतियाँ व्याप्त हो गई थीं जैसे-सती प्रथा, ठगी, मानव बलि, बालिका हत्या, दास प्रथा, अस्पृश्यता, धार्मिक वेश्यावृत्ति, बहुविवाह, बाल-विवाह, समुद्री यात्रा पर पारम्परिक प्रतिबन्ध, दहेज प्रथा आदि। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में हिन्दू धर्म तथा समाज की इन्हीं कमजोर नसों को पकड़कर, ईसाई धर्म प्रचारक अति शीघ्र इनके उच्छेद हेतु आह्वान करते हुए तुलनात्मक दृष्टि से ईसाई धर्म की श्रेष्ठता को स्थापित करने का प्रयत्न करते थे। यद्यपि नये हिन्दू अभिजन इन प्रहारों से अत्यधिक रुष्ट थे, परन्तु उनका स्वयं इस हद तक पश्चिमीकरण (Westernization) हो चुका था कि वे अपने धर्म को आलोचनात्मक दृष्टि से देख सकें और वैदिरक ब्राह्मणों में जिनकी संस्कृत-ज्ञान के कारण ख्याति थी, उनका लोग सम्मान तो करते रहे, परन्तु आधुनिक स्कूल-कालेजों में संस्कृत की शिक्षा प्रारम्भ होने से भाषा के ऊपर उनका महत्वदायक एकाधिकार समाप्त होने लगा। संस्कृत का ज्ञान कम-से-कम सिद्धान्त रूप में जाति और धर्म से स्वतन्त्र, हर व्यक्ति के लिए खुल गया। इसी के समानान्तर विगत कुछ दशकों से विज्ञान, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा-विज्ञान, इंजीनियरिंग, प्रौद्योगिकी. कम्प्यूटर आदि की शिक्षा अन्य सामान्य विषयों की तुलना में, प्रतिष्ठापरक हुई है। अतः ब्राह्मण पुरोहित निरन्तर लौकिक ब्राह्मणों द्वारा जीवन के लौकिकीकरण के विरुद्ध लड़ते रहे। इस सन्दर्भ में एन, गिस्ट का कान है कि, “मैसूर राज्य में स्थानीय हिन्दुओं में ब्राह्मण ही सबसे अधिक नागर और शिक्षित हैं।

शिक्षा में पहले से और आगे बढ़े होने के कारण इन्हें ही ऊंची सरकारी नौकरियों में बड़ा हिस्सा मिला और पेशों में भी उन्हीं की प्रधानता रही। उनकी जीवन-शैली में क्रमशः परिवर्तन होने के कारण उनके तथा पुरोहित के बीच संघर्ष शुरू हुआ। बहुत से पश्चिमी ढंग के वस्त्र पहनने लगे, अपने कार्य के सिलसिले में बहुत सी जातियों और धर्मों के लोगों से उन्हें मिलना पड़ता और विभित्र दैनिक कृत्यों का वे पहले की भांति कठोरता से पालन नहीं कर पाते थे। बहुत लोग बाल कटवाने लगे थे जो शिखा रखने के वैदिक नियम के विरुद्ध पड़ता था, वैसे ही जैसे रोज हजामत बनाने की आदत अन्य नियमों का उल्लंघन होता था। इन पथभ्रष्टताओं ने तथा इनके साथ-साथ मस्तक पर जातिसूचक तिलक लगाना छोड़ने और लौकिक वस्त्रों में भोजन के लिए बैठ जाने की प्रवृत्तियों ने पुरोहितों को बड़ा क्रुद्ध कर दिया। इनसे भी गम्भीर था खान-पान के नियमों का उल्लंघन और युवती होने पर लड़कियों का विवाह। ये सब काम करने वाले लोगों के पास शक्ति और प्रतिष्ठा थी पर धीरे-धीरे मामूली लोग भी उनका अनुकरण करने लगे। अंग्रेजी राज के प्रारम्भिक दिनों को छोड़कर, पुरोहितों में अपने शक्तिशाली संरक्षकों को जाति से बाहर करने की हिम्मत न थी और जब लौकिकीकरण ब्राह्मणों में भी फैलने लगा तो अनिवार्यता के आगे सर झुकाने के सिवाय कोई दूसरा चारा न बचा। इस बीच स्वयं पुरोहितों की जीवन-शेली में थोड़ा-थोड़ा पश्चिमीकरण हुआ।”

