वितरण के क्षेत्र में एल्फ्रेड मार्शल की देन | मार्शल के मूल्य एवं वितरण सम्बन्धी विचारों की समीक्षा
वितरण के क्षेत्र में एल्फ्रेड मार्शल की देन | मार्शल के मूल्य एवं वितरण सम्बन्धी विचारों की समीक्षा
वितरण के क्षेत्र में एल्फ्रेड मार्शल की देन
(Marshall’s Contribution in Sphere of Distribution)
मार्शल की पुस्तक Principles of Economics के छठे खण्ड में राष्ट्रीय आय के वितरण का विवेचन किया गया है। यह खण्ड अन्य खण्डों से अधिक लम्बा है। मार्शल के विचारानुसार वितरण की समस्या उससे कहीं अधिक कठिन है जितनी कि प्रारम्भिक अर्थशास्त्री समझते थे और इस समस्या का कोई सरल समाधान सम्भव नहीं है, क्योंकि “स्वतन्त्र मानव उन्हीं सिद्धान्तों के अनुसार काम नहीं करते, जिन पर कि एक मशीन, एक घोड़ा या एक दास करता है।”
मार्शल के वितरण सम्बन्धी विचार अपने पूर्वाधिकारियों के विचारों की तुलना में दो कारणों से अधिक यथार्थ और श्रेष्ठ हैं-
प्रथमतः, मार्शल वितरण की समस्या को मानवीय समस्या मानते हैं। जे० एस० मिल ने मानवीय तत्त्व पर बल दिया था किन्तु वह मजदूरी सिद्धान्त को अपने पूर्वाधिकारियों की तुलना में आगे नहीं बढ़ा सके थे।
दूसरे, मार्शल के मतानुसार, वितरण के सिद्धान्त और मूल्य के सिद्धान्त में कोई अन्तर नहीं है, किन्तु रिकार्डो और मिल आदि के मतानुसार वितरण की समस्या मूल्य की समस्या से सर्वथा भिन्न थी। ये लोग वितरण के सिद्धान्त को मूल्य के सिद्धान्त से भिन्न समझते थे। किन्तु मार्शल की राय दूसरी थी। उनके अनुसार वितरण की समस्या मूल्य-निर्धारण की प्रक्रिया (pricing process) का ही एक अंग है।
अपने विश्लेषण में मार्शल ने वस्तुओं के संघटक अंगों और उत्पत्ति साधनों के बीच सम्बन्धों की एक श्रृंखला स्थापित की है। मूल्य सिद्धान्त का विवेचन करते हुए उन्होंने बताया था कि सामान्य मूल्य लागतों से मिलकर बनता है और ये लागतें उत्पत्ति साधनों के पूर्ति-मूल्य होती हैं। ये पूर्ति-मूल्य ही उत्पादन में उनके (उत्पत्ति साधनों के) हिस्से को निर्धारण करते हैं। माँग और पूर्ति के बीच साम्य के विचार को मार्शल अपने वितरण सिद्धान्त में लागू करते हैं। उपभोग-वस्तुओं और उत्पत्ति-साधनों दोनों ही के मूल्य-निर्धारण में वह सीमान्त विश्लेषण को प्रयोग में लाते हैं। सभी मूल्य प्रतिस्थापन की क्रिया (process of substitution) के द्वारा वस्तुओं और सेवाओं के प्रयोग के सीमान्त पर एक-दूसरे के साथ सम्बन्धित होते हैं। समय घटक की सहायता से मार्शल मूल्य को निर्धारित करने वाली साधन-आयों (factor incomes) और मूल्य से निर्धारित होने वाली साधन-आयों के मध्य एक अन्तर रेखा खींच देते हैं। भूमि के लगान की दशा को छोड़कर सब दशाओं में उक्त अन्तर निरपेक्ष नहीं होता। अल्पकाल में अनेक साधनों की आयें लगान-सदृश्य होती हैं उन्हें वे ‘आभास लगान’ (Quasi-Rent) कहते हैं।
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राष्ट्रीय आय की परिभाषा-
