मौखरी राजवंश की उत्पत्ति | परवर्ती गुप्त-वंश एवं उनका मूल निवास-स्थान
मौखरी राजवंश की उत्पत्ति | परवर्ती गुप्त-वंश एवं उनका मूल निवास-स्थान
मौखरी राजवंश की उत्पत्ति
गुप्त काल के बाद उत्तर भारत में मौखरियों का राज्य एक प्रबल राजनीतिक शक्ति के रूप में विद्यमान हो गयी थी। (मौखरियों की प्राचीनता का प्रमाण पाणिनि, पतंजलि और मौर्यकालीन ब्राह्मी अक्षरों में अंकित एक मिट्टी की मुहर द्वारा प्राप्त होता है) उनके साथ-साथ जो वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये गये थे, उनका अभिलेखों में बड़े गर्व के साथ उल्लेख किया गया है, जिससे मौखरियों के कुल की प्राचीनता सिद्ध होती है। (बाण ने भी उनके कुल की प्राचीनता का उल्लेख किया है। व सम्भवतः एक गणतन्त्रात्मक समुदाय में थे) अभिलेखों द्वारा भी उनकी प्राचीनता का प्रमाण प्राप्त होता है। उन अभिलेखों में, जो ईसा की तीसरी शताब्दी में उत्कीर्ण कराये गये थे, मौखरी सरदारों का उल्लेख किया गया है। उनकी शक्ति के केन्द्र गंगा की उपरली घाटी में थे (वर्तमान उत्तर प्रदेश और बिहार के भागों में)। उनकी राजधानी गया में थी। सम्भवतः गुप्तों द्वारा वे पराजित कर दिये गये। अतएव गुप्त सामन्तों के रूप में उन्होंने गुप्त संवत् अपना लिया। छठी शताब्दी में वे स्वतन्त्र हो गये। इस शताब्दी के प्रारम्भ तक मौखरी राजाओं ने सामन्तोचित विरुद धारण किये। ईशानवर्मन जो स्वयं एक गुप्त राजकुमारी का पुत्र था, सर्वप्रथम मौखरी नरेश था, जिसने सम्राटों की पदवी धारण की। मौखरियों का एक प्रभावशाली राजवंश के रूप में उदयगुप्त साम्राज्य की शक्ति क्षीण हो जाने पर कन्नौज में हुआ था।
प्रारम्भिक मौखरी-नरेश, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, सामन्तोचित विरुद धारण करते थे। उनको ‘सामन्त चूडामणि’ तथा ‘सामन्त’ ही कहा गया है। सम्भवतः व गुप्त-नरेशों के अनुवर्ती सामन्त थे। ईशानवर्मन ने अपने कुल की स्वतन्त्र राजसत्ता का विकास करके अपने को गौरवान्वित किया और साथ ही साथ अपने वंश की मर्यादा भी बढ़ाई। जैसा पहले कहा जा चुका है, वह सर्वप्रथम मौखरि नरेश था, जिसने सम्राट का विरुद धारण किया, परन्तु यह विरुद मात्र का न था (ईशानवर्मन एक योद्धा और वीर विजेता था उसके हरहा अभिलेख में उसकी सैन्य सफलताओं का उल्लेख किया गया है, जिससे विदित होता है कि उसने आन्ध्रों को जीता, लूलिको को परास्त किया और गौड़ों को उनकी सीमा के भीतर घेर रखा। इस प्रकार उसकी शक्ति बढ़ने पर उसके समकालीन गुप्त नरेशों को चिन्ता हुई। ईशानवर्मन ने अपने को गुप्तों का एक प्रबल प्रतिद्वन्द्वी प्रमाणित किया। सम्भवतः उसने हूणों से भी युद्ध किया। कदाचित् वह सन् 554 ई० शासन कर रहा था) उसने मगध के गुप्त नरेश से भी लोहा लिया। उस समय से मौखरियों और परवर्ती गुप्त शासकों का पारस्परिक संघर्ष प्रारम्भ हो गया। गंगा की उपरली घाटी में मौखरी राजकुल सबसे अधिक शक्तिशाली राजनीतिक शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हो गया। सर्ववर्मन