इतिहास / History

जापान में मेजी पुनर्स्थापन | जापान में मेजी पुनर्स्थापन का महत्व | मेजी पुनर्स्थापन 1868 के कारण | मेजी पुनर्स्थापन 1868 के प्रभाव

जापान में मेजी पुनर्स्थापन | जापान में मेजी पुनर्स्थापन का महत्व | मेजी पुनर्स्थापन 1868 के कारण | मेजी पुनर्स्थापन 1868 के प्रभाव

जापान में मेजी पुनर्स्थापन

19वीं शताब्दी के मध्य में जापान का सामाजिक-आर्थिक ढाँचा सामंती समाज का क्लासिकी उदाहरण प्रस्तुत करता था। जापान की आबादी में 80 प्रतिशत से अधिक किसान थे जो मात्र अपना भोजन और कपड़ा ही नहीं पैदा लेते, बल्कि पर्याप्त मात्रा में आदिम कृषि उपकरण भी बना लेते थे। भूमि पर शक्तिशाली सामंतों का स्वामित्व था, कृषकों को जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों पर खेती करने के पैतृक अधिकार प्राप्त थे और उन्हें कई तरह की बेगारी करनी होती थी और बहुत से कर अदा करने होते थे। उनकी आधी से ज्यादा फसल भू-लगान की अदायगी में ही चली जाती थी, जिसे बहुत ही कठिन ढंग से निर्धारित किया जाता था और वह मुख्यतः सामंतों के कर्मचारियों और कर-ठेकेदारों की इच्छा पर ही निर्भर करता था। अलग-अलग जमींदार अपने इच्छानुसार भिन्न-भिन्न तरह की बेगार मांगते थे। तोकूगावा शोगूनों के सामंतवंश ने, जो सत्रौं शताब्दी के मध्य से देश पर शासन करता आया था, प्रचलित सामाजिक-आर्थिक संबंधों को बनाए रखने और किसी भी भावी बदलाव की आशा को कुचलने के प्रयास में एक जटिल नियम विनिमय-प्रणाली को लागू कर दिया था।

कृषकों के कठोर शोषण और प्रायः दैवी विपत्तियों के कारण फसल के मारे जाने के फलस्वरूप बड़े भारी अकाल पड़ा करते थे। किसान कंगाल होते जा रहे थे। उन पुर कर्जों की जकड़ लगातार बढ़ती चली गई और जल्दी ही वे सूदखोरों के शिकंजों से फंस गए जिन्होंने भूमि के हस्तांतरण पर सरकारी पाबंदी के बावजूद जल्दी ही उनकी जोतों को हथिया लिया। व्यापारी और महाजन प्रामीण जीवन में अधिकाधिक महत्वपूर्ण भूमिका ग्रहण करते गए और इस तरह सामंती संबंधों के गढ़ों का मूलोच्छेदन करने और किसान जनता की बर्बादी की गति को तेज करने लगे। अधिकांश कृषकों को घोर गरीबी और सामंती शासकों की सूदखोर व्यापारियों पर बढ़ती निर्भरता के फलस्वरूप 18वीं शताब्दी के अंत और 19वीं शताब्दी के आरंभ तक अत्यधिक भीषण (संगीन) वर्ग-अंतर्विरोध पैदा हो चुके थे। कृषक विद्रोह की आग भड़कने लगी और किसान संघर्ष का प्रतीक-ठे के सिर पर लटके पुआल के गट्ठर देशभर में दिखाई देने लगे। लगान की वसूली करनेवालों को किसानों ने खदेड़ भगाने और भू-स्वामी सामंतों, व्यापारियों तथा कर ठेकेदारों की स्वेच्छाचारिता और निरंकुशता का अंत करने के लिए हथियार उठा लिए। गरीब जमींदार भी इस संघर्ष में शामिल हो गए। 1704 और 1803 ई० के बीच के सौ वर्षों में ही 254 से अधिक बड़े विद्रोह दर्ज किए गए। शहरी गरीब दस्तकारों एवं छोटे व्यापारियों के असंतुष्ट लोगों के बीच बेकारी पैदा हो गई और इन्होंने भी विद्रोह किया।

14वीं शताब्दी के प्रथमार्द्ध में कृषक-विद्रोहों की अभूतपूर्व लहर आई। 1833-42 में 99 बड़े विद्रोह दर्ज किए गए। यह संख्या पूरी 17वीं शताब्दी के विद्रोहों के योग से भी अधिक थी। शहरी निर्धनों के विद्रोह संख्या में अधिक और पैमाने में बड़े होते गए। 1837 ई० में ओसाका नगर के निवासियों और निकटवर्ती गांवों के किसानों के संयुक्त विद्रोह ने सारे देश में उत्साहपूर्ण प्रतिक्रिया पैदा की। विद्रोहियों द्वारा रईसों के मकान जला डाले गए। उनके धान के गोदामों पर कब्जा कर विद्रोहियों ने चावल गरीबों में बाँट दिया । देश में चल रही दूरगामी आर्थिक कार्रवाइयाँ सामंती राजनीतिक वातावरण की जड़ों को कमजोर कर रही थी।

