उपभोग फलन के निर्धारक तत्त्व | उपभोग प्रवृत्ति के निर्धारक तत्त्व | विषयगत तत्व | वस्तुगत तत्व

उपभोग फलन के निर्धारक तत्त्व | उपभोग प्रवृत्ति के निर्धारक तत्त्व | विषयगत तत्व | वस्तुगत तत्व

उपभोग फलन या उपभोग प्रवृत्ति के निर्धारक तत्त्व

(Factors Determining Consumption Function or Propensity to Consume)

  1. विषयगत तत्व (Subjective Factors)-

विषयगत या भावगत तत्वों में मुख्यत: मानव प्रकृति की मनोवैज्ञानिक विशेषताएं, सामाजिक व्यवहार व संस्थाएँ तथा संस्थागत प्रबन्धों या सामाजिक रीति-रिवाजों एवं परम्पराओं को ही शामिल किया जाता है। इन तत्वों में अल्पकाल में कोई परिवर्तन नहीं होता अर्थात् अल्पकाल में ये तत्व लगभग स्थिर रहते हैं। उपभोग प्रवृत्ति की स्थिति और ढलान (Position and Slope) का निर्धारण इन्हीं तत्वों द्वारा होता है। ये तत्व व्यापारिक एवं व्यक्तिगत बचतों को प्रभावित करते हैं। ये तत्व व्यक्तियों एवं व्यापारियों को अधिक बचत तथा कम उपभोग करने के लिए प्रेरित करते हैं। प्रो० केन्ज के अनुसार, वे मनोवैज्ञानिक तत्व जो व्यक्तियों को बचत करने के लिए प्रेरित करते हैं निम्नलिखित हैं-

(i) सावधानी (Precaution)-अप्रत्याशित या अचानक होने वाली घटनाओं जैसे बीमारी व दुर्घटना आदि की पूर्ति के लिए व्यक्ति अपनी आय का कुछ भाग नियमित रूप से बचाने का प्रयत्न करते हैं।

(ii) दूरदर्शिता (Foresight)- व्यक्ति दूरदर्शी होते हैं, इसलिए भविष्य में प्रत्याशित की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वे बचत करते हैं जैसे वृद्धावस्था, भवन निर्माण, बच्चों की शिक्षा, बच्चों की विवाह-शादी, आश्रितों हेतु व्यक्ति धन बचाकर रखते हैं।

(iii) गणना (Calculation)- भविष्य में ब्याज तथा मूल्य-वृद्धि का लाभ उठाने हेतु भी व्यक्ति अधिक बचत करते हैं।

(iv) सुधार (Improvement)-धीरे-धीरे बढ़ते हुए व्यय का आनन्द लेने के लिए भी व्यक्ति अधिक बचत करते हैं ताकि जीवन स्तर को धीरे-धीरे बढ़ाने की सामान्य या मूल प्रवृत्ति की संतुष्टि की जा सके।

(v) स्वतन्त्रता (Independence)-  कुछ व्यक्ति धन जमा करके आर्थिक दृष्टि से स्वतन्त्र होना चाहते हैं ताकि स्वतन्त्रता की भावना से कार्य कर सकें और कार्यों को करने की शक्ति का आनन्द प्राप्त कर सकें। वर्तमान युग में जमा धनराशि व्यक्तियों को विभिन्न प्रकार के आर्थिक संकटों से मुक्त होने में सहायता करती है।

(vi) उपक्रम (Enterprise)- कुछ व्यक्ति व्यवसाय प्रारम्भ करने हेतु या सट्टा योजनाओं को चलाने के लिए सफल योजना शक्ति प्राप्त करने हेतु भी अपने पास कुछ रकम बचाना चाहते हैं।

(vii) गर्व या प्रतिष्ठा (Pride)-  कुछ व्यक्ति वर्तमान सामाजिक प्रातिष्ठा तथा भविष्य में  अपनी संतान की प्रतिष्ठा हेतु कुछ न कुछ सम्पत्ति छोड़कर जाना चाहते हैं। इस प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए भी व्यक्ति बचत करते हैं।

(viii) कंजूसी या कृपणता (Avarice)-  समाज में कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो स्वभावत: कंजूस होते हैं। ये कंजूस व्यक्ति अपनी आय का कम-से-कम भाग खर्च करके समष्टिभावी अधिक से अधिक बचत करने का प्रयत्न करते हैं। अत: कंजूसी या कृपणता की संतुष्टि के लिए भी व्यक्ति अधिक बचत करते हैं।

उपर्युक्त सभी व्यक्ति उद्देश्य या कारण ऐसे हैं जो व्यक्ति को कम उपभोग व अधिक बचत करने के लिए प्रेरित करते हैं। प्रो० केन्ज के अनुसार निम्न कारणों से व्यक्ति बचत की अपेक्षा उपभोग की ओर (या उपभोग करने के लिए) प्रेरित होता है, वे निम्नलिखित हैं-

