इतिहास / History

निम्न पुरापाषाण काल | निम्न पुरापाषाणकाल के अनुक्रम की विवेचना

निम्न पुरापाषाण काल | निम्न पुरापाषाणकाल के अनुक्रम की विवेचना

निम्न पुरापाषाण काल

भारत की निम्न पुरापाषाण काल की संस्कृति को उपकरण-प्रकार तथा प्रसार-क्षेत्र के आधार पर दो प्रमुख वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. चॉपर-चापिंग पेबुल संस्कृति (Chopper-Chopping Pebble Culture),
  2. हैण्ड एक्स संस्कृति (Hand Axe Culture)

चॉपर-चापिंग संस्कृति पाकिस्तान के पंजाब में प्रवाहित होने वाली सिन्धु की सहायता ‘सोहन’ नदी की घाटी में किये गए प्रागैतिहासिक अन्वेषण रूप सर्वप्रथम प्रकाश में आयी थी। अतः इसको ‘सोहन संस्कृति’ के नाम से भी जाना जाता है। चॉपर-चॉपिंग तथा फलक इस संस्कृति के प्रमुख उपकरण हैं। चॉपर-चॉपिंग उपकरण-निर्माण की परम्परा का इस क्षेत्र में कैसे विकास हुआ, इस सम्बन्ध में पुरातत्त्ववेत्ता एकमत नहीं हैं। कतिपय विद्वानों की धारणा है कि सोहन संस्कृति का सम्बन्ध दक्षिण-पूर्व एशिया में मिलने वाली चॉपर-चॉपिंग संस्कृति से हो सकता है। बर्मा, जावा तथा चीन के क्षेत्रों में मिलने वाली निम्न पुरापाषाण काल की संस्कृति से इसे सम्बद्ध किया जा सकता है।

निम्न पुरापाषाण काल की दूसरी संस्कृति एश्यूलॅन संस्कृति के नाम से प्रसिद्ध  है। हैण्डेक्स, क्लीवर, स्केपर, क्रोड तथा फलक इस संस्कृति के प्रमुख उपादान हैं। इस संस्कृति के उपकरण मद्रास के पास से सर्वप्रथम प्राप्त हुए थे इसलिए इसे कभी-कभी ‘मद्रासियन संस्कृति’ भी कहा जाता है, यद्यपि इस नाम का चलन अब प्रायः समाप्तप्राय है। भारत के अधिकांश भू-भागों से हैण्ड एक्स परम्परा के उपकरण मिले हैं। भारत की हैण्ड एक्स संस्कृति को अफ्रीका, यूरोप तथा पश्चिमी एशिया की निम्न पुरापाषाणिक संस्कृति से सम्बद्ध किया जा सकता है। चॉपर चॉपिंग तथा एश्यूलॅन संस्कृतियों में परस्पर क्या सम्बन्ध रहा होगा? यह निश्चत रूप से ज्ञात नहीं है।

उत्तर भारत के गांगेय क्षेत्र तथा केरल को छोड़कर देश के अधिकांश भागों से निम्न पुरापाषाण काल के उपकरण प्राप्त हुए हैं। उपर्युक्त दोनों क्षेत्रों में उपकरणों के मिलने के दो प्रमुख कारण हो सकते हैं- 1. ये क्षेत्र सघन वनों से आच्छादित थे तथा यहाँ पर उपकरण निर्माण की सामग्री (Raw material) का अभाव था। 2. नदियों द्वारा लायी गयी जलोढ़ मिट्टी के नीचे पुरापाषाणिक पुरास्थल दब गए होंगे। निम्न पुरापाषाणिक पुरावशेष मुख्यतः पठारी भागों, पहाड़ों की तलहटियों तथा नदियों के अनुभागों में मिलते हैं। भीम बैठका तथा गुडियम आदि कतिपय गुफाओं से भी पुरापाषाणिक उपकरण मिले हैं। पुरापाषाण काल के आवास-स्थलों अथवा प्राथमिक पुरास्थलों की संख्या अत्यल्प है। प्राथमिक पुरास्थलों के बजाय अधिकांश उपकरण भूतल से द्वितीयक परिप्रेक्ष्य में मिले हैं। भारत के कतिपय क्षेत्रों में निम्न पुरापाषाणिक पुरास्थलों के उत्खनन हुए हैं जिनके फलस्वरूप पुरापाषाणिक संस्कृति के विषय में हमारी जानकारी बढ़ रही है। भारत की निम्न पुरापाषाणिक संस्कृति को अध्ययन की सुविधा के लिए निम्नलिखित प्रमुख क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है- 1. उत्तरी क्षेत्र, 2. शिवालिक क्षेत्र, 3. पश्चिमी क्षेत्र, 4. दकन का पठारी क्षेत्र, 5. दक्षिणी क्षेत्र, 6. पूर्वी क्षेत्र, 7. मध्य क्षेत्र।

