समाज शास्‍त्र / Sociology

लैंगिक भेद का अर्थ | लैंगिक भेद की समस्या | भारत में लैगिक भेद के परिणाम

लैंगिक भेद का अर्थ | लैंगिक भेद की समस्या | भारत में लैगिक भेद के परिणाम

लैंगिक भेद का अर्थ

(Meaning of Gender Inequality)

पुलिस तथा स्त्रीलिंग जैवकीय तथ्य के साथ किसी प्रकार की असमानता जोड़ दी जाती है तो उसे लैंगिक भेद कहा जाता है। ‘लिंग’ (Gender) शब्द का प्रयोग पुरुष तथा स्त्रियों के गुणों तथा उनके समाज द्वारा उनसे अपेक्षित व्यवहारों के लिए किया जाता है। किसी भी व्यक्ति की सामाजिक पहचान इन्हीं अपेक्षाओं से होती है। ये अपेक्षाएं इस विचार पर आधारित है कि कुछ अन्य गुण एवं भूमिकाएं स्त्रियों के लिए प्राकृतिक हैं। लिंग केवल जैवकीय नहीं है क्योंकि लड़का या लड़की जन्म के समय यह नही जानते हैं कि उन्हें क्या बोलना है, किस प्रकार का व्यवहार करना है। प्रत्येक समाज में पुलिंग तथा स्त्रीलिंग के रूप में उनकी लैंगिक पहचान तथा सामाजिक भूमिकाएं समाजीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से निश्चित की जाती है। इसी प्रक्रिया द्वारा उन्हें उन सांस्कृतिक अपेक्षाओं का ज्ञान दिया जाता है जिनके अनुसार उन्हें व्यवहार करना है। ये सामाजिक भूमिकाएं एवं अपेक्षाएं एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में अथवा एक ही समाज के भिन्न युगों में भिन्न-भिन्न होती है।

पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचनाएं एवं संस्थाएं उन मूल्य व्यवस्थाओं एवं सांस्कृतिक नियमों को सुदृढ़ करती है जो स्त्रियों की हीन भावना की धारणा को प्रचारित करती है। पितृसत्तात्मक स्त्रियों को अनेक प्रकार से शक्तिहीन बना देती है। इनमें स्त्रियों के पुरुषों की तुलना में निम्न होने, उन्हें साधनों तक पहुंचने से रोकने तथा निर्णय लेने वाले पदों में सहभागिता को सीमित करने जैसी परिस्थितियाँ प्रमुख है। नियंत्रण के यह स्वरूप स्त्रियों को सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक प्रक्रियाओं से दूर रखने में सहायता प्रदान करते हैं। किसी देश की जनसंख्या में लिंग संरचना को देखकर ही उस देश की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति का एक अनुमान लगाया जा सकता है। यदि किसी देश में पुरुषों की संख्या स्त्रियों से कम है, तो त्रियों की अधिकता के कारण जमींदार और जनसंख्या वृद्धि अधिक होने की संभावना बनी रहती है। पर यदि स्त्रियों की तुलना में पुरुषों की संख्या अधिक है तो ऐसी स्थिति में अनेक सामाजिक बुराइयों को बढ़ावा मिलता है, जैसे वेश्यावृत्ति व यौन अनैतिकता आदि। स्त्री-पुरुष अनुपात की भिन्नता के कारण ही देश के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न वैवाहिक व पारिवारिक प्रथाएं देखने को मिलती है। भारत में जिन राज्यों या क्षेत्रों में स्त्री बाहुल्य है, वहाँ बहुपति विवाह व बहुपति परिवार पाये जाते है इसी तरह कहीं-कहीं या स्त्री-पुरुष संख्या के आधार पर ही मातृ तथा पितृ सत्तात्मक परिवार पाये जाते हैं।

लैंगिक भेद की समस्या

पुरुषों में लैंगिक भेद के परिणाम या लैंगिक भेद से उत्पन्न समस्यायें निम्नलिखित हैं-

