निवेश या विनियोग फलन | निवेश या विनियोग के प्रकार | निवेश के निर्धारक तत्व
निवेश या विनियोग फलन | निवेश या विनियोग के प्रकार | निवेश के निर्धारक तत्व
निवेश या विनियोग फलन
(Investment Function)
केन्ज का विनियोग से अभिप्राय सदैव वास्तविक निवेश (Real Investment) से है जिससे कि रोजगार व राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है तथा नये पूंजीगत पदार्थों का सृजन होता है। वास्तविक निवेश से अभिप्राय नये शेयर व नये स्टाक खरीदने, नये भवनों और कारखानों का निर्माण करना, वर्तमान पूंजीगत सम्पत्ति में वृद्धि, यातायात की सुविधाओं का विस्तार तथा वस्तुओं के भंडार में वृद्धि आदि से है।
जब इस प्रकार की परिसम्पत्तियों का नव-निर्माण किया जाता है तो उसके परिणामस्वरूप रोजगार स्तर तथा राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है। केन्ज (Keynes) के अनुसार, “निवेश से अभिप्राय पूंजीगत पदार्थों में होने वाली वृद्धि से है।”
केन्ज के अनुसार वित्तीय निवेश (Financial Investment) जैसे शेयर, स्टाक व डिवेंचर्स का क्रय-विक्रय, बैंक में रुपया जमा करना, पहले से विद्यमान सम्पत्ति को खरीदना आदि निवेश के अन्तर्गत नहीं आते क्योंकि इससे रोजगार में वृद्धि नहीं होती इस प्रकार का निवेश केवल स्वामित्व (ownership) के परिवर्तन को प्रकट करता है। वित्तीय निवेश का व्यक्तिगत दृष्टिकोण से तो महत्त्व है परन्तु सामाजिक दृष्टिकोण से इसका कोई महत्त्व नहीं है। मान लो किसी A व्यक्ति के पास किसी कम्पनी के एक हजार रु० के हिस्से हैं। यदि A व्यक्ति से ये हिस्से B व्यक्ति खरीद लेता है तो B व्यक्ति की दृष्टि से तो ये विनियोग कहलाएगा। परन्तु इसके फलस्वरूप समाज के कुल विनियोग में कोई परिवर्तन नहीं आयेगा। यह तो एक प्रकार वित्तीय लेन-देन है जिसका रोजगार व आय के स्तर पर प्रभाव नहीं पड़ता। इसी प्रकार के निवेश को केन्ज ने वित्तीय निवेश माना है।
श्रीमती जान रॉबिन्सन के अनुसार- “विनियोग का अर्थ है पूंजी में होने वाली वृद्धि, यह उस समय होती है जब नया मकान बनाया जाता है अथवा नयी फैक्टरी का निर्माण किया जाता है। विनियोग का अर्थ है वस्तुओं के चालू स्टाक में वृद्धि की जाये।”
स्टोनयर तथा हेग के अनुसार- “विनियोग से हमारा अभिप्राय चालू प्रतिभूतियों, बाण्डों व हिस्सों को खरीदने से नहीं है वरन् इससे हमारा अभिप्राय नयी फैक्ट्रियों, मशीनों आदि के खरीदने से है।”
पीटरसन के अनुसार- “विनियोग खर्च में उत्पादन के यन्त्रों, नये निर्माण तथा विनियोजन में होने वाले परिवर्तन के खर्च को शामिल करते हैं।”
अतएव वास्तविक निवेश से अभिप्राय यह है कि चालू पूंजीगत पदार्थों में वृद्धि की जाए जिसके फलस्वरूप रोजगार तथा आय स्तर में वृद्धि होगी।
निवेश या विनियोग के प्रकार
(Types of Investment)
विनियोग के मुख्य प्रकार निम्नलिखित हैं-
- स्वायत्त निवेश (विनियोग) (Autonomous Investment)- स्वतंत्र निवेश आय, लाभ व उत्पादन में होने वाले परिवर्तनों से प्रभावित नहीं होता। आय या लाभ का चाहे जो भी स्तर हो परन्तु निवेशकर्ताओं के निवेश-सम्बन्धी निर्णयों में कोई परिवर्तन नहीं होता।
प्रो० कुरीहारा के अनुसार, “स्वतंत्र निवेश आय या लाभ में होने वाले परिवर्तनों से स्वतंत्र होता है।”
