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भाषा का स्वरूप एवं उसकी प्रवृत्तियाँ | भाषा की विशेषताएँ

भाषा का स्वरूप एवं उसकी प्रवृत्तियाँ | भाषा की विशेषताएँ

भाषा का स्वरूप एवं उसकी प्रवृत्तियाँ

भाषा की प्रवृत्तियों को जानने से पूर्व उसके स्वरूप का ज्ञान अनिवार्य एवं उपयुक्त है। डॉ० कपिलदेव द्विवेदी की मान्यता है कि भाषा को कुछ विशेषताएँ और प्रवृत्तियों हैं, जो सामान्य रूप से विश्व की सभी भाषाओं में प्राप्त होती है। भाषा के इस स्वरूप का ही विवेचन और विश्लेषण भाषा-विज्ञान का प्रमुख उद्देश्य है। प्रत्येक भाषा के अपने व्याकरण है। उनके नियम उसी विशेष भाषा पर लागू होते हैं। परन्तु आगे वर्णित भाषा की विशेषताएँ सभी भाषाओं पर लागू होती हैं। डॉ॰ कपिलदेव द्विवेदी ने भाषा की अनेक प्रवृत्तियों की ओर संकेत इस प्रकार किया-

  1. भाषा सर्वोत्तम ज्योति है— भाषा ही मानव हृदय के अन्धकार को दूर करने के कारण सर्वोत्तम ज्योति कही जाती है। क्योंकि इसी ज्योति से मानवीय क्रिया व्यापार संचालित होते हैं। यदि भाषा न होती तो मानव की क्या दशा होतो, यह विचार करते भी भय लगता है। आचार्य भार्तृहरि ने स्वीकार किया है कि-भाषा ज्ञान को प्रकाशित करती है। उसके बिना सविकल्पक (नाम-रूपादि गुणयुक्त) ज्ञान संवन ही है।

वाग् रूपा चलिष्कामे हव बोधस्थ शाश्वती ।

न प्रकाश प्रकाशति माहि प्रत्यवमशिनी ॥

आचार्य दण्डी ने भी ‘काव्यादर्श’ में स्वीकार किया था कि यदि शब्द रूपी ज्योति संसार में न जलती तो संसार में चारों ओर अन्धेरा ही रहता।

  1. भाषा समाज को एक सूत्र में बाँधती है- भाषा हो वह समन्वय सूत्र है जो समाज को एक सूत्र में पिरोता है। एक भाषा-भाषी पारस्परिक एकात्मकता की अनुमति करते हैं। विश्वभाषा विश्व मानव को एक सूत्र में समन्वित कर देती है। ऋग्वेद में भाषा को राष्ट्री और संगमती कहा गया है जिसका अर्थ है-राष्ट्र-निर्मात्री और सम्बद्ध करने वाली। (अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम)।
  2. भाषा सर्वशक्ति सम्पन्न- भाषा विश्व की सबसे महान शक्ति सम्पन्न वस्तु है। भाषा में वह शक्ति है कि नवीन सृष्टि की रचना कर दे वह निष्माण समाज में चेतना फूंक देती है। ऋग्वेद में इसको वायु के तुल्य सर्वगामी शक्ति बताया है और इसे विश्व की रचना का श्रेय दिया गया है-

” अहमेव वात इन प्रवामि आरअभाण भुवनानि विश्रा।”

  1. भाषा-सर्वव्यापक है- मानव के प्रत्येक कार्य भाषा द्वारा संचालित है। व्यक्ति व्यक्ति, व्यक्ति समान था व्यक्ति रूप, सभी स्थितियों में मानव का आधार भाषा ही है। मानव का आन्तरिक और बाह्य कार्य, चिन्तन अभिव्यंजन, वैयक्तिक और सामाजिक कार्यों के लिए भाषा की ही सहायता ली जाती है। ज्ञान-विज्ञान, धर्म-दर्शन, आचार-विचार आदि का आधार भाषा है। आचार्य भर्तृहरि ने सभी लौकिक कार्यों का आधार भाषा को माना है-

“इति कर्तव्यता लीके सर्वा शवद व्यपाश्रया।”

  1. भाषा विराट् और विश्वकर्मा है- भाषा का स्वरूप इतना विशाल और अगाध है कि उसे ब्रह्म के तुल्य विराट रूप माना गया है। विश्व की सारी भाषाएँ उसमें समाहित मानी गयी हैं। शतपथ में कहा है-वाग्वे विराट। यजुर्वेद में बाक्य तत्व को विश्वकर्मा नाम दिया गया है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि- “वाणी के द्वारा विश्व के सभी कार्य किये जाते हैं। अतः वाणी को विश्वकर्मा कहते हैं।”
  2. भाषा का प्रवाह अविच्छिन्न है- जिस प्रकार मानव-सृष्टि का क्रम अविच्छिन्न रूप से चल रहा है। उसी प्रकार भाषा का प्रवाह भी अविच्छिन्न रूप से मानव के साथ-साथ चल रहा है। ताड़य महाब्राह्मण में भाषा की उपमा नदी की धारा से दो गयी है।