ईशानवर्मन का पुत्र और उत्तराधिकारी था। उसने अपने समकालीन मगध-नरेश को जो गुप्तवंश का था और जिसका नाम दामोदरगुप्त था, युद्ध में पराजित कर दिया और उसकी हत्या भी कर डाली। सर्ववर्मन का राज्य सम्भवतः बंगाल से लेकर सतलज और विन्ध्य तक फैला था। उसकी राजधानी कान्यकुब्ज (कन्नौज) थी, जो एक प्राचीन नगरी (कदाचित् ईसापूर्व दूसरी शताब्दी से भी पहले) थी। इसका उल्लेख पतंजलि ने भी किया है और फाह्यान ने इसका भ्रमण किया था, परन्तु इस नगरी का महत्व गुप्तों के पतनोपरान्त ही बढ़ा। सर्ववर्मन के पश्चात् अवन्तिवर्मन इसका उत्तराधिकारी हुआ। अवन्तिवर्मन भी एक शक्तिशाली नरेश था। गुणवर्मन नामक एक मौखरी-नरेश (सातवीं शताब्दी का प्रारम्भ) ने हर्षगुप्त की भगिनी से पाणिग्रहण किया था। मालवा के गुप्त नरेश देवगुप्त ने गुणवर्मन का वध कर दिया। हर्ष ने देवगुप्त को पराजित करके अपनी भगिनी के संरक्षक के रूप में मौखरी राज्य का भार अपने ऊपर वहन कर लिया। इस प्रकार वर्द्धनों ने मौखरियों की सम्राटोचित स्थिति को प्राप्त कर लिया। इसके पश्चात् मौखरियों की मुख्य शाखा का अन्त हो गया। मौखरियों की अनेक शाखायें थीं, जिनमें उत्पन्न राजकुमार और कुछ दिनों तक शासन करते रहे, परन्तु मूल मौखरी कुल की राजसत्ता समाप्त हो गई।
डॉ० त्रिपाठी ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘कन्नौज का इतिहास’ में बताया है कि विन्ध्य से लेकर अवध तक और पूर्व में पूर्वी बंगाल तक मौखलियों का राज्य फैला हुआ था। मौखरी-नरेश अमात्यों की एक सभा की सहायता से राज्य पर शासन करते थे। राजवंश के कुमार विभिन्न प्रान्तीय शासकों के रूप में प्रान्तों पर शासन करते थे, किन्तु सामन्तगण भी विद्यमान थे। न्याय की एक सुसंगठित व्यवस्था थी और राजा तक अपील की जा सकती थी। विविध प्रकार के राज्य-पदाधिकारियों का उल्लेख भी प्राप्त होता है। कान्यकुब्ज के मौखरी राजा ब्राह्मण धर्म के कट्टर अनुयायी थे। उनके शासन काल में संस्कृति और सभ्यता का प्रचार था। पिरेज नामक विद्वान् की धारणा है कि ‘कौमुदी महोत्सव’ नामक नाटक की रचना मौखरियों के राजत्व-काल में की गई थी। परन्तु इस विचार की पुष्टि के लिए समुचित प्रमाण नहीं है। किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि मौखरी-नरेशों ने विद्या के पोषण और प्रचार का प्रयत्न किया। मौखरियों का शासन-काल 554 ई० से 606 ई० तक है।
परवर्ती गुप्त-वंश एवं उनका मूल निवास-स्थान
भारतीय इतिहासकारों के लिए ‘परवर्ती गुप्त वंश’ बड़ी जटिल पहेली का रूप धारण किए हुए था। इन नरेशों की एकात्मकता महान् गुप्त वंश के नरेशों से किए जाने का प्रयास किया जाता था। परन्तु समस्या को सरल रूप प्राप्त होने के स्थान पर विषम रूप ही प्राप्त होता चला जा रहा ग। अफसढ़ अभिलेख के कृष्णगुप्त की एकात्मकता गोविन्दगुप्त से स्थापित की गई थी। परन्तु इस एकात्मकता के समर्थन में विद्वानों को कोई तर्कसंगत आधार ही नहीं प्राप्त हो रहा था, क्योंकि यह परवर्ती गुप्त नरेश अपने को महानगुप्त सम्राटों की