पीटरसन के शब्दों में, “स्वतंत्र निवेश उत्पादन की नई तकनीकों के प्रयोग, नये साधनों के विकास या जनसंख्या और श्रम शक्ति की वृद्धि आदि साधनों से सम्बन्धित है।”
यह निवेश न तो व्याज की दर पर निर्भर करता है और न ही संभावित आय पर अर्थात् स्वतंत्र निवेश लाभ निरपेक्ष (Profit inelastic) होता है। यह निवेश देश के आर्थिक विकास, जनकल्याण एवं सुरक्षा हेतु किया जाता है। इस प्रकार का निवेश वैज्ञानिक आविष्कारों, अनुसन्धानों, जनसंख्या, तकनीकी परिवर्तनों तथा नये उत्पादन साधनों की प्राप्ति से तो प्रभावित होता है परन्तु यह संभावित आय से प्रभावित नहीं होता।
इस प्रकार का निवेश प्राय: सरकार द्वारा किया जाता है। प्रो० कुरीहारा के अनुसार, “स्वतंत्र निवेश आय के स्तर पर निर्भर नहीं करता। आय के अतिरिक्त और तत्त्वों जैसे तकनीकी परिवर्तनों, सार्वजनिक नीति आदि में परिवर्तन आने से इसमें परिवर्तन आता है।” स्वतंत्र निवेश को रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।
निम्न रेखाचित्र में II1 स्वतंत्र निवेश वक्र है। II, वक्र Ox रेखा के समानान्तर है क्योंकि आय के प्रत्येक स्तर पर निवेश एक समान है। OM आय स्तर पर निवेश MT है तथा OM1 आय स्तर पर निवेश KM1 है जो कि MT के बराबर है। अत: आय में कमी या वृद्धि होने पर निवेश में कोई परिवर्तन नहीं होता अर्थात् निवेश OI (या TM या KM1) के बराबर ही रहेगा।
(2) प्रेरित निवेश (Induced Investment)- प्रेरित निवेश आय या लाभ में होने वाले परिवर्तनों से प्रभावित एवं परिवर्तित होता है। आय में वृद्धि से प्रेरित निवेश में वृद्धि होती है तथा आय में कमी से प्रेरित निवेश में कमी होती है। प्रेरित निवेश प्रायः निजी क्षेत्र में किया जाता है तथा यह निवेश लाभ या आय-सापेक्ष (Profit elastic or Income elastic) होता होता है। प्रो० एन० एफ० कीजर के अनुसार, “जब निवेश में वृद्धि वर्तमान आय तथा उत्पादन स्तर में वृद्धि के कारण होती है, तो इसे प्रेरित निवेश कहते हैं। आय स्तर में वृद्धि के साथ-साथ प्रेरित निवेश में वृद्धि होती है, इसलिए प्रेरित निवेश वक्र नीचे से ऊपर की ओर उठता है।
उपरोक्त रेखाचित्र में II1 प्रेरित निवेश वक्र है जो कि नीचे से ऊपर की ओर उठ रही है। अत: इससे यह सिद्ध होता है कि आय में वृद्धि होने पर प्रेरित निवेश में भी वृद्धि हो रही है।
(3) कुल निवेश (Gross Investment)- एक निश्चित समय अवधि में किसी अर्थव्यवस्था में पूंजीगत परिसम्पत्तियों (Capital Assists) में जो वृद्धि होती है उसे कुल निवेश कहा जाता है।
(4) शुद्ध निवेश (Net Investment)- जब पूंजीगत परिसम्पत्तियों जैसे मशीनों, यन्त्रों आदि का उत्पादन हेतु प्रयोग किया जाता है तो उनकी घिसाई व टूट-फूट पर खर्च किया जाता है। अतः कुल निवेश में से पूंजीगत पदार्थों की घिसाई व टूट-फूट आदि पर होने वाले खर्च को घटा दिया जाता है तो शेष जो बचता है उसे विशुद्ध निवेश कहते हैं।
शुद्ध निवेश (Net Investment) = कुल निवेश (Gross Investment)
-घिसाई व टूट फूट का खर्च (Depreciation Charges)
