प्राथमिक शिक्षा की सार्वभौमिकता | सुविधाओं का सर्वव्यापीकरण | नामांकन का सर्वव्यापीकरण | स्थायित्व का सर्वव्यापीकरण | प्राथमिक शिक्षा के मार्ग में आने वाली बाधायें

प्राथमिक शिक्षा की सार्वभौमिकता | सुविधाओं का सर्वव्यापीकरण | नामांकन का सर्वव्यापीकरण | स्थायित्व का सर्वव्यापीकरण | प्राथमिक शिक्षा के मार्ग में आने वाली बाधायें

प्राथमिक शिक्षा की सार्वभौमिकता

(Universalisation of Primary Education)

प्राथमिक शिक्षा की सार्वभौमिकता से तात्पर्य सार्वभौमिकता के सभी तत्वों से है। ये सभी तत्व  अग्रलिखित हैं-

सुविधाओं का सर्वव्यापीकरण

(Universalisation of Facilities)

प्राथमिक शिक्षा सुविधाओं को सर्वव्यापी बनाने से अभिप्राय सभी बालकों के लिए उनके घर के समीप प्राथमिक स्कूल के होने से है, जिससे सभी बालक सुगमतापूर्वक स्कूल जा सकें। प्राथमिक शिक्षा सुविधाओं को सर्वव्यापी बनाने के लिये प्रत्येक गाँव, चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो, में प्राथमिक स्कूलों की स्थापना करनी होगी। इसके साथ ही प्राथमिक स्कूल ऐसे स्थानों पर स्थापित किए जाने होंगे, जहाँ पहुँचने में छात्रों को कोई कठिनाई न हो। अन्य शब्दों में प्राथमिक विद्यालय यथासंभव बालकों के घर के समीप होने चाहिए। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये अनेक प्राथमिक स्कूलों की स्थापना की जा चुकी है और प्राथमिक शिक्षा सुविधाओं को सर्वव्यापी बनाने का कार्य काफी सीमा तक पूर्ण हो गया है।

नामांकन का सर्वव्यापीकरण

(Universalisation of Enrolment)

प्राथमिक स्कूलों में नामांकन को सर्वव्यापी बनाने से अभिप्राय वांछनीय आयु वर्ग (6 से 14 वर्ष तक) के सभी बालकों को प्राथमिक स्कूलों में प्रवेश दिलाने से हैं। प्राय: देखा जाता है कि अनेक बालक स्कूल में प्रवेश ही नहीं लेते हैं। अनुमानतः 11% बालक (लड़कों में 2% तथा लड़कियों में 20%) स्कूल में प्रवेश नहीं लेते हैं। इसलिए प्राथमिक शिक्षा सुविधा उपलब्ध कराने के उपरांत यह आवश्यक है कि समस्त बालक प्राथमिक स्कूलो में पढ़ने के लिए उनमें प्रवेश लें। विभिन्न राज्यों द्वारा इस विषय में बनाए गये अधिनियमों के उपरांत भी इस उद्देश्य की पूर्ण प्राप्ति संभव नहीं हुई है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह समस्या अत्यन्त व्यापक है।

स्थायित्व का सर्वव्यापीकरण

(Universalisation of Retention)

प्राथमिक स्कूलों में बालकों के स्थायित्व को सर्वव्यापी बनाने से अभिप्राय स्कूल में प्रवेश लेने के उपरांत प्राथमिक शिक्षा की समाप्ति तक बालक का स्कूल में बने रहने से है। प्राय: यह देखा जाता है कि बहुत से छात्र प्राथमिक शिक्षा को पूरा किये बना ही स्कूल छोड़ देते हैं। एक अनुमान के अनुसार लगभग 60% छात्र (लड़को में 55% व लड़कियों में 65%) कक्षा पाँच से पहले और 75% (लड़कों में 70% व लड़कियों में 80%) कक्षा आठ से पहले ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। कक्षा एक में प्रवेश लेने वाले प्रत्येक 100 छात्रों में से केवल 40 (लड़कों में 45% तथा लड़कियों में 35%), कक्षा पाँच में केवल 25 (लड़कों में 30% और लड़कियों में 20%) कक्षा आठ में पहुँच पाते हैं। शेष बालक पढाई बीच में ही छोड़ देते हैं। जब तक प्राथमिक शिक्षा के दौरान ही स्कूल छोड़ने वाले छात्रों की संख्या में कमी नही लाई जाती जब तक अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य पूरा नहीं होगा।