वितरण सिद्धान्त की समीक्षा करने से पहले यह उचित होगा कि हम मार्शल द्वारा दी गई राष्ट्रीय आय की परिभाषा को समझ लें। मार्शल के अनुसार, “किसी देश का श्रम और पूँजी वहाँ के प्राकृतिक साधनों के सहयोग से भौतिक और अभौतिक वस्तुओं और सेवाओं का एक शुद्ध योग उत्पन्न करते हैं। ‘शुद्ध’ शब्द का प्रयोग कच्चे और अर्द्ध- निर्मित माल की लागत तथा उत्पादन-संयन्त्र की घिसाई व टूट-फूट के लिए आयोजन को सूचित करने हेतु किया गया है। ऐसे सब आयोजन या व्यय को कुल उपज में घटा देने से शुद्ध या सच्ची आय मालूम हो जाती है। हाँ, विदेशी विनियोगों से प्राप्त शुद्ध आय को जोड़ दिया जाना चाहिए। यही देश की वास्तविक शुद्ध वार्षिक आय’ का ‘राष्ट्रीय लाभांश’ है।”
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उत्पत्ति के साधन-
सम्भवतः अंग्रेज संस्थापित अर्थशास्त्र के प्रभाव के कारण वे उत्पत्ति के केवल तीन स्पष्ट साधन होना मानते हैं-भूमि, श्रम और पूँजी। संगठन के महत्त्व को वे न समझे हो, ऐसी बात नहीं है। उन्होंने साहसी को अपने अंग्रेज पूर्वाधिकारियों की अपेक्षा कहीं अधिक स्पष्ट तथा महत्त्वपूर्ण भूमिका (role) प्रदान की। वे उसे एक ऐसा महान् साधन समझते हैं, जो श्रम, भूमि और पूँजी के प्रयोग में प्रतिस्थापन का नियम लागू करता है, फिर भी यह सत्य है कि मार्शल ने साहस को या तो श्रम की एक विशिष्ट दशा (प्रबन्ध) अथवा अर्द्ध लगान पाने वाला भिन्नात्मक लाभ माना है।
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उत्पत्ति-साधनों के हिस्सों का निर्धारण-
उत्पत्ति-साधनों को अपने पुरस्कार राष्ट्रीय आय में से प्राप्त होते हैं। राष्ट्रीय आय जितनी अधिक होगी प्रत्येक उत्पनि-साधन का हिस्सा उतना ही अधिक होगा। राष्ट्रीय आय में से भूमिपति को लगान, श्रमिकों को वेतन और पूंजीपति को विनियोगों पर ब्याज दिया जाता है। इस प्रकार का विभाजन ही वितरण कहलाता है। वितरण की समस्या उन नियमों या सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने से सम्बन्धित है। जिनके अनुसार राष्ट्रीय आय का वितरण उत्पत्ति साधनों के मध्य किया जाना चाहिए। मार्शल ने बताया कि वितरण का कोई सरल नियम प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है। उनके मतानुसार, प्रत्येक उत्पत्ति साधन माँग और पूर्ति की शक्तियों से शासित होता है। उस (साधन) का प्रयोग उत्पादन में लाभदायकता की सीमा तक होता है अर्थात् उस बिन्दु तक प्रयोग किया जाता है जहाँ पर उसकी सीमान्त उत्पादकता और उसकी सीमान्त लागत बराबर हो जायें। सीमान्त उत्पादकता तो उस साधन के मांग-मूल्य को निर्धारित करती हैं किन्तु सीमान्त लागत उसके पूर्ति मूल्य को। दीर्घकाल में भूमि को छोड़कर अन्य सब साधनों की पूर्ति उनकी उत्पादन लागत से निर्धारित होती है। इसीलिए हैने का कहना है कि, “मार्शल के वितरण सिद्धान्त पर उत्पादन लागत का प्रभुत्व है। प्रत्येक साधन के लिए मार्शल द्वारा दिये गये सिद्धान्त संक्षेप में निम्न प्रकार हैं-