जापान में यूरोपीय शक्तियों का प्रवेश-कारण, स्वरूप एवं परिणाम

जापानी सामंतवाद और उसके विरुद्ध हो रहे विद्रोहों के माहैल में ही पूँजीवादी देशों ने जापानी सरकार पर दबाव डालना प्रारंभ किया। जून, 1853 में कोमोडोर पेरी के नेतृत्व में अत्याधुनिक तोपों से लैस चार अमेरिकी जंगी जहाजों का बेड़ा जापानी तट के पास पहुंचा । जापानी सरकार के एक प्रतिनिधि ने मांग की कि अमेरिकी जहाज ठरागा जलसंयोजी छोड़कर नागासाकी बंदरगाह की ओर चले जाएं क्योंकि नागासाकी ही विदेशियों के लिए खुला हुआ था और वहां से जापानी अधिकारियों के साथ औपचारिक संबंध स्थापित करें। लेकिन, पेरी ने इस आदेश की ओर ध्यान नहीं दिया और कहा कि उसे उसी स्थान पर सभी औपचारिकताओं के साथ अमेरिकी राष्ट्रपति के संदेश को सम्राट के हाथों में देने का कार्य दिया गया है। बातचीत के दौरान पेरी ने यह भी कहा कि उसे आदेश मिला है, और इसलिए जहाजी सैनिकों को उतारेगा हो।

विदेशियों को डराने के लिए जापान की तरफ से लट्ठों की बनी नकली तोपें खड़ी कर दी गई, किंतु यह चालाकी अमेरिकियों के आगे नहीं चली। जापानियों के पास अमेरिकी दूतों की मांगों को पूरा करने के अलावा और कोई चारा नहीं रह गया। अपनी तोपों को तट पर लक्षित करके पेरी ने 300 अफसरों और नौसैनिकों के पहरे में अमेरिकी राष्ट्रपति का संदेश जापानी अधिकारियों के हाथों में दिया। पेरी ने बताया कि अगर ये प्रस्ताव स्वीकार नहीं किए गए तो अमेरिका उसके विरुद्ध और भी ज्यादा शक्तिशाली बेड़ा भेजेगा। उसने अगले साल के अप्रैल या मई महीने तक जवाब दिए जाने की मांग की। पेरी ने जापानियों को मुहलत इसलिए दी थी कि उसे जल्दी से चीन पहुंचना था, जहाँ ताईपिंग विद्रोह पेकिंग से इतनी कठिनाई से वसूल की हुई रियायतों के लिए खतरा बन गया था।

पेरी की बात से शोगून सरकार दहशत में आई हुई थी। पेरी के लौटने की तिथि जैसे-जैसे पास आती गई, जि-दरबार में मतभेद उतने ही अधिक प्रखर होते चले गए। लेकिन, जापान की सैनिक दुर्बलता इतनी प्रत्यक्ष थी कि बहुमत अमेरिकी प्रस्ताव को स्वीकारने के पक्ष में ही था। फरवरी, 1854 में अमेरिकी बेड़ा फिर टोकिया की खाड़ी में आ पहुंचा। उसमें अब नौजंगी जहाज और कुल दो हजार नाविक और सैनिक थे। अमेरिकी अब और भी ज्यादा उद्दडता से पेश आए। जापानियों को डराने के लिए जहाज लगातार तोपों से गोले बरसा रहे थे। पेरी ने युद्ध की धमकी देते हुए कहा कि जापानी उसी तरह की असमान संधि पर हस्ताक्षर करें, जैसी अमेरिका ने 1844 ई० में चीन के साथ की थी। राजधानी को नष्ट करने को तैयार अमेरिकी तोपों के डर से जापानी सरकार के पास इस तरह की संधि करने के अलावा और कोई विकल्प न था।

इस जापान-अमेरिका संधि के अंतर्गत जापान को शीमोदा तथा हाकोदाते बंदरगाह अमेरिकी जहाजों के लिए खोलना, शीमोदा में अमेरिकी कोंसुलेट की स्थापना पर सहमत होना, अमेरिकियों को जापान में ईधन तथा खाद्य सामग्री खरीदने का अधिकार देना और किसी भी प्रकार की विदेशी मुद्रा को देश में चलाने के लिए स्वीकार करना पड़ा।

जापान पर थोपी गई इस संधि ने अमेरिकी पूँजी के एक और देश में प्रवेश करने का मार्ग तैयार कर दिया। पेरी के उदंड व्यवहार को अमेरिका में सराहना की गई और सरकार ने उसे 20,000 डालर का इनाम दिया।

अमेरिका की नकल करते हुए 1854 ई० में ब्रिटेन ने, 1857 ई० में हॉलैण्ड ने, 1858 ई० में फ्रांस ने और बाद में कई अन्य देशों ने भी जापान पर ऐसी ही संधियाँ थोपीं। फरवरी, 1855 में जापान और रूस के बीच दो साल से चली आ रही वार्ता अंतु में समाप्त हुई और प्रथम रूस-जापान संधि पर हस्ताक्षर हुए। इस संधि ने रूसी जहाजों को शीमोदा, हाकोदाते तथा नागासाकी बंदरगाहों में प्रवेश करने का अधिकार प्रदान किया।

जापान पर थोपी गई इन असमान संधियों ने सामंती व्यवस्था के संकट को और भी गंभीर बना दिया। जापान का बाजार विदेशी मालों से भर गया और जापानी उद्योग को भारी चोट पहुंची। इन संधियों के कारण शोगूनशाही का काफी विरोध किया जाने लगा। भू-स्वामी अभिजातो (कुलीनों या ऊंचे वर्ग में पैदा होने वालो), निर्धन समुराइयों के कुछ अंश सम्राट के क्योतों में स्थित दरबारियों और विदेशी व्यापारियों की प्रतियोगिता से आतंकित मध्यवर्ग के एक हिस्से तक ने शोगूनशाही की संधियों और नीति की आलोचना की। ये सभी अलग-अलग विरोधी दल शाही दरवार के चारों तरफ एकजुट होने लगे, जो पारंपरिक रूढ़िवादी नीति का पक्षधर था।

