मूल्यांकन प्रक्रिया के सोपान

मूल्यांकन प्रक्रिया के सोपान | Steps of Evaluation Process in Hindi

मूल्यांकन प्रक्रिया के सोपान | Steps of Evaluation Process in Hindi

किसी अच्छे मूल्यांकन कार्यक्रम के लिए यह आवश्यक है कि वह छात्रों के व्यवहार में होने वाले परिवर्तनों का ठीक ढंग से मूल्यांकन कर सके। विभिन्न विषयों के शिक्षण के भिन्न-भिन्न उद्देश्य होते हैं। तथा इन भिन्न-भिन्न उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये भिन्न-भिन्न प्रकार की अधिगम क्रियायें छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत की जाती हैं। इन भिन्न-भिन्न प्रकार की अधिगम क्रियाओं के फलस्वरूप छात्रों के व्यवहार में होने वाले परिवर्तनों का मापन सरल नहीं है। जैसा कि चर्चा की जा चुकी है मूल्यांकन एक सतत प्रक्रिया है | अतः इसमें अनेक सोपानों या क्रियाओं का होना स्वाभाविक ही है। वास्तव में मूल्यांकन प्रक्रिया के तीन मुख्य सोपान हैं। ये तीन सोपान क्रमशः – (i) उद्देश्यों का निर्धारण, (ii) अधिगम क्रियाओं का आयोजन तथा (iii) मूल्यांकन करना हैं। परन्तु स्पष्टता व सरलता के लिए इनको कुछ उपसोपानों (sub-steps) में बॉटा जा सकता है। उद्देश्य निर्धारण के अन्तर्गत सामान्य व विशिष्ट उद्देश्यों के निर्धारण तथा परिभाषीकरण की क्रियाएँ सम्मिलित रहती हैं। अधिगम क्रियाओं के आयोजन में शिक्षण बिन्दुओं का निर्धारण तथा क्रियाओं का आयोजन समाहित रहता है। मूल्यांकन सोपान के अन्तर्गत छात्रों के व्यवहार परिवर्तन का मापन करने मूल्यांकन करने तथा पृष्ठपोषण का कार्य आता है।

अतः मूल्यांकन प्रक्रिया को निम्नांकित क्रमवद्ध सोपानों व उप सोपानों में बाँटा जा सकता है-

  1. उद्देश्यों का निर्धारण

(i) सामान्य उद्देश्यों का निर्धारण करना।

(ii) विशिष्ट उद्देश्यों का निर्धारण व परिभाषीकरण करना।

  1. अधिगम क्रियाओं का आयोजन

(iii) शिक्षण बिन्दुओं का चयन करना।

(iv) उपयुक्त अधिगम क्रियायें आयोजित करना।

  1. मूल्यांकन

(v) छात्रों के व्यवहार परिवर्तन को ज्ञात करना।

(vi) प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर मूल्यांकन करना।

(vii) परिणामों को पृष्ठपोषण के रूप में प्रयुक्त करना।

पाठकों के ज्ञान तथा अववोध की दृष्टि से इन सातों उपसोपानों का संक्षिप्त वर्णन आगे की पंक्तियों में किया जा रहा है। (मूल्यांकन प्रक्रिया के सोपान)

सामान्य उद्देश्य (General Objectives)

शिक्षा एक उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है। शिक्षा संस्था में विभिन्न विषयों की शिक्षा प्रदान की जाती है। प्रत्येक विषय का अपना एक अलग अस्तित्व एवं महत्व होता है। प्रत्येक विषय को पाठ्यक्रम में रखने का एक निश्चित ध्येय होता है। मूल्यांकन प्रक्रिया का पहला कदम यह ज्ञात करना है कि किसका मूल्यांकन करना है। अर्थात् वे कौन से शैक्षिक उद्देश्य है, जिनकी प्राप्ति की वांछनीयता को ज्ञात करना है। जब तक शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण नहीं किया जायेगा तब तक उन उद्देश्यों की प्राप्ति के सम्बन्ध में कुछ भी कहना सम्भव नहीं हो सकेगा। निःसंदेह शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धरिण एक क्लिष्ट कार्य है। शिक्षण के सामान्य उद्देश्य वास्तव में ऐसे व्यापक तथा अंतिम लक्ष्य है जिनकी प्राप्ति किसी अध्यापक का एक सामान्य तथा दूरगामी लक्ष्य होता है। इनकी प्राप्ति के लिए एक लम्बा समय तथा सम्पूर्ण शिक्षा प्रक्रिया का योगदान आवश्यक होता है । शिक्षा के सामान्य उद्देश्यों के निर्धारण में अग्रांकित बातों पर ध्यान देना आवश्यक होता है-

