हिन्दी आलोचना का विकास | हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा

हिन्दी आलोचना का विकास | हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा

हिन्दी आलोचना का विकास

हिन्दी साहित्येतिहास लेखन की अनेक समस्या है। सभी समस्याओं का समाधान होना सम्भव भी नहीं है, परन्तु इन समस्याओं के उपस्थित होने से नये इतिहास लेखकों में जागरूकता रहेगी। साहित्य का सदैव नूतन विकास होता रहता है। वह वढ़ता है, बदलता है, परिवेश विशेष में चमकता है, बुझता है पुनः जलता है। यह परिवर्तन ही विकास है, उसकी जीवन्तता है। साहित्येतिहास लेखक उसी आलोक में जागरूक रहे तो कभी कोई महान् महत्व का साहित्येतिहास सामने आयेगा।

साहित्य के इतिहास-लेखन की दिशा में अभी उचित प्रगति नहीं हुई। अन्य भाषाओं में स्थिति और भी खराब है। इसका कारण यह है कि इतिहास-विधा की हमारे देश में विकसित परम्परा नहीं रही और आज भी इस दिशा में विशेष उन्नति नहीं कर पाये हैं। परिणाम यह है कि सौ से ऊपर इतिहास ग्रन्थों के प्रकाशन के बाद भी हिन्दी में सर्वाधिक प्रामाणिक इतिहास आचार्य शुक्ल का ही है, जिसकी रचना सन् 1929 में हुई थी। यह स्थिति हिन्दी के गौरव के अनुकूल नहीं है, विशेषतः जबकि हिन्दी का आलोचना साहित्य इतना समृद्ध हो चुका है। नागरी प्रचारिणी सभा ने बृहद् इतिहास की योजना द्वारा एक महान् अनुष्ठान का उपक्रम किया है।

इस प्रकार के सावजनिक कार्य की अपनी सीमाएँ होती हैं फिर भी इस महाप्रयास के फलस्वरूप साहित्य-सामग्री की एक विशाल राशि भावी इतिहासकार के लिए एकत्र हो गयी है और हमारा विश्वास है कि शीघ्र ही साहित्य के कुछ प्रामाणिक इतिहास हमें हिन्दी में उपलब्ध हो सकेंगे।

साहित्येतिहास के लेखन की परम्परा तथा स्वरूप का निर्धारण करने के पूर्व साहित्येतिहास की कुछ परिभाषाओं की ओर दृष्टिपात करना अपेक्षित है। इतिहास यदि अतीत की घटनाओं का उल्लेख है तो साहित्येतिहास अतीत की साहित्यक घटनाओं (सृजन कर्म) का आलेख है। जिस प्रकार जीवन में घटित होने वाली हर घटना इतिहास नहीं होती, उसी प्रकार हर साहित्यिक कृति इतिहास का अंग नहीं बन पाती है। जो साहित्यिक कृति अपने युग की चिन्तन दिशा, सामाजिकता, राष्ट्रीयता तथा व्यापक आशा-आकांक्षा का प्रतिनिधित्व करती है वह साहित्येतिहास की अपरिहार्य घटना होती है। परिणाम तथा गुण की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण न प्रतीत होने वाली रचना यदि नये रचना-युग का सूत्रपात करती है तो वह भी इतिहासकार के लिए महत्वपूर्ण होती है। पण्डित रामचन्द्र शुक्ल साहित्य के इतिहास को परिभाषित करते हुए लिखते हैं कि “जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है तब निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है, आदि से अन्त तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य परम्परा के साथ उसका सामंजस्य दिखलाना ही साहित्य का इतिहास है।”शुक्लजी की परिभाषा से स्पष्ट है कि साहित्य का इतिहास जनसंवेदना के परिवर्तन तथा उसके सर्जनात्मक स्वरूप के परिवर्तन की क्रमिकता को अंकित करता है। नलिन विलोचन शर्मा साहित्येतिहास की परम्परित अवधारणा निर्माण प्रक्रिया तथा उसकी समुन्नत संभावना को एक साथ निरूपित करते हैं। ‘साहित्येतिहास’ भी अन्य प्रकार के इतिहासों की तरह कुछ विशिष्ट लेखकों और उनकी कृतियों का इतिहास न होकर युग विशेष के लेखक समूह की कृति समष्टि का इतिहास ही हो सकता है। इस पर सिद्धान्त और व्यवहार दोनों में ही ध्यान न देने के कारण साहित्यिक इतिहास ढीले सूत्र से गूंथी हुई आलोचनाओं का रूप ग्रहण करता रहा है। ऐतिहासिक बोध राष्ट्रीय अथवा भाषागत विशेषताओं का विचार फिर पार्थक्य में अन्तर्निहित सम्पृक्ता का अभिज्ञान तथा युग की प्रवृत्तियों और विकास की चेतना जब प्रत्नत्वानुसंधान वृत्ति से समन्वित होता है और शताब्दियों से एकत्र होती हुई सामग्री का वे अपने युग की इदान्तता की दृष्टि से उपयोग करते हैं तब म हत्येतिहास का निर्माण होता है। वर्तमान के धरातल पर क्षड़े होकर अतीत की साहितियक चेतना का प्रत्यक्ष करने का उपक्रम निश्चित रूप से साहित्येतिहासकार से गहरी अन्तर्दष्टि के साथ बहुज्ञता की माँग करेगा। उसे केवल साहित्यकार नहीं बल्कि वैज्ञानिक कला पारखी, दार्शनिक तथा समाजशास्त्री भी होना चाहिए।

