भूगोल / Geography

प्रयोजना विधि | प्रायोजना विधि के सिद्धान्त | योजना विधि के गुण तथा दोष

प्रयोजना विधि | प्रायोजना विधि के सिद्धान्त | योजना विधि के गुण तथा दोष

प्रयोजना विधि

प्रयोजना विधि के प्रमुख प्रणेता प्रायोजनवादी शिक्षाविद् ड्यूवी (Deway) हैं। आपने बालक के शिक्षण में प्रयोगात्मक विधि पर जोर दिया तथा इस विचार की परिपुष्टि किलपैट्रिक (Kilpetrick) ने की। इसलिये किलपेट्रिक ही इसके जन्मवाता माने गये हैं। अनेक शिक्षाविरों ने इसकी परिभाषा निम्नलिखित प्रकार दी है-

  1. “प्रायोजना वह सहृदय उद्देश्यपूर्ण कार्य हे, जिसे लगन के साथ सामाजिक वातावरण में किया जाये।” –किलपैट्रिक
  2. “योजना एक समस्यापूर्ण कार्य है, जिसे स्वाभाविक परिस्थितियों में पूर्ण किया जाता है। वास्तव में योजना पद्धति समस्या विधि के ही परिणामस्वरूप है।” –स्टीवेन्सन
  3. “योजना विधि के जन्म इसलिये दिया गया, ताकि छात्रों को वास्तविक शिक्षा मिल सके, वे सक्रिय होकर विषय का ज्ञान प्राप्त करें। उन्हें चिन्तन तथा तर्क करने का अवसर मिल सके। उनका पाठ्यक्रम, उनकी रुचियों, अभिरुचियों तथा आवश्यकताओं पर निर्धारित हो सके तथा उन्हें सामाजिक दृष्टिकोण के आधार पर शिक्षा दी जा सके।” – हण्टर

योजना पद्धति विज्ञान-शिक्षण की उपयोगी पद्धति हैं। इससे बालक अपने अनुभव के आधार पर सीखे हैं। वे सक्रिय होकर कार्य करते और सीखते हैं। उन्हें स्वतन्त्र रूप से सोचना-विचारने का अवसर प्राप्त होता है तथा मानसिक एवं शारीरिक विकास होता है। प्रायोजना दो प्रकार की होती है-(1)व्यक्तिगत, (2) सामाजिक। कक्षा में हम सामाजिक प्रायोजनाओं पर ही बल देते हैं।

प्रायोजना विधि के सिद्धान्त तथा विशेषाएँ

  1. रोचकता (Interesting)- किसी भी प्रायोजना को छात्र द्वारा ही पूर्ण करना पड़ता है, अतः वहाँ उसकी रुचि के अनुरूप पूर्ण स्वतन्त्रता होती है और वह किसी भी समस्या को चुनें। यहाँ समय चक्र भी कोई प्रतिबन्ध नहीं होता, अतः यह रोचक विधि है।
  2. उद्देश्य (Aims)- जो प्रश्न समस्या छात्र के समक्ष होती है, उसमें उद्देश्य अवश्य निहित होता है। बिना उद्देश्य के कार्य करना अरुचिकर होता है। उद्देश्य होने पर ही छात्र तत्परता एवं रुचि से कार्य करते हैं, क्योंकि उद्देश्य ही उनमें अभिप्रेरणा (Motivation) का संचार करता है।
  3. वास्तविकता (Reality) – जो भी समस्या ली जाती है, उसमें वास्तविकता होती है। उसके द्वारा वे जीवन की नवीन परिस्थिति से अवगत होते हैं। काल्पनिक समस्या नहीं ली जाती। यह विधि उन्हें भावी जीवन के लिये तैयार करती है।
  4. सामाजिकता (Sociality)- बालक सामाजिक प्राणी है। उसे समाज में ही रहना है, क्योंकि उसकी आवश्यकताएँ वहीं से पूर्ण होंगी। समाज में रहने से बालक में सहयोग की भावना एवं सद्भाव की भावना का विकास होता है और प्रयोजना के माध्यम से उससे रुचियों के साथ सामाजिक जीवन से सम्बन्धित परिस्थितियों का बोध होता है।
  5. क्रियाशीलता (Activity)- बालक क्रिया (Action) को अधिक पसन्द करते हैं। अधिक निष्क्रिय रहना भी हानिप्रद है, अतः उन्हें सदैव क्रियाशील रहना चाहिये। बालक में निहित जिज्ञासा रहना, चिन्तन, तर्क तथा संग्रह की आदेत उसे कुछ न कुछ करने को प्रेरित करती है। अतः क्रियाशीलता के आधार पर ही वह अपनी प्रायोजना को पूरा करता है।
  6. स्वतन्त्रता (Liberty)- बालक को स्वतन्त्र वातावरण में कार्य करने का अवसर देना चाहिये, अत: समस्या चुनने, उसकी व्यवस्था करने एवं उसका परिणाम निकालने के लिये वह स्वतन्त्र होना चाहिये। समस्त समस्त गतिविधि के प्रस्ताव उसकी सहमति के आधार पर होने चाहिये। अध्यापक को कभी उसे बाध्य नहीं करना चाहिए। अन्त तक उसे स्वतन्त्र रूप से कार्य करते रहने देना चाहिये।

