राजनीति विज्ञान / Political Science

नगर निगम | नगर निगम से आशय | निगम तथा परिषद् में अन्तर | नगर निगम के कार्य | नगर निगम के आय के साधन | नगर परिषद् | नगर परिषद् से आशय

नगर निगम | नगर निगम से आशय | निगम तथा परिषद् में अन्तर | नगर निगम के कार्य | नगर निगम के आय के साधन | नगर परिषद् | नगर परिषद् से आशय

नगर निगम (नगर निगम से आशय)

नगर निगम नगरीय स्थानीय शासन का शीर्षस्थ निकाय है। उसके शीर्षस्थ होने का अर्थ यह है कि वह अन्य प्रकार के नगर-शासनों पर सत्ता का प्रयोग करता है। भारत में नगरीय स्थानीय शासन का संगठन ग्रामीण स्थानीय शासन की भाँति सोपानात्मक नहीं है। नगर निगम, संस्था के रूप में अधिक सम्माननीय है और अन्य नगर निकायों की तुलना में अधिक स्वायत्तता का उपभोग करता है।

निगम तथा परिषद् में अन्तर

नगर निगम

नगर-निगम की स्थापना राज्य-विधानांग द्वारा पारित विशेष संविधि के अन्तर्गत की जाती है। इस प्रकार का विधान किसी एक विशेष निगम के लिए अथवा राज्य के सभी निगमों के लिए पारित किया जा सकता है। बम्बई, मद्रास एवं कलकत्ता के निगमों की स्थापना एक विशेष विधान के अन्तर्गत की गयी थी जबकि उत्तर प्रदेश के नगर निगमों की रचना उत्तर प्रदेश महापालिका अधिनियम (1959) तथा मध्य प्रदेश के निगमों का निर्माण मध्य प्रदेश नगर निगम अधिनियम (1956) के अनुसार किया गया हैं दूसरे, बम्बई, मद्रास तथा कलकत्ता के निगमों को, जो देश के प्राचीनतम नगर निगम हैं, भंग नहीं किया जा सकता, विधान में भंग करने का प्रावधान नहीं है। किन्तु जिन निगमों की स्थापना बाद में हुई है उन्हें इस प्रकार के विघटन के विरुद्ध संरक्षण प्राप्त नहीं है। अतः राज्य के नियन्त्रण और परिवीक्षण की दृष्टि से भी नगर निगम अन्य स्थानीय निकायों से भिन्न नहीं हैं। कार्यों की दृष्टि से भी नगर निगम अन्य स्थानीय निकायों से अधिक भिन्न नहीं होता। निगमों के काम वे ही हैं जो अन्य स्थानीय निकायों के अतः उन्हें भी सामान्यतः अनिवार्य तथा ऐच्छिक वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। आज नगर निगमों तथा नगरपालिकाओं में महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि निगमों को राज्य सरकार से सीधा सम्पर्क रखने का अधिकार है, जबकि नगरपालिकाओं को जिलाधीश और मण्डलायुक्त का दामन पकड़ना पड़ता है।

नगरीय शासन की निगम-पद्धति बड़े नगरों के लिए है जहाँ नागरिक समस्याएँ अधिक जटिल हो जाती है। चूंकि निगम राज्य-विधानांग द्वारा पारित संविधि के अन्तर्गत स्थापित किया जाता है, इसलिए राज्य निगमों की स्थापना के सम्बन्ध में विभिन्न कसौटियों से काम लेते हैं। जैसा कि होना चाहिए, निगम जनसंख्या और साधनों की दृष्टि से एक-दूसरे से बहुत भिन्न होते हैं। एक ओर कलकत्ता, बम्बई, मद्रास, दिल्ली, बंगलौर, हैदराबाद, कानपुर के निगम हैं, और दूसरी ओर ऐसे निगम हैं जिनकी जनसंख्या दो लाख अथवा उससे भी कम है। इसी प्रकार, राजस्व की दृष्टि से कुछ निगमों की वार्षिक आय एक करोड़ रुपये से भी अधिक है और कुछ को राजस्व के रूप में 50 लाख से भी कम प्राप्ति होती है। जिन नगरों को न्यूनतम वित्तीय साधन भी उपलब्ध नहीं हैं उनसे समुचित नागरिक सेवाओं तथा कार्यकुशलता की आशा नहीं की जा सकती। ग्रामीण-नगरीय सम्बन्ध समिति ने संस्तुति की थी (1966 में) कि स्थानीय शासन की निगम-पद्धति उन्हीं नगरों में स्थापित की जाय जिनकी जनसंख्या 5 लाख से और वार्षिक आय एक करोड़ रुपये से कम न हो।’ जनसंख्या एवं राजस्व पर आधारित अर्हता की ये कसौटियाँ अपेक्षाकृत अधिक कठोर हैं, अतः इन्हें नगरपालिका को निगम में परिवर्तित करने की एकमात्र कसौटी नहीं बनाया जा सकता। मोटे तौर पर किसी नगर में निगम स्थापित करने के निम्नलिखित सिद्धान्त निर्धारित किये जा सकते हैं:

(1) घना बसा हुआ क्षेत्र।

(2) नगरपालिका का विद्यमान विकास तथा उसके भावी विकास की गुंजाइश।

(3) नगरपालिका की वित्तीय स्थिति-वर्तमान तथा सम्भावित।

(4) जनता की बढ़े हुएं करों को वहन करने की क्षमता तथा इच्छा।

(5) निगम के पक्ष में लोकमत।

ये सिद्धानत वस्तुतः सुनिश्चित नहीं हैं। इन्हें तो किसी क्षेत्र में किसी भी प्रकार का नगरीय शासन स्थापित करने के लिए ध्यान में रखना पड़ेगा। सत्य यह है कि इस बात की एकमात्र निर्णायक राज्य सरकार ही है कि किस नगर को निगम-नगर का दर्जा दिया जाना चाहिए। सामान्यतः जो नगर बड़ा होता है और जहाँ लोकमत निरन्तर निगम की माँग करता है उसे राज्य सरकार निगम-नगर का दर्जा देने के लिए तैयार हो जाती है।

एक नगर निगम स्थापित करने के लिए जनसंख्या, जनसंख्या का घनत्व, गैर-कृषि कार्यों में संलग्न जनसंख्या का प्रतिशत तथा राजनैतिक समर्थन इत्यादि आवश्यक कसौटियाँ हैं।

जनसंख्या तथा राजस्व की कसौटी वास्तव में समय-सापेक्ष होती है, इसलिए समय के परिवर्तन के साथ-साथ उसका सार्थकता जाता रहता है। जिस राज्य को आज उत्तर प्रदेश कहते हैं उसने 1938 में जो स्थानीय शासन समिति नियुक्त की थी उसका सुझाव था कि जिन नगरपालिकाओं की जनंसख्या 1,50,000 अथवा अधिक तथा वार्षिक आय 15 लाख से कम न हो, उन्हें निगमों में परिवर्तित कर दिया जाय। आज ये कसौटियाँ उपहासास्पद प्रतीत होती हैं और केवल ऐतिहासिक महत्व की हैं।

यद्यपि निगम जनसंख्या तथा राजस्व की दृष्टि से भिन्न होते हैं, फिर भी उनके कुछ सामान्य लक्षण हुआ करते हैं:

(1) कोई भी निगम राज्य के विधानांग द्वारा पारित संविधि के परिणामस्वरूप ही स्थापित किया जाता है।

(2) नगरीय शासन का निगमात्मक रूप सामान्यतः विचारात्मक तथा कार्यकारी कामों के पृथक्करण पर आधारित होता है।

(3) निगमाध्यक्ष निगम का प्रमुख होता है, उसका कार्यकाल एक वर्ष होता है, किन्तु उसे दुबारा भी चुना जा सकता है।

(4) राज्य सरकार नियन्त्रण तथा परिवीक्षण की शक्तियाँ अपने हाथों में बनाये रखती है, यहाँ तक कि वह निगम को भंग करके प्रशासन को अपने हाथों में ले सकती है।

‘निगम’ शब्द के दो अर्थ हैं। पहला, उसका अर्थ ऐसा पूर्ण निकाय हो सकता है, जिसमें विचारात्मक तथा कार्यकारी, दोनों पक्ष सम्मिलित हों। दूसरे, उसका अर्थ केवल परिषद् भी हो सकता है। इस अध्याय में निगम शब्द पहले अर्थ में प्रयुक्त किया गया है।