(i) आनन्द (Enjoyment), (ii)उदारता (Generosity), (iii) अदूरदर्शिता (Short sightendness), (iv) दिखावा (Ostentation), (v) अपव्यय (Extravagance), (vi) गलत गणना (Miscalcualation)।

इसी प्रकार से कुछ तत्व ऐसे हैं जो निगमों, कम्पनियों, सरकारी संस्थानों एवं व्यापारिक फर्मों को बचत करने के लिए प्रेरित करते हैं। निम्नलिखित हैं-

(i) उपक्रम या उद्यम का उद्देश्य (Motive of Enterprises)-  बाजार से बिना उधार लिए और अधिक पूंजी निवेश हेतु साधनों को प्राप्त करने की इच्छा के कारण भी उद्यमी अधिक बचत करते हैं। अतः कोई बड़ा व्यापार करने या व्यापार के विस्तार की कामना हेतु व्यावसायिक फर्मे धन बचाती हैं।

(ii) तरलता उद्देश्य (Motive of Liquidity)-  व्यावसायिक फर्मे भविष्य के किसी संकट का सामना करने, कठिनाइयों तथा मंदियों (Emergencies. Difficulties and Depress- ions) का सामना करने के उद्देश्य से साधनों को अपने पास तरल या नकद रूप में रखना चाहती हैं।

(iii) सुधार का उद्देश्य (Motive of Improvement)- धीरे-धीरे आय में वृद्धि प्राप्त करने तथा कार्य कुशलता में वृद्धि प्राप्त करने की इच्छा के कारण भी फर्मे अपने पास धन बचाकर रखती हैं अर्थात् मशीनों तथा उपकरणों के नवीनीकरण हेतु या उत्पादन प्रक्रिया में सुधार हेतु फर्मे धन बचाकर रखती हैं।

(iii) वित्तीय बुद्धिमत्ता (Financial Prudence)-  ऋणों को चुकाने के लिए तथा मशीनों की घिसावट व अप्रचलन (Depreciation and Obsolescence) आदि पर होने वाले खर्चों को पूरा करने के लिए फर्मों द्वारा धन बचाकर रखा जाता है।

अल्पकाल में ये मनोवैज्ञानिक तत्त्व स्थिर रहते हैं, इसलिए अल्पकाल में उपभोग प्रवृत्ति भी प्राय: स्थिर या समान रहती है। स्वयं प्रो० केन्ज ने कहा है कि “मानव प्रकृति” की मनोवैज्ञानिक विशेषताएं, सामाजिक व्यवहार व संस्थाएं जिन्हें यद्यपि बदला नहीं जा सकता, ये असाधारण या क्रान्तिकारी परिस्थितियों के अतिरिक्त अल्पकाल में कोई विशेष परिवर्तन नही ला पाती।”

यद्यपि उपभोग प्रवृत्ति अल्पकाल में लगभग स्थित रहती हैं, परन्तु फिर भी कुछ तत्व अल्पकाल में भी उपभोग प्रवृत्ति को प्रभावित करते हैं। डिलर्ड के अनुसार,”सरकार की राजकोषीय नीति में परिवर्तन, ब्याज की दर में महत्वपूर्ण परिवर्तन और पूंजी के मूल्यों में द्रुतगामी परिवर्तन उपभोग प्रवृत्ति पर महत्त्वपूर्ण रूप से अल्पकाल में प्रभाव डालते हैं।

  1. वस्तुगत तत्व (Objective Factors)-

वस्तुगत तत्वों में प्राय: तेज गति से परिवर्तन होते हैं जिसके परिणामस्वरूप ये तत्व उपभोग प्रवृत्ति में तीव्र परिवर्तन उत्पन्न कर देते हैं। इन परिवर्तन के कारण उपभोग प्रवृत्ति वक्र या उपभोग रेखा ऊपर या नीचे को खिसक जाती है। केन्ज तथा आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार उपभोग प्रवृत्ति को प्रभावित करने वाले वस्तुगत तत्व निम्नलिखित हैं-

(1) मौद्रिक आय में परिवर्तन- उपभोग प्रवृत्ति विशेषतया आय पर निर्भर करती है। मौद्रिक आय में वृद्धि होती है और मौद्रिक आय में कमी होने पर उपभोग में भी कमी होती है। इसकी रेखाचित्र द्वारा व्याख्या. निम्नलिखित है-

