इतिहास / History

गुर्जर प्रतिहार स्थापत्य कला | गुर्जर प्रतिहार स्थापत्य | गुर्जर प्रतिहार वास्तुकला का परिचय

गुर्जर प्रतिहार स्थापत्य कला | गुर्जर प्रतिहार स्थापत्य | गुर्जर प्रतिहार वास्तुकला का परिचय

गुर्जर प्रतिहार स्थापत्य कला (गुर्जर-प्रतिहार स्थापत्य)

गुप्त साम्राज्य के पतन के पश्चात् गुजरात तथा राजस्थान के भूभाग पर आठवीं शती के मध्य से लेकर ग्यारहवीं शती तक प्रतिहार वंश का शासन था। त्रिकोणात्मक संघर्ष की उहापोह वाली स्थिति को समाप्त कर जब प्रतिहारों ने कन्नौज में सुदृढ़ साम्राज्य स्थापित किया तो सभ्यता के विविध पक्षों का सम्यक् विकास होना स्वाभाविक ही था। कला भी इसका अपवाद नहीं थी। प्रतिहार वंश के पूर्ववर्ती राजाओं ने राजस्थान, गुजरात, मालवा आदि में वास्तु एवं मूर्तिकला को पहले से ही राजकीय संरक्षण प्रदान कर रखा था। अतः उसी परम्परा का अनुगमन करते हुए प्रतिहार राजाओं ने भी कला और स्थापत्य को राज्याश्रय प्रदान कर उसके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। दुर्भाग्यवश उक्त भूभाग पर तुर्कों के आक्रमण निरन्तर होते रहे जिनका एक उद्देश्य मन्दिरों तथा मूर्तियों का विध्वंस करना भी था। राजपूताने में मन्दिरों के ध्वंसावशेष उनकी कहानी सुनाते हुए जान पड़ते हैं। यही कारण है कि आठवीं से ग्यारहवीं शती तक स्थापत्य कला के नमूने बहुत मिलते हैं। आक्रान्ताओं ने मन्दिरों को नष्ट कर उनके अवशेषों पर मस्जिदों का निर्माण करवाया। दिल्ली की कुतुब मस्जिद का निर्माण छब्बीस मन्दिरों को नष्ट कर करवाया गया। अजमेर की मस्जिद का निर्माण अनुमानतः पचास मन्दिरों के ध्वंसावशेषों पर किया गया। इस कारण दिल्ली से राजस्थान तक भव्य स्मारकों का अभाव दिखाई देता है। मेहरौली तथा दूसरी मस्जिदों में लगाये गये सुन्दर स्तम्भ उत्तर गुप्तकालीन मन्दिरों की महिमा का स्वतः बखान करते हैं।

प्रतिहार शासकों के निर्माण कार्यों का कुछ संकेत उनके लेखों में हुआ है। वाउक की जोधपुर प्रशस्ति से पता चलता है कि उसने वहाँ ‘सिद्धेश्वर महादेव’ का मन्दिर बनवाया था। इसी प्रकार मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति से सूचित होता है कि उसने अपने अन्तःपुर में भगवान विष्णु के मन्दिर का निर्माण करवाया था।

इन उल्लेखों से प्रकट होता है कि प्रतिहार शासकों की निर्माण कार्यों में गहरी अभिरुचि थी। गुप्तोत्तर काल (आठवीं शती में राजस्थान) वास्तुकला की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध रहा। मन्दिरों तथा भवनों के अवशेष जोधपुर के उत्तर-पश्चिम में 56 किलोमीटर दूरी पर स्थित ओसिया नामक स्थान से प्राप्त होते हैं। प्राचीन मन्दिरों में शिव, विष्णु, सूर्य, ब्रह्मा, अर्धनारीश्वर, हरिहर, नवग्रह, कृष्ण तथा महिषमर्दिनी दुर्गा के मन्दिर उल्लेखनीय हैं। इन पर गुप्त स्थापत्य का प्रभाव है।

