शिक्षाशास्त्र / Education

पाठ्यक्रम का अर्थ | दूरवर्ती शिक्षा मे पाठ्यक्रम विकास के आवश्यक तत्त्व

पाठ्यक्रम का अर्थ | दूरवर्ती शिक्षा मे पाठ्यक्रम विकास के आवश्यक तत्त्व

पाठ्यक्रम का अर्थ (Meaning of Curriculum) –

‘पाठ्यक्रम शब्द अंग्रेजी भाषा के करीक्यूलम (Curriculum) शब्द का हिन्दी रूपान्तर हे। अंग्रेजी शब्द ‘करीक्यूलम लैटिन शब्द ‘कुरेर’ से बना है जिसका अर्थ होता है दौड़ का मैदान। इस प्रकार ‘करीक्यूलम’ का तात्पर्य उन क्रमबद्ध कार्यों से है जिन्हें अपनाते एवं पार करते हुए कोई व्यक्ति अपने गन्तव्य तक पहुंच सकता है। अतः शेक्षिक दृष्टिकोण से पाठ्यक्रम वह साधन है जिसके द्वारा शिक्षा से जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सकती है। यह अध्ययन का निश्चित एवं तर्कपूर्ण क्रम है जिसके माध्यम से शिक्षार्थी नवीन ज्ञान एवं अनुभव को ग्रहण करता है।

सी.वी. गुड द्वारा सम्पादित शिक्षा कोष में ‘पाठ्यक्रम’ को तीन परिभाषाओं द्वारा स्पष्ट किया गया है-

(i) “अध्ययन के किसी प्रमुख क्षेत्र में उपाधि प्राप्त करने के लिए निर्धारित किये गये क्रमबद्ध विषयों अथवा व्यवस्थित विषय समूह को पाठ्यक्रम के नाम से अभिहित किया जाता है।“

(ii) किसी परीक्षा को उत्तीर्ण करने अरथवा किसी व्यावसायिक क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए किसी शिक्षालय द्वारा छात्रों के लिए प्रस्तुत की गई विषय सामग्री की समग्र योजना को पाठ्यक्रम कहते हैं।”

(iii) “व्यक्ति को समाज में समायोजित करने के उद्देश्य से शिक्षालय के निर्देशन में निर्धारित शैक्षिक अनुभवों का समूह पाठ्यक्रम कहलाता है।”

उर्युक्त तीनों परिभाषाएँ पाठ्यक्रम के संकुचित एवं व्यापक दोनों अर्थों को व्यक्त करती हैं तथा इनसे पाठ्यक्रम की अवधारणा को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। जहाँ तक परम्परागत औपचारिक शिक्षा एवं दूरवर्ती शिक्षा के अन्तर्गत पाठ्यक्रम की अवधारणा का प्रश्न है ती इस सम्बन्ध में गुड की पहली परिभाषा परम्परागत शिक्षा के अधिक निकट प्रतीत होती है। तथा दूसरी एवं तीसरी परिभाषा दूरवर्ती शिक्षा के अधिक निकट हैं। फिर भी इन दोनों शिक्षा प्रणालियों के अन्तर्गत पाठ्यक्रम की अवधारणा के अन्तर को यहाँ पर स्पष्ट करना आवश्यक प्रतीत हो रहा है।

परम्परागत शिक्षा एवं दूरवर्ती शिक्षा के अन्तर्गत पाठ्यक्रम प्रारूप की अवधारणा में अन्तर-

