समाज शास्‍त्र / Sociology

सामाजिक समस्या की अवधारणा | सामाजिक समस्या का अर्थ | सामाजिक समस्या की परिभाषा | व्यक्तिगत समस्या और सामाजिक समस्या में अंतर | सामाजिक समस्याओं के प्रकार | सामाजिक समस्याओं के निवारण के उपाय

सामाजिक समस्या की अवधारणा | सामाजिक समस्या का अर्थ | सामाजिक समस्या की परिभाषा | व्यक्तिगत समस्या और सामाजिक समस्या में अंतर | सामाजिक समस्याओं के प्रकार | सामाजिक समस्याओं के निवारण के उपाय

सामाजिक समस्या की अवधारणा अर्थ एवं परिभाषा

(Concept of Social Problem-Meaning and Definition)

एक सामाजिक समस्या की अवधारणा में तीन तत्व पाये जाते है। प्रथम सामाजिक समस्या एक ऐसी दशा है जिसमें सापेक्ष रूप से काफी लोग उलझे होते हैं, द्वितीय इस दशा को अधिकांश लोगों की मूल्य व्यवस्था की दृष्टि से समाज के कल्याण के लिए खतरा समझा जाता है। तृतीय यह मानकर चला जाता है कि सामूहिक प्रयास के द्वारा इस दशा को नियंत्रित किया जा सकता है। यहाँ हमें इस बात को भी ध्यान में रखना है कि एक सामाजिक समस्या वस्तुनिष्ठ दृष्टि से (यथार्थ में) मौजूद हो सकती है, किंतु वह व्यक्तिपरक द्वेग से अस्तित्व में नहीं आ सकती जब तक कि समाज के बहुत से लोग उसके प्रति जागरूक न हों। अतः यह कहा जा सकता है कि एक सामाजिक समस्या का अस्तित्व उसके प्रति जनता में जागरूकता पर निर्भर करता है। उस समस्या को हल करने के प्रयत्न इस बात पर निर्भर करते है कि उसके विरुद्ध जनमत को कितने प्रभावशाली ढंग से संगठित किया जाता है।

सामाजिक समस्या की परिभाषा

(Definition of Social Problem)

शेयर्ड तथा वॉस- “एक सामाजिक समस्या समाज की कोई भी ऐसी सामाजिक दशा है जिसे समाज के एक बहुत बड़े भाग या शक्तिशाली भाग द्वारा अवांछनीय और ध्यान देने योग्य समझा जाता है।”

क्लेरेंस मार्शकेस- “सामाजिक समस्या का तात्पर्य किसी ऐसी सामाजिक परिस्थिति से है जो एक समाज में काफी संख्या में योग्य अवलोकनकर्ताओं के ध्यान को आकर्षित करती है और सामाजिक अर्थात सामूहिक, किसी एक अथवा दूसरे किस्म की क्रिया के द्वारा पुनः सामंजस्य या हल के लिए उन्हें आग्रह करती है।”

राव तथा सेल्जनिक- “मानवीय सम्बन्धों से सम्बन्धित एक समस्या माना है जो समाज के लिए गंभीर खतरा पैदा करती है अथवा जो व्यक्तियों की महत्वपूर्ण आकांक्षाओं की प्राप्ति में बाधाएं उत्पन्न करती है।

व्यक्तिगत समस्या और सामाजिक समस्या में अंतर

(Difference between Individual Problem and Social Problem)

सामाजिक समस्या को और अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए व्यक्तिगत व सामाजिक समस्या में अंतर को जान लेना आवश्यक है।

व्यक्तिगत समस्या उस समस्या को कहते है जिसका संबंध व्यक्ति विशेष से होता है और जो व्यक्ति के विकास एवं प्रगति में बाधक होती है, व्यक्ति सामाजिक आदर्शों की अवहेलना करने लगता है और उसके व्यक्तित्व का विघटन होने लगता है।

मॉवरर लिखते है, “व्यक्तिगत समस्याएं व्यक्ति के उन व्यवहारों का प्रतिनिधित्व करती है जो संस्कृति द्वारा मान्यता प्राप्त प्रतिमानों से इतने अधिक नीचे गिर जाते है कि समाज उन्हें

अस्वीकृत कर देता है। व्यक्तिगत समस्या एवं सामाजिक समस्या मे प्रमुख अंतर निम्नलिखित हैं:-