मेईजी-पुनर्स्थापना

राजप्रतिष्ठा और सामंतवाद का अंत तथा इससे पहले पश्चिम की समुद्री शक्तियों के साथ व्यापारिक संबंधों को नई नीति नवीन जापान के उदय की भूमिका थी । तोकुगावा शोगूनों की शक्ति का अंत 1868 ई० में हुआ और जापान के सम्राट ने राजशक्ति के प्रयोग को अपने हाथों में ले लिया। जापान के जिस सम्राट के शासनकाल में यह बदलाव हुआ, उसका नाम मुत्सुहितों था। वह 1867 ई० में जापान के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ था। सम्राट बनने पर उसने मेईजी (Meiji) की उपाधि धारण की और इसी नाम से वह इतिहास में प्रसिद्ध है। सम्राट मेईजी द्वारा राजशक्ति के संचालन को अपने हाथों में लेना जापान के इतिहास की एक प्रमुख घटना है।

शोगून सरकार विदेशी शक्तियों से निष्पादित संधियों की विभिन्न शर्तों को ईमानदारी से पूरा करती रही, मगर साथ ही वह विदेशियों के साथ् संघर्ष करने की गुप्त तैयारियां भी करती जा रही थी। सरकार सोचती थी कि इस ढंग से वह शाही दरबार की स्थिति को कमजोर कर सकेगी। शाही दरबार विदेशियों के प्रवेश और प्रभाव का घोर विरोध करके जनसाधारण का समर्थन प्राप्त करने की कोशिश कर रहा था। इस बीच कुछ अंग्रेजों की हत्या कर दी गई और विदेशियों की कुछ इमारतों को जला डाला गया। पश्चिमी शक्तियों ने इसके जवाब में तटीय नगरों पर बमबारी करके करीब दस निर्दोष व्यक्तियों की जानें ले लीं। 1863 ई० में विटिश बेडे ने सातुसूमा राज के केन्द्र कागोशीमा पर दंडात्मक बमवारी की। 1864 ई० में पुनः ब्रिटिश, फ्रांसीसी, अमेरिकी तथा डच बेड़ों न शिमोनोसेकी पर गोले बरसाए। इन कार्रवाइयों और यूरोप एवं अमेरिका की पूँजीवादी शक्तियों के अन्य दमनात्मक कदमों ने जनसाधारण के मन में विदेशियों के प्रति अभूतपूर्व घृणा भर दी। देशभर में जापानियों के एकताबद्ध होने और विदेशियों को खदेड बाहर करने की आवाजें उठने लगीं।

सात्सूमा और मोरी (चोश्यू) के राजाओं की सेनाओं ने विदेशियों को जापान से निकाल बाहर करने के लिए कदम न उठाए जाने पर शोगूनशाही के विरुद्ध विद्रोह कम कर देने की धमकी दे दी।

इन विद्रोही राजाओं को कुचलने के लिए शोगूनशाही ने सेनाएँ भेजीं, पर साथ ही अंग्रेजों और फ्रांसीसियों को अपने दूतावासों की रक्षा करने के लिए सैनिक टुकड़ियाँ भेजने की अनुमति देने से इनकार कर दिया। उधर आयातित मालों पर सीमा-शुल्क घटाकर मात्र पांच प्रतिशत कर दिया गया था। इन सभी बातों से जापान में स्थिति और भी अधिक खतरनाक हो गई थी। साम्राज्यवादी शक्तियों के प्रतिनिधि जापान के आंतरिक मामलों में सक्रिय हस्तक्षेप कर रहे थे। फ्रांस शोगूनशाही की सहायता कर रहा था। उसकी सेनाओं को हथियार देकर और राजाओं के विरुद्ध संघर्ष के लिए धन देकर जापान को तबाह कर रहा था। ब्रिटेन इस उम्मीद से शोगून-विरोधी शक्तियों का समर्थन कर रहा था कि भविष्य में केन्द्रीय सत्ता कमजोर हो जाएगी।

इस बीच जापान में किसान संघर्ष की आग फैलने लगी। सामंत-विरोधी विद्रोह का वातावरण बन गया। अकेले कोई प्रांत में ही 1,30,000 किसानों ने विद्रोह में भाग लिया था। 1866-67 में संपूर्ण मध्य जापान में किसान विद्रोह हुए। विरोधी शक्तियाँ नगरों में प्रभावशाली होती गई। जापानी नगरों का बुद्धिजीवी समुदाय यूरोपीय लोकतंत्रवादी चिंतकों के प्रगतिशील विचारों से अवगत होने लग गया था। धीरे-धीरे मध्यवर्ग का विपक्ष भाग शोगूनशाहों के खिलाफ संघर्ष में शामिल हो गया। यह वर्ग कई कारणों के अलावा यूरोपीय औद्योगिक मालों के लिए द्वार खोल दिए जाने के विरुद्ध था। गरीब समुराई भी इस संपूर्ण में उतर आए। इस संघर्ष के धान केंद्र दक्षिण तथा दक्षिण पश्चिम जापान के सामंत थे जो विदेशी शक्तियों के साथ सबसे सक्रिय व्यापार किया करते थे। उनके कुछ प्रमुख नेता युवा समुराई थे। क्षिण-पश्चिम के राजाओं (सातसूमा, चोश्यू तथा तोसा) के सहबंध को कुछ महाजन् परिवारों तथा समार के दरबारी अभिजातों का पक्का समर्थन प्राप्त था। आधा भांडा पानेवाले और आधा स्वेच्छा से काम करनेवाले सैनिकों के कई दस्ते और गरीब समुराइयों, दस्तकारों, कृषको तथा शहरी गरीबों से बने कई दस्ते इन राजाओं की सेनाओं में शामिल हो गए। इस सहबंध के नेतृत्व में अभिजात वर्ग के उन अंशकों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की, जो पिछले कुछ समय से व्यापार और उद्योग-जैसे बुर्जुआ व्यवसायों में रुचि लेने लगे थे। औपचारिक रूप में विद्रोह का लक्ष्य सम्राट के अधिकारों का पुनर्स्थापन करना था, जिन्हें शोगूनशाही ने हड़प लिया था। 1867 ई० मुत्सुहितों (Mulsuhita) नामक पंद्रह-वर्षीय किशोर सिंहासनस्थ था, जो शोगूनशाही विरोधी सहबंधु (गुट) के हाथों का खिलोना था।