(i) परिवार में लिंग भेदभाव- भारत में पुरुष की प्रधानता है और स्त्री का अवमूल्यन होता है। लड़की का जन्म ही अपने में अभिशाप है। पुत्र मुक्तिदाता, बुढ़ापे का सहारा और घर की पूंजी है, जबकि पुत्री का जन्म एक दायित्व और कर्जा है। इसलिए जन्म से ही लिंग-भेदभाव शुरू हो जाता है। प्रो.के.एम.पणिक्कर (K.M. Panikkar) का मत है कि “हिन्दू सामाजिक जीवन की सबसे प्रमुख समस्याओं में से एक हिंदू संयुक्त परिवार में स्त्री को प्रदत्त की जाने वाली प्रस्थिति है। आधारभूत रूप से हिंदू सामाजिक व्यवस्था यह मानकर चलती है कि पुत्री परिवार का भाग नहीं है। वह तो एक ऐसा आभूषण है जो गिरवी रखा है और जब उसका कानूनी मालिक आएगा और उसकी मांग करेगा, तो उसे दे दिया जाएगा।”

(ii) रोजगार संबंधी समस्या-

(i) संगठित उद्योगों में स्त्रियाँ निम्न स्तर पर ही कार्य कर रही है। साथ ही कुछ पुराने उद्योगों, जैसे जूट, कपड़ा या खाद्यानों में उनका प्रतिशत घट रहा है। नए उद्योगों जैसे इलेक्ट्रानिक या कम्प्यूटर में भी वे प्रवेश नही कर पा रही है, क्योंकि इस संबंध में उनके पास पर्याप्त शिक्षा के अवसर नही है। इसलिए ज्यादातर वे रिसेप्शनिस्ट, टाइपिस्ट, स्टेनोग्राफर, निजी सचिव आदि के रूप में कार्य कर रही हैं।

(ii) चिकित्सा और नर्सिग के क्षेत्र में भी स्त्रियां प्रवेश कर चुकी हैं।

(iii) स्त्रियों के लिए कुछ नए क्षेत्र, जैसे माडलिंग, पत्रकारिता, प्रशासनिक सेवाएं, दूरदर्शन कलाकार आदि भी व्यवसाय के रूप में उत्पन्न हुये है। परंतु यहां भी उन्हें पुरुष प्रधानता का सामना करना पड़ता है और वहां भी वे व्यावसायिक प्रगति के सोपान को निचली सीढ़ियों पर ही पहुंच पाई है।

स्त्रियों की स्वयं की कुछ मजबूरियां होती है। यदि पदोन्नति पर उन्हें स्थानीय किया जाता है तो वे पदोन्नति छोड़ देती है। घर और व्यावसायिक हित में यदि टकराव हो तो वे परिवार हित को ही प्राथमिकता देती हैं। पुरुष यदि पारिवारिक जीवन और व्यावसायिक जीवन दोनों को एक साथ चला सकता है तो स्त्री क्यों नहीं? यह मानसिकता उनमें अभी विकसित ही नहीं हो पाई है, और जहाँ विकसित हो गई है वहाँ संबंधित स्त्री के लिए पीड़ादायक अन्तर्द्वन्द्व को जन्म दे देती है। सच तो यह है कि अधिकांश स्त्रियों के लिए व्यवसाय एक गौण लक्ष्य है।

1976 ई. में समाज मजदूरी कानून पारित हो गया था। इससे स्त्रियों में कुछ जागरूरकता आई है और वे अपने अधिकार मांगने लगी है। सेवायोजक भी स्त्री कर्मचारी की खर्चीला समझते है, क्योंकि उनके लिए उन्हें मातृत्व लाभ व शिशुपालन गृह की व्यवस्था करनी पड़ती है। परंतु एक जागरूक सेवायोजक समझता है कि अंतिम रूप से स्त्री कर्मचारी अधिक कर्मठ व समर्पित भाव से कार्य करती है।

(iv) शिक्षा में असमानता- भारत में सियों में शिक्षा का स्तर पुरुषों से काफी कम है। मुस्लिम काल में तो स्त्री पूर्णतः निरक्षर थी। ‘भारतीय समाज विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICSSR) द्वारा किए गए एक अध्ययन से ज्ञात होता है कि 1971 ई. में साक्षर त्रियां 18.4 प्रतिशत थीं, 1981 ई. में यह प्रतिशत 25 था जबकि 1991 ई. तथा 2001 ई. की जनगणनाओं के अनुसार क्रमश: 39.42 तथा 54.16 प्रतिशत हो गया है। यह प्रगति नगरीय क्षेत्रों में उच्च और मध्यम वर्ग के बीच अधिक हुई है। आज भी ग्रामीण स्त्रियों में शिक्षा का स्तर काफी कम है।