ता (वाक्) ऊध्वंदातनोद् यथाऽप्यां धारा संततैवतम् ।

  1. भाषा मानव की अदाय निधि है- भाषा मानव मात्र का अक्षय कोष है। यही मानवता की पूंजी है। मानव समाज का चिर-संचित कोष है, जिसको लेकर भावी पीढ़ी अपना काम चलाती है। मानव ने आज तक जो कुछ सोचा, समझा, देखा और अनुभव किया है, उसका ही संकलन भाषा के रूप में विद्यमान है। ऋग्वेद ने इसे अमृत की नाभि (केन्द्र) और देवी को जिह्वा कहा है-

जिह्वा देवनामृतस्य नाभिः

  1. भाषा सत्, असत् की बोध कहे- भाषा में यह विशेषता भी है कि वह मूर्त-अमूर्त, सत्-असत्, निर्वचनीय-अनिर्वचनीय, ज्ञात-अज्ञात सभी प्रकार के अर्थों को प्रकट कर सकती है। सूक्ष्म अनिर्वचनीय, आत्मा, परमात्मा, ज्ञान, कल्पना आदि का बोध भाषा के द्वारा ही होता है योगदर्शन के अनुसार-

शब्द ज्ञानानुपाती वस्तु शून्यो विकल्प।

  1. भाषा भाव-संप्रेषण का साधन है- यह तो सर्वमान्य तथ्य है कि भाषा के ही माध्यम से मनुष्य अपने भावों और विचारों को दूसरे तक पहुंचाता है। सूक्ष्मतम भावों, अमूर्त भावों, स्वरस्य को आरोह-अवरोह को सजीव भावनाओं को बोलकर या लिखित रूप में जितनी कुशलता से भाषा द्वारा व्यक्त किया जा सकता है, उतनो कुशलता से अभिव्यक्ति का और कोई माध्यम नहीं है। जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण में मनोभावों को प्रकट करने के कारण भाषा को कुल्या नहर (Channel) कहा गया है-

तस्य (मनस:) एषा कुल्या  यद्वाक्।

  1. भाषा स्वाभाविक आत्मोद्गार की प्रक्रिया है- भाषा के दो पक्ष हैं-सौखना, बोलना। भाषा शिक्षण भी दो प्रकार से होता है- (1) अनुकरण से (2) यत्नसाध्य मातृभाषा तो अनुकरण से हो सीखी जाती है, परन्तु अन्य भाषाएँ यत्नसाध्य होती है। अतः मातृभाषा सरलता से सोखी जा सकती है।
  2. 11. भाषा का कोई अन्तिम रूप नहीं होता- भाषा सतत् प्रवाहमान एवं गत्लर है, अतः इसका कोई एक अन्तिम स्वरूप नहीं हो सकता है। विश्व को समस्त वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं, उसी प्रकार भाषा भी परिवर्तनशील है। सतत् परिवर्तनशील वस्तु का अन्तिम स्वरूप नहीं होता।
  3. भाषा में सामाजिक स्तर भेद होता है- समाज का प्रत्येक व्यक्ति समान रूप से शिक्षित नहीं होता। अतः शिक्षित अशिक्षित, अर्थ शिक्षित को भाषा में अन्तर होता है। इससे भाषा में परिष्कृत, अपरिष्कृत दो रूप होते हैं जो लिखित और भाषित दोनों स्तर पर होते हैं।