(i) व्यक्तिगत समस्या का हल करने का प्रयत्न व्यक्तिगत रूप से किया जाता है जबकि सामाजिक समस्या के निवारण के लिए सामूहिक रूप से प्रयत्न किये जाते है।

(ii) व्यक्तिगत समस्या व्यक्ति के विकास में किंतु सामाजिक समस्या विकास और प्रगति दोनों में बाधक होती है।

(iii) व्यक्तिगत समस्या व्यक्ति के साथ ही समाप्त हो जाती है जबकि सामाजिक समस्या समाज की निरंतरता से संबंधित होने के कारण लम्बे समय तक चलती रहती है। इसके निवारण के प्रयत्न के बावजूद भी यह कुछ न कुछ मात्रा में अवश्य मौजूद रहती है।

(iv) व्यक्तिगत समस्या के जन्म के लिए एक व्यक्ति या कुछ व्यक्ति उत्तरदायी होते है और उसके परिणाम व्यक्ति विशेष को ही भुगतने होते हैं, जबकि सामाजिक समस्या को जन्म देने में समाज व समुदाय के कई लोगों का हाथ होता है और उसके परिणाम भी अनेक लोगों को भुगतने होते हैं।

(v) व्यक्तिगत समस्या का संबंध एवं प्रभाव क्षेत्र व्यक्ति विशेष तक सीमित रहता है जबकि सामाजिक समस्या का संबंध संपूर्ण समाज व समुदाय से है तथा यह संपूर्ण समाज या उसके एक बड़े भाग को प्रभावित करती है।

(vi) व्यक्तिगत समस्या के दौरान व्यक्ति के व्यक्तित्व में असंतुलन एवं विघटन उत्पन्न हो जाता है जबकि सामाजिक समस्या की स्थिति में सामाजिक संरचना।

(vii) व्यक्तिगत समस्या की स्थिति में अपने उदद्देश्यों एवं आवश्यकता की पूर्ति के लिए व्यक्ति समाज द्वारा अस्वीकृत साधनों का उपयोग करता है जबकि सामाजिक समस्या की स्थिति में समाज के अधिकांश व्यक्ति अनैतिक साधनों के द्वारा अपने उद्देश्यों व आवश्यकताओं की पूर्ति करने लगते हैं।

उपर्युक्त वर्णित अंतरों का यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि ये दोनों समस्याएं एक-दूसरे से एकदम पृथक है बल्कि दोनों में घनिष्ठ संबंध पाया जाता है, ये दोनों प्रकार की समस्याएं एक- दूसरे को प्रभावित करती है। कुछ समस्याएं व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों ही हो सकती है, विशेषतः उस समय जब उनका संबंध व्यक्ति विशेष व समाज दोनों से ही हो। व्यक्तिगत समस्या सामाजिक समस्याओं को और जन्म देती है।

सामाजिक समस्याओं के प्रकार : भारतीय समाज की प्रमुख सामाजिक समस्यायें

वर्तमान समय में भारत में अनेक सामाजिक समस्याओं का जाल बिछा है यद्यपि भारत एक स्वतंत्र गणराज्य है जिसने धर्म-निरपेक्ष, प्रजातंत्र एवं प्रगतिशील मूल्यों (Progressive Values) को स्वीकार किया है, किंतु यहां निर्धनता पायी जाती है, गरीब अमीर के मध्य एक बहुत बड़ी खाई दिखलाई पड़ती है।

यहाँ धर्म, भाषा, प्रजाति, जाति एवं क्षेत्रीयता तथा भाषा के आधार पर अनेक भेद-भाव पाये जाते है। व्यक्ति-व्यक्ति में सामाजिक एवं आर्थिक आधार पर ऊंच-नीच का एक संस्तरण पाया जाता हैं जातिवाद, अस्पृश्यता, भाषावाद, प्रांतीयता, साम्प्रदायिकता तथा युवाविक्षोभ, बेकारी आदि समस्याएं यहां मौजूद है। यहां बाल अपराधी एवं प्रौढ़ अपराधी और श्वेत वसन अपराधी भी पाये जाते हैं जो समाज के सम्मुख समस्या उत्पन्न करते है। यहां जनसंख्या की बढ़ोत्तरी भी तेजी के साथ होती जा रही है। निरक्षरता, निम्न जीवन-स्तर, शराबखोरी, जुआ, वेश्यावृत्ति और राजनीतिक एवं प्रशासनिक भ्रष्टाचार की समस्याओं का भी देशवासियों को सामना करना पड़ रहा हैं। ये सभी समस्याएं देश की प्रगति एवं एकीकरण में बाधक हैं। आगे हम भारतीय समाज में पायी जाने वाली कुछ प्रमुख सामाजिक समस्याओ पर प्रकाश डाल रहे हैं-

