रामचन्द्र शुक्ल की काव्य भाषा

रामचन्द्र शुक्ल की काव्य भाषा | काव्य भाषा के सम्बन्ध में ‘रामचन्द्र शुक्ल’ द्वारा प्रस्तुत स्थापना

रामचन्द्र शुक्ल की काव्य भाषा | काव्य भाषा के सम्बन्ध में ‘रामचन्द्र शुक्ल’ द्वारा प्रस्तुत स्थापना

रामचन्द्र शुक्ल की काव्य भाषा विषयक अवधारणा

चित्र रूप में कविता में कही गयी बात को हमारे समक्ष आना चाहिए। क्योंकि उसमें गोचर रूपों का विधान अधिक होता है। यह प्रायः ऐसे ही रूपों और व्यापारों को लेती है जो स्वाभाविक होते हैं। अगोचर बातों या भावनाओं को भी जहाँ तक हो सकता है, कविता स्थूल गोचर रूप में रखने का प्रयास करती है। इस मूर्ति के लिए वह भाषा की लक्षणा शक्ति से काम लेती है। जैसे-“समय बीतता जाता है” कहने की अपेक्षा समय भागा जाता है कहना वह अधिक पसन्द करेगी, किसी काम से हाथ खींचना, किसी का रुपया खा जाना, कोई बात पी जाना, दिल ढलना या डूबना, मन मारना, मन छूना, शोभा बरसाना उदासी टपकना इत्यादि ऐसी ही कवि-समय-सिद्ध उक्तियाँ हैं जो बोल-चाल में रूढ़ि होकर आ गई हैं। लक्षणा द्वारा स्पष्ट और सजीव आकार प्रदान कर विधान प्रायः सब देशों के कवि कर्म में पाया जाता है। भावना को मूर्त रूप में रखने की आवश्यकता के कारण कविता की भाषा में दूसरी विशेषता यह रहती है कि उसमें जाति संकेत वाले शब्दों की अपेक्षा विशेष रूप व्यापार सूचक शब्द अधिक रहते हैं। बहुत से शब्द ऐसे होते हैं जिनसे किसी का एक साथ चलता सा अर्थ ग्रहण हो जाता है। ऐसे शब्दों को हम जाति संकेत कह सकते हैं। ये मूर्त विधान के प्रयोजन के नहीं होते किसी ने कहा, “वहाँ बड़ा अत्याचार हो रहा है।” इस अत्याचार शब्द के अन्तर्गत मारना-पीटना, डॉटना-डपटना, लूटना पाटना इत्यादि बहुत से व्यापार हो सकते हैं अत: अत्याचार शब्द के सुनने में उन सब व्यापारों की एक मिली-जुली अस्पष्ट भावना थोड़ी देर के लिये मन में आ जाती है कुछ विशेष व्यापारों का स्पष्ट चित्र या रूप नहीं खड़ा होता। इससे ऐसे शब्द कविता के उतने काम के नहीं। ये तत्व निरूपण शास्त्रीय विचार आदि में अधिक उपयोगी होते हैं, भिन्न-भिन्न शास्त्रों में बहुत से शब्द तो विलक्षण हो अर्थ देते हैं और पारिभाषिक कहलाते हैं।

