इतिहास / History

कारण जिनके परिणामस्वरूप जापान का पश्चिम से पार्थक्य समाप्त हुआ

कारण जिनके परिणामस्वरूप जापान का पश्चिम से पार्थक्य समाप्त हुआ

कारण जिनके परिणामस्वरूप जापान का पश्चिम से पार्थक्य समाप्त हुआ

कारण जिनके परिणामस्वरूप जापान का पश्चिम से पार्थक्य समाप्त हुआ – तेरहवीं शताब्दी तक यूरोप के निवासियों को जापान का नाम भी मालूम नहीं था। 1295 ई० में मार्कोपोलो नामक एक यात्री अपने पिता और चाचा के साथ बीस वर्ष चीन में रहकर स्वदेश लौटा और उसकी यात्रा का सब वृतांत एक सज्जन ने पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। उसी पुस्तक के माध्यम से यूरोपवालों ने जापान देश की स्थिति जानी। चीनी भाषा के चिपेनकू शब्द का उच्चारण मार्कोपोलो जिपानगू करता था और समय पाकर यह शब्द जापान हो गया।

जिपानगू की आश्चर्यजनक कथा सुनकर बहुत-से लोगों को इस देश को देखने का चाव हुआ। प्रसिद्ध यात्री कोलंबस भी इसकी तलाश में फिरता रहा। 1542 ई० की बात है। पिंटो नामक एक पुर्तगीज एक चीनी-जंक (समुद्र में चलनेवाली बड़ी नाव) में जा रहा था। उसके साथ दो पुर्तगाली और थे। आपसी लडाई में चीनी-मल्लाह के मारे जाने से जंग चलाने का भार पिटो के सिर पर पड़ा। इसी समय एक बड़ी आंधी आई और नाव को बहाकर समुद्र में ले गई। वे लोग रास्ता भूल गए और 23 दिन समुद्र में तैरते रहे। अंत में किसी ने टापू देखा और नाव उसी और ले गए। यह जापान का तनी-गा-सीमा टापू था। इस तरह पिटो और उसके दो साथियों को जापान ढूँढ़ने का यश प्राप्त हुआ।

जापान क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत के सातवें हिस्से से अधिक बड़ा नहीं है। इतना होते हुए भी आज इसने अपने को इतना शक्तिशाली बना लिया है और शिक्षा तथा व्यवसाय आदि के क्षेत्र में इतनी उन्नति कर ली है कि आज विश्व में इसके टक्कर का कोई नहीं है ।

प्राचीनकाल में चीन और कोरिया के साथ जापान का निकट संबंध स्थापित हुआ। पहले-पहल चीनी विद्वानों और कलाकारों की सहायता से ही जापानी साहित्य एवं कलाओं का प्रादुर्भाव हुआ, किंतु बाद में स्वयं अपने परिश्रम के बल जापानियों ने उनमें काफी उन्नति कर ली। यूरोपियों के साथ उनका प्रथम संसर्ग सोलहवीं शताब्दी में हुआ। 1542 ई० में वहाँ कुछ पुर्तगीज पहुंचे। उनके बाद स्पेन, हॉलैंड तथा बिटेन के व्यापारी वहाँ गए और जापानियों से व्यापारिक संबंध स्थापित किए। इस संबंध की आयु लंबी नहीं रह सकी; क्योंकि इन विदेशी व्यापारियों के दुर्व्यवहार से चिढकर एवं जेसुइट पादरियों के अत्याचार से तंग आकर जापान के शासकों ने अपने देश में विदेशियों का आना-जाना बिल्कुल रोक दिया। 1624 से 1638 ई. के बीच सभी विदेशी व्यापारी तथा धर्म-प्रचारक वहाँ से निकाल बाहर कर दिए गए और यह घोषणा कर दी गई कि अब यदि ईसाई धर्म का एक भी अनुयायी दिखाई दिया तो उसका सिर काट लिया जाएगा। करीब दो सौ वर्षों तक जापान में यह नीति लागू रही। फलतः आर्थिक दृष्टि से जापान की बड़ी प्रगति हुई। नगरों का तेजी से विकास हुआ। येदो, क्योतो, ओसाका, नागासाकी आदि बड़े-बड़े शहरों का उदय एवं विकास हुआ। 1700 ई० के आसपास येदो की आबादी दस लाख तक पहुंच गई। कृषि के क्षेत्र में काफी विकास हुआ। ओसाका नगर के चावल के आढ़तियों और हुंडो-पत्रों के दलालों ने काफी रकम कमाई। मीतसूई (Mitsui) परिवार जैसे व्यापारी घरानों का विकास भी इसी काल में हुआ। इसी हालत में जब जापान उन्नति करता जा रहा था, उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में पश्चिमी देशों ने उसका द्वार थपथपाया और अंत में उसके एकांत जीवन को बर्बाद करके उसे विश्व के रंगमंच पर ला दिया ।

