भूगोल / Geography

मानव प्रजातियों का वैज्ञानिक वर्गीकरण | विश्व की प्रमुख प्रजातियाँ | कालेशियन प्रजाति की प्रमुख विशेषता

मानव प्रजातियों का वैज्ञानिक वर्गीकरण | विश्व की प्रमुख प्रजातियाँ | कालेशियन प्रजाति की प्रमुख विशेषता

मानव प्रजातियों का वैज्ञानिक वर्गीकरण

प्रजातियों का वर्गीकरण सर्वप्रथम अठारहवी शताब्दी में किया गया, जो महाद्वीपों, प्रदेशों अथवा देशों पर आधरित था। इस समय के वर्गीकरण में मानव के शारीरिक लक्षणों का आधार नहीं बनाया गया था। उन्नीसवीं शताब्दी में शारीरिक लक्षणों के आधार पर वर्गीकरण किया गया। महाद्वीपीय आधार पर वर्गीकरण का सर्वप्रथम प्रयास सन् 1758 ई. में ‘लिनेअस’ द्वारा किया गया। इसके बाद ‘ब्लूमैनवाच’ ने इसी आधार पर सम्पूर्ण प्रजातियों को पाँच भागों में विभाजित किया। इन्होंने पाँच महाद्वीपीय प्रजातियां बतायीं- (1) काकेशियन श्वेत प्रजाति, (2) मंगोलियन पीत प्रजाति, (3) इथियोपियन काली प्रजाति, (4) अमरीकी लाल प्रजाति, तथा (5) मलायन ब्राउन प्रजाति।

समय के साथ-साथ महाद्वीपीय आधार गलत सिद्ध होते गये। सन् 1817 में ‘कूवियर’ ने त्वचा के वर्ण के आधार पर विश्व की प्रजातियों को प्रमुख तीन वर्गों में रखा- काकेशियन श्वेत  प्रजाति मंगोल पीत प्रजाति तथा नीग्रो श्याम वर्ण प्रजाति। सन् 1870 में ‘हक्सले’ तथा सन् 1878 मे टोपीनार्ड ने बालों की बनावट के आधार पर प्रजातियों का वर्गीकरण किया। इसके उपरान्त नासिका सूचकांक तथा कपाल सूचकांक को आधार मानकर वर्गीकरण हुए।

सन् 1919 में ग्रिफिथ टेलर ने मासिका सूचकांक और कपाल सूचकांक पर आधारित वर्गीकरण प्रस्तुत किया। सन् 1923 में डिक्सन ने टेलर के अनुरूप वर्गीकरण किया। अपने वर्गीकरण को प्रमाणित करने के पक्ष में इन्होंने कटिबन्ध एवं स्तर सिद्धान्त को प्रस्तुत किया, जिसमें स्थानान्तरण से विभिन्न प्रजातियाँ भूतल के विभिन्न भागों में स्थानान्तरण हुई हैं। ग्रिफिथ टेलर ने अपनी वर्गीकरण में कपाल सूचकांक तथा बालों की बनावट को आधार बनाया। इनके अनुसार प्रजातियों का उद्गम स्थल एशिया है, जहाँ से सभी प्रजातियाँ धरातल के विभिन्न क्षेत्रों में स्थानान्तरित हो गयीं। इनके अनुसार सबसे कम विकसित प्रजाति नेग्रिटो आज भू-भाग के सीमान्त क्षेत्रों में मिलती है। इसके बाद की विकसित प्रजाति आन्तरिक भाग में तथा नवीनतम विकसित प्रजाति केन्द्र में ही निवास करती रहीं, जिनमें अल्पाइन तथा मंगोल अपने उद्गम स्थान पर ही निवास कर रही हैं।

(1) ग्रिफिथ टेलर का वर्गीकरण (Classification by G. Taylor)

सन् 1919 ई. में ग्रिफिथ टेलर ने कपाल सूचकांक तथा बालों की बनावट को आधार मानते हुए विश्व की प्रजातियों को निम्नलिखित वर्गों में रखा-