नगर निगम के कार्य

नगर निगम के कार्यों के सम्बन्ध में देश में सामान्यतः दो परिपाटियाँ प्रचलित हैं। कलकत्ता तथा मद्रास के निगमों को शासित करने वाली संविधि में उनके कार्यों का सामान्य रूप में उल्लेख है, जबकि उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश के निगमों के कार्यों का सविस्तार उल्लेख किया गया हैं दूसरे, राज्य सरकारों की प्रवृत्ति निगमों के ऊपर अधिकाधिक उत्तरदायित्व थोप देने की है, परिणामस्वरूप उनके कार्यों की सूची बड़ी लम्बी है। तीसरे, संविधियों में सामान्यतः दो प्रकार के कार्यों का उल्लेख होता है- अनिवार्य तथा ऐच्छिक। ऐच्छिक कार्यों के सम्बन्ध में सभी संविधियों में एक सर्वव्यापी कार्य का उल्लेख होता है: “कोई अन्य कार्य, जिससे सार्वजनिक सुरक्षा, स्वास्थ्य, सुविधा तथा सामान्य कल्याण के परिवर्धन की सम्भावना हो।” निगमों को जो कार्य, विशेषकर अनिवार्य कार्य, सौंपे गये हैं वे सब राज्यों में लगभग समान हैं। अतः एकरूपता मुख्य चीज है; भेद असामान्य है। यही नहीं, कभी-कभी अन्तर केवल इस बात का होता है कि एक कार्य किसी राज्य की एक सूची में है तो वही कार्य दूसरे राज्य में दूसरी सूची में पाया जाता है। उदाहरण के लिए, पशु चिकित्सालयों की स्थापना और अनुरक्षण दिल्ली में ऐच्छिक सूची के अन्तर्गत है और मध्य प्रदेश में अनिवार्य सूची में। किन्तु इस प्रकार के भेद बहुत कम और महत्वहीन हैं, क्योंकि किसी कार्य को अनिवार्य सूची में सम्मिलित कर देने का अर्थ यह नहीं है कि वह निगम उस कार्य को वास्तव में करता ही है।

सामान्यतः सभी राज्यों में निगमों के निम्नलिखित मुख्य कार्य हैं:

अनिवार्य कार्यः

(1) शुद्ध जल का प्रबन्ध तथा जलकलों का निर्माण एवं अनुरक्षण।

(2) बिजली का प्रबन्ध।

(3) सड़क-परिवहन सेवाएँ।

(4) सार्वजनिक मार्गों का निर्माण, अनुरक्षण, नामकरण तथा संख्यांकन।

(5) सार्वजनिक मार्गों तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों के प्रकाश, छिड़काव तथा सफाई की व्यवस्था।

(6) गन्दगी तथा कूड़ा-करकट की सफाई, उसका हटाना तथा निपटान।

(7) नालियों, जल-निकास व्यवस्था तथा सार्वजनिक शौचालयों एवं पेशाबघरों आदि का निर्माण और रखरखाव।

(8) सार्वजनिक मार्गों तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों से अवरोधकों तथा प्रक्षेपों (आगे निकली हुई चीजों) को हटाना।

(9) सार्वजनिक मार्गों तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों से अवरोधकों तथा प्रक्षेपों (आगे निकली हुई जीचों) को हटाना।

(10) चिकित्सालयों तथा प्रसूति एवं बाल-कल्याण केन्द्रों की स्थापना तथा अनुरक्षण।

(11) खतरनाक रोगों की रोकथाम तथा नियन्त्रण के उपाय।

(12) टीके तथा सुइयाँ लगवाना।

(13) जन्म तथा मरण का लेखा-जोखा रखना।

(14) मृतक-क्रिया के लिए स्थानों का प्रबन्ध तथा उसका नियमन।

(15) प्राथमिक शिक्षा का प्रावधान।

(16) अग्निशमन दल की व्यवस्था।

(17) निगम के प्रशासन के सम्बन्ध में वार्षिक प्रतिवेदनों और नक्शों का प्रकाशन।

(18) भोजन तथा भोजन के स्थानों का नियन्त्रण एवं नियमन।

ऐच्छिक कार्य:

(1) सार्वजनिक पार्कों, उद्यानों, पुस्तकालयों, संग्रहालयों, नाट्यशालाओं, अखाड़ों तथा क्रीड़ास्थलों का निर्माण।

(2) सार्वजनिक भवनों का निर्माण।

(3) सड़कों के किनारे तथा अन्यत्र वृक्षों का रोपण तथा उनकी देखभाल।

(4) गरीबों तथा अपाहिजों की सहायता।

(5) लावारिस कुत्तों एवं छूटे सूअरों का नाश अथवा बन्दीकरण।

(6) जनता के लिए संगीत का प्रबन्ध।

(7) विशिष्ट अतिथियों का स्वागत।

(8) विवाहों का पंजीकरण।

(9) इमारतों तथा भूमि का सर्वेक्षण।

(10) मेलों तथा प्रदर्शनियों का संगठन एवं व्यवस्था।

नगर निगम के आय के साधन

नगर निगमों की आय के साधनों को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है: (1) करों से. राजस्व, और (2) करेतर राजस्व। करेतर राजस्व में शुल्क, जुर्माने तथा सरकार से प्राप्त अनुदान सम्मिलित होते हैं। राजस्व के असाधारण साधनों में ऋण, प्रतिपूर्ति, पूँजी के रूप में प्राप्त धन, पूँजीगत निर्माण कार्यों के लिए प्राप्त अनुदान आदि का समावेश है। किन्तु निगमों की आय का मुख्य अंश करों से प्राप्त होता है; वह सम्पूर्ण आय के 2/5 से 3/4 तक पहुँचता है।