परम्परागत औपचारिक शिक्षा में अधिगम का कुछ अंश तो नियोजित अर्थात् पूर्व निर्धारित होता है तथा कुछ अंश अनियोजित अर्थात् आकस्मिक रूप से घटित होता है। नियोजित अधिगम हेतु शिक्षण निर्धारित पाठ्य-वस्तु विवरणिका (Syllabus) से पाठ शीर्षकों को चुनता है तथा उसके लिए सुझाये गये निर्देशों के अनुसार उसे प्रस्तुत करता है। किन्तु प्रायः कक्षाओं में अनेक अनियोजित घटनाएँ भी घटती रहती है। शिक्षक प्रायः विद्यार्थियों से प्रश्न करते हैं तथा उन्हें प्रश्न पूछने के लिए नवीन सम्प्रत्ययों पर चर्चा करने के लिए तथा अनेक मुद्दों पर तर्क-वितर्क करने के लिए प्रोत्साहित करते रहते हैं। शिक्षक एवं शिक्षार्थी के बीच इस प्रकार के संवाद कक्षा के भीतर एवं बाहर सम्पन्न होते हैं तथा वे शिक्षा के महत्त्वपूर्ण भाग होते हैं। स्पष्ट है कि इस प्रकार के संवाद की विषय-वस्तु एवं निष्कर्ष अनियोजित होते हैं। इन्हें ‘गुप्त पाठ्यक्रम (Hidden Curriculum) कहा जाता है।

दूरवर्ती शिक्षा में कोई ‘छिपा हुआ या गुप्त पाठ्यक्रम’ नहीं होता है। इसमें पाठ्यक्रम पूरी तरह खुला हुआ एवं नियाजित होता है। किन्तु दूरवर्ती शिक्षा के माध्यम से भी शिक्षार्थियों की उन सभी आवश्यकताओं, इच्छाओं, आकांक्षाओं एवं जिज्ञासाओं को पूर्ण करना आवश्यक होता है जिन्हें परम्परागत शिक्षा के अन्तर्गत अनियोजित पाठ्यक्रम पूरा करता है। अतः दूरवर्ती शिक्षा की स्वत: अनुदेशनात्मक सामग्री के अन्तर्गत ही उन्हें समाहित करने हेतु नियोजित करना होता है। इन दोनों पाठ्यक्रम प्रारूपों के अन्तर को उनके विकास के आधारभूत तत्त्वों की दृष्टि से भी स्पष्ट किया जा सकता है।

दूरवर्ती शिक्षा मे पाठ्यक्रम विकास के आवश्यक तत्त्व

(Essential Elements of Developing Curriculum in Distance Education)-

दूरवर्ती शिक्षा में पाठ्यक्रम के व्यापक अर्थ को महत्त्व प्रदान किया जाता है। अतः पाठ्यक्रम विकास में परम्परागत शिक्षा के सभी प्रमुख बिन्दुओं को समाहित करने के साथ-साथ दूरवर्ती शिक्षा की आवश्यकताओं एवं लक्ष्यों को भी ध्यान में रखना होता है। इस प्रकार दूरवर्ती शिक्षा के पाठ्यक्रम में अग्रलिखित तत्त्वों का समावेश आवश्यक होता है-

(i) अधिगम उद्देश्यों का स्पष्टीकरण (Specification of Learning Objective)- परम्परागत शिक्षा के पाठ्यक्रम प्रायः ज्ञानात्मक अधिगम तक ही सीमित होते हैं। किन्तु दूरवर्ती शिक्षा में पाठ्यक्रम व्यापक होना चाहिए. अतः इसमें अधिगम के तीनों पक्षों का समावेश होना चाहिए। इसमें अधिगम के उद्देश्यों को मात्र निर्धारित ही नहीं किया जाना चाहिए बल्कि उनका स्पष्टीकरण भी अनिवार्य रूप से किया जाना चाहिए जिससे शिक्षार्थी उन्हें सरलता से समझ सरकें तथा उन्हें प्राप्त करने की ओर अग्रसर हो सकें।