अक्टूबर, 1967 में इस गुट ने शोगून खेड़की से मांग की कि वह सम्राट की उसकी समस्त पुरानी सत्ता और अधिकारों को बदले डाले। स्थिति की गंभीरता को समझकर शोगून इस्तीफा देने को राजी हो गया और ओसाका में अपने गढ़ में छिपकर अवश्यंभावी लड़ाई की तैयारी करने लगा। शोगून अब भी देश का प्रमुख भूस्वामी था। उसके पास न केवल विशाल जागीरें थी, बल्कि काफी बड़ी सेना भी थीं, जिसे फ्रांसीसियों ने प्रशिक्षित किया था। इस सेना को साथ लेकर वह उसी साल शत्रु का सामना करने के लिए निकला किंतु फूशीमी को लड़ाई में उसे मुंह की खानी पड़ी। लड़ाइयाँ पूरे 1868 और 1869 ई० में चलती रही, किंतु विजय हुई शोगूनशाही- विरोधी गुट की।

नई सरकार में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका सातसूमा कुल के प्रतिनिधि-ओकूबो तथा कोदो (Qkubo and Kido) को हो गई। उन्होंने देश का एकीकरण तथा शस्त्रास तथा प्रोद्योगिकी के क्षेत्र में यूरोपीयकरण करने का प्रयास किया। यह नीति किसानों के हितों को संतुष्ट नहीं कर पाई। किसानों की मांग थी कि कृषि का सामंती स्वरूप समाप्त किया जाए और जमीन उन्हें मिल जाए।

शोगूनशाही का तख्ता उलटे जाने से ही कृषक संघर्ष का अंत नहीं हुआ। 1868-78 की अवधि में 185 बड़े कृषक विद्रोह हुए जिनमें कुछ में तो ढाई लाख तक लोगों ने भाग लिया था। बुर्जुआ वर्ग और भूस्वामी तबके ने एक साथ मिलकर कृषक विद्रोह को इस तरह कुचला कि लहू को नदियाँ बह चलीं।

1867-68 की घटनाएं जापान में मेईजी पुनस्र्थापन या मेईजी प्रत्यावर्तन के नाम से प्रसिद्ध है; क्योंकि मेईजी (अर्थात् प्रबुद्ध शासन) सम्राट मुत्सुहितो के शासनकाल को दिया गया अधिकृत नाम है।

मेईजी-पुनर्स्थापन-कारण, परिणाम एवं महत्व

कारण

जिस समय पश्चिमी राज्यों द्वारा जापान का दरवाजा खोला गया, उस समय जापान के शासन पर शोगन (Shogun) सामंतों का शासन था। शोगून लोगों की शक्तिहीनता के कारण जापान को कई असमान संधियों के जाल में फंसना पड़ा था। अतः, जापान के कई लोग शोगून के विरुद्ध हो गए थे। जिन लोगों ने शोगूनों का प्रबल विरोध किया उनमें सात्सूमा तथा चोश्यू कुल के सामंत प्रधान थे। समुदाई लोग भी विदेशियों के बढ़ते हुए प्रभाव का विरोध कर रहे थे और चाहते थे कि शोगूनों को अपदस्थ किया जाए। 1858 ई० के बाद ही इस आंदोलन ने प्रबल विरोध धारण कर लिया। इसके प्रवर्तकों का कहना था कि विदेशियों को जापान से निकाल देना चाहिए और सपाट को फिर से देश का वास्तविक शासक बनाना चाहिए। इसके साथ ही जापान में पाश्चात्य देशों के विरुद्ध भावना प्रबल हो रही थी। यूरोपीय व्यापारियों द्वारा जापानियों के साथ बुरा व्यवहार किया जाता था और शोगून सामंत इसे रोकने का कोई प्रयास नहीं कर रहे थे। फलतः शोगूनों के विरोधियों ने सम्राट पर दबाव डालकर उससे एक परमान् जारी करवा दिया कि पाश्चात्य देशों के जहाजों के आने जाने पर रोक लगा दी गई। शोगूनों ने इस राजाज्ञा का समर्थन नहीं किया। फलतः शोगून लोगों की जापान में बहुत् बड़ी बदनामी हुई और सम्राट के दरबार में चोश्यू और सात्सूमा सामंतों का प्रभाव बढ़ने लगा।