(अ) लगान का निर्धारण- मार्शल का लगान सिद्धान्त मुख्यत: रिकार्डो के अधिशेष सिद्धान्त (Surplus Theory) के समान है, किन्तु उसका झुकाव मिल के वैकल्पिक प्रयोग के विचार की ओर है। वह लगान की धारणा को विस्तृत कर देते हैं और बताते हैं कि अधिशेष किसी भी साधन को प्राप्त हो सकता है। उन्होंने एक नये शब्द ‘आभास लगान’ (quasi-rent) का प्रचलन किया। इस शब्द का प्रयोग वह भूमि को छोड़कर अन्य सभी साधनों द्वारा प्रदत्त अधिशेष के लिए करते हैं। जब भी किसी साधन विशेष की पूर्ति स्थिर हो जाती है, तब ही उस साधन को, चाहे वह श्रम हो या पूँजी बेशी (Surplus) प्राप्त होने लगती है। यह बेशी भूमि को प्राप्त अधिशेष (लगान) के समान है। भेद के लिए उन्होंने इसे ‘आभास लगान’ कहा है। इस भेद का आधार समय-तत्त्व है जबकि भूमि की पूर्ति अल्पकाल और दीर्घकाल दोनों में ही स्थिर है, तब अन्य सब साधनों की पूर्ति अल्पकाल में तो स्थिर रह सकती है किन्तु दीर्घकाल में नहीं। अतः अन्य साधनों को अल्पकाल में अधिक आय प्राप्त होने लगती है। (किन्तु दीर्घकाल में नहीं) उदाहरणार्थ, अल्पकाल में जब वस्तुओं की माँग बाजार में बढ़ जाती है, तब मिलों में मशीनों को पूर्ति तत्काल ही माँग के अनुसार नहीं बढ़ पाती। ऐसी दशा में दुर्बलता के कारण पुरानी विनियोजित पूँजी पर प्रचलित ‘बाजार ब्याज दर’ से अधिक आय प्राप्त होने लगती है। इस दशा में मिल में लगी हुई पूँजी पर प्राप्त आय की दर और बाजार में प्रचलित ब्याज की दर इन दोनों के पनात्मक अन्तर (positive difference) को विनियोजित पूँजी पर प्राप्त होने वाला अधिशेष कहा जा सकता है। मार्शल के अनुसार यह आय अधिशेषगत् है और इसे ही उहोंने ‘आभास लगान’ कहा है। आभास लगान मार्शल का एक मौलिक विचार है।
(ब) मजदूरी का निर्धारण- मार्शल ने मजदूरी के निर्धारण के लिए विभिन्न सिद्धान्तों पर विचार किया है। मार्शल के मूल्य सम्बन्धी विचारों को हैने (Haney) ने निम्न प्रकार से प्रस्तुत
(i) सामान्य मजदूरी (normal wage) इतनी पर्याप्त होती है कि श्रमिक रोजगार की ‘सामान्य’ दशाओं के अन्तर्गत अपने सामान्य परिवार का ‘सामान्य जीवन स्तर के अनुरूप भरण पोषण कर सकता है। इसमें जीवन स्तर सिद्धान्त’ का सुझाव मिलता है।
(ii) मजदूरी में श्रम की सीमान्त उपज के बराबर रहने की प्रवृत्ति होती है किन्तु मजदूरी का निर्धारण श्रम की सीमान्त उपज के द्वारा नहीं होता, क्योंकि यह उपज तो श्रम के सीमान्त उपयोग की अनुषांगिक (incidental) है, जो स्वयं माँग और पूर्ति से शासित होता है। केवल अल्पकालों के लिये, मजदूरियाँ उत्पादित वस्तुओं के मूल्यों का अनुगमन करती हैं।
(iii) माँग और पूर्ति मजदूरी पर समुचित प्रभाव डालती हैं।
(iv) मार्शल का विचार सामान्य या दीर्घकालीन प्रवृत्तियों पर आधारित है।
मार्शल के अनुसार, सतत् प्रवृत्ति यह है कि “श्रम सहित प्रत्येक उत्पत्ति साधन अपने प्रयत्रों और बलिदानों के लिए पर्याप्त पुरस्कार प्राप्त कर लेता है।”