हिन्दी साहित्य का सृजन पिछले ग्यारह सौ वर्षों से हो रहा है, किन्तु उसके वैज्ञानिक इतिहास का प्रस्तुतीकरण आधुनिक युग में ही हुआ।

हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा-

हिन्दी साहित्य के इतिहास को प्रस्तुत करने के आरम्भिक प्रयत्नों में भारतीय साहित्येतिहास की. लेखन का प्रभाव बनी है। वास्तव में साहित्येतिहास आगे आने वाले इतिहासकार के लिए कुछ सीमा तक सामग्री प्रदान करने का आधार बन जाता है।

हिन्दी साहित्येतिहास की नींव जिन रचनाओं पर आधारित है उन्हें इतिहास संज्ञा तो नहीं दी जा सकती, किन्तु उनके महत्व को नकारा भी नहीं जा सकता। मूल रचनाओं के अतिरिक्त साहित्य की जो सूचनाएँ हमें अन्य क्षेत्रों से मिलती हैं उन्हें साहित्येतिहास का स्रोत माना जा सकता है।

विद्वानों ने साहित्येतिहास के स्रोत को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया है-

(1) कविवृत्त संग्रह, (2) वार्ता साहित्य, (3) भक्तमाल, (4) परचई साहित्य, (5) जीवनी साहित्य।

रामचन्द्र शुक्ल : हिन्दी साहित्य का इतिहास

हिन्दी का प्रथम सुव्यवस्थित इतिहास लिखने का श्रेय पं00 रामचन्द्र शुक्ल को है। इनके द्वारा लिखा गया हिन्दी साहित्य का इतिहास पहले हिन्दी शब्दसागर की भूमिका के रूप में प्रकाशित हुआ। इसके बाद स्वतन्त्र रूप में ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ शीर्षक से 1929 ई0 में प्रकाशित हुआ। उन्होंने इतिहास को परिभाषित करते हुए राजनीतिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक, धार्मिक परिस्थितियों के प्रभाव तथा परिवर्तन के संदर्भ में साहित्येतिहास की प्रवृत्तियों को विश्लेषित किया। साहित्य के इतिहास की परिभाषा उनको प्रस्तुत पंक्तियों में देखी जा सकती है, जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का स्थायी प्रतिबिम्ब होता है तब यह निश्चित है जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के रूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अन्त तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखलाना ही ‘साहित्य का इतिहास’ कहलाता है।

शुक्ल जी किसी समय विशेष में पायी जाने वाली रचनाओं की प्रचुरता तथा प्रसिद्धि के आधार पर हिन्दी साहित्य के 900 वर्षों के इतिहास को कालों में विभक्त किया है। अपनी अनेक विशेषताओं के बावजूद शुक्लजी के इतिहास में कुछ कमियाँ भी हैं-

  1. नये ग्रन्थों तथा तथ्यों के प्रकाश में शुक्लजी द्वारा किया गया काल-विभाजन तथा नामकरण पुनर्विचारणीय हो गया है।
  2. शुक्ल जी ने साहित्यिक प्रवृत्तियों के निर्धारण में समसामयिक परिस्थितियों पर आवश्यकता से अधिक बल दिया। इसीलिए पूर्व परम्परा से आगत स्रोतों तथा तथ्यों को समुचित स्थान नहीं मिल सका। संस्कृत, प्राकृत, अपप्रन्श की परम्पराओं से हिन्दी साहित्य की विभिन्न धाराओं को जोड़कर देखने से शुक्लजी ने निष्कर्षतः अपनी प्रामाणिकता खो बैठते हैं। उदाहरणार्थ आदिकाल की धार्मिक रचनाओं को साम्प्रदायिक कहकर छोड़ देना, भक्ति-आन्दोलन को तदयुगीन निराशा की देन मानना, हिन्दी की प्रेमाख्यान परम्परा को सूफी विश्लेषण जोड़ देना।
  3. प्रबन्ध काव्य के प्रति विशेष ‘आग्रही’ रामचन्द्र शुक्ल ने रीति कालीन मुक्तक धर्मी रचनाओं के प्रति उचित-न्याय नहीं किया। रीतिकाल का आरम्भ केशव से न मानकर चिन्तामणि से मानना भी कई कारणों से उचित नहीं है।