नगर निगम को सामान्यतः निम्नलिखित कर लगाने का अधिकार होता है:

(1) सम्पत्ति कर।

(2) वाहनों तथा पशुओं पर कर।

(3) नाट्यशालाओं पर कर।

(4) विज्ञापनों पर कर (समाचार-पत्रों को छोड़कर)

(5) व्यावसायिक कर।

(6) शिक्षा-कर।

(7) मनोरंजन-कर

(8) बिजली की खपत और बिक्री पर कर।

(9) किसी विकास अथवा सुधार कार्य के सम्पादन में नगरीय भूमि के बढ़े हुए मूल्यों पर उन्नति-कर।

इसके अतिरिक्त राज्य सरकार अचल सम्पत्ति के हस्तान्तरण-पत्रों पर कर वसूली करती है और जो राशि किसी निगम के क्षेत्र से वसूल की जाती है वह उसी को हस्तान्तरित कर दी जाती है।

उत्तर प्रदेश के नगर निगमों को करारोपण की दो प्रकार की शक्तियाँ उपलब्ध हैं :

अनिवार्य तथा वैकल्पिक। निम्नलिखित अनिवार्य कर हैं:

(1) सम्पत्ति-कर।

(2) जल-कर।

(3) जल-निकास कर।

(4) सफाई-कर

(5) मशीनचालित वाहनों को छोड़कर अन्य वाहनों पर कर।

(6) पशुओं पर कर।

वैकल्पिक कर वे हैं जिन्हें कोई निगम चाहे तो लगा सकता है और वे मोटे तौर पर यू0पी0 नगरपालिका अधिनियम, 1916 में निर्धारित दिशा का ही अनुकरण करते हैं। वे निम्न प्रकार हैं:

(1) व्यवसाय, उद्यम तथा वृत्ति पर कर।

(2) चुंगी।

(3) नगर में प्रवेश करने वाले वाहनों तथा अन्य सवारियों और पशुओं पर कर।

(4) कुत्तों पर कर।

(5) उन्नति कर।

(6) विज्ञापन कर।

(7) नाटयशालाओं पर कर।

(8) अचल सम्पत्ति के हस्तान्तरण-पत्रों पर कर (यह राज्य सरकार द्वारा वसूल किया जाता है और वसूल की हुई धनराशि निगम को. वापस दे दी जाती है।

नगर परिषद् (नगर परिषद् से आशय)

यद्यपि परिषद् उन घटकों में से है जिनसे मिलकर नगर निगम बनता है, किन्तु अब निगम शब्द स्वयं परिषद् के लिए प्रयुक्त होने तगा है। यह परिषद् की प्रकृति की व्यापकता का द्योतक है। परिषद् स्थानीय विधानसभा होती है। वह जनता की इच्छा को मुखरित करती है जो अन्त में नगर की विधि का रूप धारण कर लेती है। परिषद में जो सदस्य सम्मिलित होते हैं वे पार्षद कहलाते हैं। वे वयस्क मताधिकार के आधार पर तीन से पांच वर्ष तक की अवधि के लिए चुने जाते हैं। चुनाव के लिए नगर को उतने ही क्षेत्रों (वाडों) में विभक्त कर दिया जाता है जितने स्थान परिषद् में होते हैं। अनेक विद्वानों के अनुसार परिषद् का तीन वर्ष का कार्यकाल बहुत छोटा है। परिषद् निगम की विधानसभा होती है, इसलिए उसका कार्यकाल इतना लम्बा अवश्य होना चाहिए कि वह अपनी नीतियों को कार्यान्वित कर सके और उनका प्रभाव देख सके। दूसरे, चुनावों के अल्प-अवधि के बाद होने से राजनीतिक झगड़े ताजा बने रहते हैं और उससे नगर प्रशासन के सुचारू रूप से संचालन में बाधा पड़ती है। इसलिए वह सुझाव दिया गया है कि परिषद् का कार्य पाँच वर्ष हो; राज्य विधानसभा का तथा लोकसभा का कार्यकाल भी इतना ही है।