उपर्युक्त माहौल में 1867 ई० में जापान के राजसिंहासन पर एक नया सम्राट बैठा। एक नया शोगून भी प्रधानमंत्री के पद पर आया। 1867 ई० के अंत में चोश्यू, सात्सूमा तथा हिजनवर्ग के सामंतों ने नए शोगून प्रधानमंत्री के पास एक प्रार्थना पत्र भेजा जिसमें यह मांग की गई थी कि शोगून-प्रभुत्व का अंत होना चाहिए तथा सम्राट की शक्ति पुन: उसे वापस दे देनी चाहिए। उन्होंने कहा कि नए सम्राट को राजशक्ति का उपयोग करने का अवसर तुरंत दिया जाना चाहिए। नए शोगून सामंत ने इस बात को मान लिया। उसने स्वयं अपने पद से त्यागपत्र दे दिया और सम्राट ने स्वयं जापान के शासन-सूत्र को संभाला। शोगून सरकार का अंत और सम्राट द्वारा शासन-सूत्र संभाले जाने की घटना जापान के इतिहास में महत्वपूर्ण मानी जाती है। कहते हैं, इस घटना से जापान के इतिहास में एक युग का अंत और दूसरे युग का प्रारंभ हुआ। इसके बाद जापान का आधुनिकीकरण तेजी से शुरू हुआ।

परिणाम

पुनर्स्थापन के पश्चात् शासक-मंडल के सुधारवादी नेताओं के सम्राट-सभा में बैठकर अपना कार्य आरंभ किया। प्राचीन परंपरा और रीति-नीति से जापान का दुरबार पहले इस तरह बंधा था, जैसे अस्थि से मांस। सुधारवादी नेताओं ने अब पुरानी और भद्दी नीतियों को उठा दिया। इस बदलाव को जापानियों ने ‘इशिन’, अर्थात् चमत्कार कहा।

एचिजन, तोसा, चोशियो, सात्सूमा, हिजन और आकी के बड़े-बड़े लोगों ने सम्राट को लिखा कि विदेशियों से संपर्क बढ़ाना और उनमें जो अच्छाई हो उसे सीखना चाहिए। जापान ने समझ लिया कि अपने-आपको यूरोपीय शक्तियों का शिकार बनने से रोकने के लिए उसे भी उन्हीं की तरह शक्ति-संपन्न, सुशिक्षित एवं वाणिज्य-व्यवसायों में कुशल बनना पड़ेगा । इसी से उसने शीघ ही पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण करना शुरू किया। विदेशियों की छेड़छाड़ तथा आत्मरक्षा के प्रश्न के कारण समस्तु देश में राष्ट्रीयता का भाव तो पहले ही फैल चुका था अतः उन्नति के पथ पर अग्रसर होने में जापान को विशेष कठिनाई नहीं हुई। सम्राट ने विदेशों के प्रतिनिधियों से दरवार में भेंट करना शुरू किया। पुरानी राजधानी क्योतो से हटाकर जापान की राजधानी येदो (आधुनिक टोकियो) में स्थापित की गई। जापानी भाषा में टोकियो का अर्थ पूर्वी राजधानी होता है। जापान में नवीन सुधार के लिए सम्राट ने एक घोषणा-पत्र (सिद्धांत पेचका) जारी किया । सरकारी आदेश से समुराई लोगों को दो तलवार बाँधने पर रोक लगा दी गई ।पेंशन देने की परंपरा बंद कर दी गई। इसके लिए समुराई लोगों ने असफल विद्रोह भी किया।

सामाजिक दृष्टि से जापान में पहले समुराई, कृषक, दस्तकार तथा व्यापारी लोगों की चार जातियां थीं। इन्हें समाप्त कर दिया गया और जापानियों की एक ही जाति रह गई। जापानियों, ने रेल, तार, बेड़े, आदि बनाने में इंगलैंड से सहयोग प्राप्त किया कानून एवं सैनिक शिक्षा से संबंधित तथ्यों की जानकारी उन्हें फ्रांसीसियों से मिली। अमेरिका से उपनिवेश, खेती डाकू तथा विद्या से संबंधित तथ्यों को उन्होंने सीखा। व्यापारी शिक्षा, प्रांतिय शिक्षा और सैनिक अफसरों से संबंधित शिक्षा की जानकारी उन्हें जर्मनी से मिली। चित्रकला की शिक्षा इटली से मिली। यह नियम था कि जब किसी बात को सिखानेवाला कोई जापानी मिल जाता तो विदेशियों को उस काम पर नहीं रखा जाता था।

शिक्षा के प्रसार की अनिवार्य आवश्यकता पर जोर दिया गया। 1869 ई. में एक फरमान जारी किया गया जिसके अनुसार सब मनुष्यों को शिक्षा प्राप्त करना आवश्यक था। हजारों पाठशालाएं और विद्यालय खोले गए। कृषि एवं व्यवसाय संबंधी तथा विविध कलाओं की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया। बहुसंख्यक विद्यार्थी विदेशों को भी भेजे गए ताकि उच्च शिक्षा पा सकें।

आर्थिक दृष्टि से सरकार की ओर से अनेक व्यावसायिक प्रदर्शनियों का आयोजन किया गया। जापानी व्यवसायों को प्रोत्साहित करने की चेष्टा की गई। सरकार ने एक ऐसी संस्था स्थापित की जिसका मुख्य काम विदेशी बाजारों में जापानी वस्तुओं का प्रदर्शन करना और उनके प्रचार का प्रयास करना था। सरकार ने संरक्षण देकर तथा अन्य उपायों से नवीन उद्योग व्यवसायों की सहायता की। परिणाम यह हुआ कि जापान ने शीघ्रता से उन्नति की और ब्रिटेन तथा अमेरिका से टक्कर लेने के लायक हो गया।