श्यामसुन्दर दास : हिंदी साहित्य-

शुक्ल जी के समकालीन श्यामसुन्दर दास ने ‘हिन्दी साहित्य’ शीर्षक से साहित्येतिहास की रचना की। उन्होंने साहित्येतिहास की जो परिभाषा दी वह शुक्ल जी के समान है। उनका कथन है’समय परिवर्तनशील है और समय के साथ उसकी चित्तवृत्तियाँ भी और की और हो जाती हैं साथ ही साहित्य भी अपना स्वरूप बदलता रहता है।’

रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’ : हिन्दी साहित्य का इतिहास-

रामचन्द्र शुक्ल के बाद ‘रसाल’ ने अपने इतिहास ग्रन्थ साहित्य ग्रन्थ में साहित्य के इतिहास पर अपने विचारों को विस्तार से प्रस्तुत किया। उनकी इतिहास की परिभाषा कभी खूब फैलती दिखाई देती है तो कभी सिकुड़ती। साहित्य के इतिहास के उद्देश्य का विवरण देते हुए रसाल जी ने लिखा है ‘साहित्य के इतिहास का यथार्थ उद्देश्य यही है कि वह साहित्य के भूतकाल से प्रारम्भ करके मौलिक क्रम से वर्तमान काल तक जो कुछ भी उसमें विकास हुआ उसका एक सच्चा चित्र चित्रित करके पाठकों के सम्मुख उपस्थित कर दे।

डॉ0 रामकुमार वर्मा : हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास-

रामकुमार वर्मा ने हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास सन् 1938 में प्रस्तुत किया। उन्होंने साहित्य का इतिहास आलोचनात्मक शैली में स्पष्ट करना चाहा। कुछ समीक्षक वर्मा जी द्वारा आरम्भ की गयी आलोचनात्मक शैली को उनकी मौलिक सूझ मानते हैं, जबकि इसका बीजारोपण शुक्ल जी के ही इतिहास में हो गया था। शुक्ल जी अधिकांशतः कवियों और उनकी रचनाओं का समीक्षात्मक मूल्यांकन करते हैं डॉ0 वर्मा ने अपने समय में प्राप्त इतिहास सामग्री का संचयन एवं प्रयोजन करके व्यवस्थित करके प्रस्तुत किया। जिन-जिन रचनात्मक धाराओं को शुकलजी ने महत्वहीन मान लिया था, उन्हें वर्मा जी महत्व देते हैं, किन्तु शुक्ल जी का वैचारिक आतंक उनके मस्तिष्क पर प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष रूप से छाया हुआ है, यही कारण है कि उनके विचारों में अन्तर्विरोध निर्मित हो जाता है। आदिकाल में जैन साहित्य को स्थान देते हुए भी वे कहते हैं कि ‘जैन साहित्य में कोई बड़ा लक्षण कवि नहीं हुआ। इसका कारण यह हुआ कि प्रत्येक आचार्य का आदर्श धर्म की व्यवस्था करना प्रमुख था, काव्य का श्रृंगार करना गौण’ सन्त साहित्य के विषय में भी उनके द्वारा की गयी टिप्पणियाँ परस्पर विरोधी हैं, वे सन्त काव्य को उतकृष्ट नहीं मानते, किन्तु कबीर को महाकवि कहते हैं।

वर्मा जी हिन्दी साहित्य का आरम्भ सम्वत् 750 से मानते है। उन्होंने वज्रयानी मिलों को हिन्दी कविता का प्रारम्भकर्ता माना है। इसीलिए संवत् 750 से 1000 तक के समय को संधिकाल की संज्ञा देकर चारणकाल से पहले जोड़ दिया। वर्मा जी के इतिहास में बड़े कवियों के विषय में बहुत विस्तार से विवेचन किया गया है, गौण कवियों तथा साहित्यिक प्रवृत्तियों पर बहुत कम प्रकाश डाला गया है। आधुनिक काल का विवेचन न होने के कारण यह साहित्येतिहास अपूर्ण हैं

हजारीप्रसाद द्विवेदीः हिन्दी साहित्म्य ( उसका उद्भव और विकास)-

हजारीप्रसाद द्विवेदी प्रथम साहित्यकार हैं, जिन्होंने शुक्ल जी की कमियों को पहिचान कर विधेयवादी परम्परा से भिन्न सांस्कृतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि, परम्परा तथा उसके उत्स को ध्यान में रखकर इतिहास लेखन की प्रतिज्ञा की। द्विवेदी जी का अभिमत है कि ‘प्रत्येक देश का साहित्य समाज, संस्कृति और चिन्तन, एक अविच्छिन्न विकास-परम्परा का और उसमें होने वाली क्रिया -प्रतिक्रियाओं का प्रतिबिम्ब हुआ करता है, जिसे गति देने में भौगोलिक, आर्थिक मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक और वैयक्तिक कारण सभी हिस्सा होते हैं। जब तक इन बातों का ज्ञान होता तब तक साहित्य के इतिहास को पढ़ने की डिक्शनरी को याद करने की अपेक्षा अधिक मूल्य नहीं हो सकता।‘ उन्होंने हिन्दी साहित्य को सम्पूर्ण भारतीय साहित्य से अविच्छिन्न करके देखा है।

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