स्पष्ट है कि मार्शल ने मजदूरी के निर्धारण के लिए विभिन्न सिद्धान्तों और उनके विभिन्न पहलुओं पर विचार किया है। वह वस्तुओं के मूल्य निर्धारण के अपने पूर्व स्थापित माँग-पूर्ति सिद्धान्त को ही उत्पत्ति-साधनों का भी मूल निर्धारित करने हेतु प्रयोग करते हैं। उनका कहना है कि एक श्रमिक को अपना जीवन स्तर बनाये रखने के लिए जितने द्रव्य की आवश्यकता है उससे कम मजदूरी लेने को वह कदापि न होगा। यह राशि मजदूरी की न्यूनतम सीमा (lower limit) है। इसके विपरीत, उत्पादक श्रमिक को उसकी सीमान्त उत्पत्ति से अधिक मजदूरी कदापि न देगा क्योंकि ऐसा करने से उसे हानि होने लगेगी। अत: सीमान्त उपज मजदूरी को उच्चतम सीमा (upper limit) है। इन दोनों न्यूनतम एवं उच्चतम सीमाओं के बीच जिस बिन्दु पर श्रमिकों की माँग उनकी पूर्ति के समान हो जाये वहीं पर मजदूरी तय हो जाती है।
मार्शल के अनुसार, मजदूरी का निर्धारण माँग व पूर्ति दोनों के अनुसार ही होता है। मार्शल के शब्दों में, “इस प्रकार पुनः हम देखते हैं कि माँग और पूर्ति का मजदूरी पर समन्वयकारी प्रभाव पड़ता है, किसी को भी उससे अधिक प्रमुखता प्राप्त नहीं होती जो कि कैंची में इसके किसी भी फलक को या गुलम्बर के किसी भी स्तम्भ को प्राप्त है। मजदूरी श्रम की शुद्ध उपज के बराबर होने की प्रवृत्ति रखती है, उसको सीमान्त उत्पादकता उसके माँग मूल्य को शासित करती है तथा दूसरी ओर मजदूरी कुशल श्रग शक्ति के पालन-पोषण और प्रशिक्षण के व्ययों से एक घनिष्ठ यद्यपि अप्रत्यक्ष और जटिल सम्बन्ध बनाये रखती है।”
इस प्रकार, मार्शल ने मजदूरी के सम्बन्ध में दो विरोधी विचारों के एकीकरण का प्रयत्न किया। संस्थापित विद्वानों ने मजदूरी के निर्धारण के लिये ‘मजदूरी का लोह नियम’ (Iron Law of Wages) प्रतिपादित किया था जबकि इनके आलोचकों ने श्रम को विशेष स्थान दिया। किन्तु मार्शल ने दोनों विचारों में उत्तम समन्वय स्थापित कर दिया है।
उल्लेखनीय है कि मार्शल ने ‘कुशलता’ पर बहुत बल दिया है क्योंकि इसका उपज की मात्रा और गुण दोनों पर प्रभाव पड़ता है। यही बातें सम्पूर्ण उत्पादन की कुशलता के बारे में हैं। मार्शल की विचारधारा के अनुसार यदि उत्पादन कुशलता कई व्यवसायों में बढ़ जाये, तो लाभांश बड़ा हो जायेगा और उन व्यवसायों द्वारा उत्पन्न वस्तुयें अन्य व्यवसायों द्वारा उत्पन्न वस्तुओं के लिए अधिक माँग प्रस्तुत करने लगेंगी। इस सबका परिणाम यह होगा कि प्रत्येक व्यक्ति को आय या क्रय शक्ति में वृद्धि हो जायेगी।
(स) ब्याज का निर्धारण- अर्थशास्त्र में यह पुरानी समस्या रही है कि व्याज किस त्याग का पुरस्कार है। मार्शल के विचार में ब्याज वह भुगतान है, जो प्राणों द्वारा दूव्य का उपयोग करने के परिणामस्वरूप इसके स्वामी को प्राप्त होता है। साधारणत: द्रव्य को, कच्चे मात और टिकाऊ उत्पादन यंत्रों का क्रय करने के उद्देश्य से, उधार लिया जाता है। अत: ब्याज को परिभाषा यह भी हो सकती है कि ब्याज वह आय है जो द्रव्य के विनियोग द्वारा प्राप्त होती है।