प्राथमिक शिक्षा के मार्ग में आने वाली बाधायें

 (Difficulties in the Way of Universalization of Primary Education)

प्राथमिक शिक्षा के मार्ग में आने वाली बाधायें निम्नलिखित हैं-

(1) निर्धनता (Poverty)- भारत में प्राइमरी स्तर की शिक्षा के विकास की सबसे प्रमुख ससमस्य लोगों की गरीबी है। अधिकांश लोग गरीबी की रेखा से नीचे अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। उनकी आय के साधन सीमित हैं। भारत अधिकतर गाँवों में बसा हुआ है तथा अधिकांश बच्चे माता-पिता की सहायता करने के लिये खेतों में जाने लगते हैं। शहरों में भी बच्चे अपने माता-पिता के कामों में अपना हाथ बँटाना शुरू कर देते हैं, जिससे वह विद्यालय में नहीं जा पाते हैं। इस प्रकार से शिक्षा के विस्तार का लक्ष्य पूरा नहीं हो पाता।

(2) अध्यापकों की कमी (Lack of Teachers)- सार्वभौमिक, अनिवार्य तथा निःशुल्क शिक्षा प्रदान करने के लिये अधिक संख्या में अध्यापकों की भी आवश्यकता है। हम अपने सीमित साधनों के कारण अध्यापकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था नहीं कर पाते। इसके साथ ही अध्यापकों के वेतनमान इतने कम है कि अधिक संख्या में लोग इस व्यवसाय की ओर आकर्षित नहीं होते। परिणामस्वरूप, अध्यापकों की कमी रह जाती है। एक अध्यापकीय स्कूलों की स्थापना करनी पड़ती है जिससे विद्यार्थियों की ओर अध्यापक अच्छी प्रकार से ध्यान नहीं दे पाता। अध्यापकों की कमी भी प्राथमिक शिक्षा के विस्तार में एक बाधा है।

(3) सुविधाओं की कमी (Lack of Facilities)- विद्यालयों में सुविधाओं की कमी होने के कारण भी हम प्राथमिक शिक्षा के अपने लक्ष्य को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। निर्धन बच्चों को स्कूल की ओर आकर्षित करने के लिये हम अधिक सुविधाओं नहीं दे पाते, जिससे आणि माता-पिता को शिक्षा महँगी लगती है और वह अपने बच्चों को स्कूल में नहीं भेजते है।

(4) माता-पिता का असहयोग (Non-Cooperation)-  माता-पिता का असहयोग भी प्राथमिक स्तर पर शिक्षा के विस्तार के मार्ग में एक बाधा का कार्य करता है। हमारे देश के अधिकांश माता-पिता अशिक्षित हैं और शिक्षा के महत्त्व को नहीं समझते। वे शिक्षा प्रसार को सफल बनाने के लिये अधिकारियों को सहयोग नहीं देते हैं तथा अपने स्वार्थ के लिये बच्चों को स्कूलों में भेजने से मना कर देते हैं।

(5) जनंसख्या में वृद्धि (Increase in Population)- जनंसख्या में वृद्धि भी शिक्षा के विस्तार के मार्ग में एक बाधा है। हमारे देश में सरकार द्वारा जनसंख्या वृद्धि को रोकने के इतने उपाय होने के बावजूद भी निरन्तर वृद्धि हो रही है। परिणामस्वरूप, शिक्षा के प्रसार के लिये उठाए गये सभी पग व्यर्थ हो जाते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में सरकार इतने साधन नहीं जुटा पाती, जितने की जनसंख्या वृद्धि के प्रभाव को. रोकने के लिये आवश्यक है। इस प्रकार स्कूल जाने वाले बच्चों की जनसंख्या में वृद्धि होती रहती है और सार्वभौमिकता का लक्ष्य एक मृग-तृष्णा बन कर रह जाता है।