(5) निजी निवेश (Private Investment)- निजी निवेश से अभिप्राय उस निवेश से होता है जो निजी क्षेत्र में निजी व्यक्तियों द्वारा लाभ कमाने के उद्देश्य से किया जाता है। इस प्रकार का निवेश लाभ या आय सापेक्ष होता है। प्रो० केन्ज के अनुसार निजी निवेश दो तत्वों पर निर्भर करता है-(a) पूंजी की सीमांत उत्पादकता और (b) ब्याज की दर। जब पूंजी की सीमांत उत्पादकता ब्याज की दर से अधिक होती है तो उद्यमी अधिक निवेश करेंगे। इसके विपरीत यदि पूंजी की सीमांत उत्पादकता ब्याज की दर से कम है अर्थात् निवेशकर्ताओं को कम लाभ प्राप्त होने की भी संभावना है तो वे कम निवेश करेंगे।
(6) सार्वजनिक निवेश (Public Investment)– सार्वजनिक निवेश सार्वजनिक क्षेत्र में केन्द्रीय, प्रांतीय तथा स्थानीय सरकारों द्वारा किया जाता है। इस प्रकार के निवेश का उद्देश्य लाभ कमाना नहीं होता अर्थात् सार्वजनिक निवेश आय या लाभ निरपेक्ष (Income of Profit inelastic) होता है। यह निवेश देश में आर्थिक विकास, सुरक्षा एवं आर्थिक कल्याण हेतु किया जाता है। इस प्रकार का निवेश स्वतंत्र निवेश (Autonomous Investment) होता है।
(7) ऐच्छिक या आयोजित निवेश (Intruded or Planned Investment)- जब कोई निवेशकर्ता किसी एक निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति हेतु निश्चित योजना के अनुसार विनियोग करता है तो उसे ऐच्छिक या आयोजित निवेश कहते हैं । इस प्रकार के निवेश के मुख्यतः दो कारण हो सकते हैं-(i) निवेशकर्ता मांग में होने वाली वृद्धि का पूर्व अनुमान लगा लेता है। अतः मांग में होने वाली वृद्धि से लाभ कमाने हेतु निवेशकर्ता निवेश में वृद्धि कर देता है। (ii) इस प्रकार का निवेश उत्पादन लागतों में कमी लाने हेतु भी किया जाता है क्योंकि लागतों में कमी आने से लाभों में वृद्धि की संभावनाएं बढ़ जाती हैं । लागतों में कमी लाने हेतु उद्यमी उत्पादन प्रक्रिया में अच्छी किस्म की मशीनों का प्रयोग करता है जिससे उद्योग में पूंजी के निवेश में वृद्धि होती है।
(8) अनैच्छिक निवेश (Unintended Investment)- कई बार बाजार में वस्तुओं की मांग में अचानक कमी आ जाती है जिसके परिणामस्वरूप उत्पादकों के पास वस्तुओं के अतिरिक्त भण्डार जमा हो जाते हैं। ये भण्डार उत्पादकों की इच्छा के विपरीत जमा हो जाते हैं, (क्योंकि बाजार में उनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं की मांग में कमी आ जाती है) उत्पादकों को इस प्रकार के भण्डारों में अपनी इच्छा निवेश करना पड़ता है। अतएव इस प्रकार के निवेश को अनैच्छिक निवेश कहते हैं।
(1) निवेश प्रवृत्ति (Propensity to Invest)- विनियोग आय स्तर से सम्बन्धित होता है। सामान्यतया आय में वृद्धि होने से विनियोग में वृद्धि होती है तथा आय में कमी होने से विनियोग में भी कमी आती है। आय तथा विनियोग के अनुपात को निवेश प्रवृत्ति कहते हैं।
(Propensity to invest is the ratio between aggregate Investment and aggregate Income) निवेश प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है:
(1) औसत निवेश प्रवृत्ति (Average Propensity to invest)- कुल विनियोग तथा कुल आय के आनुपातिक सम्बन्ध को औसत निवेश प्रवृत्ति कहते हैं।
औसत निवेश प्रवृत्ति = कुल निवेश/कुल आय
मान लो किसी देश की कुल आय 40 करोड़ रुपये है तथा कुल निवेश 10 करोड़ रुपये है तो.