प्रायोजना विधि के विभिन्न चरण (Steps of Project Method)-

किसी प्रयोजन को भली-भाँति पूरा करने के लिए उसे निम्नलिखित चरणों में पूरा करना चाहिए-

  1. परिस्थिति का निर्माण (Formation of Situating)- यहाँ बालक की स्वतन्त्रता पर विशेष ध्यान दिया जाता है तथा वह ऐसे वातावरण एवं परिस्थितियों का निर्माण करता है, जिसमें कि छात्र अपनी योग्यता एवं क्षमता से कार्य कर सकें। समस्या की स्थिति होने पर स्वयं ही छात्र प्रायोजना प्रस्तुत करने लगते हैं, इन प्रायोजनाओं का शैक्षिक मूल्य होता है, जो ऐसी परिस्थिति का निर्माण करती हैं। यह परिस्थिति छात्रों के समक्ष विज्ञान प्रदर्शनी तथा विज्ञान पत्रिकाओं के माध्यम से कर सकते हैं । अतः परिस्थिति ही प्रेरणा (Motivation) है।
  2. याजना का चुनाव (Selection of Plan) – छात्रों ने जिन जिन परिस्थितियों का अध्ययन किया है, उसके आधार पर उनके सामने भित्न- भिन्न समस्याएँ आयेंगी अतः वे भावी जीवन की उपयोगी योजनाओं को चुनते हैं। योजना ऐसी होती है, जो शैक्षिक स्वरूप में छात्र की मानसिक एवं आर्थिक क्षमता के अनुकूल होती है, उसके लिये साधन भी साथ ही चुनने पड़त है।
  3. कार्यक्रम बनाना (To Make (he Programme) – उपयुक्त योजना का चयन करने के पश्चात् उस प्रायोजना को निश्चित अवधि में पूरा करने का कार्यक्रम बनाना पड़ता है। कार्य उनकी व्यक्तिगत क्षमताओं, रुचियों और योग्यताओं के अनुकूल होना चाहिये। अध्यापक 5 वर्ष तक के छात्रों के छोटे समूह बना सकता है तथा एक नेता चुन सकता है। साधन एवं कठिनाइयों आदि के बारे में भी पूर्व में विचार कर लेना चाहिये।
  4. कार्यक्रम क्रियान्वित करना (To Enforce the Programme)- कार्यक्रम क्रियान्वित करने के पश्चात् प्रत्येक छात्र को अपना कार्य चुन लेना चाहिये और उसमें कार्यरत हो जीना चाहिये। प्रत्येक छात्र को अपना कार्य ‘क्रिया द्वारा सीखना’ के आधार पर करना चाहिए। सभी छात्रों को अपनी पूरी योग्यता और सामर्थ्य के अनुसार अपने-अपने उत्तरदायित्वों को निभाना चाहिये। आवश्यकतानुसार अध्यापक को छात्रों के कार्य का निरीक्षण, प्रोत्साहन एवं उन्हें आदेश भी देना चाहिये।
  5. कार्य का मूल्यांकन करना (To Evaluate the Work)- योजना के पूर्ण होने पर छात्र एवं अध्यापक इस बात का मूल्यांकन करते हैं कि कार्य में कहाँ तक सफलता मिली, जिस उद्देश्य एवं प्रयोजन को लेकर प्रायोजना ली गयी थी, वह कहाँ तक पूरी हुयी। प्रायोजना के अन्त में छात्र के कार्य एवं शिक्षक के मार्ग-दर्शन का मूल्यांकन होता है।
  6. योजना का रिकॉर्ड रखना (To Keep the Record of Plan)- छात्रों द्वारा प्रायोजना के चयन से लेकर पूर्ण करने तक समस्त क्रिया-कलापों, विधियों का पूरा रिकॉर्ड रखा जाता है। हर योजना से सम्बन्धित कार्य एवं कठिनाई के बारे में लिखा जाता है, उसे दूर करने के उपाय भी सुझाये जाते हैं। अतः शिक्षक विषय में दक्ष, मनोविज्ञान का ज्ञाता, सहयोग और सहानुभूति से पूर्ण एक कुशल मार्गदर्शक होना चाहिये।