(i) छात्रों के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक विकास की प्रकृति

(ii) समाज का आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक आधार

(iii) विषय वस्तु की प्रकृति

(iv) शिक्षा मनोविज्ञान

(V) शिक्षा का स्तर

निःसन्देह शिक्षा के सामान्य उद्देश्य व्यापक (Broad), परोक्ष (Indirect) तथा औपचारिक (Formal) होते हैं। इनका निर्धारण दार्शनिक चिन्तन पर अधिक आधारित होता है तथा इन्हें लम्बी अवधि में प्राप्त किया जाना सम्भव होता है।

विशिष्ट उद्देश्य (Specific Objectives)

कोई भी अध्यापक दो-चार दिन के अध्यापन के द्वारा सामान्य उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं कर सकता है। दैनिक शिक्षण कार्य करते समय अध्यापक के मस्तिष्क में सदैव ही कुछ तात्कालिक प्राप्त उद्देश्य (Immediately Achievable Objectives) होते हैं जिनकी प्राप्ति कक्षा शिक्षण के दौरान सम्भव है। जैसे वृत्त का क्षेत्रफल पढ़ाते समय अध्यापक यह सोचता है कि उसके अध्यापन के उपरान्त छात्र वृत्त का क्षेत्रफल ज्ञात करने का सूत्र बता सकेंगे, छात्र किसी दिए गये वृत्त का क्षेत्रफल ज्ञात कर सकेंगे तथा छात्र वृत्त के क्षेत्रफल से सम्बन्धित विभिन्न समस्याओं का समाधान कर सकेंगे। शिक्षण के उपरान्त यदि छात्र ऐसा कर पाते है तो अध्यापक अपने शिक्षण कार्य को पूर्ण मानता है। यदि छात्र ऐसा नहीं कर पाते हैं तो वह नये सिरे से पुनः शिक्षण कार्य करता है। छात्रों में लाए जाने वाले इन परिवर्तनों को ही विशिष्ट उद्देश्य के नाम से पुकारते हैं । सामान्य उद्देश्यों के निर्धारण के उपरांत विशिष्ट उह्देश्यों का निर्धारण किया जाता है। ये विशिष्ट उद्देश्य प्रायः छात्रों में होने वाले संभावित व्यवहार परिवर्तन के रूप में लिख जाते हैं। विशिष्ट उद्देश्यों की अपेक्षा सामान्य उद्देश्य कुछ संकीर्ण (Narrow), प्रत्यक्ष (Direct) तथा कार्यपरक (Functional) होते हैं। ये व्यवहारिकता पर आधारित होते हैं तथा अल्प अवधि में इसका प्राप्त किया जा सकता है।

शिक्षण बिन्दु (Teaching Points)