औसत निवेश प्रवृत्ति 10/40 = 1/4 = 0.25 होगी।
(2) सीमान्त निवेश प्रवृत्ति (Marginal Propensity to Invest)- आय में होने वाले परिवर्तन के फलस्वरूप विनियोग में होने वाले परिवर्तन के अनुपात को सीमान्त निवेश प्रवृत्ति कहते हैं।
सीमान्त निवेश प्रवृत्ति = विनियोग में परिवर्तन/आय में परिवर्तन
मान लो किसी देश में एक निश्चित समय में आय मे 20 करोड़ रु० की वृद्धि हो तथा उसके फलस्वरूप विनियोग में 10 करोड़ रु० की वृद्धि हो तो सीमान्त निवेश प्रवृत्ति 10/20 = 1/2 = 0.5 होगी।
निवेश के निर्धारक तत्व
(Determinates of Investment)
निवेश में वृद्धि करने की प्रेरणा को निवेश प्रेरणा (Inducement to Investment) कहते हैं। निवेश प्रेरणा बहुत से तत्त्वों पर निर्भर करती है। परन्तु विस्तृत अर्थों में निवेश प्रेरणा (या निजी प्रेरित निवेश) दो तत्त्वों पर निर्भर करती है- (i) पूंजी की सीमान्त उत्पादकता और (ii) ब्याज की दर। जब कभी कोई उद्यमी किसी व्यवसाय या उद्योग में निवेश करने का निर्णय लेता है तो या तो वह इस निवेश हेतु दूसरों से रुपया उधार लेता है या फिर अपने स्वयं के साधनों का निवेश हेतु प्रयोग करता है अर्थात् निवेश में अपना रुपया लगाता है। प्रथम अवस्था में उद्यमी को उधार लिए गये धन पर ब्याज देना पड़ेगा परन्तु द्वितीय अवस्था में उसे ब्याज का परित्याग करना पड़ेगा (क्योंकि अपने धन को दूसरों को उधार देकर ही उद्यमी ब्याज प्राप्त कर सकता है)।
प्रत्येक अवस्था में ब्याज निवेश की कीमत है। लाभ कमाने के उद्देश्य से ही निवेश किया जाता है। लाभ निवेश का पुरस्कार है। जब कोई उद्यमी निवेश करने का निर्णय लेता है तो वह निवेश से प्राप्त होने वाले प्रत्याशित लाभ की तुलना ब्याज की दर के साथ करता है जो कि उसे उस निवेश पर देनी पड़ती है। एक उद्यमी निवेश करने हेतु उस अवस्था में तैयार होगा जबकि प्रत्याशित लाभ अर्थात् पूंजी की सीमान्त उत्पादकता ब्याज की उस दर से अधिक होगी, जोकि उद्यमी को देनी पड़ती है।
निवेश प्रेरणा के दो निर्धारक तत्त्वों में- (i) पूंजी की सीमान्त उत्पादकता और (ii) ब्याज की दर में कौर-सा तत्व अधिक महत्त्वपूर्ण है।
प्रत्येक उद्यमी विनियोग करते समय पूंजी की सीमान्त उत्पादकता तथा ब्याज की दर की तुलना करता रहता है। उद्यमी उस समय तक निवेश करता रहेगा जब तक कि लाभ की दर या पूंजी की सीमान्त उत्पादकता ब्याज दर के बराबर नहीं हो जाती। यदि पूँजी की सीमान्त उत्पादकता ब्याज की दर से अधिक है तो निवेश प्रेरणा भी अधिक होगी। इसके विपरीत यदि पूंजी की सीमान्त उत्पादकता ब्याज की दर से कम है तो निवेश प्रेरणा भी कम होगी। निवेश प्रेरणा पर इन दोनों तत्वों में से किस तत्व का प्रभाव अधिक पड़ता है, इस बारे में परम्परावादी अर्थशास्त्रियों तथा केन्ज व आधुनिक अर्थशास्त्रियों की विचारधारा में अन्तर पाया जाता है।
परम्परावादी अर्थशास्त्रियों की विचारधारा- परम्परावादी अर्थशास्त्रियों का यह विश्वास था कि निवेश ब्याज की दर पर ही निर्भर करता है। इन्होंने ब्याज की दर को एक महत्त्वपूर्ण यन्त्र माना जिसकी सहायता से निवेश को नियमित किया जा सकता है और उसके परिणामस्वरूप व्यापार चक्रों को भी नियन्त्रित किया जा सकता है।