यूरोपियों का जापान में आगमन

1792 ई० में पहला और 1804 ई. में दूसरा रूसी प्रतिनिधि दल नागासाकी पहुँचा और जापान से व्यापार के बारे में बातचीत चलाई, क्तुि जापान ने इनकार कर दिया। फलतः, जापान और रूस के बीच तनाव बढ़ा, कितु रूस यूरोप में नेपोलियन के युद्धों में फंसा था, अतएव जापान की ओर विशेष ध्यान नहीं दे सका। इंगलैण्ड की ओर से 1793 ई. में मेकार्टन को जापान भेजा गया, किन्तु जापान में प्रवेश करने की आज्ञा उसे जापान से नहीं मिली। दोनों में तनाव बढ़ना स्वाभाविक था और 1819 ई० में अंग्रेजों ने सिंगापुर पर अधिकार कर लिया। जापानी अधिकारियों ने आदेश दिया कि यदि कोई विदेशी जहाज जापान में उतरेगा तो उसे गोली मार दी जाएगी। जापनी मछुआरों एवं नाविकों को आदेश दिया गया कि वे विदेशी लोगों से कोई संपर्क नहीं रखें। यह आदेश भी जारी किया गया कि जो भी विदेशी जापानी तट पर पाया जाए उसे वहीं मार दिया जाए, किंतु 1842 ई० में इस कानून को कुछ नरम किया गया, क्योंकि अफीम युद्ध में चीन पराजित हो गया था। अतः जापान भी डर गया था। उसने कुछ डच बंदूकों का आयात किया और अपनी सैनिक व्यवस्था पर पुनः विचार किया।

शक्तिशाली अमेरिका की रूचि प्रशांत महासागर में बढ़ने लगी और इस सिलसिले में उसके कई जहाज जापान के किनारों पर ध्वस्त हो जाते थे। 1846 ई० में हेल मछली का शिकार करने के उद्देश्य से आया जहाज कठिनाई में फंस गया और जापान के बंदरगाह में शरण लेनी चाही । लेकिन, जापान ने इसकी अनुमति नहीं दी। अमेरिका की सरकार ने जापान के सम्राट के पास एक दूत भेजा। हॉलैंड के राजा ने भी इसी आशय का एक पत्र मिकाडो (जापानी सम्राट) के पास भेजा, किंतु जापान की नीति ज्यों-की-त्यों बनी रही।

20 जुलाई, 1846 को अमेरिकी नौसेना का अधिकारी कोमोडोर जेम्स विडिल दो जहाज लेकर एक जापानी बंदरगाह पर उतरा और व्यापारिक संबंध के लिए प्रार्थना की। लेकिन, जापानी सरकार को यह मान्य नहीं हुआ। 1849 ई० में कोमोडोर जेम्स ग्लिन पंद्रह अमेरिकी नाविकों को छुड़ाने के लिए नागासाकी आया, किंतु व्यापार के संबंध में उसने जापान से कोई बात नहीं की। 1853 ई. में अमेरिकी नौसेना के एक दूसरे अधिकारी कोमोडोर मैथ्यू कलबेथ पेरी को राष्ट्रपति फिलमोर ने जापान भेजा। पेरी चार युद्धपोतो के साथ योडो की खाड़ी में उतरा और जापान के अधिकारियों से प्रार्थना की कि वे जापान के बंदरगाहों में अमेरिकी युद्धपोतों को ठहरने की सुविधा दें। उसने नमूने के तौर पर पश्चिमी तार और रेल-व्यवस्था के दो नमूने भेंट किए। इसके पश्चात् पेरो यह कहकर