(1) नेग्रिटो (Negrito)- पतला सिर,

(2) नीग्रो (Negro)- बहुत लम्बा सिर,

(3) आस्ट्रेलायड (Australoid)- लम्बा सिर,

(4) मेडिटरेनियन (Mediterranean) – मध्यम लम्बा सिर,

(5) नॉर्डिक (Nordic)- मध्यम सिर

(6) अल्पाइन (Alpine)- चौड़ा सिर, और

(7) मंगोलियन या नव-अल्पाइन (Late Alpine) – बहुत चौड़ा सिर ।

टेलर के अनुसार मानव प्रजाति का उद्गम-स्थल मध्य एशिया था। यहाँ से विकास के साथ प्रजातियाँ बाहर की ओर स्थानान्तरित होकर फैलती रहीं। इसलिए सर्वप्रथम विकसित प्रजाति आज फैलकर महाद्वीपो के बाहरी भागों में जाकर बसी हैं तथा सबसे बाद में विकसित प्रजाति केन्द्र स्थल में मिलती है। टेलर महोदय के इस वर्गीकरण में कपाल सूचकांक का क्रम वही मिलता है, जो मध्य एशिया में बाहर की ओर जाने वाली प्रजातियों में मिलता है।

(1) नेग्रिटो (Negrito)-  इस  प्रजाति का कपाल सूचकांक 68 से 79 होने से इनका सिर पतला होता है। यह नाटे कद के (158 सेमी. से कम) चाकलेटी से काले रंग की होती है। मासिका बहुत चौड़ी तथा चपटी, जबड़ा आगे की ओर उभरा हुआ और चेहरा उत्तल आकृति का होता है। बाल का ऊर्ध्वाधर काट 40 तथा आकृति छल्लेदार होती है।

इस प्रजाति में मिश्रण अधिक होने के कारण आज शुद्ध नेग्रिटो नहीं मिलते हैं। इनका विकास सर्वप्रथम मध्य एशिया में हुआ। अतः इन्हें सबसे अधिक स्थानान्तरित होना पड़ा। आज इसका क्षेत्र श्रीलंका, मलेशिया, न्यूगिनी, फिलीपीन्स, अण्डमान तथा अफ्रीका में कांगों के वन प्रदेश, यूगाण्डा, फ्रेंच, यूक्वेटोरियल, अफ्रीका आदि में मिलता है। तस्मानिया तथा जावा द्वीपों में भी इनके अवशेष प्राप्त हुए हैं।

(2) नीग्रो (Negro) – नेग्रिटो के बाद विकसित नीग्रो प्रजाति का कपाल सूचकांक 70 से 72 होता है, अतः इनका सिर बहुत लम्बा होता है। बालों की ऊर्ध्वाधर काट 50 तथा बाल लम्बे होते हैं। त्वचा का वर्ण अधिक काला, नाक चपटी होती है। जबड़ा बाहर निकले होने के कारण चेहरा उत्ताल होता है। नीम्रो प्रजाति पुरानी दुनिया के सीमान्त भागों में विशेषरूप से अफ्रीका के सूडान तथा दक्षिण-पश्चिमी अफ्रीका के गिनी तट के प्रदेशों तथा दक्षिण-पूरबी एशिया के न्यूगिनी एवं पापुआ द्वीपों में निवास करती है।

(3) आस्ट्रेलायड (Australoid)- इस प्रजाति का कपाल सूचकांक 72 से 74 होने से सिर लम्बा होता है। बालों का ऊर्ध्वाधर काट 60 तथा बाल ऊन की भाँति लच्छेदार होते हैं। त्वचा का रंग काला चमकदार से लेकर चाकलेटी तक होता है। नासिका मध्यम चपटी तथा जबड़ा थोड़ा आगे की ओर निकला हुआ होता है।

इनका निवास क्षेत्र दक्षिण भारत, श्रीलंका, आस्ट्रेलिया, ब्राजील तथा मध्य-पूर्वी अफ्रीका में मिलता है। ब्रिटिश उपनिवेश के पहले यह प्रजाति सम्पूर्ण आस्ट्रेलिया में फैली हुई थी, परन्तु अंग्रेजों के आने के बाद आदिवासी आन्तरिक मरुस्थलों की ओर हटते चले गये। पूरबी एशिया, दक्षिणी यूरोप तथा उत्तर अमरीका में भी इस प्रजाति के पाये जाने के चिह्न मिलते हैं।