  1. उत्तरी क्षेत्र

उत्तरी क्षेत्र के अंतर्गत कश्मीर घाटी को सम्मिलित किया गया है। कश्मीर घाटी का चतुर्थक काल की भूतात्त्विक बनावट तथा पुरातात्त्विक दृष्टि से अनेक विद्वानों ने अध्ययन किया है। समतल मैदानी भाग से पीर पंजाल की ऊँची चोटियाँ कश्मीर को पृथक् करती हैं। कश्मीर घाटी एक नाव के आकार की है जिसकी दक्षिण-पश्चिमी सीमा का निर्धारण पीर पंजाल की पर्वत मालाएँ करती हैं और उत्तरी-पूर्वी सीमा हिमालय की चोटियाँ बनाती हैं। झेलम नदी जल-प्रवाह प्रणाली को नियंत्रित करती है।

सन् 1935 में येल-कैम्ब्रिज अभियान दल के हेल्मुत द तेरा तथा टी० टी० पीटरसन ने कश्मीर घाटी के प्रातिनूतन काल के जमाव का अध्ययन किया था। प्रतिनूतन काल के प्रारम्भिक चरण में विवर्तनिक उठानों के परिणामस्वरूप कश्मीर घाटी का प्रवाह-मार्ग अवरुद्ध हो गया तथा यह क्षेत्र एक विशाल झील के रूप में परिवर्तित हो गया। बाद में यह झील सूख गयी। प्रातिनूतन काल की इस झील का लगभग 100 मीटर मोटा जो जमाव है वह बालू, चिकनी मिट्टी, दुमट तथा ग्रेवल (जल-धर्षित प्रस्तर के टुकड़े) से निर्मित है। कश्मीर घाटी का यह जमाव करेवा (Karewas) के नाम से प्रसिद्ध है। करेवा जमाव को दो भागों में विभाजित किया जाता है-1. निम्न करेवा, 2. उच्च करेवा। यूरोप के आल्पस-क्रम के अनुरूप हेल्मुत द तेरा तथा टी० टी० पीटरसन ने निक्षेप (जमाव) एवं अपरदन (कटाव) की क्रियाओं के आधार पर कश्मीर घाटी के प्रातिनूतन काल के हिमायनों को चार भागों में विभाजित किया था। कश्मीर घाटी में पाँच वेदिकाओं के विषय में उल्लेख किया था। प्रथम तथा तृतीय वेदिकाएँ अंतर्हिमकालों से सम्बन्धित हैं जिनका निर्माण कटाव के परिणामस्वरूप हुआ। द्वितीय, चतुर्थ एवं पंचम वेदिकाएँ जमावों से निर्मित हैं। इनको हिम कालों से सम्बन्धित बतलाया जाता है। निम्न करेवा का काल-क्रम गुंज-मिन्देल अंतर्हिमकाल (प्रथम अंतर्हिमकाल) तथा उच्च करेवा का समय द्वितीय हिमकाल का अंत तथा दूसरे अंतर्हिमकाल के प्रारम्भ का सन्धि-काल माना गया था।

प्रारम्भ में प्रातिनूतन काल में मानव-आवास के साक्ष्य इस क्षेत्र से द तेरा तथा पीटरसन आदि विद्वानों को नहीं प्राप्त हुए थे किन्तु सन् 1969 में एच०डी० सांकलिया को श्रीनगर से पूर्व दिशा में लगभग 65 किमी० की दूरी पर लिद्दर नदी के दाहिने किनारे पर स्थित पहलगाम में गोल मैदान के नीचे सड़क की एक कटान (Road Cutting) से अपेक्षाकृत विशाल आकार का फलक (26x17x6 सेमी) तथा एक अनगढ़ हैण्ड एक्स मिले थे। विशाल फलक में एक ही ओर से सोपानपद फलकीकरण मिलता है। यह फलक लिद्दर नदी के बोल्डर कांग्लोमरेट जमाव से मिला है जिसका काल प्रायः द्वितीय हिमकाल माना जाता है। सांकलिया का मत है कि इस जमाव का सम्बन्ध प्रथम अंतर्हिम काल से है। समशीतोष्ण जलवायु मानव के निवास के अनुकूल रही होगी। अनगढ़ हैण्ड एक्स बोल्डर कांग्लोमरेट तथा उसके ऊपर के भूरे रंग के सिल्ट जमाव के सन्धि-स्थल से मिला था। इस प्रकार तकनीकी बनावट एवं स्तरीकरण दोनों ही दृष्टियों से इस हैण्डएक्स को सबसे प्राचीन माना जा सकता है। सन् 1970 में एच०डी० सांकलिया तथा आर०वी० जोशी के सहयोगियों ने इस पुरास्थल का पुनः सर्वेक्षण करके 9 उपकरणों को खोज निकालने में सफलता प्राप्त की। क्वार्टजाइट पर बने स्क्रेपर, क्वार्ट्ज पर निर्मित तीन छिद्रक (Borer), क्वार्ट्साइट का एक आयताकार क्रोड और एक हैण्ड एक्स युक्त-चॉपर प्रमुख उपकरण थे। स्तरीकरण के आधार पर इनका समय द्वितीय हिमकाल, द्वितीय अंतर्हिमकाल अथवा तृतीय हिमकाल माना गया है।