शास्त्र मीमांसक या तत्व निरूपण को किसी सामान्य या तत्व तक पहुंचने की जल्दी रहती है इससे वह किसी सामान्य धर्म के अन्तर्गत आने वाली बहुत सी बातों को एक मानकर अपना काम चलाता है, प्रत्येक का अलग-अलग दृश्य देखने में नहीं उलझता। पर कविता कुछ वस्तुओं और व्यापारों को मन के भीतर मूर्त रूप में लाना और प्रभाव उत्पन्न करने के लिए कुछ देर रखना चाहती है। अतः उक्त प्रकार के संकेतों से ही उसका काम नहीं चल सकता। इससे जहाँ उसे किसी स्थिति का वर्णन करना रहता है वहां उसके अन्तर्गत सबसे अधिक मर्मस्पर्शी कुछ विशेष वस्तुओं या व्यापारों को लेकर उनका चित्र खड़ा करने का आयोजन करती है। यदि कहीं के घोर अत्याचारों का वर्णन करना होगा तो वह कुछ निरपराध व्यक्तियों के वध, भीषण यन्त्रणा, स्त्री बच्चों पर निष्ठुर प्रहार आदि का क्षोभकारी दृश्य सामने रखेगी। “कहाँ घोर अत्याचार हो रहा है।” इस वाक्य द्वारा वह कोई प्रभाव उत्पन्न नहीं कर सकती। अत्याचार शब्द के अन्तर्गत न जाने कितने व्यापार आ सकते हैं अतः सुनकर या पढ़कर यय सम्भव है कि भावना में एक भी व्यापार स्पष्ट रूप से न आए या आए भी तो ऐसा जिसमें मर्म को क्षुब्ध करने की शक्ति न हो। इस प्रकार उपर्युक्त विचार से ही किसी व्यवहार या शास्त्र के पारिभाषिक शब्द भी काव्य में लाए जाने वाले योग्य नहीं माने जाते। हमारे यहाँ के आचार्यों ने पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग को ‘अप्रतीतत्व’ दोष माना है। पर दोष स्पष्ट होते हुए भी  चमत्कार के प्रेमी कब मान सकते हैं ? संस्कृत के अनेक कवियों ने वेदान्त, आयुर्वेद, न्याय के पारिभाषिक शब्दों को लेकर बड़े-बड़े चमत्कार खड़े किये। हिन्दी के किसी मुकदमेबाज कवित्त करने वाले ने “प्रेम फौजदारी” नाम की छोटी सी पुस्तक में श्रृंगाररस की बातें अदालती कार्यवाहियों पर घटाकर लिखी है ‘एकतरफा डिगरी’ ‘तनकीह’ ऐसे शब्द चारों ओर अपनी बहार दिखा रहे हैं, जिन्हें सुनकर कुछ अशिक्षित या पदी रूचि वाले वाह-वाह भी कर देते हैं। शास्त्र के भीतर निरूपित तथ्य को भी जब कोई कवि अपनी रचना के भीतर लेता है तब वह पारिभाषिक तथा अधिक व्यापितवाले जाति संकेत शब्दों को हटाकर इस तथ्य का व्यजित करने वाले कुछ विशेष मार्मिक रूपों और व्यापारों का चित्रण करता है। कवि गोबर व मूर्त रूपों के द्वारा ही  अमूर्त बात कहता है। कविता की भाषा में वर्ग विन्यास तीसरी विशेषता है “शुष्कों पृथस्विष्ठत्यन्ये और नीरसतररिह विलसति पुरतः” का भेद हमारी पण्डितमण्डली में बहुत दिनों से प्रसिद्ध चला आता है। काव्य एक बहुत ही व्यापक कला है। जिस प्रकार मूर्त विधान के लिये कविता चित्र-विधा को प्रणाली का अनुसरण करती है उसी प्रकार नाद सौष्ठव के लिये वह संगीत का कुछ सहारा लेती है। श्रुति-कटु मान कर कुछ वर्षों का त्याग पनि विधान, लय, अन्यानुप्रास आदि नाद सौन्दर्य साधन के लिये ही है। नाद सौष्ठव के निमित्त निरूपित वर्ष विशिष्टता का हिन्दी के हमारे कुछ पुराने कवि इतनी दूर तक घसीट ले गये कि उनकी  बहुत सी रचना बेडोल और भावशून्य हो गयी। उसमें अनुप्रास की लम्बी-वर्ण-विशेषण की निरन्तर आवृत्ति के सिवा और किसी बात पर ध्यान नहीं जाता। जो बात भाव या रस की धारा या मन के भीतर अधिक प्रसार करने के लिए भी वह अलग-चमत्कार या तमाशा खड़ा करने के लिए काम में लाई गयी।

नाद-सौन्दर्य से कविता की आयु बढ़ती है। वालपत्र, भोजपत्र, कागज आदि का आश्रय छूट जाने पर भी वह बहुत दिनों तक लोगों की जिह्वा पर नाचती रहती है। बहुत सी उक्तियों के लोग उनके अर्थ की रमणीयता इत्यादि की ओर ध्यान ले जाने का कष्ट उठाये बिना ही प्रसन्नचित रहने पर गुनगुनाया करते हैं। अतः नाद सौन्दर्य का योग भी कविता का पूर्ण स्वरूप खड़ा करने के लिये कुछ-न-कुछ आवश्यक होता है। इसे हम बिल्कुल हटा नहीं सकते। जो अन्त्यानुप्रास को फालतू समझते हैं वे  छन्द को पकड़े रहते हैं, जो छन्द को भी फालतू समझते हैं वे लय में हो लीन होने का प्रयास करते हैं। संस्कृत से सम्बन्ध रखने वाली भाषाओं में नाद सौन्दर्य का समावेश के लिए बहुत अवकाश रहता है। अतः अंग्रेजी आदि अन्य भाषाओं की देखा-देखी जिनमें इसके लिए कम जगह है, अपनी कविता को हम इस विशेषता से वंचित कर सकते हैं ?

हमारे काव्य भाषा में एक चौथी विशेषता भी है जो संस्कृत से हो आयी है। यह यह है कि कहीं-कहीं व्यक्तियों के नामों के स्थान पर रूपगुण या कार्यबोधक शब्दों का व्यवहार किया जाता है, ऊपर से देखने में तो पद्य के नपे हुए चरणों में शब्द खपाने के लिये ही ऐसा किया जाता है पर थोड़ा विचार करने पर इससे गुरुतर उद्देश्य प्रकट होता है। सच पूछिये तो यह बात बचाने के लिए की जाती है। मनुष्य को न यथार्थ में कृत्रिम संकेत है, जिनसे कविता की पूर्ण परिपोषकता नहीं होती अतएव कवि मनुष्य के नामों के स्थान पर कभी-कभी उसके ऐसे रूप गुण का व्यापार की ओर इशारा करता है जो स्वाभाविक और अर्थगर्भित होने के कारण सुनने वाले की भावनाओं के निर्माण में योग देते हैं। गिरिधर, मुरारि, त्रिपुरारि, दीनबन्धु, चक्रपाणि, मुरलीधर, शब्द साचो इत्यादि शब्द ऐसे ही हैं।

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