1930 की महामंदी (Great Depression) से पहले स्वयं केन्ज भी परम्परावादी अर्थशास्त्रियों की इसी विचारधारा से सहमत था कि व्यावसायिक उतार-चढ़ावों को ब्याज की दर द्वारा नियन्त्रित किया जा सकता है। परन्तु 1930 की महामंदी के बाद केन्ज का भी इस विचारधारा से विश्वास उठ गया और केन्ज ने यह अनुभव किया कि निवेश ब्याज की दर पर कम निर्भर करता है और मनोवैज्ञानिक तत्त्वों जैसे पूँजी की सीमान्त उत्पादकता पर अधिक निर्भर करता है।
केन्ज की विचारधारा- केन्ज एवं आधुनिक अर्थशास्त्रियों जैसे हेन्सन, हिक्स आदि का यह विचार था कि प्रत्येक उद्यमी निवेश करते समय ब्याज की दर की अपेक्षा पूंजी की सीमान्त उत्पादकता को अधिक महत्त्व देता है। ब्याज की दर में शीघ्र परिवर्तन नहीं होते तथा ब्याज की दर सामान्यतया स्थिर (Constant) रहती है। इसलिए निवेश प्रेरणा मुख्य रूप में पूंजी की सीमान्त उत्पादकता पर ही निर्भर करती है। यदि पूंजी की सीमान्त उत्पादकता अधिक है तो निवेश प्रेरणा भी अधिक होगी चाहे इसके लिए उद्यमी को अधिक ब्याज ही क्यों न देना पड़े। इसके विपरीत यदि पूंजी की सीमान्त उत्पादकता कम है तो निवेश प्रेरणा भी अधिक होगी चाहे इसके लिए उद्यमी करना-को अधिक ब्याज ही क्यों न देना पड़े। इसके विपरीत यदि पूंजी की सीमान्त उत्पादकता कम है तो निवेश प्रेरणा भी कम होगी। (चाहे ब्याज की दर कम हो) पूंजी की सीमान्त उत्पादकता दो तत्त्वों पर निर्भर करती है- (i) पूर्ति कीमत और (ii) संभावित आय एक निश्चित अवधि में पूंजी की पूर्ति की तो स्थिर रहती है अतः पूंजी की सीमान्त उत्पादकता पर संभावित आय का ही अधिक प्रभाव पड़ता है जो कि अनिश्चित होती है। संभावित आय का अनिश्चित होने का कारण यह है कि संभावित आय अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन आशंसाओं द्वारा प्रभावित होती है।
पूंजी की सीमान्त उत्पादकता की मनोवैज्ञानिक तत्त्वों पर निर्भरता- पूंजी की सीमान्त उत्पादकता अस्थिर होने के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक तत्त्वों पर भी निर्भर करती है। इसी कारण ही व्यावसायिक उतार-चढ़ावों का क्रम चलता है। यदि उद्यमी आशावादी है तो इसका अभिप्राय यह है कि पूंजी की सीमान्त उत्पादकता अधिक है और ऐसी अवस्था में उद्यमियों की निवेश प्रेरणा बढ़ जाएगी। इसके विपरीत यदि उद्यमी निराशावादी है तो इसका अभिप्राय यह है कि पूंजी की सीमान्त उत्पादकता कम है, तो ऐसी अवस्था में उद्यमियों की निवेश प्रेरणा में कमी आ जाएगी। ऐसी दशा सामान्यतया मंदी की अवस्था में होती है। मंदी के दिनों में ब्याज की दर में कमी करके भी निवेश प्रवृत्ति को नहीं बढ़ाया जा सकता क्योंकि मंदी के दिनों में पूंजी की सीमान्त उत्पादकता पहले ही गिरावट की ओर अग्रसर होती है। अत: मंदी के दिनों में ब्याज की दर में कमी करने से कोई लाभ नहीं होगा।