(4) मेडिटरेनियन (Mediterranean) – मध्यएशिया में आस्ट्रेलायड के वाद मेडिटरेनियन प्रजाति का विकास हुआ। इनका कपाल सूचकांक 74 से 77 तक होता है अतः सिर मध्यम लम्बा होता है। नासिका सूचकांक 69 तथा आकृति अण्डाकार होती है। बालों का ऊधर्वाधर काट 70 तथा बाल घुंघराले एवं अण्डाकार होते हैं। त्वचा का वर्ण हल्के भूरे से श्वेत होता है। इस प्रजाति के उदाहरण आज महाद्वीपों के बाह्य भागों में मिलते हैं। यूरोप में पुर्तगाली, दक्षिण अमरीका के तुपी, अफ्रीका के मिस्त्री, आस्ट्रेलिया के माइक्रोनेशियन, उत्तर अमरीका के इरुक्वायस, भारत के द्रविड़ आदि इसके उदाहरण हैं।

(5) नॉर्डिक (Nordic)-  इसका कपाल सूचकांक 78 से 82 होता है तथा सिर मध्यम होता है। इनके बालों की बनावट अण्डाकार तथा ऊर्ध्वाधर काट 75 होता है। बाल लहरदार एवं सुनहरे रंग होते हैं। कद की औसत लम्बाई 162 सेण्टीमीटर होती है। त्वचा का रंग हल्के भूरे से गुलाबी लिये हुए होता है। नासिका ऊँची, लम्बी तथा आगे को झुकी होती है।

टेलर महोदय ने नॉर्डिक प्रजाति की उत्पत्ति मध्य एशिया से आये हुए आस्ट्रेलायड से बतायी है, परन्तु कुछ विद्वान मेडिटरेनियन को इनके पूर्वज बताते हैं। टेलर के अनुसार नॉर्डिक का मूल-स्थान मध्य एशिया ही था, जहाँ से स्थानानतरित होकर यह यूरोप के बाल्टिक प्रदेश में चले आये। इनके पूर्वज निश्चित ही मेडिटरेनियन के पूर्वज (आस्ट्रेलायड) रहे होंगे, जो बाद में वातावरण के परिवर्तन से इनसे भिन्न हो गये। आज नॉर्डिक लोग यूरोप बाल्टिक सागर के समीपवर्ती क्षेत्र, भूमध्य सागर के समीपवर्ती क्षेत्र, एशिया तथा उत्तर एवं दक्षिण अमरीका मेडिटरेनियन पेटी से ठीक अन्दर की ओर निवास करते हुए पाये जाते हैं।

(6) अल्पाइन (Alpine)-  नॉर्डिक के बाद मध्य एशिया में अल्पाइन प्रजाति विकसित हुई, जो उद्गम स्थल के चारों ओर एशिया तथा मध्य यूरोप में दक्षिण एवं उत्तर अमरीका के मध्य भाग में उत्तर-दक्षिण विस्तृत पेटी में मिलती है।

इसका कपाल सूचकांक 82 से 85 तक होने के कारण सिर चौड़ा होता है। चेहरा एवं जबड़ा एक सीध में होता है। बालों का ऊर्ध्वाधर काट 80 एवं गोल होता है। नासिका सूचकांक 50, अतः नासिका पतली होती है त्वचा का वर्ण हल्का कत्थई से श्वेत होता है। कद मध्यम 155 से 165 सेमी.  के मध्य होता है। अल्पाइन की पश्चिमी शाखा में स्विस, स्लाव, अरपेनियन तथा अफगान गोरे रंग के तथा पूरबी शाखा में फिन्स, मगया सिआक्स तथा मंचू लोग पीले रंग के होते हैं।

(7) मंगोलियन या नव- अल्पाइन (Lat Alpine) – यह सबसे बाद की विकसित प्रजाति हैं। नव अल्पाइन को ही मंगोलियन भी कहा जाता है। टेलर महोदय ने इसे अल्पाइन का ही एक वर्ग बताया है। इनके कपाल सूचकांक 85 से 90 होने के कारण सिर अधिक चौड़े तथा गोल होते हैं। बाल सीधे तथा ऊर्ध्वाधर काट 80 होता है। जबड़े भीतर की ओर धँसे होने के कारण चेहरा अवतल होता है। त्वचा का कर्ण हल्का पीला से लेकर हल्का कत्थई एवं श्वेत तक होता है। कद की लम्बाई 155 से 165 सेमी. के मध्य होती है।