उपरोक्त रेखाचित्र में आय में वृद्धि कारण उपभोग में वृद्धि और उपभोग प्रवृत्ति में वृद्धि के कारण उपभोग में परिवर्तन, को दर्शाया गया है। रेखाचित्र 4.6 में जब आय 100 रु० से बढ़कर 110 रु० हो जाती है तो उपभोग भी 70 रु० से बढ़कर 80 रु० हो जाता है, जबकि उपभोग प्रवृत्ति में कोई परिवर्तन न हो।

रेखाचित्र में आय के स्थिर रहने पर उपभोग प्रवृत्ति के बढ़ने के कारण उपभोग व्यय में होने वाली वृद्धि को दिखाया गया है। जब आय स्थिर (100 रु०) रहती है तो उपभोग प्रवृत्ति में वृद्धि के कारण उपभोग 70 रु० से बढ़कर 80 रु० हो जाता है।

(2) वास्तविक आय में परिवर्तन- जब वस्तुओं के मूल्यों में कमी आती है तो व्यक्तियों की तरल परिसम्पत्तियों (Liquid Assets) का मूल्य बढ़ जाता है। अर्थात् उनकी वास्तविक आय में वृद्धि हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप उपभोग व्यय भी बढ़ जाता है। इसके विपरीत वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि से तरल परिसम्पत्तियों के मूल्यों में कमी या वास्तविक आय में कमी आती है जिसके कारण उपभोग व्यय कम हो जाता है।

(3) आय का वितरण- आय के वितरण में परिवर्तन आने पर उपभोग प्रवृत्ति परिवर्तित होती है। यदि आय का वितरण समान है तो उपभोग प्रवृत्ति अधिक होगी। इसके विपरीत यदि आय का असमान वितरण है तो उस अवस्था में आय कुछ एक धनी व्यक्तियों के हाथों में ही केन्द्रित हो जाएगी। धनी व्यक्तियों की बचत प्रवृत्ति अधिक होती है तथा उपभोग प्रवृत्ति कम होती है। अतः आय का असमान वितरण होने पर उपभोग प्रवृत्ति कम होती होगी।

(4) आकस्मिक लाभ और हानियाँ- यदि किसी कारणों से व्यक्तियों, व्यापारियों व उत्पादकों आदि को आकस्मिक लाभ प्राप्त हो जाते हैं तो स्वाभाविक है कि उपभोग प्रवृत्ति में वृद्धि हो जाएगी। इसी प्रकार यदि इन वर्गों को आकस्मिक हानियां हो जाती हैं तो उपभोग प्रवृत्ति कम होगी।

(5) निगमों की व्यावसायिक नीति- संयुक्त पूंजी कम्पनियों तथा निगमों की वित्तीय नीति का भी उपभोग प्रवृत्ति पर प्रभाव पड़ता है। यदि ये निगम एवं कम्पनियां अपने साझेदारों में लाभांश का वितरण नहीं करती हैं अर्थात् लाभांश को अपने पास सुरक्षित कोष में रख लेती हैं तो इसके कारण साझेदारों की आय कम होगी और उपभोग भी कम होगा। इसके विपरीत यदि सदस्यों में लाभांश का.वितरण कर दिया जाता है तो इससे उनकी आय में वृद्धि होगी एवं परिणामस्वरूप उपभोग में वृद्धि होगी।

(6) राजकोषीय नीति- सरकार की करारोपण, व्यवसाय तथा ऋण-सम्बन्धी राजकोषीय नीति भी उपभोग प्रवृत्ति को प्रभावित करती है। जैसे यदि सरकार आय तथा धन के वितरण में समानता स्थापित करना चाहती है। इसके लिए प्रगतिशील कर प्रणाली अपनाएगी जिसके परिणामस्वरूप उपभोग प्रवृत्ति में वृद्धि होगी।

(7) आशाओं में परिवर्तन- भविष्य में होने वाली घटनाओं के सम्बन्ध में व्यक्तियों की आशाओं का भी उपभोग प्रवृत्ति पर प्रभाव पड़ता है। यदि व्यक्तियों को भविष्य में युद्ध छिड़ने या अन्य कारणों से वस्तुओं के उत्पादन में कमी और उनकी कीमतों में वृद्धि की आशा होती है तो वे वस्तुओं को अधिक मात्रा में खरीदने लगते हैं जिसके कारण उनकी उपभोग प्रवृत्ति बढ़ जाती है। इसके विपरीत यदि भविष्य में कीमतों में कमी आने की सम्भावना है तो वर्तमान में उनकी उपभोग प्रवृत्ति में कमी आयेगी और उपभोग क्रिया नीचे की ओर खिसकेगी।