पंक्ति में नहीं रखते थे। यदि महान् सम्राटों की वंशावली के वे लोग सदस्य होते तो निश्चितरूपेण वे अपने को उनके वंशज घोषित करते। कौन नरेश, संयोगवंश, स्वर्णयुग के विधाताओं की पंक्ति में आना स्वीकार नहीं करेगा? इस एकात्मकता का मुख्य तर्क यही हो सकता है कि ‘गुप्त’ नाम दोनों वंशों के नरेशों के अंत में जुड़ा हुआ प्राप्त होता है। अब इतिहासकारों ने यह मानना स्वीकार कर लिया है कि दो विभिन्न गुप्तों ने भारत में भिन्न-भिन्न समयों पर राज्य किया था। इन दोनों का परस्पर कोई रक्त का नाता नहीं था। यह नामों की समरूपता केवल संयोगवश ही है। परवर्ती गुप्त नरेशों के यद्यपि इसके पूर्व, ऐतिहासिक तथ्यों के अभाव में विद्वान् इसे मौखरी वंश का मानते थे। डॉ. रमाकर त्रिपाठी तथा डॉ० रायचौधरी ने लिखा है कि ‘महासेनगुप्त की कामरूप के सुस्थि वनवन यह नहीं सिद्ध करती है कि महासेनगुप्त मालवा का शासक नहीं हो सकता। मालवा का शासक होकर भी महासेनगुप्त की आसाम के शासक पर विजय सम्भव है। तभी तो रायचौधरी ने लिखा है-
“Kumargupta had pushed to Prayaga and Damodargupta had broken up the proudly stepping array of mighty elephants belonging to the Maukharis what was there to prevent the son of Damodargupta from pushing on to Louhityas.”
जब मालवा नरेश कुमार गुप्त प्रयाग तक विजय प्राप्त करने में सक्षम था और जब दामोदर गुप्त मगध के मौखरियों को भी नतमस्तक कर सकता था, तब महासेनगुप्त, क्यों नहीं लौहित्य के तट तक विजय प्राप्त करने में समर्थ था। महासेनगुप्त पूर्णतया आसाम के शासक को परास्त करने में सामर्थ्यवान था। डॉ० राय चौधरी तथा डा० त्रिपाठी के उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि कुमार गुप्त एवं महासेन गुप्त के पिता दामोदर गुप्त का मगधपुर पर भी नियंत्रण था, क्योंकि प्रयाग तक अपना साम्राज्य-विस्तार करना एवं मौखरियों को विजित करना मगध को अपने नियंत्रण में रखने के तुल्य है।
परन्तु हमारे उपर्युक्त मत के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है देव-बर्नार्क के अभिलेख का यह विवरण कि मौखरियों का प्रभुत्व मगध में स्थित था। इन मौखरियों में मुख्यतः दो नरेशों के समय में- सर्ववर्मन तथा अवन्तिवर्मन के- यह प्रभुत्व अधिक स्पष्ट था। महासेन गुप्त तथा सर्ववर्मन लगभग समकालीन नरेश थे। इससे हम यही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि दोनों नरेशों ने मगध को भिन्न-भिन्न समयों में शासित किया था। परवर्ती नरेशों ने या तो मौखरी शासन के पूर्व या मौखरी शासन की समाप्ति पर राज्य किया था। केवल यह दो ही विकल्प हो सकते हैं। हमारे मत में, जिसके बी०पी० सिन्हा प्रवर्तक हैं, परवर्ती गुप्तों ने अपना शासन मौखरियों के पूर्व किया था, क्योंकि कम से कम दो नरेशों ने तो मगध के कुछ भागों पर अवश्यमेव शासन किया था और सम्भवतः उनके वंशजों ने इस प्रदेश पर अपना शासन अनवरत रखा हो। मौखरी नरेश ईशानवर्मन के साम्राज्यान्तर्गत प्रयाग तक का भू-भाग भी सम्मिलित था। महासेन गुप्त की कामरूप-विजय से हम यह निगमन कर सकते हैं कि उसका प्रभुत्व अवश्यमेव मगध एवं बंगाल पर स्थित रहा होगा, क्योंकि इतने प्रतापी नरेश के लिए यह दो प्रदेश मोधनैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण थे। जब महासेन गुप्त का पतन प्रारम्भ हुआ, तभी मगध पर मौखरियों का अधिपत्य पुनः स्थापित होना प्रारम्भ हुआ था।