कर्मकाण्डों में परिवतर्दयन की प्रक्रिया (Process of Change in Rituals)-  लौकिकीकरण की प्रक्रिया से प्रभावित होने वाला एक अन्य क्षेत्र हैं- जीवन-चक्र का कर्मकाण्ड। जीवन के विभिन्न कालों में सम्पन्न होने वाले विभिन्न संस्कारों में कुछ संक्षेप हुआ है किन्तु इसी के समानान्तर उनके नितान्त सामाजिक पक्षों (Social Aspects) को कुछ विशिष्ट महत्व प्राप्त हुआ है। कुछ संस्कारों को छोड़ने की प्रवृत्ति प्रारम्भ हो गयी है यथा- नामकरण, चौल, उपाकर्म आदि संस्कार कुछ दशक पूर्व तक लड़कियों हेतु यौवनारम्भ पर विस्तृत कर्मकाण्ड किये जाते थे जो अब सुषुप्त अवस्था को प्राप्त हैं। इसी प्रकार अब मृत पति के दाह-संस्कार के अंग के रूप में विधवा का मुण्डन भी अधिकांशतः नहीं किया जाता है। यथार्थतः दाह-संस्कार एवं वार्षिक श्राद्ध ही पूर्व की सी कट्टरता से किये जाते हैं, यद्यपि इनमें भी संस्कार में भाग लेने वाले सगोत्र समूहों के सम्बन्ध कुछ परिवर्तित हुए जान पड़ते हैं। सगोत्र लोगों के बड़े क्षेत्र में बिखर जाने के कारण भी यह परिवर्तन हुआ है।

लौकिकीकरण के प्रमुख कारण

लौकिकीकरण के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

(1) आधुनिक शिक्षा प्रणाली।

(2) समाज सुधार आन्दोलन।

(3) यातयात व सन्देशवाहन के साधनों का विकास।

(4) सामाजिक विधान।

(5) औद्योगीकरण।

(6) नगरीकरण।

(7) पाश्चात्य संस्कृति का बढ़ता हुआ प्रभाव।

(8) राजनैतिक संगठनों का योगदान।

(9) हिन्दुओं से धार्मिक संगठनों का अभाव।

(10) भारतीय संस्कृति का बदलता हुआ रूप।

(11) व्यवसायों के चुनावों में स्वतन्त्रता।

(12) राजनेतिक सहायता का अभाव।

अतः उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि लौकिकीकरण की प्रक्रिया अंग्रेजी राज्य से प्रारम्भ हुई थी और समय के साथ अधिकाधिक व्यापक और गहरी हुई है किन्तु न तो यह इस काल की एकमात्र प्रक्रिया है और न यह सदा शुद्ध और अमिश्रित ही रही है। उदाहरणस्वरूप- राष्ट्रीयता, जो एक लौकिक तत्व है, एक अवस्था में धर्म के साथ उलझ गयी अस्पश्यता-उन्मूलन आन्दोलन जितना इस प्रथा की अमानवीयता के कारण था, उतना ही इस चेतना के कारण भी कि हरिजन यदि दूसरा कोई धर्म ग्रहण कर लेंगे तो उससे कितनी बड़ी राजनीति क्षति होगी। साम्प्रदायिकता शब्द जो अंग्रेजी भाषा को भारत की देन है, धर्म की राजनीति के साथ उलझ जाने की प्रवृत्ति का ही सूचक है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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