वापस चला गया कि जापानियों ने अपना व्यवहार नहीं बदला तो अगले वर्ष वह शक्तिशाली बेड़ों के साथ पुनः जापान आएगा।

फरवरी, 1854 में कोमोडोर पेरी (Comodor Mathew c. Perry-1794-1858) तीन भाप के जहाज और पांच यान लेकर जापान आ पहुंचा। उसने आने में जल्दी की; क्योंकि रूस के जार निकोलस प्रथम ने एडमिरल पूयातीन के नेतृत्व में नागासाकी में चार जहाजों का एक बेड़ा भेज दिया था। इसका उद्देश्य अमेरिकी और ब्रिटिश प्रभाव-क्षेत्र के विस्तार को रोकना था। पेरी ने आते ही जापान से संधि करने की जिद की। योडो में विचार-विनिमय हुआ। पेरी की यात्रा ने शोगुन को भारी दुविधा में डाल दिया। उसने तुरंत डैम्यो की सभा बुलाई इसमें कई विचार प्रकट किए गए। एक पक्ष विदेशियों के प्रवेशु को बिल्कुल पसंद नहीं करता था। उसका कहना था कि पहले विदेशी हमें शिक्षा देंगे, औजार, मशीन और विलासमय साधन देंगे; फिर हर संभव उपाय द्वारा जापानियों को धोखा देंगे। चूंकि उनका उद्देश्य व्यापार है, इसलिए वे धीरे-धीरे देश का धन चूसकर गरीब कर देंगे। इसके पश्चात् हमारे साथ मनचाहा व्यवहार करेंगे। और अंत में हमारी आजादी छीन लेंगे। डैम्यो को सभा में दूसरे पक्ष का कहना था कि जापान को पश्चिमी देशों के साथ संधियाँ करनी चाहिए. उनकी विद्याओं और कलाओं को सीखकर अपने देश को शक्तिशाली बनाना चाहिए ताकि जापान के लोग पश्चिमी देशों का मुकाबला कर सकें। दूसरे पक्ष की बात स्वीकारी गई और अमेरिका के साथ 31 मार्च, 1854 को एक संधि हो गई। इसके अनुसार शीमोदा और हाकोदाते में अमेरिकी जहाजों को कोयला आदि सामान लेने और कुछ व्यापार करने की अनुमति मिल गई। शोमोदा में अमेरिकी वाणिज्य दूत रहने की व्यवस्था हो गई। जहाज के ट्टने पर बहुकर आए हुए नाविकों और यात्रियों से अच्छा व्यवहार करने और उन्हें आदर के साथ लौटाने की बात तय हुई। दोनों देशों के प्रतिनिधियों के आदान प्रदान की व्यवस्था हुई। यह भी तय हुआ कि अन्य देशों को जापान में जो भी अतिरिक्त सुविधाएँ दी जाएंगी वे अमेरिका को स्वतः प्राप्त होंगी। इस तरह, विदेशियों के लिए जापान का द्वार खुल गया।

जापान का द्वार खुलने का कार्य जारी

अमेरिका के प्रयास से जापान का द्वार विदेशियों के लिए खुल गया। अक्टूबर, 1854 में नागासाकी में एक ब्रिटिश अधिकारी जेम्स् स्लिंग ने एक संधि की। फरवरी, 1855 में शीमोदा में रूस के साथ संधि हो गई। ड्चों को अंत में नागासाकी की सीमाओं से मुक्ति मिल गई; क्योंकि जनवरी, 1856 में उनके साथ जापान को एक संधि हो गई। उपर्युक्त सभी संधियों के परिणामस्वरूप जापान के एकांत जीवन का अंत हो गया।