मंगोलियन प्रजाति का मुख्य निवास एशिया के मध्य केन्द्रवर्ती भाग तथा यूरेशिया के विस्तृत क्षेत्र मिलता है। प्रारम्भ में यह केवल मध्य एशिया में ही मिलती थी, परन्तु कालान्तर में फैलकर पूरब में प्रशान्त तथा पश्चिम में तुर्किस्तान तक चली गयी। आज इस प्रजाति का अल्पाइन मेडिटरेनियन तथा नॉर्डिक लोगों से अधिक मिश्रण हो गया।

विद्वान ए.सी. हैडन ने अपनी पुस्तक ‘मानव प्रजातियाँ’ (Races of Man) में बालों की विशेषताओं को मुख्य आधार मानकर विश्व की प्रजातियों का वर्गीकरण किया है। इसमें इन्होंने त्वचा का वर्ण, कद की ऊँचाई, सिर की आकृति तथा नासिका आदि के लक्षणों को भी ध्यान में रखा है। हैडन के अनुसार वालों के लक्षण के आधार पर विश्व में तीन प्रजातियाँ पायी गयीं।

(1) उलोट्रिची (Ulotrichi)- ऊनी यार लच्छेदार बाल वाली।

(2) सिमोट्रिची (Cymotrichi)- लहरदार बाल वाली।

(3) लिओट्रिची (Leiotrichi) सीधे बाल वाली।

हैडन के इस वर्गीकरण को निम्न प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है।

ऊनी बाल वाली प्रजाति

(Ultorichi) 

लहरदार बाल वाली प्रजाति

(Cymotrichi)

सीधे बाल वाली प्रजाति

(Leitrichi)

‍(1) (a) अफ्रीका नेग्रिटो (3) दक्षिण मंगोलियन (7) आस्ट्रलायड
(b) अफ्रीका नीग्रो (4) पालिनेशियन (8) काकेशियन
(2) (a) असिनिक नेग्रिटो (5) उत्तरी मंगोलियन (a) मेडिटरेनियन
(b) ओसिनिक नीग्रो (6) अमेरिण्ड (b) नार्डिक
(c) अल्पाइन

(1) उलोट्रिची प्रजातियाँ- इस वर्ग की प्रजातियों के बाल ऊन की भाँति लच्छेदार होते हैं। बाल की ऊर्ध्वाधर काट 40 से 50 तक हाती है। त्वचा का रंग काला, कद नाटा तथा सिर लम्बा होता है। ऐसे लक्षणों वाली प्रजातियाँ नेकग्रटो तथा नीग्रो हैं, जो दक्षिणी एवं मध्य अफ्रीका देशों-सूडान, कांगो, यूगान्डा, तंजानिया, मलागासी तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में अण्डमान द्वीप- समूह, मलाया, सुमात्रा, पापुआ तथा फिलीपीन्स में निवास करती हैं।

(2) सिमोट्रिची प्रजातियाँ- यह वह वर्ग है, जिसके बाल लहरदार तथा वालों की ऊर्ध्वाधर काट 60 से 70 तक होती हैं त्वचा के रंग के आधार पर इन्हें दो उपवर्गों में बाँटा जाता है।

(3) लिओट्रिची प्रजातियाँ- यह सीधे बालों वाली प्रजातियाँ हैं, जिनके बालों की काट 80 तक होती है। इनका रंग पीला अथवा कत्थई होता है। कद मध्यम तथा सिर चौड़ा (लगभग) गोल होता है। मंगोल प्रजाति इस वर्ग का प्रतिनिधित्व कररती है। इनके अनेक उपवर्ग  हैं, चीन, मंचूरिया तथा उत्तरी साइबेरिया में निवास करते हैं। कुछ वर्ग रूसी, तुर्किस्तान, तिब्बत, सिनकिआंग तथा मलाया तक विस्तृत हैं।

विश्व की प्रमुख प्रजातियाँ

(Major Races of the World)

प्रजातीय आधार पर विश्व जनसंख्या को समस्त मानव समूहों की कुछ विशेष शारीरिक विशेषताओं (जैसे-खोपड़ी, मुँह, होंठ, नाक, कान, आँख तथा बालों की बनावट, शारीरिक बनावट, शारीरिक कद, त्वचा का रंग तथा आँखों का रंग) के आधार पर तीन प्रमुख प्रजातियों में विभिक्त किया जा सकता है-

(1) कॉकेशियन प्रजाति (Caucasoids) या श्वेत प्रजातियाँ (White Races)

(2) नीग्रो प्रजाति (Negroids) या काली प्रजातियाँ (Black Races)