महत्व

मेईजी-पुनर्स्थापन का जापान में विशेष महत्व है। आधुनिक जापान के निर्माण का बीजारोपण मेईजी पुनर्स्थापन से ही शुरू होता है। जापान से सामंती प्रथा का उन्मूलन हो गया और उन्नति का रास्ता खुला। विदेशी साम्राज्यवाद के चंगुल में फंसने से जापान बच गया। राष्ट्रीयता का अपूर्व विकास हुआ। देश परधीनता से बच गया ।

जापान में साम्राज्यवादी भावना का विकास हुआ। जापान की आंतरिक दशा में बदलाव आया। देश का शासन अत्यंत दृढ़ तथा कुशल हो गया। औद्योगिकीकरण का तेजी से विकास हुआ। जापानी सैन्य बल में काफी वृद्धि हुई और जापान एक साम्राज्यवादी देश हो गया।

शासन चलाने के लिए एक संसद की स्थापना की गई और नया संविधान बना। नागरिकों को कई अधिकार दिए गए । जापानी सेना नए ढंग से संगठित की गई । विदेशियों से संपर्क कायम हुए जिसके कारण जापान की प्रगति का मार्ग प्रशस्त हुआ। जापानियों ने पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति का अनुशीलन कर विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति करना शुरू किया। उसे पश्चिमी देशों के बराबर बनना था, अत: बड़ी तेजी के साथ कल-कारखानों का विकास किया गया। नए-नए वेज्ञानिक थयार बनाए गए। उच्च शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था हुई। इस तरह, मेईजी-पुनर्स्थापन से जापान का पूर्ण कायाकल्प हुआ।

मेईजी-पुनर्स्थापन के बाद जापान (1868-1910)

(क)  कृषि और कृषक

1867-68 की बुर्जुआ क्राति अथवा मेईजी-पुनर्स्थापन ने जापान में अपेक्षाकृत तीव्र पूंजीवाद विकास का पथ खोल दिया। सामती फूट और भूस्वामित्व के सामंती स्वरूप अब अतीत की बातें बन गए और बड़े पैमाने के उद्योग पैदा होने लगे। किसानों के दबाव से जो सामंतो प्रथाओं के अवशेषों के विरुद्ध संघर्ष किए जा रहे थे उसके परिणामस्वरूप शासक वर्गों को कृषि में सुधार करने पड़े। 1872-73 में किए गए एक सुधार ने भूमि पर उन लोगों का अधिकार बना दिया, जो व्यवहार में उसके स्वामी थे। रेहन जमीन उनकी संपत्ति बन गई, जिन्होंने धन देकर उन्हें छुड़ा लिया। इन सुधारों ने भूस्वामियों, धनी किसानों, व्यापारियों और महाजनों को भारी लाभ पहुंचाया। इन्हीं महाजनों, धनाढ्य किसानों और व्यापारियों के पास किसान पहले अपनी जमीन रेहन रखा करते थे। किसानों का पहले जिन जमीनों पर स्वामित्व था, उनका कोई तिहाई हिस्सा उनके हाथों से निकल गया। शामिलात (अनेक हिस्सेदारों को संयुक्त संपत्ति) जमीन-बन, चारागाह और मैदान-सम्राट की संपत्ति बन गई और देश का वह सबसे शक्तिशाली भूस्वामी हो गया। छोटी जोतों के मालिकों के लिए, जो पहले ही सिर तक कर्ज में डूबे थे और जिनपर अब बढ़े हुए लगानों का और बोझ आ पड़ा था कुछ ही समय के भीतर नए सुधार से प्राप्त जमीनों को अपने हाथों में रख पाना असंभव हो गया और वे भूस्वामित्व के सभी अधिकारों से होन आसामी काश्तकार (कृपक मजदूर) बनकर रह गए। उनकी जमीनें बड़े भूस्वामियों और धनी किसानों की संपत्ति बन गई, जिनपर वे शीघ्र ही अपनी जीविका के लिए आश्रित हो गए।

(ख) उद्योग और मजदूर

उपर्युक्त सुधारों के बावजूद गांवों में अर्द्धसामंती व्यवस्था ही बनी रही। इस व्यवस्था ने कृषि में पूंजीवादी विकास को अवरुद्ध किया। सुधार के बाद के प्रारंभिक वर्षों में उद्योग ने कृषि में पूंजीवादी विकास को अवरुद्ध किया। सुधार के बाद के प्रारंभिक वर्षों में उद्योग भी अपेक्षाकृत मंद पूंजीवादी विकास का यही कारण था।

किन्तु, बुर्जुआजी की भूमिका के अधिक महत्वपूर्ण होते जाने के साथ-साथ सरकार ने औद्योगिक उपक्रम को अधिक प्रोत्साहन प्रदान किया और कारखानों के निर्माण में काफी पूँजी लगाने लगी। 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में जापान में सामंतीकाल से ही चले आ रहे पुराने वाणिज्यिक घरानों की बुनियाद पर पहले इजारों (ठीकों) का उदय होने लगा। औद्योगिक विकास के साथ-साथ श्रमिक वर्ग भी बढ़ता गया । जापान में पहली ट्रेडु-यूनियनें उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में पैदा हुई। उनकी स्थापना को प्रगतिशील मजदूरों और बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में ट्रेड-यूनियन स्थापना समाज ने उतरेरित किया था। इस समाज का अध्यक्ष कातायामा (1859-1933) था। 1898 ई० में जापान में प्रथम मई दिवस का आयोजन किया गया।