मार्शल ने कुल और शुद्ध ब्याज में भेद करते हुए लिखा है कि जो कीमत ऋणदाता को भुगतान के रूप में देता है वह ‘कुल ब्याज’ (Gross Interest) कहलाती है। यह सदा शुद्ध ब्याज से अधिक होता है। शुद्ध ब्याज’ (Net Interest) पूँजो की उत्पादकता पर आधारित है। ऋणदाता शुद्ध ब्याज में ऋण सम्बन्धी अन्य असुविधाओं, और जोखिम इत्यादि को लागत को भी जोड़ता है, जैसे-हिसाब-किताब का व्यय, अदालतो कार्यवाही के व्यय, द्रव्य को क्रय शक्ति में ऋण अवधि में प्रतिकूल परिवर्तन से उत्पन्न हानि। इन सबको इष्टिगत रखते हुए ऋणदाता को जो कुल ब्याज ऋण पर प्राप्त होगा वह शुद्ध ब्याज से अधिक होगा।
परन्तु शुद्ध ब्याज का निर्धारण कैसे होगा? इस सम्बन्ध में प्राचीन लेखकों के विचार अलग- अलग थे। सीनियर ने ब्याज का त्याग सिद्धान्त (Abtinance theory) प्रस्तुत किया था, जिसके अनुसार बचत, जो कि पूँजी संचय के लिए आवश्यक है, उपभोग का त्याग करके ही सम्भव हो सकती है और उपभोग का त्याग करने में कष्ट सहना पड़ता है। व्याज इसी त्याग का फल था। किन्तु इस सिद्धान्त की कटु आलोचना हुई क्योंकि वास्तविक जगत में देखा जाता है कि धनी व्यक्ति बचत करने में कोई त्याग नहीं करते, फिर भी अधिकतर ब्याज समाज में धनी वर्ग को ही मिलता है।
मार्शल ने इस विचारधारा में समुचित सुधार किया। उन्होंने ब्याज के प्रतीक्षा सिद्धान्त (Waiting Theory of Interest) का प्रतिपादन किया। इस सिद्धान्त के अनुसार, मनुष्य वर्तमान को भविष्य की अपेक्षा अधिक महत्त्व देता है। ऋण देने में ऋणदाता को प्रतीक्षा करनी पड़ती है जो स्वयं में असुविधाजनक है। यदि कोई प्रलोभन न हो तो, कोई भी व्यक्ति प्रतीक्षा करना पसन्द नहीं करेगा। ब्याज इसी प्रतीक्षा का पुरस्कार है।
जहाँ तक ब्याज की दर का प्रश्न है वह भी मांग व पूर्ति के सिद्धान्त के द्वारा हो निधारित होती है। पूँजी की मांग उत्पादक वर्ग करता है और उसकी पूर्ति पूँजीपतियों को ओर से होती है। पूँजी की माँग इसलिए की जाती है क्योंकि इसमें उत्पादन शक्ति होती है। किन्तु उत्पादक पूंजीपति को अधिक-से-अधिक ब्याज उतना दे सकता है जितना कि उसकी पूँजो का सोमान्न उत्पादन है। इससे अधिक ब्याज देने को वह कदापि तैयार न होगा। यह ब्याज को उच्चतम सीमा है। दूसरी ओर, पूँजीपति स्वयं पूँजी का प्रयोग न करके उत्पादक को देता है अर्थात् अपने प्रयोग का त्याग करता है। अतः जब तक पूंजी देकर उसे कम-से-कम इतने पुरस्कार को प्राप्ति नहीं होगी कि उसके त्याग की क्षतिपूर्ति हो सके वह ऋण नहीं देगा। इस प्रकार, उसका सीमान्त त्याग ब्याज की न्यूनतम सीमा है। इन दोनों सीमाओं के बीच में जिस बिन्दु पर पूँजी को कुल माँग और पूँजी की कुल पूर्ति बराबर हो जाये वहीं ब्याज की दर निर्धारित हो जायेगी।
मार्शल ने बताया कि दीर्घकाल में चूँकि पूँजीगत माल (capital goexis) को मात्रा बदली नहीं जा सकती, इसलिए मांग का प्रभाव अधिक पड़ता है। यदि मांग बड़ जाय, तो ब्याज दर बढ़ जायेगी। किन्तु दीर्घकाल में, पूँजीगत माल की मात्रा बदली जा सकती है, इसलिए ब्याज दर के निर्धारण में पूर्ति का प्रभाव अधिक होता है। समय बढ़ने पर पूर्ति को बढ़ाने का मौका मिल जाता है, जिस कारण ब्याज दर पुनः सामान्य स्तर पर लौट आवेगी। मार्शल के शब्दों में, “अत: यदि पूँजी के लिए मांग में व्यापक रूप से वृद्धि (general increase) हो जाय, तो समायोजन पूर्ति में