(3) मंगोल प्रजाति (Mongoloids) या पीत प्रजातियाँ (Yellow Races)।

(1) कॉकेशियन प्रजाति

कॉकेशियन प्रजाति के लोग प्रमुख रूप से श्वेत या गौर वर्ण के होते हैं, लेकिन इस प्रजाति के समस्त मानव समूहों की त्वचा का रंग श्वेत नहीं होता, अपितु अन्य प्रजातियों की तुलना में हल्का अवश्य होता है। वर्तमान में विश्व के सर्वाधिक क्षेत्रफल पर कॉकेशियन प्रजाति से ही सम्बन्धित है। इस प्रजाति का वास्तविक मूल निवास पूर्व सोवियत संघ में स्थित कॉकेशिय पर्वत का दक्षिणी ढाल रहा है जहाँ से विश्व के विभिन्न भागों में इस प्रजाति का प्रसार हुआ।

कॉकेशियन प्रजाति तीन शाखाओं में विभक्त मिलती है-

(1) यूरोपियन शांखा (European Branch)

(2) इण्डो-ईरानियन शाखा (Indo-Iranian Branch)

(3) सेमाइट व हेमाइट शाखा (Semites and Hamites Branch) |

(1) यूरोपियन शाखा- वर्तमान समय में यह शाखा पुनः निम्न तीन भागों में विभक्त मिलती हैं-

(अ) नॉर्डिक प्रजाति (Nordic Race) – यह प्रजाति यूरोप के उत्तरी भागों में स्थित बाल्टिक प्रदेश, स्केन्डनेविया क्षेत्र (नार्वे, स्वीडन तथा फिनलैण्ड), जर्मनी के उत्तरी भागों एवं ब्रिटिश द्वीप समूहों में मिलती है। मध्यम कद, चौड़ा, सिर, भूरे-गुलाबी रंग की त्वचा, चपटा तथा गरुड़वत नाक इस प्रजाति के प्रमुख शरीरिक लक्षण हैं।

(ब) एल्पाइन प्रजाति (Alpine Race) – एल्पाइन प्रजाति मध्यवर्ती यूरोप, पूर्वी, यूरोप तथा दक्षिणी-पूर्वी यूरोप में मिलती है। चौड़ा सिर, संकरी नाक, या गोरे रंग की त्वचा तथा सिर खड़े वाल इस प्रजाति के प्रमुख शारीरिक लक्षण हैं।

(स) भूमध्यसागरीय प्रजाति (Mediterranean Race)- इस प्रजाति का विस्तार स्पेन, पुर्तगाल, दक्षिणी इटली के अलावा उत्तरी अफ्रीका तथा दक्षिण-पश्चिमी एशिया के कुछ भागों में मिलता है। लम्वा सिर, घुंघराले वाल, अण्डाकार नाक तथा निकला हुआ जबड़ा इस प्रजाति की प्रमुख शारीरिक विशेषताएँ हैं।

(2) इण्डो-ईरानियन शाखा- कॉकेशियन प्रजाति की इस शाखा में 35 से 40 करोड़ व्यक्ति सम्मिलित हैं। यह शाखा दक्षिण-पश्चिमी एशिया के उत्तरी तथा पूर्वी भागों में एवं भारत के उत्तरी एवं मध्यवर्ती भागों में विस्तृत मिलती है।

(3) सेमाइट व हेमाइट शाखा- कॉकेशियन प्रजाति की इस शाखा के लगभग 10 करोड़ व्यक्ति वर्तमान समय में है, जो प्रमुख रूप से अफ्रीका के उत्तरी एवं उत्तर-पूर्वी भागों तथा तुर्की में निवास करते हैं।

कॉकेशियन प्रजाति का विसतार विश्व के उन क्षेत्रों में भी मिलता है, जिन क्षेत्रों में यूरोपियन लोगों ने अपने उपनिवेशों की स्थापना की। ऐसे क्षेत्रों में कॉकेशियन प्रजाति की यूरोपियन शाखा का प्रवास हुआ। संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, ब्राजील, अर्जेण्टाइना, गुयाना, चिली, दक्षिणी अफ्रीका संघ, ऑस्ट्रेलिया तथा साइबेरिया में ट्रान्स-साइबेरियन रेलमार्ग क्षेत्रों में इसी प्रजाति के लोग निवास करते हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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