(ग) . हड़तालों पर प्रतिबंध

मजदूर आंदोलन की और उन्नति को रोकने के लिए 1900 ई. में सरकार ने एक व्यवस्था अनुरक्षण कानून जारी करके हड़तालों पर प्रतिबंध लगा दिया। पुलिस के द्वारा किए गए अत्याचार के कारण कई ट्रेड यूनियनों ने अपनी गतिविधियों को कम कर दिया। कातायामा कोतोकू और कावाकामी जैसे प्रगतिशील बुद्धिजीवी और मजदूर आंदोलन नेता इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि समाजवाद के तहत संघर्षशील मजदूरों की राजनीतिक पार्टी का स्थापित किया जाना अत्यावश्यक है। 20 मई, 1900 को सामाजिक-जनवादी पार्टी की विधिवत स्थापना की गई। पार्टी का कार्यक्रम संघर्ष के सिर्फ कानूनी तरीकों को ही मान्यता देता था और सभी को मताधिकार दिलाने के लिए आंदोलन को अपना मुख्य कार्यभार मानता था। इसके अलावा उसमें सेना में कमी करने, उच्च सुदन के उन्मूलन और आम चुनावों की भी मांग की गई थी। सरकार ने इस पार्टी को अवैध घोषित कर दिया।

(घ). सैनिक व्यवस्था

19वीं शताब्दी के अंत में जापानी साम्राज्यवाद सैन्य-सामंतवादी स्वरूप का था: क्योंकि देश का इजारेदार पूंजीवाद अब भी परम्परावादी पूँजीवादी उत्पादन संबंधों के जाल से बाहर नहीं निकल पाया था। देश के राजनीतिक जीवन में सामंती अवशेष सैन्य तथा भूस्वामी हलकों के जबरदस्त प्रभाव में, विभिन्न निरंकुशतावादी प्रवृत्तियों में, संसदीय प्रणाली की कमजोरी में, राजतंत्र में सेना के प्रतिनिधियों के प्रभुत्व में और इस बात में अभिव्यक्ति होते थे कि जनसाधारण सभी राजनीतिक अधिकारों से वंचित थे। जापानी शासक हलकों ने सुसज्जित सेना का निर्माण करने के लिए धन की कभी कंजूसी नहीं की। इस काल में जापानी सन्यवादियों की आक्रमक योजनाओं में कोरिया को एक प्रमुख स्थान प्राप्त था । उसपर कब्जा करने के लक्ष्य से जापान ने 1894 ई० में चीन पर आक्रमण किया और अपने अति विशाल पड़ोसी को बड़ी जल्दी हो पराजित कर दिया। इस सैनिक सफलता और चीन से प्राप्त भारी युद्ध-क्षतिपूर्ति ने जापान में पूँजीवादी विकास के लिए प्रोत्साहित किया।

चीन पर विजय से देश में उम्र अंधराष्ट्रवादी प्रचार की जबर्दस्त लहर भी दौड़ गई। जापानी शासक हलकों ने कोरिया, चीन के उत्तर-पूर्वी प्रांतों, मंगोलिया और पूर्वी साइबेरिया सहित ‘महान जापानी साम्राज्य के निर्माण के विचारों का प्रचार करते हुए औपनिवेशिक प्रसार की भांति-भांति की योजनाएं बनाना शुरू कर दिया। जापानी मध्यवर्ग को जारशाही रूस ही एशिया में अपने प्रभुत्व के संघर्ष में मुख्य प्रतिद्वंद्वी नजर आता था, जो उसकी तरह ही चीन तथा कोरिया में पर जमाने का आकांक्षी था।

  1. रूस पर प्रभाव

ब्रिटेन और अमेरिका से आश्वासन पाकर जापान ने 1904 ई० में रूस पर हमला कर दिया। प्रगतिशील जापानी मजदूर रूसी प्रगतिशील मजदूरों की भांति अच्छी तरह समझते थे कि यह बुर्जुआजी के हितों की रक्षा के लिए लड़ा जा रहा था। अगस्त, 1904 में एमस्टरडम में हुई दूसरे इंटरनेशनल की कांग्रेस में प्लेखानोव तथा कातायामा ने एक-दूसरे का मित्रों की तरह अभिवादन किया। लेकिन, उस समय मजदूर संगठन इतने शक्तिशाली नहीं थे कि अपनी-अपनी सरकार पर दबाव डाल पाते । फलतः, युद्ध चलता ही रहा । जारशाही को जापानी सैन्यवादियों के विरुद्ध इस युद्ध में बुरी तरह हार खानी पड़ी। देश के भीतर क्रांति को कुचलने और किसी भी कीमत पर अपनी सत्ता कायम रखने के लिए जारशाही को 1905 ई० में पोर्टसमाउथ की संधि जापान से करनी पड़ी। इससे जापान को काफी रियायतें प्राप्त हुई। इस संधि के अंतर्गत दक्षिणी सखालिन जापान को दे दिया गया और उसके परिणामस्वरूप रूस अपने एक प्रशांत सागरद्वार से वंचित हो गया। कमचात्का तथा चुकीत्का (Kamchatka  and Chukotka) के रूसी प्रदेशों के साथ संचार तक जापान के नियंत्रण में आ गया।