योजना विधि के गुण (Merits of Project Method)-

इस विधि के गुण निम्नलिखित हैं-

  1. जीवनोपयोगी (Useful for life) – योजनाएँ जीवनोपयोगी होती हैं, अतः छात्र उनसे सम्बन्धित क्रियाओं को आसानी से सीख लेते हैं।
  2. स्वतन्त्रता (Liberty)- छात्र को स्वतन्त्रतापूर्वक सोचने, विचारने, निरीक्षण करने तथा कार्य करने का अवसर मिलता है।
  3. सामाजिकता का विकास (Development of Sociality)- इस विधि से सामाजिक भावना का विकास होता है, क्योंकि कार्य पारस्परिक सहयोग से पूर्ण होता है।
  4. सह-सम्बन्ध (Correlation) – यह विधि पाठ्यक्रम के विषयों में ज्ञान से सम्बन्ध स्थापित करती है तथा उसका सम्बन्ध देनिक जीवन में भी स्थापित करती है।
  5. व्यावहारिक कुशलता में वृद्धि- इसमें छात्र और शिक्षक दोनों क्रियाशील रहते हैं, अतः व्यावहारिक कुशलता में वृद्धि होती है।
  6. विज्ञान के प्रति आस्था (Faith (to Science) – विज्ञान चिन्तनपूर्ण वातावरण बनाता है और निष्कर्ष भी अच्छे निकलते हैं इस प्रकार विज्ञान एक प्रति आस्था का भाव बनता है।
  7. श्रम की महत्ता का आभास (Imagination of Importance of Labour)-

इस विधि में छात्र मानसिक एवं शारीरिक परिश्रम करते हैं। वे स्वयं हाथ से कार्य करते हैं। अतः श्रम का महत्त्व समझते हैं।

प्रायोजना विधि के दोष (Demerits of Project Method)-

(1) इस विधि का प्रयोग कर पाठ्यक्रम पूरे समय पूरा नहीं किया जा सकता।

(2) इस विधि में अधिक व्यय करना पड़ता है। विभिन्न प्रकार की यन्त्र सामग्री की आवश्यकता होती है, अतः छोटे विद्यालय में यह विधि आयोजित नहीं की जा सकती, क्योंकि यह महँगी पड़ती है।

(3) योजना के क्रियान्वयन हेतु समृद्ध पुस्तकालय नहीं मिल पाता तथा स्तरीय सन्दर्भ पुस्तकें भी नहीं मिल पातीं।

(4) विद्यालय में प्रायोजित प्रशिक्षित अध्यापकों का अभाव रहता है और छात्रों की अधिक संख्या होने के कारण उन पर व्यक्तिगत ध्यान देना असम्भव है।

(5) ज्ञान के स्थायित्व के लिये अजित ज्ञान का अभ्यास आवश्यक है, परन्तु इस विधि में इसका अवसर नहीं मिलता।

(6) इसमें जाँच एवं परीक्षा का कोई स्थान नहीं है।

(7) अध्यापक को छात्रों का मनोवैज्ञानिक रूप से अध्ययन करना पड़ता है, उनकी योग्यताओं, आवश्यकताओं, रुचियों एवं क्षमताओं आदि से परिचित होना पड़ता है।

इस विधि में विशेषताएँ भी हैं और दोष भी, परन्तु एक सुयोग्य अध्यापक के मार्ग-दर्शन से दोष कम किये जा सकते हैं और प्रायोजना विधि सफलतापूर्वक आयोजित करायी जा सकती है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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