सामान्य उद्देश्यों तथा विशिष्ट उद्देश्यों के निर्धारण के उपरान्त मूल्यांकन प्रक्रिया का तृतीय सोपान आता है। इस के अंतर्गत उन शिक्षण बिन्दुओं को निर्धारित किया जाता है जिनके द्वारा विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है। पाठ्यवस्तु के किसी भी प्रकरण को शिक्षण की सुविधा की दृष्टि से छोटे-छोटे भागों में बॉटा जा सकता है। पाठ्यवस्तु के ये छोटे-छोटे भाग ही शिक्षण बिन्दु कहलाते हैं। प्रत्येक शिक्षण बिन्दु अपने-आप में शिक्षण की एक संक्षिप्त परन्तु पूर्ण इकाई होती है। ये शिक्षण बिन्दु अध्यापक के कार्य को अत्यधिक सरल कर देते हैं। इन शिक्षण विन्दुओं का अनुसरण करके अध्यापक धीरे-धीरे अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता आता है। अध्यापक के द्वारा शिक्षण योजना बनाने में ये शिक्षण बिन्दु अत्यधिक सहायक होते हैं।

अधिगम क्रियायें (Learning Activities)

छात्रों के व्यवहार में परिवर्तन कुछ अधिगम परिस्थितियों की सहायता से ही लाए जा सकते हैं। ये अधिगम परिस्थितियाँ छात्र एवं शिक्षण उद्देश्यों के बीच सम्बन्ध को स्थापित करती हैं तथा इनके परिणामस्वरूप छात्रों के व्यवहार में वांछित परिवर्तन आते हैं। अतः शिक्षण उद्देश्यों का निर्धारण करने तथा शिक्षण बिन्दुओं का चयन करने के उपरांत अध्यापक का कार्य वास्तविक रुप से अधिगम क्रियाओं का आयोजन करना है। अधिगम क्रियायें अनेक प्रकार से छात्रों के सम्मूख प्रस्तुत की जा सकती है। कक्षा शिक्षण, पुस्तकालय, पाठ्यपुस्तकों, जनसंचार साधनों, रेडियों, टेलीविजन, चलचित्र, प्रयोगशालाओं, भ्रमण आदि की सहायता से छात्रों के व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाये जा सकते हैं।

व्यवहार परिवर्तन (Behavioral Changes)

अधिगम क्रियाओं के प्रस्तुतिकरण के उपरांत छात्रों के व्यवहार में होने परिवर्तनों को ज्ञात करना होता है। इसके लिए कुछ ऐसे परीक्षणों या अन्य युक्तियों का प्रयोग करना होता है जो अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन की सीमा का ज्ञान प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रदान कर सके। विभिन्न प्रकार के व्यवहार परिवर्तनों को मापने के लिए विभिन्न प्रकार की युक्तियों का उपयोग किया जाता है। बुद्धि परीक्षण, व्यक्तित्व परीक्षण, सम्प्राप्ति परीक्षण, निदानात्मक परीक्षण, समाजमिति, प्रश्नावली, साक्षात्कार, अवलोकन, प्रयोगात्मक परीक्षा, विद्यालय संचयी अभिलेख आदि विभिन्न युक्तियों का प्रयोग करके छात्रों के व्यवहार में आये परिवर्तनों को ज्ञात किया जाता है।

मूल्यांकन (Evaluation)

छात्रों के व्यवहार में होने वाले परिवर्तनों को ज्ञात करने के उपरान्त इन व्यवहार परिवर्तनों की वांछनीयता के सापेक्ष व्याख्या की जाती है। इसके अन्तर्गत छात्रों के व्यवहार में आये परिवर्तन की तुलना अपेक्षित व्यवहार परिवर्तनों से की जाती है। यदि आये हुए परिवर्तन व्यवहार, अपेक्षित व्यवहार परिवर्तनों के काफी निकट होते हैं तो शिक्षण कार्य को संतोषप्रद कहा जा सकता है। यहाँ यह बात ध्यान में रखनी होती है कि शत-प्रतिशत छात्रों के व्यवहार में शत-प्रतिशत वांछित परिवर्तन लाना सदैव ही लगभग असम्भव सा कार्य होता है। इसलिए व्यवहार परिवर्तनों की प्राप्ति के सम्बन्ध में न्यूनतम स्तर (Minimal Level) निर्धारित किया जाता है। यह न्यूनतम स्तर दो प्रकार – (1) कक्षा न्यूनतम स्तर (Class minimal Level) तथा (2) छात्र न्यूनतम स्तर (Student minimal level) का हो सकता है। कक्षा न्यूनतम र्तर यह बताता है कि कम से कम कितने प्रतिशत छात्रों के व्यवहार में वॉछित परिवर्तन आना चाहिये जबकि छात्र न्यूनतम स्तर बताता है कि प्रत्येक छात्र के व्यवहार में कम से कम कितना परिवर्तन आना चाहिये। जैसे-काई गणित का अध्यापक वृत्त का क्षेत्रफल पढ़ाते समय निर्धारित कर सकता है कि कक्षा के कम से कम 80% छात्र वृत्त के क्षेत्रफल से सम्बन्धित दिये गये प्रश्नों में से कम से कम 90% प्रश्न सही हल कर लग। स्पष्ट है कि इस उदाहरण में कक्षा न्यूनतम स्तर 80% तथा छात्र न्यूनतम स्तर 90% है।