भाषा की अन्य विशेषताएँ

इसके अतिरिक्त भी भाषा की कुछ अन्य विशेषताएँ हैं, जो इस प्रकार हैं-

  1. भाषा पैतृक सम्पत्ति नहीं- जिस प्रकार पिता-पितामह की सम्पत्ति बिना किसी प्रयास के पुत्र को उत्तराधिकार के रूप में स्वत प्राप्त होती है, उसी प्रकार की स्थिति भाषा के विषय में नहीं है। उदाहरणार्थ भारतीय वातक अल्पायु में विदेशों में ही पलता है तो वह वहाँ की भाषा को ही अपना लेगा और भारतीय भाषाओं से सर्वथा अपरिचित रहेगा। अतः भाषा यदि पैतृक सम्पत्ति होती तो बालक के जन्म लेते ही माता-पिता की भाषा पर उसका स्वतः अधिकार हो जाता, परन्तु ऐसा नहीं होता। प्रयोगों और अनुभवों से तो यह सिद्ध हुआ कि समाज के सम्पर्क में न आने वाला व्यक्ति भाषा प्रयोग से सर्वथा वंचित एवं नितान्त अपरिचित हो रहता है।
  2. भाषा अर्पित सम्पत्ति- मनुष्य जिस किसी भी समाज में रहता है, वह उस समाज में प्रचलित भाषा को सोखता है। एक प्रान्त अथवा देश से दूसरे प्रान्त अथवा देश में जाकर बसने वाले लोग विशेष प्रयास करने पर ही उस समाज की भाषा को समझने बोलने लगते हैं।
  3. भाषा सामाजिक सम्पदा- व्यक्ति विचार विनिमय के लिए साधन रूप भाषा का अर्जन समाज से ही करता है। आदि से अन्त तक भाषा पूर्णरूप से समाज से ही सम्बन्धित है। समाज में विकसित होने के कारण हो भाषा को सामाजिक संस्था माना गया है।
  4. भाषा परम्परा है- भाषा व्यक्ति विशेष द्वारा अर्जित न होकर समाज द्वारा परम्परा के रूप में ही अर्जित की जाती है। व्यक्ति अपने प्रभाव से किसी भाषा को महत्वपूर्ण बनाने में तो सहायक हो सकता है, वह भाषा में किसी प्रकार का परिवर्तन आदि भी कर सकता है परन्तु अपने व्यापक रूप में भाषा का अर्जन नहीं कर सकता।
  5. अनुकरण द्वारा अर्जन- समाज द्वारा परम्परा के रूप में अर्जित सम्पति रूप भाषा को व्यक्ति अनुकरण द्वारा हो सीखता है। अरस्तू ने अनुकरण को मनुष्य का सबसे बड़ा गुण माना है। भाषा के सीखने में व्यक्ति इसी गुण का उपयोग करता है। माँ जब बालक के सामने ‘दूध’ शब्द का उच्चारण करती है तो बालक सुनकर उसके उच्चारण का प्रयास करता है जिसे ‘तुतलान’ कहा जाता है। धीरे-धीरे शिशु के प्रयोग को सुधारा (शुद्ध किया जाता है।
  6. भाषा नित्य परिवर्तनशील- मनुष्य अनुकरणशील होने पर भी इस कला में पूर्ण एवं पारंगत नहीं। इसका कारण यह है कि भाषा के दोनों शारीरिक (भौतिक) और मानसिक आधार एक समान नहीं होते। परिस्थितियाँ भी सदैव एक रूप नहीं होतीं। अनुकरण इस भिन्नता के कारण भाषा में निरन्तर परिवर्तनशील होता रहता है। यह बात अलग है कि परिवर्तन पर्याप्त समय के उपरान्त ही स्पष्ट हो जाता है।
  7. भाषा का कोई स्वरूप अन्तिम नहीं- बन बनाकर पूर्ण होने वाली वस्तु का स्वरूप अन्तिम होता है परन्तु भाषा निरन्तर बनती रहती है। किसी भी भाषा के किसी भी समय के किसी रूप को अन्तिम नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः भाषा की स्थिति और पूर्णता का अर्थ उसके विकास का अवरोध अर्थात् मृत्यु है। भाषा की जीवन्तता का लक्षण ही उसका अस्थिर और परिवर्तनशील अर्थातअ होना है। इस प्रकार प्रत्येक जीवित भाषा के प्रचलित स्वरूप को कभी अन्तिम स्वीकार नहीं किया जाता।
  8. क्षेत्रीय अथवा भौगोलिक सीमा- प्रत्येक भाषा का एक अपना भू-भाग अथवा क्षेत्र होता है। जहाँ वह अपने विशुद्ध रूप में प्रयुक्त होती है। उस क्षेत्र की सीमा के बाहर जाते ही उस भाषा के स्वरूप में थोड़ा बहुत परिवर्तन आने लगता है। इस सीमा से अधिक दूर जाने पर एक अन्य भाषा का क्षेत्र प्रारम्भ हो जाता है।
  9. काल, सीमा अथवा ऐतिहासिक सीमा- क्षेत्र विशेष के समान प्रत्येक भाषा के प्रचलन का भी एक इतिहास अथवा काल विशेष होता है। समय विशेष में ही एक भाषा अपने चरमोत्कर्ष पर रहती है। यह स्थिति न तो सदा बनी रहती है और नहीं बनी रह सकती है। उदाहरणार्थ वैदिक, संस्कृत, पालि तथा प्राकृत आदि भाषाएं समय विशेष में ही प्रचलित रही है।
  10. निजी संरचना- प्रत्येक भाषा को स्वतन्त्रता सत्ता का कारण उसकी संरचना (ढांचा) की भिन्नता है। किन्हीं भी दो भाषाओं की संरचना एक रूप नहीं हो सकती। ऐसी होने पर भाषाएँ दो रह ही नहीं सकती। ध्वनि, शब्द, रूप, वाक्य अथवा अर्थ आदि में किसी न किसी स्तर पर प्रत्येक भाषा दूसरी भाषा से अलग होती है।
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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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