ओसिया के मन्दिरों की दो कोटियाँ दिखाई देती हैं। प्रथम कोटि के मन्दिर जिनकी संख्या लगभग बारह है, आठवीं-नवीं शती में बनवाये गये थे। इनमें शिखरों का विकास दिखाई पड़ता है तथा स्थानीय लक्षणों का अभाव है। दूसरी कोटि के मन्दिरों में स्थानीय विशेषतायें मुखर हो गयी हैं। प्रत्येक का आकार एक-दूसरे से भिन्न है अर्थात् किन्हीं दो मन्दिरों में परस्पर समानता नहीं है। इनके निर्माण में मौलिकता है। तीन हरिहर मन्दिर आकार तथा अलंकरण की दृष्टि से सुन्दर हैं। दो पञ्चायतन शैली में बने हैं। इनके शीर्ष पर आमलक बना हुआ है, नागभट्ट द्वितीय के समय झालरपाटन मन्दिर का निर्माण हुआ। इसी प्रकार ओसिया ग्राम के भीतर तीर्थंकर महावीर का एक सुन्दर मन्दिर है जिसे वत्सराज के समय (770-800 ई0) में बनवाया गया था। यह परकोटे के भीतर स्थित है। इसमें भव्य तोरण लगे हैं तथा स्तम्भों पर तीर्थंकरों की प्रतिमायें खुदी हुई हैं।

ओसिया के मन्दिर यद्यपि छोटे हैं, फिर भी उनकी बनावट की स्पष्टता एवं अनुपात में आदर्श हैं। उनके शिखर उड़ीसा के प्रारम्भिक मन्दिरों के शिखर जैसे हैं। स्तम्भों के निचले भाग पर ढलुआँ पीठासन है तथा इनके प्रत्येक भाग पर बारीक एवं सुन्दर नक्काशी की गयी है। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर की गयी संगतराशी में सरलता एवं नवीनता दिखाई देती है।

ओसिया के मन्दिरों में सूर्य मन्दिर सर्वाधिक उल्लेखनीय है। इस मन्दिर की प्रमुख विशेषता इसके अग्रभाग में है। यह भी पञ्चायतन प्रकार का है। मुख्य मन्दिर के चारों ओर छोटे मन्दिर हैं जिन्हें जोड़ते हुए अन्तराल बनाये गये हैं। शिखर का आकार तथा अलंकरण प्रशंसनीय है। स्तम्भों के आधार तथा शीर्ष पर मंगलकलश स्थापित है। यह ओसिया के मन्दिरों का सिरमौर माना जाता है तथा अपनी भव्यता के लिये प्रसिद्ध है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह शिव को समर्पित था क्योंकि इसका ललाट बिम्ब ‘उमामाहेश्वर’ के रूप में है।

ओसिया के बाद के मन्दिरों में सचिय माता तथा पिपला माता के मन्दिरों का उल्लेख किया जा सकता है जिनमें राजपूताना शैली का क्रमिक विकास दिखाई देता है। सचिय माता को ही लेखों में ‘सच्चिका देवी’ कहा गया है जो महिषमर्दिनी देवी का एक रूप है। मन्दिर के केन्द्रीय मण्डप में अष्ठकोणीय स्तम्भ है जो गुम्बदाकार छत का भार वहन करते हैं। पिपला माता मन्दिर में तीस स्तम्भ हैं,। ओसिया मन्दिरों का प्रवेश द्वार सीधे गर्भगृह में खुलता था। अतः कलाकारों ने उसकी नक्काशी पर विशेष ध्यान दिया। गर्भगृह के द्वार पर प्रतीक मूर्तियाँ तथा पौराणिक कथायें उत्कीर्ण हैं। द्वार के ऊपरी चौखट पर नवग्रह (रवि, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि राहु तथा केतु) की आकृतियाँ खुदी हुई हैं। दोनों पार्श्व चौखटों के ऊपरी कोने में गंगा- यमुना का आकृतियाँ बनाई गयी हैं जो गुप्तकाल में किंचित् भिन्न हैं। ऐसा लगता है कि उत्तर गुप्तकाल से देवी प्रतिमाओं को चौखट के निचले भाग से ऊपरी कोने में उत्कीर्ण करने की पद्धति अपनाई गयी।

ओसिया के मन्दिर मूर्तिकारी के लिये भी प्रसिद्ध हैं। सूर्य मन्दिर के बाहर अर्द्धनारीश्वर शिव, सभामण्डप की छत में वंशी बजाते तथा गोवर्धन पर्वत धारण किये हुए कृष्ण की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। गोवर्धन-लीला की यह मूर्ति राजस्थानी कला की अनुपम कृति मानी जा सकती है। इसके अतिरिक्त विभिन्न मन्दिरों में त्रिविक्रम विष्णु, नृसिंह तथा हरिहर की मूर्तियाँ भी मिलती हैं। इस प्रकार गुर्जर-प्रतिहारकालीन वास्तु एवं तक्षण दोनों ही सराहनीय हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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