(6) समुदाय की उदासीनता- भारत में विभिन्न समुदायों के लोग रहते हैं। कुछ ऐसे समुदाय हैं, जिनकी शिक्षा में कोई रुचि नहीं है। पिछड़ी जाति तथा कबीले के लोगों की शिक्षा में कोई भी दिलचस्पी नहीं है। अतः वह अपने बच्चों को विद्यालयों में नहीं भेजते हैं। इस प्रकार के कबीलों की संख्या बिहार, उड़ीसा, राजस्थान तथा मध्यप्रदेश में पाई जाती है।

(7) अनुपयुक्त पाठ्यक्रम- प्राथमिक स्तर पर पाठ्यक्रम के अनुपयुक्त होने के कारण सभी बच्चों को माता-पिता स्कूल में नहीं भेजते हैं। वर्तमान पाठ्यक्रम में बच्चों को व्यावहारिक ज्ञान देने की बजाए केवल सैद्धांतिक ज्ञान पर ही अधिक जोर दिया जाता है। परिणामस्वरूप, शिक्षा किसी भी प्रकार से जीवन के साथ संबंध स्थापित नहीं कर पाती। पाठ्यक्रम में विषयों की अधिकता होने के कारण भी बच्चों की शिक्षा के प्रति रूचि कम रहती है और वह कक्षाओं में नहीं जाते हैं। इस प्रकार सार्वभौमिकता के मार्ग में रुकावट आती है।

(8) मूल्यांकन कार्य- मूल्यांकन की प्रणाली भी प्राथमिक शिक्षा के विस्तार के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती है। प्राथमिक स्तर पर अधिकांश बच्चों ने अभी प्रारंभिक ज्ञान ही प्राप्त किया होता है, परन्तु उनके ज्ञान का मूल्यांकन इतने कठिन ढंग द्वारा किया जाता है कि बच्चों की शिक्षा के प्रति उपेक्षा बढ़ जाती है। मूल्यांकन की प्रणाली वास्तव में बच्चों में भय पैदा करती है और उनको स्कूल से विमुख करती है।

(9) सामाजिक कुरीतियाँ- सामाजिक कुरीतियों ने भी हमारी शिक्षा के विस्तार के मार्ग में बाधायें डाली हैं। हमारे देश में पर्दा प्रथा, बहु-विवाह, बाल विवाह आदि अनेक सामाजिक कुरीतियाँ हैं, जिनके कारण बच्चों को समय से पहले ही स्कूल से निकाल लिया जाता है। छोटी आयु में बच्चों की शादी होने के कारण उनके ऊपर गृहस्थी का बोझ पड़ जाता है और पढ़ाई से ध्यान हट जाता है।

(10) अनिवार्य शिक्षा सम्बन्धी कानून में त्रुटियाँ- अनिवार्य शिक्षा सम्बन्धी अनेक राज्यों में कानून बनाये गये हैं, परन्तु सभी के नियमों में कमियाँ रह गई हैं। किसी भी कानून की पालना के पीछे व्यवस्था सम्बंधी कई नियम नहीं बनाये गये हैं। परिणामस्वरूप, प्राथमिक शिक्षा का ठीक प्रकार से प्रसार नहीं हो पाता। अनिवार्य शिक्षा सम्बन्धी कानून के अंतर्गत इसकी अवहेलना करने वालों को कड़ी सजा देने की व्यवस्था नहीं की गई हैं।

उपरोक्त सभी समस्याओं को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि शिक्षा प्रणाली की स्थिति विशेष रूप से प्राथमिक स्तर पर अत्यंत शोचनीय है। यदि हमारी यह धारणा है कि प्राथमिक स्तर पर शिक्षा को सार्वभौमिक बनाया जाये तो हमे इन सभी त्रुटियों को दूर करने का प्रयास करना होगा।

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