वृद्धि के बजाय व्याज की दर में वृद्धि के द्वारा किया जायेगा। ब्याज की दर बढ़ने पर पूँजी उन प्रयोगों ने अपने को अशत हटा लेगी जिनमें उसकी सीमान्त उपयोगिता निम्नतम है। ब्याज दर में होने वाली वृद्धि पूंजी के कुल स्टाक को केवल धीरे-धीरे ही बढ़ायेगी। अल्प अवधियों में पूँजी की मांग सदा ऊँची रहने के कारण व्याज दर अपेक्षाकृत ऊँची रहती है और आभास लगान के स्वभाव की होगी। किन्तु दीर्धकाल से माँग व पूर्ति की शक्तियों को पारस्परिक प्रतिक्रिया के कारण ब्याज दर बचत और प्रतीक्षा के व्ययों के बराबर रहती है।
(द) लाभ का निर्धारण- मार्शल ने लाभ के विषय में अपना कोई मौलिक विचार प्रस्तुत नहीं किया परन् चे संस्थापित विद्वानों के विचारों को केवल दोहरा देते हैं। वे साहसी और पूँजीपति में भेद नहीं करते और लाभ को ‘प्रबन्ध का पुरस्कार’ (remuneration of management) कहते है। मार्शल के अनुसार, “प्रबन्ध सम्बन्धी सभी वेतन चाहे वे कार्य निदेशक को प्राप्त हो या संचालक को अधवा उधमकर्ता को, लाभ की परिभाषा में सम्मिलित करना चाहिए।”
मार्शल ने लाभ निर्धारण के जोखिम सिद्धान्त (Risk theory) को स्वीकार कर दिया और बताया कि लाभ का निर्धारण माँग व पूर्ति के संतुलन द्वारा समझाया जा सकता है। अन्य शब्दों में, व्यवसायिक योग्यता की माँग और पूर्ति लाभ को निर्धारित करती है।
अल्पकालीन लाभ को वह अधिशेषवत (आभास लगान) मानते हैं किन्तु दीर्घकालीन लाभ उसकी राय में उद्यमियों की प्रेरणा देने हेतु आवश्यक है। हैने का कहना है कि, “मार्शल ने लाभ की जोखिम को पुरस्कार नहीं माना किन्तु लाभ को मजदूरी का दर्जा देना उचित नहीं है। कभी- कभी बिना प्रयास के लाभ मिलता है किन्तु श्रम में ऐसा नहीं होता। अत: लाभ और मजदूरी में मौलिक अन्तर होना चाहिए।” इस प्रकार स्पष्ट है कि मार्शल के साहसी एवं लाभ सम्बन्धी विचार बहुत अस्पष्ट और त्रुटिपूर्ण हैं।
मार्शल के मूल्य एवं वितरण सम्बन्धी विचारों की समीक्षा
(Evolution of Marshallian Thought Regarding Value & Distribution)
मार्शल के मूल्य एवं वितरण सम्बन्धी विचार निर्दोषपूर्ण नहीं हैं। इनमें निम्न दोष प्रकट होते हैं-
- उनके विचारों में वैज्ञानिकता की उपेक्षा के चिह्न दिखायी देते हैं।
- उन्होंने सीमान्त उपयोगिता सिद्धान्त की लागत सिद्धान्त का जिस तरह समन्वय किया वह दोषपूर्ण है।
- उनका विवेचन प्रायः स्थैतिक है।
- उन्होंने समयावधियों का जो वर्गीकरण दिया है वह ठीक नहीं है।
- उन्होंने अपूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य-निर्धारण की विवेचना नहीं की है।
- उन्होंने स्वयं को आर्थिक अणुभाव तक ही सीमित रखा है।
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