डी० पी० अग्रवाल के निर्देशन में कश्मीर घाटी का भूतात्त्विक-पुरातात्त्विक अन्वेषण विशेषज्ञों का एक दल करने में लगा हुआ है। इस दल के सदस्यों को पुरापाषाण काल के उपकरण कश्मीर घाटी से अभी तक नहीं मिले हैं। इस प्रकार प्रातिनूतन काल में कश्मीर घाटी में मानव के निवास की समस्या का समाधान होना अभी भी शेष है।

  1. शिवालिक क्षेत्र

भारत और पाकिस्तान के उत्तर में हिमालय पर्वत की श्रेणियाँ स्थित हैं। हिमालय की श्रेणियों को तीन भागों में विभाजित किया जाता है जो एक-दूसरे के समानान्तर पश्चिम से पूर्व की ओर फैली हुई है। सबसे उत्तर में मुख्य हिमालय की ऊँची चोटी है जिसे हिमाद्रि भी कहा जाता है। इसकी औसत ऊँचाई 6,000 मीटर है। मध्य हिमालय (हिमाचल) की श्रेणी मुख्य हिमालय के दक्षिण में स्थित है और अपेक्षाकृत कम ऊँची है। इसकी ऊँचाई 3,000 से 5,000 मीटर के बीच में है। मध्य हिमालय के दक्षिण में शिवालिक की श्रेणी है जो पश्चिम में सिन्धु नदी से लेकर पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी तक हिमालय के समानान्तर फैली हुई है। इसकी औसत ऊँचाई 1,400 मीटर है तथा चौड़ाई लगभग 40 किमी० है। शिवालिक का जमाव लगभग 5,000 से 5,500 मीटर तक मिलता है जिसका निर्माण हिमालय से निकलने वाली नदियों के द्वारा बहा कर लाये गए अवसादी जमाव (Sedimentary deposits) से प्रारम्भिक मायोसीनकाल (Early Miocene) से लेकर मध्य प्रातिनूतन काल के बीच में हुआ है। शिवालिक के सम्पूर्ण जमाव को तीन भागों में विभाजित किया जाता है-1. निम्न शिवालिक, 2. मध्य शिवालिक, 3. उच्च शिवालिक। उच्च शिवालिक को पुनः दो भागों में विभाजित किया गया है-

  1. टेट्राट-पिंजौर, 2. बोल्डर कांग्लोमरेट ।

टेट्राट-पिंजौर के जमाव का निर्माण निम्न प्रातिनूतन काल में तथा बोल्डर कांग्लोमरेट के जमाव का निर्माण प्रारम्भिक मध्य प्रातिनूतन काल में हुआ था। शिवालिक के ऊपरवर्ती जमावों को छोड़कर शेष सभी भूतात्त्विक जमावों से जीव-जन्तुओं के जीवाश्म प्राप्त हुए हैं। द्वितीय हिमकाल के मोरेन से बोल्डर कांग्लोमरेट निर्मित है। इस आधार पर हिमकालों तथा सोहन नदी की विभिन्न वेदिकाओं के कालानुक्रम का निर्धारण किया गया है। शिवालिक के जमावों से पशुओं आदि के जीवाश्मों के मिलने के तथ्य को ध्यान में रखते हुए एच०डी० सांकलिया ने ऐसी संभावना व्यक्त की है कि इस क्षेत्र से पुरापाषाण काल के मानव के जीवाश्म भी प्राप्त हो सकते हैं।

शिवालिक की श्रेणियों के दक्षिण में भाबर तथा तराई के क्षेत्र हैं। पर्वतों से नीचे उतरने वाली नदियों ने छोटे-बड़े शैल-खण्ड लाकर भाबर क्षेत्र में बहुत दूर तक एकत्र कर दिए हैं। इस भाग से होकर बहने वाली नदियों का जल इन शैलखण्डों के नीचे विलीन हो जाता है जो आगे तराई के दलदलों में फिर ऊपर आ जाता है। तराई के क्षेत्र में घने जंगल और लम्बी घासें उगती हैं। इन जंगलों में अनेक प्रकार के वन्य-पशु पाये जाते हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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