न्यूनतम स्तर निर्धारण करने के उपरान्त अध्यापक अपने छात्रो के परिणामों की तुलना अपेक्षित न्यूनतम स्तरों से करके मूल्यांकन कर सकता है। भिन्न-भिन्न उद्देश्यों के लिए तथा भिन्न-मित्र विषयों के लिए न्यूनतम स्तर भिन्न-भिन्न हो सकते हैं।

नवीन राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) में स्कूल शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर अधिगम के न्यूनतम स्तरों (Minimum Levels of Learning, संक्षेप में MLLS) को निर्धारित करने पर जोर दिया गया है जिसमे शिक्षण-अधिगम क्रियाओं के आयोजन तथा छात्र सम्प्राप्ति के मूल्यांकन को उचित दिशा निर्देश मिल सकें । मानव संसाधन विकास मन्त्रालय (MHRD) ने यूनेस्को इन्स्टीट्यूट फार एजुकेशन, हम्बर्ग, जर्मनी (Unesco Institute for Education, Hamburg, Germany) के भूतपूर्व निर्देशक प्रो. आर.एच. दवे (Prof. RH Dave) की अध्यक्षता में एक ग्यारह सदस्यीय समिति का गठन जनवरी 1990 में किया जिसे कक्षा 3 व 4 के लिए न्यूनतम अधिगम स्तर (MLLS) निर्धारित करने तथा व्यापक मूल्यांकन के ढंग को सुझाने का कार्य सौंपा गया था । इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में प्राथमिक स्तर की सभी कक्षाओं अर्थात्, 1, 2, 3, 4 व 5 के लिए भाषा (मातृभाषा), गणित तथा वातावरणीय अध्ययन विषयों के लिए न्यूनतम अधिगम स्तरों (MLLS) का निर्धारण किया है। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद ( NCERT) ने इस समिति की रिपोर्ट को Minimum Levels of Learning at Primary Stage शीर्षक से सन् 1991 में प्रकाशित कर दी है। इच्छुक पाठक इस पुस्तिका के अवलोकन से न्यूनतम अधिगम स्तरों (MLLS) की व्यापक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

पृष्ठ पोषण (Feedback)

मूल्यांकन प्रक्रिया का अन्तिम पद परिणामों को पृष्ठ पोषण (Feedback) के रूप में प्रयोग करना है। यदि मूल्यांकन से ज्ञात होता है कि शिक्षण के विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं हुई है तो वह प्राप्त परिणामों के आधार पर अपने शिक्षण कार्य में सुधार करता है । वह उद्देश्यों को नये सिरे से पुनः निर्धारित करता है, शिक्षण बिन्दुओं का चयन करता है, अधिगम क्रियायें आयोजित करता है, व्यवहार परिवर्तनों का मापन करता है तथा मूल्यांकन करता है। यह क्रिया चक्रीय क्रम में तब तक चलती रहती है जब तक अपेक्षित उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं हो जाती है। इस प्रकार से मूल्यांकन के परिणाम शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक पृष्ठ पोषण (Feedback) प्रदान करते हैं तथा अंततः उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक सिद्ध होते हैं।

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