इस प्रकार, पियर्स आदि महोदयों का यह कहना कि मगध पर मौखरियों का ही अधिपत्य था, अनुचित एवं न्याय-असंगत है। एक व्यावहारिक मत के प्रतिपादन के लिए उपयुक्त निष्कर्ष ही अत्यधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है। डा० राय चौधरी ने अपने को एक विषम परिस्थिति में डाल दिया है, क्योंकि यह एक अव्यावहारिक मत का पिष्टपेषण करते हैं। इस विद्वान ने महासेनगुप्त को ही पुनः मगध से कामरूप तक परवर्ती गुप्त साम्राज्य स्थापित करने वाला बताया है। इस नरेश के पूर्व मगध मौखरियों के शासनान्तर्गत था।
अफसढ़ अभिलेख में माधव गुप्त नाम के एक नरेश का उल्लेख है जो कि “श्री हर्षदेव की संगति के लिए इच्छुक है”। डॉ० मुकर्जी ने अफसढ़ अभिलेख के माधव गुप्त की बाण के माधव गुप्त एकात्मकता स्थापित की है। इस प्रकार मालवा को परवर्ती गुप्तों का मूल स्थान प्रतिपादित किया है। इसके साथ ही साथ, यह भी बताया गया है कि मगध में उस समय परवर्ती गुप्तवंश का शासन भी नहीं हो सकता था, क्योंकि मगध पर अन्य वंश का आधिपत्य था। उस समय मगध मौखरियों के अन्तर्गत शासित हो रहा था। ह्वेनसांग ने भी मगध पर गुप्त नरेशों के आधिपत्य के विषय में कुछ भी नहीं कहा है। इससे माधव गुप्त मगध का शासक नहीं रहा था। श्री पियर्स (E.A. Piers) ने मौखरियों का अधिपत्य प्रारम्भ से ही मगध पर माना है। इस विद्वान ने मौखरियों को शताब्दियों पूर्व से मगध का निवासी घोषित किया है। परवर्ती गुप्तों को मालवा का मूल निवासी बताते हुए इसने दो तर्कों को हमारे सम्मुख उपस्थित किया है : (1) इस तर्क के अनुसार अफसढ़ अभिलेख का माधव गुप्त तथा हर्षचरित का माधव गुप्त एक ही नरेश की ओर इंगित करते हैं। अतएव, इस नरेश के पिता तथा अन्य पूर्वज मालवा के ही शासक थे। (2) अभिलेखों ने यह साक्ष्य उपस्थित किया है कि मगध पर मौखरियों का शासन था, अतएव परवर्ती गुप्तों का उस स्थान पर शासन सम्भव नहीं। एक ही क्षेत्र पर दो राजवंशों का अस्तित्व, साथ ही साथ, असम्भव होता है। अतएव परवर्ती गुप्तों का क्षेत्र मालवा ही था। इस प्रकार इन दो तर्को से पियर्स महोदय ने अपने मत की पुष्टि की है। परन्तु अन्य विद्वानों ने इन तर्कों को तथ्यसंगत नहीं स्वीकार किया है। विशेष रूप से दूसरे तर्क की आलोचना करते हुए डॉ० रमेश चन्द्र मजूमदार ने कहा है-
“Deo Bennaika inscription does not prove the possession of Magadha or any part by the Maukhari Kings Sarvavarman and Avantivarman the village granted might not be Varnika (Deo Barnark), but Kishorevatika which might have been the Uttar Pradesh, outside Magadha.”