(i) साम्प्रदायिकता की समस्या (Problem of Communalism)- साम्प्रदायिकता समाज-रूपी शरीर में जहर घोल रही है। साम्प्रदायिकता अंग्रेजों की फूट डालो राज करो (Divide and Rule) की नीति का परिणाम है। उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों को एक दूसरे से पृथक रखने एक दूसरे को विरोध करने और ईर्ष्या और विद्वेष फैलाने का काफी प्रयत्न किया। उनके प्रयत्नों का परिणाम देश के विभाजन के रूप में निकला।

(ii) जातिवाद की समस्या (Problem of Casteism)- विभिन्न जातियों में ऊंच – नीच का संस्तरण पाया जाता है और उतार चढ़ाव की एक प्रणाली पायी जाती है। फलस्वरूप एक जाति दूसरी जाति से सामाजिक दूरी (Social Distance) बनाये रखने का प्रयास करती है। आज जाति प्रथा के कारण समाज छोटे-छोटे समूहों में बंट गया है और लोगों की निष्ठा एवं भक्ति अपनी-अपनी जाति तक ही सीमित हो गयी है।

(iii) अपराध एवं श्वेतदास अपराध की समस्या (Prolem of Crime and White-collar Crime)- पिछले दस वर्षों में अपराधों की संख्या दुगुनी से अधिक हो गयी है। अपराधों की संख्या में यह वृद्धि इस बात का प्रमाण है कि भारतीय समाज में सामाजिक विघटन बढ़ता जा रहा है। अब पुरुष ही नहीं, स्त्रियां भी अपराध कार्य करने लगी है। वर्तमान में व्यक्ति एवं सम्पत्ति के विरुद्ध अपराधों के अतिरिक्त अपहरण, चोरी-डकैती, मारपीट, धोखाधड़ी, राहजनी एवं बलात्कार संबंधी अपराध भी बढ़ते जा रहे हैं।

(iv) निर्धनता की समस्या (Problem of Poverty)- निर्धनता व्यक्ति के नैतिक पतन, समाज-विरोधी व्यवहार और अपराधी कार्य के लिए उत्तरदायी है। आखिर भूखे मरते तथा अभावों में अपने बच्चों को बिलखते देखकर कौन कर्तव्य-पथ से नहीं हट सकता। निर्धनता कई बार व्यक्ति को चोरी एवं जालसाजी करने तथा तस्करी और राहजनी करने को बाध्य तक कर देती है। निर्धनता उस समय और भी गंभीर विघटनकारी समस्या बन जाती है जब गरीब अमीर के बीच आर्थिक असमानता की एक बहुत बड़ी खाई पायी जाती हो। निर्धनता अनेक समस्याओं का एक प्रमुख कारण है।

(v) अस्पृश्यता की समस्या (Problem of Untouchability)-  इस देश के दस करोड़ से भी अधिक लोगों को अस्पृश्य मानकर इन्हें छूना यहाँ तक कि इनकी परछाई पड़ना मात्र तक अपवित्रता लाने वालो समझा गया। समाज के इतने बड़े वर्ग को शोषण का शिकार होना पड़ा अनेक प्रकार की निर्योग्यताओं (Disabilities) से पीड़ित रहना पड़ा। इन्हें हमेशा अभावमय अवस्था में तिरस्कृत प्रकार का जीवन जीने के लिए बाध्य किया गया। समाज के इतने बड़े वर्ग के उपेक्षित रहते हुए किसी भी समाज को संगठित समाज मानना एक प्रकार से वास्तविकता की अनदेखी करना है।