(घ) महाशक्ति के रूप में जापान

पोर्टसमाउथ की संधि ने लंबे समय के लिए सुदूरपूर्व में शक्ति-संतुलन को बदल डाला। जापान को भी अब महाशक्ति माना जाने लगा। फिर भी, इस संधि ने जापानी सैन्यवादियों की क्षुधा को संतुष्ट नहीं किया, न युद्धलिप्सु जापानी भूस्वामियों और बुर्जुआजी के आक्रामक मिजाज को ही ठंडा किया। 1906 ई० में जापानी सैन्यवादियों ने सरकार को सेना तथा जलसेना के प्रसार का अधिक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम स्वीकार करने के लिए राजी कर लिया।

रूस-जापान युद्ध के बाद जापानी बुर्जुआजी ने, जिसकी शक्ति इस विजय के परिणामस्वरूप सुदृढ़ हो गई थी, देश की अर्थव्यवस्था और विशेषकर उद्योग के तीव्र विकास को बढ़ावा दिया। 1905 और 1913 ई० के बीच अर्थव्यवस्था में 380 करोड़ येन लगाया गया जिसका 46.8 प्रतिशत सिर्फ उद्योग पर ही लगाया गया था। फलतः, उत्पादन में वृद्धि हुई। कच्चे लोहे का उत्पादन 1906 ई० में 1,45,000 टन से बढ़कर 1913 ई० में 2,43,000 टन हो गया। 1906 ई० में इस्पात का उत्पादन 69,000 टन और 1913 ई० में 2,55,000 टन हो गया। बिजली के उपयोग में वृद्धि हुई। उत्पादन और पूंजीपतियों की संख्या में तेज गति से वृद्धि हुई। देश के अर्थतंत्र पर मित्सुई, मित्सुबीशी, समीतोमो और यासूदा जैसे शक्तिशाली निगमों का अधिकाधिक प्रभुत्व स्थापित होता गया। जापान के विदेश व्यापार के परिमाण में प्रभाशाली वृद्धि हुई।

इस समय तक जापान की आर्थिक वृद्धि की दर कई पूँजीवादी देशों से अधिक हो चुकी थी। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के इस तीव्र विकास को कोरिया तथा दक्षिण मंचूरिया के निवासियों तथा स्थानीय किसानों और मजदूरों के शोषण और लूट ने ही संभव बनाया था। राजकीय उद्यमों (Government enterprises) में काम करनेवाले मजदूरों के अलावा जापान के औद्योगिक मजदूरों की संख्या 1904 ई० में 5,26,000 से बढ़कर 1913 ई० में 9,16,000 हो गई थी।

1905-07 को रूसी क्रांति ने जापान पुर महत्वपूर्ण परोक्ष प्रभाव डाला था। 5 सितम्बर, 1905 को टोकियो में एक जनसभा हुई और पुलिस तथा भीड़ में झड़पें हुई। इस सभा के बाद आनेवाले महीनों और वर्षों में देशभर में मजदूर आंदोलन की लहर दौड़ गई। 1906 ई० में रेल मजदूरों, खनिकों, शस्त्र कारखानों के मजदूरों, ट्रामचालकों तथा कंडक्टरों ने हड़ताल कर दी।

समाजवादी आंदोलन भी अधिक सक्रिय हो गया। फरवरी, 1906 में समाजवादी पार्टी की पुनःस्थापना की गई। उसके नेता अब कातायामा, सकाई, नीशीकावा, मोरी आदि थे। पार्टी ने हिंकारी (Hikari अर्थात प्रकाश) नामक समाचार-पत्र का प्रकाशन शुरू किया। इस समाचार-पत्र के बदले 1907 ई० में हैइमीन शिंबून अर्थात् जन समाचार-पत्र प्रकाशित होने लगा। पार्टी ने कई जनसुभाओं और प्रदर्शनों का संगठन किया। इस पार्टी पर फरवरी, 1907 में रोक लगा दी गई और उसके कुछ समय बाद हैइमीन शिंबून का प्रकाशन भी बंद हो गया।

जुलाई, 1908 में कत्सुरा (Katsura) के नेतृत्व में एक नई सरकार बनी, जो सेना के प्रत्यक्ष सहयोग से काम करती थी। इस नई सरकार का निर्माण मजदूर आंदोलन के प्रगतिशील नेताओं के विरुद्ध क्रूर पुलिस के सहयोग से किया गया था। 1910 ई० में समाजवादी पार्टी के एक नेता कोतोकू और उसके 24 सहयोगियों पर सम्राट के विरुद्ध षड्यंत्र का झूठा आरोप लगाकर मुकदमा चलाया गया। कोतोकू सहित 12 प्रतिवादियों (defendants) को मृत्युदंड दे दिया गया और शेष को कठोर कारावास का दंड दिया गया। लेकिन, इस दमन के बावजूद 11 दिसंबर, 1911 को सेन कातायामा ने टोकियो के परिवहन् मजदूरों की एक बड़ी हड़ताल का संगठन किया। इस बीच जापान लगातार अपनी सेना को बढ़ाता, उसके साज-सामान को सुधारता और सुदूरपूर्व में अपनी स्थिति को मजबूत करता रहा। 1910 ई० में जापान ने कोरिया के राजा को जापान के सम्राट के सम्मुख समर्पण करने और गद्दी त्यागने के लिए विवश कर दिया। 22 अगस्त, 1910 को इसे एक संधि द्वारा औपचारिक अनुमोदन (formal support) प्रदान किया गया। इस अनुमोदन ने कोरिया को एक जापानी उपनिवेश में बदल डाला। एशिया में जापानियों का ऐसा सक्रिय प्रसार जापान तथा अमेरिका के पारस्परिक संबंधों में तनाव का कारण बना।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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