निवेश प्रेरणा पूंजी की सीमान्त उत्पादकता के साथ-साथ ब्याज की दर पर भी निर्भर करती है जैसा कि उपरोक्त विश्लेषण में बताया गया है। केन्ज के अनुसार ब्याज की दर मुद्रा पूर्ति और मुद्रा मांग अर्थात् तरलता अधिमान पर निर्भर करती है। केन्ज के अनुसार किसी निश्चित अवधि में मुद्रा पूर्ति तो स्थिर रहती है। (क्योंकि मुद्रा पूर्ति पर सरकार का नियंत्रण होता है) अत: ब्याज की दर प्रमुख रूप से तरलता अधिमान या मुद्रा मांग पर ही निर्भर करती है। केन्ज के अनुसार, “ब्याज एक निश्चित अवधि में तरलता को त्यागने का पुरस्कार है।” ब्याज की दर जितनी अधिक होगी उतना ही व्यक्ति तरलता या नकद रूप में रखी मुद्रा को अधिक मात्रा में त्यागने के लिए तैयार होंगे। इसके विपरीत ब्याज की दर कम होने पर व्यक्ति मुद्रा को नकद रूप में रखना अधिक पसंद करेंगे। दूसरी ओर तरलता अधिमान भी ब्याज की दर को प्रभावित करता है। यदि तरलता अधिमान अधिक है तो ब्याज की दर भी अधिक होगी। इसके विपरीत यदि तरलता अधिमान कम है तो ब्याज की दर भी कम होगी। इसके अलावा यहां यह भी बता देना जरूरी है कि यदि अन्य बातें समान रहें तो मुद्रापूर्ति के कम या अधिक होने पर ब्याज की दर भी अधिक या कम होती है। मुद्रापूर्ति बढ़ने पर ब्याज दर कम होगी तथा मुद्रापूर्ति कम होने पर ब्याज दर अधिक होगी। (यदि अन्य बातें समान रहें)।
निवेश प्रेरणा के दोनों निर्धारक तत्वों को अलग-अलग व्याख्या करने के बाद हम निम्नलिखित निष्कर्ष निकाल सकते हैं-
(i) यदि ब्याज की दर स्थिर हो अर्थात् उसमें कोई परिवर्तन न हो तो पूंजी सीमान्त उत्पादकता जितनी अधिक होगी, निवेश प्रेरणा उतनी ही अधिक होगी।
(ii) यदि पूंजी की सीमान्त उत्पादकता में कोई परिवर्तन न हो तो ब्याज की दर जितनी कम होगी, निवेश प्रेरणा उतनी ही अधिक होगी।
निष्कर्ष के रूप में हम यह कह सकते हैं कि यद्यपि इसमें कोई शक नहीं है कि पूंजी की सीमान्त उत्पादकता ही निवेश का प्रमुख निर्धारक तत्व है, परन्तु फिर भी निवेश के निर्धारण में ब्याज की दर की पूर्ण अवहेलना नहीं की जा सकती।
निवेश प्रेरणा पर अन्य तत्वों का प्रभाव-प्रो० मक्कौनल, एन० एफ० कीजर, राबर्ट आइजनर, आर० एच०स्ट्रोटज आदि के अनुसार निवेश प्रेरणा पर पूंजी की सीमान्त उत्पादकता तथा ब्याज की दर के अलावा अन्य तत्वों जैसे तकनीकी विकास, अनुसंधान, नये आविष्कार, सरकारी नीतियां, पूंजी का वर्तमान स्टाक, आशंसाएं जनसंख्या वृद्धि की दर, क्षेत्रीय विस्तार, कुल मांग, तरलता की मात्रा आदि का भी प्रभाव पड़ता है।
प्रो० मक्कौनल के अनुसार, “नये आविष्कारों की बढ़ती हुई तेज रफ्तार निवेश को बहुत प्रेरणा देती है।”
आर० एच० स्ट्रोट्ज के अनुसार, “अर्थमिति अध्ययन बतलाता है कि क्षमता, मांग, नकदी प्रवाह और संभावित आय निवेश प्रेरणा के निर्धारण में बहुत ही महत्त्वपूर्ण साधन है।”
अर्थशास्त्र – महत्वपूर्ण लिंक
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- उपभोग फलन के निर्धारक तत्त्व | उपभोग प्रवृत्ति के निर्धारक तत्त्व | विषयगत तत्व | वस्तुगत तत्व
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