पियर्स महोदय ने अभिलेखों को मौखरी नरेशों के अस्तित्व का जो उल्लेख किया है, वह ठोस नहीं है। देव बर्नार्क अभिलेख ही में मौखरियों का निर्देश आया है। इसमें मौखरियों द्वारा अनुदान में दिए हुए एक ग्राम का वर्णन है। यह वर्णन ‘किशोर-वाटिका’ का है। ‘वार्णीक’ गाँव को अनुदान में नहीं दिया गया था, बल्कि किशोर-वाटिका’ का है। ‘वार्णीक’ गाँव को अनुदान में नहीं दिया गया था, बल्कि ‘किशोर-वाटिका’ को। यह गाँव उत्तर प्रदेश में स्थित है। अतएव मौखरी नरेशों सर्ववर्मन एवं अवन्तिवर्मन मगध या उसके किसी भाग पर कोई आधिपत्य नहीं किया हुआ था।
इस प्रकार पियर्स एवं अन्य विद्वानों का सिद्धान्त दम तोड़ता चल रहा है, क्योंकि नूतन अन्वेषणों एवं अनुसंधान ने हमारे सम्मुख नया ऐतिहासिक तथ्य प्रस्तुत किया है। इस प्रकार मालबा को हम अब परवर्ती गुप्त नरेशों का मूल स्थान नहीं कह सकते। आदित्यसेन के अफसढ़ अभिलेख में यह अंकित है कि महासेनगुप्त ने सुस्थित वर्मन पर विजय प्राप्त की थी-
“”This mighty fame marked with the ‘honour of victory in war over Sri Susthirvarmn is still sung on the banks of the river Lauhitya.”
अब पूर्णतया यह स्पष्ट हो गया है कि सुस्थितवर्मन कामरूप का नरेश था।
“After the loss of Magadha, the later Guptas were apparently confined to Malwa till Mahasenagupta once more pushed his conquests so far as the Lauhitya.”
परन्तु डॉ० साहब के इस मत के मानने से तो यही तात्पर्य होगा कि सर्ववर्मन एवं अवन्तिवर्मन का मगध पर प्रभुत्व नहीं था। परन्तु सर्ववर्मन एवं अवन्तिवर्मन मगध पर प्रभुत्व एक प्रकार से पूर्णतया सिद्ध हो चुका है। इस प्रकार दो नरेशों का मगध में साथ-साथ राज्य करना असंभव है। अतएव डॉ० राय चौधरी के मत को हम मानने में असमर्थ हैं।
पियर्स ने एक बड़ी ही निष्फल कल्पना की उडान भरी है यह बता कर कि महासेनगुप्त एवं मगध के मौखरी नरेश ने मिलकर कामरूप के नरेश के विरुद्ध अभियान किया था। देखिए-
“Maukhari King must have been glad that Mahasenagupta had takete upon himself the dangerous task of subduing the imperial ambitions of the far eastern potentate. Magadha emperor might have but some assistance and encouragement to Mahasenagupta.”
सातवीं शताब्दी ई० की सबसे महत्वपूर्ण बात है मौखरियों एवं परवर्ती गुप्तों में प्रभुत्व के लिए प्रतिद्वन्द्विता। इन दो राजवंशों ने वर्धनों के पतन के पश्चात् अपनी सार्वभौमिकता स्थापित करने की जी तोड़ कोशिश की थी। परन्तु ये दोनों राजवंश अपने प्रयास में असफल रहे थे। क्या ये भीषण शत्रु एक-दूसरे से परस्पर स्नेहालिंगन कर सकते थे? क्या एक सामान्य शत्रु एक-दूसरे से परस्पर स्नेहालिंगन कर सकते थे? क्या एक सामान्य शत्रु के विरोध में ये दोनों विपक्षी एक हो सकते हैं? इन दोनों का उत्तर नकारात्मक है। कामरूप पर विजय प्राप्त करने के लिए यह उचित ही है कि विजयी का शासन मगध पर भी हो। इतनी दूर तक अपना अभियान ले जाने वाले नरेश के लिए अनिवार्य-सा है कि वह भारत के हृदय को भी जीते और विशेष कर उस समय जबकि उस पर घातक शत्रुओं का आधिपत्य हो। इस प्रकार मालवा के नरेश महासेन गुप्त का मगध तक शासन-विस्तार था, यह उचित ही है।
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