किन्तु लम्बे कार्यकाल में भी खतरे हैं। प्रथम, लम्बे कार्यकाल से पार्षदों को अपने निर्वाचकों के प्रति उत्तरदायित्व की भावना क्षीण हो जाती है। यदि उनके लिए पाँच वर्ष का कार्यकाल गारण्टी कर दिया जाय तो उनका मतदाताओं से सम्पर्क शिथिल पड़ जाता है, वे जनता की इच्छाओं को भूल जाते हैं और निर्वाचकों की माँगों एवं शिकायतों की ओर ध्यान नहीं देते। स्थानीय शासन का सार इस बात में है कि वह लोकमत तथा जनता की आकांक्षाओं के सम्बन्ध में संवेदनशील हो, किन्तु लम्बे कार्यकाल से यही चीज दुर्बल पड़ जाती है। तात्कालिक नागरिक समस्याओं के सम्बन्ध में लोकमत जितनी तेजी से बदलता है उतनी तेजी से राज्य अथवा राष्ट्र की समस्याओं के सम्बन्ध में नहीं बदलता। अतः लोकतन्त्र के हित में यही उचित है कि परिषद् का कार्यकाल न आवश्यकता से अधिक लम्बा हो और न बहुत छोटा। सम्भवतः तीन वर्ष का काल समीचीन प्रतीत होता है।

परिषद् के सदस्यों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर होता है। बम्बई जैसे कुछ निगमों की परिषदों में केवल निर्वाचित सदस्य सम्मिलित होते हैं, किन्तु अन्य निगमों में नगरवृद्धों को भी परिषद् में स्थान प्राप्त होता है। नगरवृद्धों का चुनाव पार्षद करते हैं और उन्हें निर्वाचित पार्षदों के सभी अधिकार प्राप्त होते हैं। पार्षदों द्वारा नगरवृद्धों का निर्वाचन कई आधारों पर उचित ठहराया गया है : इससे स्त्रियों को तथा अन्य ऐसे वर्गों को प्रतिनिधित्व मिल जाता है जिन्हें साधारणतः परिषद् में प्रतिनिधित्व मिलने की सम्भावना नहीं होती। इसके अतिरिक्त, इससे नगर के वे प्रतिष्ठित व्यक्ति तथा विशेषज्ञ भी निगम से सम्बद्ध हो जाते हैं जो चुनाव के झंझटों में पड़ना पसन्द नहीं करते। किन्तु इस व्यवस्था का सैद्धान्तिक औचित्य कुछ भी हो, तथ्य यह है कि ये नगरवृद्ध शुद्ध राजनीतिक सोच-विचार के आधार पर चुने जाते हैं और इससे उन राजनीतिज्ञों को गुप्त-द्वार से प्रवेश करने की सुविधा मिल जाती है जो या तो चुनाव लड़ने में शिझकते हैं। या चुनाव में हार जाते हैं। यह स्थिति नीति-विरुद्ध तथा लोकतन्त्र की भावना के प्रतिकूल है।

परिषदों में परिगणित जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित करने के सम्बन्ध में भी दो शब्द कहना उपयुक्त होगा। यहाँ पर स्मरण रखना चाहिए कि बम्बई निगम में स्थानों के आरक्षण की पारिपाटी कभी नहीं रही हैं चूँकि नगर की समस्याएँ मुख्यतः नागरिक ढंग की होती हैं और स्थानीय शासन को लोकतन्त्र की प्रशिक्षण भूमि माना जाता है, इसलिए जनता के किसी वर्ग के लिए स्थानों का आरक्षण अनुचित और अवांछनीय-सा प्रतीत होता है। कहा गया है कि राजनीतिक उद्देश्यों को स्थानीय प्रशासन से दूर रखना आवश्यक हैं वह भी कहा जा सकता है कि वर्गगत उद्देश्यों का स्थानीय शासन के कार्यान्वयन में हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।

परिषद् का आकार देश के विभिन्न भागों में बहुत भिन्न देखने को मिलता है। पश्चिम बंगाल के चन्द्रनगर नगर निगम में 22 सदस्य हैं, जबकि बम्बई निगम के सदस्यों की संख्या 131 है। छोटे आकार की परिषद् अधिक सुसंगठित तथा व्यवहारकुशल होती है। इसके विपरीत, आकार के बड़े होने से प्रभावकारी ढंग से कार्य नहीं होता और पार्षद की उत्तरदायित्व की भावना भी धूमिल पड़ जाती है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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