(8) ब्याज की दर में परिवर्तन- ब्याज की दर में होने वाले परिवर्तन भी उपभोग प्रवृत्ति में परिवर्तन लाते हैं। सामान्यतया ब्याज की दर ऊँची होने पर व्यक्तियों की बचत-प्रेरणा या प्रवृत्ति अधिक होगी जिससे उनकी उपभोग प्रवृत्ति घटेगी। इसके विपरीत ब्याज दर कम होने पर बचत- प्रेरणा कम होगी जिससे लोगों की उपभोग प्रवृत्ति बढ़ेगी।

(9) तरल सम्पत्तियों का संग्रह- नव-परम्परावादी अर्थशास्त्रियों, विशेषकर प्रो० पीगू का मत है जब मजदूरी में कटौती से कीमतें कम होती हैं तो जिन व्यक्तियों के पास तरल परिसम्पत्तियों (जैसे नकद-कोषों, बचत खातों, सरकारी ऋणपत्रों या हिस्सों के रूप में) का अधिक संग्रह या स्टाक है तो उनका मूल्य बढ़ जाता है और उसमें से वे लोग अधिक व्यय करेंगे। इसलिए उपभोग प्रवृत्ति में वृद्धि होगी।

(11) सामाजिक सुरक्षा व जीवन बीमा- वर्तमान में अनेक प्रकार की कटौतियां जैसे जीवन बीमा प्रीमियम, सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं हेतु अंशदान, भविष्य में निधि अंशदान आदि व्यक्तियों की मजदूरियों एवं वेतन अर्थात् आय में से की जाती है। इस प्रकार की कटौतियों से आय का एक बहुत बड़ा भाग व्यक्तियों को उपभोग व्यय हेतु उपलब्ध नहीं होता। अत: ये कटौतियां अधिक होंगी तो उपभोग प्रवृत्ति कम होगी और इसके विपरीत यदि ये कटौतियां कम होंगी तो उपभोग प्रवृत्ति अधिक होगी।

(11) कीमत एवं मजदूरी दर- कीमतों में वृद्धि होने से व्यक्तियों की वास्तविक आय घट जाती है जिसके कारण उपभोग प्रवृत्ति भी घट जाती है। इसके विपरीत कीमतों में कमी आने से वास्तविक आय बढ़ जाती है जिससे उपभोग प्रवृत्ति भी बढ़ जाती है । इसी प्रकार मजदूरी दर बढ़ने से उपभोग प्रवृत्ति बढ़ती है और मजदूरी दर कम होने पर उपभोग घटती है।

(12) उधार एवं किश्तों की सुविधाएं- यदि व्यक्तियों को सामान, उधार या किश्तों पर अधिक मात्रा में मिलने की सुविधाएं हों तो उपभोग प्रवृत्ति भी अधिक होगी। इन सुविधाओं के कम मात्रा में उपलब्ध होने पर उपभोग प्रवृत्ति कम होगी।

(13) नयी वस्तुओं का आकर्षण- नयी वस्तुओं के आकर्षण के कारण अर्थात् नये उत्पादनों के प्रारम्भ होने से उपभोग प्रवृत्ति में वृद्धि हो सकती है। नयी वस्तुओं के बाजार में आने से उपभोक्ता उन वस्तुओं को अधिक मात्रा में खरीदना प्रारम्भ कर देते हैं जिससे उनकी उपभोग प्रवृत्ति बढ़ जाती है।

(14) ड्यूजेनबरी प्रभाव- प्रो० ड्यूजेनबरी के अनुसार एक व्यक्ति वर्तमान उपभोग केवल वर्तमान की आय पर ही निर्भर नहीं करता बल्कि यह भूतकाल में प्राप्त किये गये उच्चतम जीवन स्तर पर भी निर्भर करता है।

इसे प्रो० ड्यूजेनबरी ने प्रदर्शन प्रभाव (Demonstration Effect) भी कहा है। इनके अनुसार प्रदर्शन प्रभाव के कारण भी उपभोग प्रवृत्ति में वृद्धि होती है प्रदर्शन प्रभाव का अर्थ है कि निम्न आय स्तर के व्यक्ति या निर्धन व्यक्ति अपने से ऊँचे आय स्तर के व्यक्तियों या धनी व्यक्तियों के उपभोग स्वरूपों की नकल करने की प्रवृत्ति रखते हैं। निर्धन व्यक्ति धनी व्यक्तियों के उपभोग स्वरूपों या रहन-सहन के स्तर को देखकर उसको अपनाने का प्रयत्न करते हैं जिसके परिणामस्वरूप उनकी उपभोग प्रवृत्ति बढ़ती है। धनी व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा या रहन-सहन के स्तर को ऊँचा बनाये रखने के लिए नयी-नयी वस्तुओं एवं सेवाओं का उपभोग करना शुरू कर देते हैं। इस प्रकार प्रदर्शन प्रभाव के कारण उपभोग प्रवृत्ति में वृद्धि होती है।

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