स्त्री शिक्षा से संबंधित समस्या यह है कि (1) प्राथमिक तथा माध्यमिक स्तर पर स्त्रियों के बीच पढ़ाई छोड़ने की दर बहुत ऊंची है। गरीब माँ-बाप लड़कियों को आगे पढ़ा नही पाते। (2) परम्परागत रूप से स्त्री की शिक्षा एक फिजूलखर्चा समझा जाता है। (3) घर से स्कूल तक यातायात के साधन की समस्या है कि वे वहाँ तक कैसे जाएं और आएं। (4) ज्यों-ज्यों वे बड़ी होने लगती है उनकी सुरक्षा का प्रश्न भी जटिल होता जाता है। (5) उनकी शिक्षा का पाठयक्रम भी जीवन की वास्तविकताओं से दूर है। वह न तो उन्हें जीविकोपार्जन के लिए तैयार करता है और न एक आदर्श गृहिणी या माँ की भूमिकाओं से ही जोड़ पाता है।

(iv) महिला के प्रति हिंसा (Violence against women)- महिलाओं के प्रति हिंसा दो रूपों में देखी जा सकती प्रथम, घरेलू हिंसा तथा द्वितीय, घर से बाहर हिंसा। पहले रूप का संबंध घर-गृहस्थी में स्त्री का किया जाने वाला शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न है। विवाह के समय स्त्री सुनहरे स्वप्न देखती है कि अब प्रेम, शांति व आत्म-उपलब्धि का जीवन प्रारम्भ होगा। परंतु इसके विपरीत सैकड़ों विवाहित स्त्रियों के यह सपने क्रूरता से टूट जाते हैं। वे पति द्वारा मार-पीट और यातना का शिकार होती हैं। दुःख तो यह है कि ऐसी मार-पीट का जिक्र करने में भी उन्हें “लज्जा अनुभव होती है और यदि वे शिकायत भी करें तो खुद उन्हें ही दोषी माना जाता है। पड़ोसी ऐसे मामलों में प्रायः हस्तक्षेप नहीं करते क्योंकि यह पति-पत्नी के बीच एक निजी मामला समझा जाता है। यदि पुलिस में रिपोर्ट करने जाएं तो वहां भी पुलिस अधिकारी पहले स्त्री का ही मजाक उड़ाते हैं और रिपोर्ट लिखने में आनाकानी करते हैं। पुरुष को पत्नी की पिटाई का निरपेक्ष अधिकार है और आम आदमी यह मानकर चलता है कि वह पिटने लायक ही होगी, अतः पिटेगी ही। दुर्भाग्य की बात है कि ऊपर से शांत और सम्मानित प्रस्थिति वाले अनेक परिवारों में, जहां पति-पत्नी दोनों शिक्षित हैं और आत्म-निर्भर हैं, भी मारपीट की घटनाएं हो जाती है और यह नियमितता का रूप लेने लगती हैं। कहीं-कहीं पिता भी अपनी अविवाहित पुत्रियों की पिटाई करते हैं।

(v) दहेज के कारण उत्पीड़न (Harassment due to dowry)- भारतीय समाज में दहेज की समस्या एक भयंकर समस्या बनती जा रही है। आए दिन समाचारपत्रों में दहेज की शिकार स्त्रियों के जलाने की घटनाओं के समाचार प्रकाशित होते हैं। पिछले कुछ वर्षों में ऐसी घटनाओं का प्रतिशत बढ़ता ही जा रहा है। दहेज के विरुद्ध हाल ही में कठोर कानून भी बनाए गए हैं। फिर भी कहीं-कहीं सामाजिक निन्दा पिता को मजबूत करती है कि वे बेटी के लालची ससुराल वालों के साथ समझौता करने का प्रयत्न करते रहें। परिणाम अभागी स्त्री की मृत्यु ही होती है। यह कुप्रथा तभी समाप्त की जा सकती है जब इसके विरुद्ध युवा लड़के-लड़कियों में एक जागरण अभियान चलाया जाए। लड़कियों को आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर बनाया जाए और उनमें यह संकल्प जाग उठे कि वे ऐसे व्यक्ति से विवाह नहीं करेंगी जो दहेज की माँग करता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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