(vi) बाल-अपराध की समस्या (Problem of Juvenile Delinquency)-  भारत में बाल-अपराधियों की संख्या भी बढ़ती ही जा रही है। न केवल लड़को में बल्कि लड़कियों में भी अपराधी प्रवृत्ति तेज होती जा रही है। औद्योगिक केंद्रो की गंदी बस्तियों में स्थान के अभाव में बालक साधारणतः गलियों में घूमते रहते हैं, चौराहों पर खेलते रहते है तथा अभावों के बीच पलने के कारण छोटे-छोटे आर्थिक प्रलोभनों की ओर आकर्षित होते रहते है। ऐसे बालक स्कूलों से भागते है, आवारागर्दी करते है, जेब काटने का कार्य सीख लेते है, जुआ खेलते हैं, शराब पीते है और गली-मोहल्लों में लड़कियों को छेड़ते हैं।

(vii) क्षेत्रवाद की समस्या (Problem of Regionalism)- क्षेत्रीयता या क्षेत्रवाद भी सामाजिक विघटन की स्थिति का परिचायक है क्षेत्रवाद वह संकुचित मनोवृत्ति है जो लोगों को अपने ही क्षेत्र या प्रांत विशेष के हित के दृष्टिकोण से सोचने एवं कार्य करने को प्रेरित करती है। इस संकीर्ण मनोवृत्ति के कारण लोगों की निष्ठा एवं भक्ति संपूर्ण देश के प्रति न होकर प्रांत क्षेत्र व किसी भाषाई क्षेत्र तक सीमित हो जाती है। क्षेत्रवाद स्थानीयतावाद, अलगाववाद एवं पृथकतावाद को पनपाता है। क्षेत्रवाद की मनोवृत्ति के कारण ही एक भौगोलिक एवं भाषाई क्षेत्र के लोग राष्ट्रहित की चिंता नहीं करते हुए देश के अन्य प्रदेशों से अपने को पृथक एवं स्वतंत्र समझते हैं।

(viii) बेकारी की समस्या (Problem of Unemployment)- बेकारी की समस्या सामाजिक विघटन की दशा को ही व्यक्त करती है। भारत में प्रतिवर्ष 70 से 80 लाख व्यक्ति नौकरी की तलाश में श्रमिक बाजार में प्रवेश करते हैं। बेकारी वैयक्तिक पारिवारिक एवं सामाजिक विघटन की गंभीर अवस्था को व्यक्त करती है। आज बेकारी युवा-तनाव, युवा-सक्रियता अथवा छात्र असंतोष या अनुशासनहीनता का प्रमुख कारण है। बेकार व्यक्ति पेट की भूख को शांत करने और अपने बाल-बच्चों की आवश्यकताओ को पूरा करने के लिए अनैतिक काम तक कर सकता है, अपराध तक कर सकता है।

सामाजिक समस्याओं के निवारण के उपाय

विश्व के सामाजिक समस्याओं के इतिहास का अवलोकन करने पर पता चलता है कि वास्तव में बहुत सी सामाजिक समस्याओं को समय-समय पर हल किया गया।

गुलामी की प्रथा से लोगों को मुक्त कराया जा सका। प्रतिदिन बारह घण्टे और सप्ताह में सात दिन तक मजदूरों से काम लेने की समस्या को हल किया जा सका। इसी प्रकार बाल श्रम की समस्या का निवारण संभव हुआ। आज अनेक देशों ने निर्धनता की स्थिति पर काफी नियंत्रण प्राप्त कर लिया है और बहुत से देश इस दिशा में आगे बढ़ रहे है। वर्तमान में अनेक बीमारियों की रोकथाम का भी सफलतापूर्वक प्रयत्न किया जा सका है। कुछ विद्वानों की यह भी  धारणा है कि परिस्थितियों के बदलने के साथ-साथ समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। ऐसी स्थिति में पुरानी समस्याओं का स्थान नवीन समस्याएं ले लेती हैं।

सामाजिक समस्याओं को हल करने के लिए तीन उपागमों पर विचार करना आवश्यक है-

(i) बहुकारकवादी उपागम

(ii) पारस्परिक सम्बन्ध

(iii) सापेक्षिकता उपागम

(1) बहुकारकवादी उपागम (Multiple Factors Approach)- इसके अनुसार यह माना जाता है कि किसी भी सामाजिक समस्या का जन्म अनेक कारकों के परिणामस्वरूप होता है। सामाजिक समस्या के लिए कोई एक कारक उत्तरदायी नही है। उदाहरण के रूप में यह नही माना जा सकता कि केवल निर्धनता के कारण ही संपत्ति के विरुद्ध अपराध होते हैं। यदि ऐसा होता है तो अनेक धनी व्यक्तियों के द्वारा अपराध क्यों किये जाते हैं? इसी प्रकार बेकारी अथवा छात्र असंतोष के पीछे कोई एक ही कारण नहीं पाया जाता।