(ii) अध्ययन सामग्री के माध्यम से संवाद (Dialogue Through Text) – परम्परागत शिक्षा में शिक्षक शिक्षार्थी से आमने-सामने की परिस्थिति में संवाद स्थापित करता है। किन्तु दूरवर्ती शिक्षा में अनुदेशनात्मक सामग्री को ही इस कार्य को पूर्ण करना होता है। इसके लिए पाठ सामग्री अन्तःक्रियात्मक प्रवृत्ति एवं लय से युक्त होनी चाहिए अर्थात् सामग्री प्रस्तुतीकरण में संवाद या वार्तालाप शैली का पुट होना चाहिए। इस हेतु पाठ लेखक को पाठ सामग्री में विभिन्न स्तरों पर प्रश्नों एवं क्रियाओं को समाविष्ट करना होता है। इसके अतिरिक्त गृहकार्य पर शिक्षक टिप्पणियाँ, श्रव्य-दृश्य माध्यमों से शिक्षकों की आवाज एवं प्रदर्शन भी शिक्षार्थी से शिक्षक की अन्तःक्रिया को सम्भव बनाते हैं। होमबर्ग ने इसे ‘निर्देशित शैक्षणिक संवाद’ की संज्ञा प्रदान की है।

(iii) व्यक्तिगत विकास को प्रोत्साहन (Encouragement to Personal Development)- दूरवर्ती शिक्षण सामग्री का प्रारम्भ प्रायः शिक्षार्थियों को सम्बोधित करते हुए किया जाता है तथा इसके लिए व्यक्तिवाचक सर्वनाम ‘आप’ या ‘तुम’ का प्रयोग किया जाता चूँकि दूरवर्ती शिक्षा का सम्बन्ध अधिकांशतः वयस्क शिक्षार्थियों से होता है, अतः उन्हें ‘आप’ शब्द से सम्बोधित करना ही अधिक उपयुक्त होता है। इससे शिक्षार्थी अपने को पाठ-सामग्री, शिक्षक एवं पाठ्यक्रम से जुड़ा हुआ अनुभव करता है तथा यह समझता है कि उसे भी महत्त्व प्रदान किया जा रहा है। इस प्रकार शिक्षार्थी का व्यक्तिगत विकास होता है तथा वह अधिगम में अधिक प्रवृत्त होता है।

(iv) आमने-सामने की अन्तःक्रिया हेतु प्रावधान (Provision for Face-to- Face Interaction)- दूरवर्ती शिक्षा में भी एक निश्चित अवधि अथवा सुविधाजनक समय (जैसे रविवार या अन्य अवकाश के दिनों) पर आमने-सामने की अन्तःक्रिया हेतु शिक्षक एवं शिक्षार्थियों को मिलने का अवसर दिया जाता है। विज्ञान एवं अन्य प्रयोगात्मक विषयों में प्रायोगिक कार्यों को सम्पन्न कराने के लिए तो ऐसा करना और भी आवश्यक होता है। अतः दूरवर्ती शिक्षा के पाठ्यक्रम में सम्पर्क कार्यक्रमों के आयोजन का प्रावधान होना चाहिए। इससे शिक्षार्थियों को अपनी कठिनाइयाँ दूर करने एवं शिक्षक तथा अपने पाठ्यक्रम के दूसरे साथियों से अन्तःक्रिया का अवसर प्राप्त होता है।

(v) अध्ययन कौशलों की क्षमता में वृद्ध पर बल (Emphasis on Developing Study Skills)- परम्परागत शिक्षण के अन्तर्गत शिक्षार्थी में अपने शिक्षकों एवं सहपाठियों से अनौपचारिक सम्पर्कों के द्वारा अनेक प्रकार के अध्ययन कौशलों की क्षमता में वृद्ध होती रहती है; जैसे- गृहकार्य को सही ढंग से करना. दूसरे छात्रों द्वारा अपनाई जा रही तकनीकों एवं व्यूह रचनाओं को ग्रहण करना, उपयोगी पुस्तकों की जानकारी प्राप्त करना आदि। किन्तु दूरवर्ती शिक्षार्थी के लिए स्वतः अनुदेशनात्मक सामग्री के अन्तर्गत ही इसके लिए संकेत एवं निर्देशन दिये जाने की आवश्यकता होती है। अतः पाठ्यक्रम प्रारूपण में इसका ध्यान रखना होता है।