कानागावा की संधि के अनुसार 1856 ई० में टाउनसेंड हैरिस अमेरिकी प्रतिनिधि की हैसियत से जापान पहुंचा। कई कठिनाइयों का मुकाबला करते हुए चालाकी से उसने जापानी अधिकारियों से मेल कर लिया और उन्हें इस तरह फुसलाया कि वे अमेरिका से दूसरी संधि के लिए तैयार हो गए। संधि पर जापानियों के हस्ताक्षर का हेरिस इंतजार करता रहा। इसी बीच उसे खबर मिली कि यूरोप की शक्तियों ने चीन को हराकर उस पर मनपसंद संधि लाद दिया है। इस खतरे से हैरिस ने जापान को आगाह किया। जापानी अधिकारियों पर इसका मनोनुकूल प्रभाव पड़ा और 29 जुलाई, 1858 को जापान और अमेरिका के बीच एक दूसरी संधि हुई जिसके अनुसार-

(i) शीमोदा और हाकोदाते के अलावा कानागावा और नागासाकी को र योगो को 1860 से 1863 ई० तक धीरे-धीरे खोलने की व्यवस्था की गई। यीडो और ओसाका में विदेशियों को रहने की इजाजत दे दी गई।

(ii) आयात-निर्यात करों की दरें मुनासिव तय की गई।

(iii) जापान में अमेरिकियों को उनके अपने कानून के अधीन रहने का अधिकार दिया गया।

(iv) अमेरिका ने जापान को हथियार, जहाज और तकनीकी विशेषज्ञ देने का वादा किया।

(v) दोनों देशों में प्रतिनिधि और दूत रखने का निर्णय लिया गया।

(vi) अमेरिका के लोगों को जापान में धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की गई।

(vii) 4 जुलाई, 1872 की संधि को दोहराने की शर्त की गई।

परिणाम

इन संधियों को प्रयोग में लाए जाने के पूर्व ही विदेशी व्यापारी भारी संख्या में कानागावा के निकट याकोहामा में बसने लगे। धीरे-धीरे यह स्थान प्रमुख व्यापारी बंदरगाह बन गया। जापान में विदेशियों के प्रवेश के लिए न लड़ाई लड़ी गई, न क्षेत्र दबाया गया और न छीना-झपटी या मार-काट हुई। चीन का इतिहास नहीं दुहराया गया। चीन की तरह जापान में भी विदेशियों को न्याय-शासन और आयात निर्यात कर से मुक्ति मिल गई। जापान का द्वार विदेशियों के लिए खुलने से वहाँ जागीरदारी प्रथा का अंत हो गया। 1867 ई० तक जापानी सम्राट मिकाडो की शक्ति बहुत ज्यादा थी। उस समय जापान छोटे-छोटे कई प्रांतों में बंटा था। प्रत्येक प्रांत का शासन एक-एक सरदार के सुपुर्द था। सबसे बड़ा सरदार शोगुन कहलाता था। वह सम्राट का प्रतिनिधि समझा जाता था। शासन का वास्तविक अधिकार इसी के हाथ में रहता था। जब शोगुन ने कोमोडोर पेरी से संधि की और विदेशियों को जापान में आने जाने की अनुमति दी तब उसे कायर कहा गया और उसकी शक्ति चुर करने में बड़े सरदार लग गए। शोगुन से सरदारों को पहले से ही ईर्ष्या थी। 1867 ई० में शोगुन को पराजित कर दिया गया और शासन के समस्त अधिकार जापान के सम्राट को प्राप्त हो गए।

जापान ने समझ लिया कि अपने आपको यूरोपीय शक्तियों का शिकार बनने से रोकने के लिए उन्हीं की तरह शक्ति-संपन्न, सुशिक्षित एवं वाणिज्य-व्यवसाय में कुशल बनना पड़ेगा। विदेशियों की छेड़-छाड़ तथा आत्मरक्षा के प्रश्न के कारण जापान में राष्ट्रीयता का भाव पहले ही फैल चुका था। अतः, उन्नति के पथ पर बढ़ने में विशेष कठिनाई नहीं हुई।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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