(2) पारस्परिक संबंध (Inter-related approach)- इस उपागम का तात्पर्य विभिन्न सामाजिक समस्याओं के एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से संबंधित होने से है। यदि हम किसी एक समस्या को पृथक रूप से सुलझाना चाहे तो यह संभव नहीं है। उदाहरण के रूप में, अस्पृश्यता निवारण के लए यह आवश्यक है कि अस्पृश्य या अछूत समझे जाने वालों को आर्थिक और सामाजिक प्रगति के अवसर प्रदान किये जायें। किंतु इसके साथ ही यह भी अनिवार्य है कि अन्य जातियों के लोगों में उनके प्रति पायी जाने वाली पूर्व-निर्धारित धारणाओं को दूर किया जाय। यह शिक्षा के माध्यम से अज्ञानता को दूर करने से ही संभव है। इसके साथ ही अस्पृश्यता निवारण से संबंधित कानून को कठोरतापूर्वक लागू करने की आवश्यकता भी है।

(3) सापेक्षिकता उपागम (Relativity Approach)- इस उपागम का तात्पर्य यह है कि सामाजिक समस्या का स्थान एवं समय के साथ गहरा संबंध पाया जाता है। यह संभव है कि आज भारत में जिस स्थिति को एक सामाजिक समस्या के रूप में माना जाता है, वह कुछ समय पूर्व उस रूप में नही मानी जाती हो। उदाहरण के रूप में आज अस्पृश्यता को एक गंभीर सामाजिक समस्या माना जाता है परंतु भूतकाल में यह समस्या नही समझी जाती थी। अमरीका एवं अफ्रीका में प्रजातीय भेदभाव समस्या (Problem of Racial Descrimination) के रूप में है, किंतु भारत में नहीं आज जिसे लोग सामाजिक समस्या के रूप में देखते है, संभव है वहीं स्थिति निकट भविष्य में सामान्य स्थिति बन जाय और लोग उसे समस्या नहीं माने।

किसी सामाजिक समस्या का समाधान करने में नेताओं की प्रमुख भूमिका होती है। वे स्वयं के उदाहरण द्वारा जनता को समस्या के निराकरण के संबंध में स्वस्थ विचार प्रदान कर और समस्या को हल करने में सफलता प्राप्ति के पूर्व सफलता की एक हवा या वातावरण तैयार कर लोगों में एक सामूहिक अभिरुचि उत्पन्न कर सकते है। ऐसा होने पर लोगों में आवश्यक धारणाएं निर्मित हो पायेगी एवं सामाजिक समस्याओं के निराकरण में वे सक्रिय योगदान कर सकेंगे।

सामाजिक समस्याओं के निवारण या हल करने में समाजशास्त्रीय अति महत्वपूर्ण भूमिकायें निर्वाह कर सकते है। इस संदर्भ में उनकी कुछ महत्वपूर्ण भूमिकाये निम्नलिखित हैं :-

(1) समाजशास्त्री कार्य-कारण-संबंधों का पता लगाने की दृष्टि से शोध (Research) कर सकते है और इस प्रकार सामाजिक समस्याओं के संबंध में अपने ज्ञान में वृद्धि कर सकते हैं।

(2) एक उच्च स्तरीय शिक्षक के रूप में अपनी भूमिका के माध्यम से और सामान्य जनता के लिये अपने भाषण एवं लेखन से वे लोगों के सामाजिक समस्याओं के प्रति जागरूक बना सकते हैं।

(3) समाजशास्त्री परिवार, विवाह, स्थानीय समुदाय के विकास एवं उद्योग से संबंधित समितियों आदि में सलाहकार के रूप में कार्य कर सकते हैं।

(4) वे विशिष्ट समस्याओं का समाधान करने के लिये कार्यक्रम सुझा सकते हैं।

समाज शास्‍त्र – महत्वपूर्ण लिंक

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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