(vi) शिक्षार्थी की प्रकृति (The Nature of the Learners) – ओपचारिक शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर उम्र, योग्यता, अनुभव एवं आकांक्षा स्तर आदि की दृष्टि से शिक्षार्थी लगभग समान ही होते हैं। अतः पाठयक्रम निर्धारण एवं अन्तर्वस्तु के चयन में कोई विशेष कठिनाई हीं होती है। किन्तु दूरवर्ती शिक्षा प्रणाली में किसी एक ही पाठ्यक्रम को अपनाने वाले शिक्षार्थियों की उम्र, योग्यता, अनुभव एवं आकांक्षा स्तर में पर्याप्त भिन्नता हो सकती है। वे विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े होते हैं तथा उनकी पर्व शिक्षा भी अलग-अलग शिक्षण संस्थाओं में हुई रहती है। यद्यपि दूरवर्ती शिक्षा के अनेक कार्यक्रमों में प्रवेश की एक न्यूनतम शैक्षिक योग्यता होती है, किन्तु विभिन्न संस्थाओं एवं विषय-वस्तु की भिन्नता के कारण शिक्षार्थियों में पर्याप्त अन्तर होता है। अनेक प्रौढ़ शिक्षार्थी ऐसे भी होते हैं जो पूर्व में पढ़ी गई विषय-वस्तु को पूरी तरह भूल चुकें होते हैं तथा उन्हें नये सिरे से पुनर्बोधन की आवश्यकता होती है। अतः पाठ्यक्रम के स्तर का निर्धारित करने में बहुत अधिक कठिनाई होती है। इसके लिए शिक्षार्थियों की प्रकृति एवं उनकी आवश्यकताओं पर शोध की आवश्यकता होती है। शोध निष्कर्षों से पाठ्यक्रम का प्रारूप निर्धारित करने में सहायता मिलती है। शिक्षार्थियों की आवश्यकताओं के आंकलन पर हम अलग शीर्षक में चर्चा करेंगे।

(vii) राष्ट्रीय एवं सामाजिक लक्ष्य (Nalional and Social Goals)- औपचारिक शिक्षा की राष्ट्रीय प्रणाली के अधिक व्यापक उद्देश्य होते हैं जिन्हें राष्ट्रीय एवं सामाजिक लक्ष्यों की दृष्टि में रखते हुए निर्धारित किया जाता है, जबकि दूरवर्ती शिक्षा के पाठ्यक्रमों को वयस्क शिक्षार्थियों के हितों को ध्यान में रखकर तैयार किया जाता है तथा वे अधिक कार्यात्मक होते हैं। परम्परागत विश्वविद्यालयों की तुलना में मुक्त विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों की संख्या भी सीमित होती है। दूरवर्ती शिक्षा की पाठ्यक्रम समितियों में भी सरकारी एवं प्राइवेट संस्थानों के प्रतिनिधियों को सम्मिलित किया जाता है जिससे उनकी भावी आवश्यकताओं के अनुरूप पाठ्यक्रमों को निर्मित किया जा सके। किन्तु व्यक्तिगत उद्देश्य भी प्रकारान्तर से राष्ट्रीय उद्देश्यों के पूरक होते हैं। अतः दूरवर्ती शिक्षा के पाठ्यक्रमों का विस्तार करके राष्ट्रीय एवं सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति में सहयोग प्रदान किया जाना चाहिए। अतः पाठ्यक्रम का प्रारूप निर्धारित करते समय व्यक्तिगत उद्देश्यों के साथ-साथ राष्ट्रीय एवं सामाजिक लक्ष्यों को भी दृष्टि में रखना आवश्यक है।

(viii) अन्तर्वस्तु एवं विधियाँ (Content and Methods) – दूरवर्ती शिक्षा के पाठ्यक्रमों की अन्तर्वस्तु एवं सम्प्रेषण विधियाँ परम्परागत शिक्षा से भिन्न होती हैं। इन्हें शिक्षार्थियों की आवश्यकताओं एवं उपलब्ध सुविधाओं के अनुरूप बनाना होता है। अतः पाठ्यक्रम नियोजन के समय इनके बारे में सावधानीपूर्वक निर्णय लेने की आवश्यकता होती है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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